कंवल भारती ने इस पुस्तक को आरएसएस की पुस्तिकाओं जिसमें आरएसएस यह दावा करता है वह भारतीयता और संस्कृति के रक्षक और मानवता के सर्वोच्च मूल्यों के प्रचार प्रसार प्रसार का ठेका से लिया हुआ है। विद्वान लेखक ने अपने अकाट्य और अचूक तर्कों और आरएसएस की कारगुजारियों, आरएसएस के अनुषांगिक संगठनों, आरएसएस के राजनैतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी के कार्यों एवं कार्यक्रमों के आलोक में एक बढ़िया सा पोस्टमार्टम किया है। जब आप इस तरीके की पुस्तक लिखते हैं तो जिस प्रकार के तथ्यों और तर्कों की आवश्यकता होती है, वह निश्चित ही तीक्ष्ण मस्तिष्क एवं विश्लेषण क्षमता से युक्त लेखक द्वारा ही संभव है जिसे कँवल भारती ने बखूबी कर दिखाया है।
प्रो. आनंद तेलतुम्बड़े द्वारा लिखित भूमिका से सज्जित इस पुस्तक में कुल चौदह अध्याय हैं। हिंदू राष्ट्र का जागरण अभियान, हिंदुत्व : एक मिथ्या दृष्टि और जीवन पद्धति, सच और मिथक, दलित समाज और ईसाई मिशनरी, राष्ट्रीय आंदोलन और संघ, आदर्श हिंदू घर, हिंदू संस्कृति और पर्यावरण, गौवंश, रक्षण, पालन तथा संवर्धन, नारी जागरण और संघ, स्वदेशी देश का प्राण, क्या वीर सावरकर दलित विधायक थे, आर एस एस के डॉ. आंबेडकर।
‘हिंदू राष्ट्र का जागरण अभियान’ इस अध्याय के अंतर्गत कँवल भारती जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पत्रक राष्ट्र जागरण अभियान की समीक्षा की है। यह समीक्षा उन्होंने ऐतिहासिक संदर्भ में आलोचनात्मक तरीके से की है। उन्होंने चातुर्वर्ण और उनकी उत्पत्ति, समाज में श्रम विभाजन एवं श्रमिकों का विभाजन जैसे मुद्दों पर अपनी दृष्टि डाली है। उन्होंने धनंजय कीर को उद्धृत करते हुए लिखा है कि “शासक समझते थे कि निम्न वर्गों के लोग सिर्फ शासकों की गुलामी के लिए पैदा हुए हैं इसीलिए जब 1818 में मराठा राज्य का पतन हुआ तो लोगों ने कोई आंसू नहीं बहाया। जो गरीबों को पीसता है भगवान की चक्कियाँ उसे पीस देती हैं। जब अंग्रेजों ने आतंक और यातना के ब्राह्मण राज्य का सफाया किया तो उस दिन आम जनता के लिए आजादी का नया सूरज निकला था।”
‘हिंदुत्व एक मिथ्या दृष्टि और जीवन पद्धति’ इस अध्याय में कॅंवल भारती ने ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ पुस्तिका की समीक्षा की है। इस पुस्तिका में भी आरएसएस के विद्वानों ने इतिहास के साथ धोखाधड़ी और फर्जी तरीके से इतिहास प्रस्तुत करने का अपना कार्यक्रम किस तरीके से बदस्तूर जारी किया हुआ है, इसकी समीक्षा मिलती है कि किस प्रकार भारतीय अपने आप को विश्व गुरु मानते आ रहे हैं। जबकि एक बड़ा सवाल यह है कि दुनिया के कितने देशों ने भारत को विश्व गुरु माना है? इस सवाल का आज तक कोई मुकम्मल जवाब नहीं मिल पाया है। आर्यभट्ट को किस तरीके से हिंदूकरण के जरिए आर एस एस ने गलत तरीके से पेश किया है और उस समय जबकि आर्यभट्ट जिंदा थे। आर्यभट्ट के खिलाफ क्या साजिश रची गई और उनको किस तरीके से मार डाला गया था। कँवल भारती ने इधर एक इशारा किया हुआ है। आर्यभट्ट का सही नाम आर्यभट है और इनके ग्रंथ की खोज उनके 14 सौ साल बाद डॉ. भाऊ दाजी लाड ने केरल में किया था। उसके बाद ही उन्हे दुनिया ने जाना। उन्होंने अपने निबंध में बताया था कि उनका शुद्ध नाम क्या है।
