(अरविन्द जैन सर्वोच्च न्यायालय व दिल्ली उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। महिलाओं की समाज में दोयम दर्जे की स्थिति और उनके संदर्भ में बने कानूनों की पेंचीदगियों पर आधारित उनकी पुस्तक ‘औरत होने की सजा’ का प्रकाशन 1996 में हुआ। इस किताब के माध्यम से अरविन्द जैन ने महिलाओं के कानूनी अधिकारों व मुद्दों को मुखरता से समाज के समक्ष रखा। फारवर्ड प्रेस द्वारा इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाश्य है। प्रकाशन से पहले इसे हम अपने वेब के पाठकों के लिए श्रृंखला के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। आज की कड़ी में पढ़ें बाल विवाह कानून के बारे में )
“बाबल तेरा देस में, एक बेटी एक बैल
हाथ पकड़के दीना जामे, परदेसी के गैल।”
– सादल्ला (मेवाती जन-कवि)
हर साल अक्षय तृतीया यानी आखा तीज के ‘मंगलकारी’ दिन हजारों अबोध और नाबालिग (दूध-पीते बच्चों समेत) बच्चों को विवाह के ‘पवित्र बंधन’ में बांध दिया जाता है। ‘बाल-विवाह के खिलाफ कानून जितने निकम्मे साबित हुए हैं उसका दूसरी तरह से विरोध भी उतना ही निरर्थक साबित हुआ है।’
बाल-विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 और हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 (III) में विवाह के लिए अन्य आवश्यक शर्तों में से एक शर्त यह भी है कि ‘‘विवाह के समय दूल्हे की उम्र 21 साल और दुल्हन की उम्र 18 साल से अधिक होनी चाहिए।’’
अगर शादी के समय दूल्हे की उम्र 21 साल या दुल्हन की उम्र 18 साल से कम है तो (शिकायत होने पर) हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा-18 के अनुसार दोषी व्यक्ति को पंद्रह दिन तक की कैद या एक हजार रुपया जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। 21 वर्ष से कम उम्र के युवक या 18 वर्ष से कम उम्र की युवती के साथ शादी करना भले ही दंडनीय अपराध हो, लेकिन किसी भी प्रावधान के अंतर्गत इस आधार पर विवाह को गैर-कानूनी या रद्द नहीं माना जाएगा (हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा-11 और 12)।
हां! हिंदू लड़की (लड़का नहीं) की उम्र, शादी के समय अगर 15 साल से कम है और उसने 15 साल की होने के बाद मगर 18 साल की होने से पहले ऐसा विवाह स्वीकार करने से मना कर दिया है तो वह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा-13 (2) (IV) के अंतर्गत तलाक दे सकती है। लेकिन शादी के समय अगर लड़की की उम्र 15 साल से अधिक है तो वह इस आधार पर तलाक भी नहीं ले सकती। बाल-विवाह के खिलाफ बने इस कानूनी प्रावधान में सजा इतनी कम निर्धारित की गई है कि यह संज्ञेय अपराध ही नहीं है और अपराध भी ‘जमानत योग्य’ है। पुलिस शिकायत के बाद भी तब तक कुछ नहीं कर सकती जब तक सक्षम मजिस्ट्रेट से आदेश और वारंट न ले ले।[1]
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हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार शादी के समय दुल्हन की उम्र 18 साल से अधिक होनी चाहिए। लेकिन भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा-375 के अपवाद में प्रावधान है- ‘‘अपनी ही पत्नी जिसकी उम्र पंद्रह साल से कम हो, के साथ सहवास करना बलात्कार नहीं है’’ जबकि धारा-375 (6) के अनुसार- ‘‘किसी भी पुरुष द्वारा सोलह वर्ष से कम उम्र की युवती की सहमति या असहमति से उसके साथ सहवास करना बलात्कार है।’’ सवाल यह है कि विवाह के लिए पत्नी की उम्र जब 18 साल रखी गई है तो बलात्कार के लिए 15 साल क्यों?[2]
कानून की ‘काॅमेडी’ यहीं समाप्त नहीं होती। भारतीय दंड संहिता की धारा-376 में सोलह वर्ष से कम उम्र की युवती के साथ बलात्कार की सजा कम-से-कम सात साल कैद और जुर्माना हो सकता है लेकिन अपनी ही पत्नी जिसकी उम्र बारह से अधिक मगर पंद्रह से कम हो तो बलात्कार की सजा में पति को ‘विशेष छूट’ मिलेगी इसलिए सिर्फ दो साल कैद या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। समझ में नहीं आता कि जब पंद्रह साल से कम उम्र की पत्नी के साथ सहवास को बलात्कार माना गया है तो फिर बारह से पंद्रह साल के बीच की उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार में इतनी भारी ‘विशेष छूट क्यों?’ 1949 में निर्धारित 15 साल की आयु-सीमा अभी भी लागू क्यों है?
