मूलनिवासी संघ की राष्ट्रीय प्रचारक निशा वामन मेश्राम ने अपने इस लघु नाटक में रमाबाई की नजर से डॉ. आंबेडकर के संघर्ष को देखने का प्रयास किया है। फारवर्ड प्रेस का पाठक समूह निशा जी से बामसेफ अध्यक्ष वामन मेश्राम की जीवनसंगिनी तथा एक कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में परिचित है। उनके इस लघु नाटक को दलित-बहुजन वैचारिकी के स्त्रीवादी पहलुओं का साहित्य में प्रस्फुटन के रूप में देखा जा सकता है – प्रबंध संपादक
रमाबाई आंबेडकर (7 फरवरी 1898 – 27 मई 1935) पर विशेष
रमाबाई और आंबेडकर की कुर्बानी
पहला दृश्य : जब बड़ौदा के महाराज ने बाबा साहब को वजीफा दिया और बाबा साहब विदेश जा कर पढ़ना चाहते थे तब उनके परिवार में पत्नी रमाबाई और पांच बच्चे थे। आर्थिक तंगहाली से जुझ रहे बाबा साहब के लिए वह मुश्किल का दौर था। उनके सामने बड़ी समस्या थी कि आखिर वे अपने परिजनों को इस हालत में छोड़कर कैसे जाएं। इसी दुविधा में उन्होंने रमाबाई से सहयोग मांगा।
बाबा साहब : रमा, बड़ौदा के महाराज ने मुझे वजीफा दिया है और मैं विदेश जा कर पढ़ना चाहता हूं। लेकिन जब मैं तुम्हारी तरफ मुड़कर देखता हूं तब तेरे पास 5 बच्चे हैं। आमदनी का कोई साधन नहीं है और मैं भी तुम्हें कोई पैसा देकर नहीं जा रहा हूं। क्या ऐसी परिस्थिति में तुम मुझे विदेश जाकर पढ़ने की अनुमति दोगी?
रमाबाई : बाबा साहब, यह बात सच है कि मेरे पास 5 बच्चे हैं और आमदनी का भी कोई साधन नहीं है। उपर से आप भी मुझे कोई पैसा देकर नहीं जा रहे हैं। लेकिन, मैं आपको भरोसा दिलाती हूं कि आप अपनी इच्छा को पूरी करके आयें। आप अपनी पढ़ाई को पूरी करके वापस लौटें। मैं इन बच्चों का और अपना पेट मैं खुद पाल लूंगी।
दूसरा दृश्य : माता रमाबाई मुंबई की गलियों से गोबर उठा कर लाती हैं। उसके बाद उपले बनाकर मुंबई की गलियों में उपले बेचती हैं उससे जो पैसा वह कमातीं, उसी से अपना और बच्चों का पेट पालती हैं। तब इस काम से इतना पैसा नहीं आता था कि वह अपने बच्चों की परवरिश कर पातीं। देखते ही देखते उनका बड़ा बेटा दामोदर बीमार हो गया। इलाज के पैसे नहीं थे। इस कारण इलाज नहीं करवाया और दामोदर इस दुनिया को छोड़ कर चला गया। यह बात माता रमाबाई ने बाबा साहब को नहीं बताई। इस बीच बाबा साहब का एक खत उन्हें प्राप्त होता है।
नानकचंद रत्तू (खत पढ़ते हुए) : बाबा साहब कहते हैं कि रमा मैं यहां अगर एक वक्त का खाना खाता हूं तब भी मेरा काम नहीं चल पा रहा है। मैं अपना जीवन बड़ी मुश्किल में व्यतीत कर रहा हूं। में अपना सुबह का नाश्ता दोपहर में करता हूं और शाम को मैं पानी पीकर अपना काम चला रहा हूं। मैं जानता हूं कि तुम्हारे सामने भी बहुत विकल परिस्थितियां हैं। तुम्हारे पास पांच बच्चे हैं और आमदनी का भी कोई साधन नहीं है। फिर भी अगर हो सके तो कुछ पैसा भिजवा देना।
तीसरा दृश्य : इधर माता रमाबाई ने बड़ी मुश्किल से कुछ पैसा इकट्ठा किया था लेकिन उनकी बेटी इंदु बीमार हो जाती है अब माता रमाबाई के सामने एक बहुत बड़ा सवाल था कि वे उस पैसे से अपनी बेटी का इलाज कराएं या अपने पति को दिए गए वचन को निभाएं। फिर सोचने-विचारने के बाद उन्होंने वह पैसा बाबा साहब को भेज दिया और इधर उनकी बेटी इंदू ने भी इलाज नहीं होने के कारण दम तोड़ दिया। यह बात भी माता रमाबाई ने बाबा साहब को नहीं बताई और बाबा साहब पढ़ते रहे। कुछ समय के बाद बाबा साहब अपनी पढ़ाई छोड़कर बड़ौदा के महाराज की रियासत में नौकरी करने के लिए आते हैं तो रमाबाई खुश होती हैं।
रमाबाई : अब तो मेरा पति डॉक्टर बन के आ रहा है। अब मेरा पति नौकरी करेगा। तनख्वाह कमा कर लाएगा। अब तो अपने बच्चों को मैं भरपेट खाना खिलाऊंगी। अब तो मेरे दिन बदल जाएंगे।
चौथा दृश्य : बाबा साहब दफ्तर में प्रवेश करते हैं। चपरासी टाट को खींच लेता है और पानी के घड़े को उठाकर अलग रख देता है।
बाबा साहब : चपरासी, जरा मुझे फाइल तो लाकर देना।
(चपरासी फाइल को भी डंडे से उठा कर देता है)
बाबा साहब : क्या बदतमीजी है? यह क्या हो रहा है? तुम एक चपरासी होकर मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हो?