राहुल सांकृत्यायन के हवाले से एवं आरएसएस के उटपटांग लंबी-चौड़ी बातों को अपने तर्कों से काटते हुए उन्होंने लिखा है कि “दर्शन के क्षेत्र में राष्ट्रीयता की तान छेड़ने वाला ख़ुद धोखे में है और दूसरों को भी धोखे में डालना चाहता है।”
आरएसएस के समाज सेवा, बनवासी कल्याण आश्रम, जाति प्रथा पर उनके कार्य, सामाजिक समरसता का कार्यक्रम, ईसाइयों के साथ बर्बरता, इन सभी मुद्दों पर इस अध्याय में कँवल भारती ने आरएसएस की पोल खोली है एवं उनकी सच्चाई को सामने लाते हुए आरएसएस के घटाटोप की बखिया उधेड़ दी है।
‘दलित समाज और ईसाई मिशनरी’ अध्याय में दलितों और ईसाइयों पर आरएसएस के अत्याचारों और दमन के तौर-तरीकों पर एक अच्छा प्रकाश डाला गया है। और कँवल भारती ने इसे हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथों के हवाले से लिखा है। सवाल सीधा सा है कि अगर दलित ईसाई बन रहे हैं या वह बौद्ध बन रहे हैं तो समस्या आरएसएस को क्यों हो रही है? अध्याय के मूल में ईसाईयों और दलितों के प्रति आरएसएस की हिंसा को विश्लेषण केंद्र में देखा गया है।
‘राष्ट्रीय आंदोलन और संघ’ इस समय की व्याख्या का सबसे लोकप्रिय टॉपिक हो सकता है। इस अध्याय में तथ्यों एवं आंकड़ों के साथ बताया गया है कि राष्ट्रीय आंदोलन में हेडगेवार ऐसे युवकों को पसंद नहीं करते थे जो अंग्रेज सरकार के खिलाफ आजादी के आंदोलन की ओर आकर्षित होते थे। उनका यह मानना था कि अपरिपक्वता की वजह से ही युवक राष्ट्रीय आंदोलन में कूदे हुए हैं। गोलवलकर भी ईमानदारी से स्वीकार करते थे कि संघ अंग्रेजों की राजसत्ता का विरोध नहीं करता है।
‘आदर्श हिंदू घर’ यह अध्याय सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। हमें समझना चाहिए कि व्यक्ति का निर्माण और उसके समाजीकरण की शुरुआत परिवार से होती है। इस अध्याय को पढ़कर आप देखेंगे कि बच्चे के प्राथमिक समाजीकरण पर ही आरएसएस ने किस तरीके का जोर दिया है कि वह अपना मानसिक गुलाम पैदा कर सके। और किस तरीके से अवतार की कथा, अवैज्ञानिक बातें प्रचारित करके, पाश्चात्य संस्कृति को गाली देकर इसने अपना वर्चस्व भारतीय समाज में बनाया हुआ है? उसका एक अच्छा विश्लेषण इस अध्याय में मिलता है।
परिवार के बिखराव के मुद्दे पर कँवल भारती ने लिखा है “पाश्चात्य संस्कृति को दोष देने से पहले आरएसएस को अपने यहां की महाभारत संस्कृति में भी झांक कर देख लेना चाहिए था। अगर रामचरितमानस में राम-भरत का भाईचारा आदर्श है तो महाभारत में भाई-भाई के बीच स्वार्थ और ईर्ष्या का भाव क्या है? अगर रामायण में हिंदू संस्कृति है तो क्या महाभारत में हिंदू संस्कृति नहीं है।”