विवाहित, (विशेषकर बाल विवाहित) महिलाओं के प्रति कानून का सौतेला और भेदभावपूर्ण रवैया आगे भी जारी है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 में बलात्कार के अन्य सभी मामले संज्ञेय अपराध हैं और जमानत योग्य भी नहीं हैं जबकि अपनी ही पत्नी के साथ बलात्कार (चाहे पत्नी की उम्र कितनी ही हो पर 12 साल से कम नहीं) के सभी मामले संज्ञेय अपराध नहीं है और ‘जमानतीय’ हैं। यानी बलात्कार के अन्य सभी मामलों में पुलिस प्रथम सूचना मिलते ही बिना किसी सबूत के अभियुक्त को गिरफ्तार करके आगे की जांच-पड़ताल कर सकती है और अभियुक्त की अधिकार रूप से जमानत नहीं हो सकती जबकि पत्नी के साथ बलात्कार के मामले में पुलिस तब तक कुछ नहीं कर सकती जब तक सक्षम मजिस्ट्रेट से आदेश और वारंट न ले ले। गिरफ्तारी के बाद पति अधिकृत रूप से जमानत पर छूट सकता है। पति होने के इतने ‘विशेषाधिकार’?
आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 के अनुसार बलात्कार के अन्य मामलों की शिकायत के लिए कोई समय-सीमा नहीं है क्योंकि सजा तीन साल से अधिक है। इसी कानून की धारा-468 के अनुसार अगर अपराध की सजा एक साल से अधिक और तीन साल से कम हो तो अपराध की शिकायत तीन साल तक की सजा सकती है लेकिन इसी कानून की धारा-198(6) में प्रावधान किया गया है कि अगर मामला पति द्वारा अपनी ही पत्नी से बलात्कार का हो तो शिकायत सिर्फ एक साल तक ही की जा सकती है। इसके बाद कोई भी अदालत कुछ भी नहीं कर सकती भले ही पत्नी की उम्र बारह साल से भी कम हो और अपराध की सजा सात साल कैद और जुर्माना हो। शिकायत करने की समय-सीमा में भी पति को रियायत और पत्नी से भेद-भाव क्यों?
बाल-विवाह के संदर्भ में सबसे अधिक हास्यास्पद कानूनी प्रावधान हिंदू अल्पवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा-6 है। उपधारा (ए) में स्पष्ट है कि ‘‘अविवाहित बेटी का प्राकृतिक संरक्षक पिता और पिता के बाद मां होगी।’’ अविवाहित बेटी की उम्र का यहां कोई जिक्र ही नहीं है। आगे उपधारा-(सी) के अनुसार ‘‘विवाहित लड़की के मामले में प्राकृतिक संरक्षक उसका पति होगा।’’ भले ही पति-पत्नी दोनों नाबालिग हों।
नाबालिग पति जो खुद अपने पिता की या मां की संरक्षकता में है अपनी नाबालिग पत्नी का प्राकृतिक संरक्षक माना जाएगा। पत्नी ही नहीं बच्चे का भी (अगर हो)। इसी कानून की धारा-10 में आगे प्रावधान है कि नाबालिग किसी भी नाबालिग की संपत्ति का संरक्षक होने में सक्षम नहीं है।
एक मुकदमे में मद्रास हाई कोर्ट ने कहा है कि ‘‘यह स्थिति बेहद विसंगति-भरी है कि एक नाबालिग दूसरे नाबालिग का व उसकी संपत्ति का संरक्षक हो जबकि वह खुद और उसकी संपत्ति किसी अन्य व्यक्ति की संरक्षकता में है।’’
आमतौर पर नाबालिग बच्चे की संपत्ति का संरक्षक उसका पिता ही होता है और यहां पिता खुद नाबालिग है और संपत्ति का संरक्षक होने में अक्षम। दूसरी संभावित समस्या यह भी है कि चूंकि पति, पत्नी का कानूनी संरक्षक है इसलिए पत्नी अगर पंद्रह साल की होने के बाद शादी मानने से इंकार करे और पति उसको जबरदस्ती उठाकर ले जाए और सहवास कर ले तो भारतीय दंड संहिता की धाराओं के अनुसार न तो यह अपहरण का अपराध माना जाएगा और न ही बलात्कार का।
समाज, संसद, सरकार, संविधान, पुलिस, कानून और अदालतें आखिर यह मजाक किसके साथ कर रहे हैं और क्यों?