चपरासी : आंबेडकर, तुम पढ़-लिख जरूर गए हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि तुम हमारी बराबरी पर आ गए हो। तुम आज भी नीच हो और तुम्हारे साथ काम करके मैं अपना धर्म नष्ट नहीं कर सकता।
बाबा साहब : क्या मतलब? मेरे साथ काम करने से तुम्हारा धर्म कैसे नष्ट हो सकता है? तुम जानते हो कि मैं तुम्हें नौकरी से निकाल सकता हूं।
चपरासी : आंबेडकर, यह बात में अच्छे से जानता हूं। तुम मुझे नौकरी से भले ही निकाल दो लेकिन मैं तुम्हारे साथ रहकर इस दफ्तर में काम नहीं कर सकता।
बाबा साहब : मैं ऐसे अपमानजनक स्थान पर और अधिक नौकरी नहीं कर सकता।
पांचवां दृश्य : बाबा साहब ने 11वें ही दिन अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और अपने घर के लिए निकलते हैं और बड़ौदा के रेलवे स्टेशन पर पहुंच जाते हैं वहां उनकी ट्रेन 4 घंटे लेट होती है। बाबा साहब एक पेड़ के नीचे बैठ जाते हैं और विचारते हैं।
बाबा साहब : मैं पहले यह सोचता था कि हमारे लोग मरे पशुओं को उठाते हैं। उनकी खाल खींचते हैं और उनका मांस खाते हैं। हमारे लोग दूसरों की टट्टी को अपने सर ऊपर उठाकर फेंकने का काम करते हैं। मेरे लोग गंदे रहते हैं। उनके पास पहनने के लिए अच्छे कपड़े नहीं है और उनके पास पैसा भी नहीं है। हो सकता है यह लोग हमारे लोगों से इसलिए ऐसा व्यवहार करते हैं। हो सकता है कि ये लोग हमारे लोगों को इसीलिए नीच कहते हैं। लेकिन, आज तो मैंने यूरोप के कपड़े पहने हैं। अमेरिका और इंग्लैंड की यूनिवर्सिटियों से शिक्षा प्राप्त की है और एक अधिकारी बनकर मैं यहां आया हूं। जब ये मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हैं तो जो मेरे समाज के अशिक्षित और अनपढ़ लोग हैं तो ये लोग उनके साथ कैसा व्यवहार करते होंगे। (पिघलती हुई आंखों में आक्रोश लिए हुए ) अगर मैं अपने समाज को इस ग़ुरबत और गुलामी से आजाद नहीं करा पाया तो मैं वापस बड़ौदा लौट कर नहीं आऊंगा और मैं खुद को गोली मार लूंगा।
छठा दृश्य : बाबा साहब जब नौकरी छोड़कर अपने घर पहुंचते हैं और यह बात रमाबाई को पता चलती है तो रमाबाई को बहुत दुख होता है।
बाबा साहब : रमा, मैं नौकरी तो करना चाहता था लेकिन वहां का चपरासी मुझे फाइल डंडे में बांध कर देता था। पानी के घड़े को उठाकर अलग रख लेता और वहां के लोगों ने भी मुझे मारने की योजना बनाई। मैं ऐसे अपमानजनक स्थान पर नौकरी नहीं कर सकता था। इसीलिए मैं नौकरी छोड़ कर चला आया।
रमाबाई – बाबा साहब, आपको जैसा अच्छा लगे, आप वैसा काम करें। मैं आपके साथ हूं।
सातवां दृश्य : बाबा साहब को अपनी अधूरी पढ़ाई और बड़ौदा रेलवे स्टेशन पर लिए गए संकल्प का ख्याल आता है तो बाबा साहब फिर से विदेश जाकर हम सब की गुलामी का कारण जो हिंदू धर्म के ग्रंथों में लिखा हुआ है उसे खोजते हैं। इधर उनका तीसरा बेटा रमेश भी इस दुनिया को छोड़ कर चला जाता है। इस प्रकार से बाबा साहब के तीन बच्चे कुर्बान हो जाते हैं और जब बाबा साहब विदेश से लौट कर आते हैं और हमारी गुलामी व नीचता का कारण हमें बताते हैं।
बाबा साहब : मैं कड़ी मेहनत और लगन से यह जान पाया हूं कि हमारे समाज के लोगों के साथ जो नीचता भरा और गुलामी का व्यवहार हो रहा है उसका कारण हिंदू धर्म के जो ग्रंथ हैं उनमें लिखा हुआ है। मैं आज यह घोषणा करता हूं कि 25 दिसंबर सन 1927 को पूरी देश के मीडिया को सूचना देकर इस हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथ को अग्नि की भेंट चढ़ा कर आप सब को आजाद कर दूंगा।
आठवां दृश्य : बाबा साहब 25 दिसंबर सन 1927 को हजारों लोगों के सामने हिंदू धर्म के ग्रंथों और मनुस्मृति को अग्नि की भेंट चढ़ा कर हम सबको इस नीचता और जिल्लत भरी जिंदगी से आजाद करते हैं।
बाबा साहब : मैं ऐसी किसी भी बात को नहीं मान सकता जो अमानवीय है और आज के बाद ऐसा कोई भी विधान व कोई भी कानून मेरे समाज के लोगों पर लागू नहीं होगा जो अमानवीय है। क्योंकि यह विधान जबरदस्ती हमारे समाज के लोगों पर थोपा गया है।
नवां दृश्य : बाबा साहब मुंबई की कोर्ट में वकालत कर रहे होतें हैं तो उनका जो चौथा बेटा राजरतन वह बीमार हो जाता है। रमाबाई नानकचंद रत्तू को बाबा साहब को बुलाने के लिए भेजती हैं। बाबा साहब दौड़कर घर पहुंचते हैं और जैसे ही राजरतन को गोदी में लेते हैं वह दम तोड़ देता है।
रमाबाई (रोते हुए) : बाबा साहब, बस करिए। आपके समाज सुधार की लालसा ने और ज्ञान पाने की लालसा ने मेरा पूरा घर उजाड़ के रख दिया है। मैंने एक-एक करके अपने 4 बच्चों को दफन कर दिया है। अब तो बस करिए।
बाबा साहब : रमा, तुम तो मुझे रो करके बता पा रही है। मैं तो रो भी नहीं पा रहा हूं। मैं तो रोज ऐसे सैकड़ों बच्चों को मरते हुए देखता हूं। रमा, चुप हो जा। चुप हो जा।
रमाबाई : बाबा साहब, मैंने आज तक आपकी हर बात को माना है और इस बात को भी मान लेती हूं और चुप हो जाती हूं। लेकिन, आप मुझे इतना बता दें कि आप बड़े फख्र से कहते थे कि तेरा बेटा राज रतन देश पर राज करेगा। लेकिन, अब यह इस दुनिया में नहीं रहा। आप बताएं, यह कैसे इस देश पर राज करेगा? बाबा साहब मुझे बता दें कि यह कैसे देश पर राज करेगा?
बाबा साहब : रमा यह सच है कि तेरा यह पुत्र अब इस दुनिया में नहीं रहा। लेकिन मैं तुम्हें भरोसा दिलाता हूं और राजरतन के पार्थिव शरीर की सौगंध खाकर कहता हूं कि मैं अपने जीवन में ऐसा काम करके जाऊंगा कि हर रमा की कोख से पैदा हुआ राजरतन इस देश पर राज करेगा। मैं तुम्हें भरोसा दिलाता हूं।
(इतना कहने के बाद बाबा साहब अपनी जेबों में हाथ डालते हैं और राजरतन के कफन के लिए उनके पास एक पैसा तक नहीं होता है। इस बात को माता रमाबाई जानती हैं और रमाबाई अपनी साड़ी का एक हिस्सा फाड़कर राजरतन के ऊपर डाल देती हैं। इस बीच बाबा साहब को ख्याल आता है कि उन्हें गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन जाना है। वे राज रतन के पार्थिव शरीर को छोड़ घर पर ही छोड़ कर लंदन के लिए निकलते हैं। तभी पीछे से उनका भाई दौड़कर आते हैं और कहते हैं)
भाई : भीम, तुम पागल हो गए हो। यहां तेरा पुत्र मरा पड़ा है और तुम्हें विदेश जाने की सूझ रही है। तुम कैसे पिता हो जो अपने पुत्र को इस अवस्था में छोड़कर विदेश जा रहा है? यह समाज क्या कहेगा? अपने पुत्र को कंधा देकर उसकी अंतिम क्रिया-कर्म तो कर लो।
बाबा साहब : भाई, मैं जानता हूं कि मेरा पुत्र मरा पड़ा है। लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि अगर आज मैं गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन नहीं गया, तो गांधी एंड कंपनी के लोग मेरे करोड़ों करोड़ लोगों को मार डालेंगे। उनके सारे हक-अधिकार छीन लेंगे। इसलिए मैं एक पुत्र की खातिर अपने करोड़ों लोगों को बलि चढ़ते हुए नहीं देख सकता। यहां तुम सब लोग हो। तुम सब संभाल लोगे।
(प्रस्तुति : कुमार समीर, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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