(मूल लेख 1994 में नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
(कॉपी संपादन : इमामुद्दीन/एफपी डेस्क)
[आलेख परिवर्द्धित : 23 मार्च 2019, 7: 32 PM]
संदर्भ :
[1] हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में बिना कोई संशोधन किये ही बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 पारित कर दिया गया. इस कानून के अनुसार बाल विवाह करना या करवाना संज्ञेय पर जमानत योग्य अपराध है, जिसकी सज़ा दो साल कैद या दो लाख ज़ुर्माना या दोनों है। मगर तीन तलाक़ संज्ञेय पर गैर जमानती अपराध बनाया गया है, जिसकी सज़ा तीन साल कैद या ज़ुर्माना या दोनों।
अगर अठारह साल से अधिक उम्र का लड़का अठारह साल से कम उम्र की लड़की से विवाह करे तो अपराध। सज़ा दो साल कैद या दो लाख ज़ुर्माना या दोनों हो सकते हैं। (बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 की धारा 9)
इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि अगर लड़का भी अठारह साल से कम हो, तो कोई अपराध नहीं! 1929 से बाल विवाह विरोधी कानूनों के बावजूद, क्या यह नाबालिग़ बच्चों को भी विवाह की आज़ादी नहीं? क्या संसद, सरकार और सुप्रीम कोर्ट को मालूम नहीं कि कितनी चतुराई से जानबूझकर बाल विवाह के लिए, एक सुरक्षित चोर दरवाज़ा बना कर छोड़ दिया गया है? ग्रामीण वोट बैंक ही नहीं, धार्मिक और सांस्कृतिक संस्कारों का भी मामला है। बाल विवाह की विसंगतियों और अंतर्विरोधों को समझने के लिए विस्तार में पढ़े दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्णपीठ (तीन जज ) का फैसला (लज्जा बनाम दिल्ली राज्य, W.P. (Criminal) 338 of 2008) http://lobis.nic.in/ddir/dhc/AKS/judgement/14-09-2012/AKS27072012CRLW3382008.pdf) इस ऐतिहासिक मामले में मुख्य बहस लेखक ने की थी.
[2] यौन हिंसा बलात्कार कानूनों में संशोधन (2013)
निर्भया बलात्कार-हत्या कांड (16 दिसम्बर, 2012) के बाद देशभर में हुए विरोध, प्रदर्शन, आंदोलन के परिणाम स्वरूप बलात्कार कानून में बदलाव के लिए, रातों-रात जे. एस. वर्मा कमीशन बैठाया गया, अध्यादेश (फरवरी, 2013) जारी हुआ और फिर कानूनी संशोधन किये गए। पितृसत्ता द्वारा अपनी नाबालिग बेटियों को ‘सुरक्षित’ रखने के लिए सहमति से सहवास की उम्र सोलह साल से बढ़ा कर अठारह साल की गई। (भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375) मतलब अठारह साल से कम उम्र की लड़की से, उसकी सहमति से भी यौन संबंध बनाना बलात्कार का अपराध माना-समझा जाएगा। मगर बेटों (पति) को उनकी अपनी 15 साल से बड़ी उम्र की (बहू) पत्नी से सहवास ही नहीं, बल्कि संशोधन के बाद ‘अन्य यौन क्रीड़ाओं’ (अप्राकृतिक यौन क्रीड़ाओं/ मैथुन) तक का कानूनी अधिकार दिया, जिसे किसी भी स्थिति में (वैवाहिक) बलात्कार नहीं माना-समझा जाएगा।(भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375 का अपवाद) कोई पुलिस-अदालत पत्नी की शिकायत का संज्ञान नहीं ले सकती।(आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता,1973 कि धारा 198 उप-धारा 6) कोई दलील-अपील नहीं। यह दूसरी बात है कि चार साल बाद (अक्टूबर 2017) सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर और दीपक गुप्ता ने अपने 127 पृष्ठों के निर्णय में कहा कि पन्द्रह से अठारह साल के बीच की उम्र की पत्नी से यौन संबंध को बलात्कार का अपराध माना जाएगा। लेकिन माननीय न्यायमूर्तियों ने अठारह साल से बड़ी उम्र की पत्नी के बारे में चुप्पी साध ली। सो बालिग़ विवाहिता अभी भी, पति के लिए घरेलू ‘यौन दासी’ बनी हुई है…बनी रहेगी। कोई नहीं कहज़ सकता कि वैवाहिक बलात्कार से पति को कानूनी छूट पर विचार विमर्श कब शुरू होगा?
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