हिंदू पूंजीवाद किस तरीके से राष्ट्रीय संपदाओं को लूटने पर आमादा है एवं लोगों को एक जिंदा लाश में बदल डालने का प्रोग्राम चला रहा है और इस काम में आरएसएस किस तरीके से वैचारिक सहयोग प्रदान कर रहा है इसका एक अच्छा विश्लेषण इस अध्याय में आपको मिल सकता है।
बचपन से ही हमें बताया जाता है कि पर्यावरण और हिंदू धर्म का एक गहरा संबंध है। जबकि गहराई से विचार करने पर समझ में आता है कि पर्यावरण को जितना बर्बाद हिंदू धर्म ने किया है, किसी और एक संगठन या समूह ने सामूहिक रूप से इतना बर्बाद नहीं किया है। चाहे वह नदियां हो, वृक्षों से भरे जंगल हों या अन्य प्राणी। शनिवार, मंगलवार करके, व्रत उपवास की नौटंकी से जितना अहित इस देश की नदियों, पहाड़ों और वृक्षों का हुआ है, मुझे नहीं लगता कि किसी और एक कारण से इतना नुक़सान हुआ है। आरएसएस की यह पुस्तिका भी भ्रमित करने वाली ही है। कितना आसानी से आरएसएस के विचारक ने कह दिया है कि हमारी हर समस्या का जड़ पाश्चात्य संस्कृति है। “आरएसएस को दूषित वातावरण के पीछे सिर्फ पाश्चात्य मॉडल दिखाई देता है जबकि इसका मुख्य वजह बेतरतीब विकास है। क्या अमेरिका ने भारत से कहा है कि वह कारपोरेट घरानों के लिए जंगल साफ कराए और उसके लिए आदिवासियों को वहां से उजाड़े? जब जंगल का सफाया होगा तो क्या प्रकृति का संतुलन नहीं बिगड़ेगा? प्रकृति का संतुलन बिगड़ने से पर्यावरण पर प्रभाव नहीं पड़ेगा?”
‘गौवंश, रक्षण, पालन तथा संवर्धन’ जागरण अभियान की इस पुस्तक के लेखक प्रेमचंद जैन के हवाले से गाय, गौ रक्षा और राष्ट्रीय स्वाभिमान जैसे भाजपा और आरएसएस के मूर्खतापूर्ण प्रपंचों पर इतिहास के झरोखे से प्रकाश डाला गया है। अवैज्ञानिक बातों, निराधार तर्कों की एक अच्छी आलोचना कँवल भारती ने इस अध्याय में की है। कि किस प्रकार का अवैज्ञानिक तथा आधारहीन बातों को समाज में व्याप्त करने का तथा लोगों को मानसिक और शारीरिक रूप से अक्षम बनाने का कार्यक्रम आरएसएस चला रहा है और इसका माध्यम गायों को बना रहा है। इस षडयंत्र का एक बढ़िया खुलासा इस अध्याय में आपको मिल सकता है।
‘नारी जागरण और संघ’ अध्याय में स्पष्ट किया गया है कि भारत की सामाजिक संरचना में स्त्रियों का स्थान ज्ञात समय से अपमानजनक ही रहा है चाहे वह जिस किसी भी क्षेत्र में हो। राष्ट्र जागरण अभियान की यह पुस्तिका भी अपनी बौद्धिक नूरा कुश्ती के माध्यम से यथास्थिति कायम रखने का प्रयास किस तरीके से करती है? इसका खुलासा किया गया है।
लेखक एक जगह पर लिखते हैं कि “ब्राह्मणवाद और सामंतवाद दोनों का गठजोड़ है क्योंकि दोनों एक दूसरे के बिना जिंदा नहीं रह सकते। दोनों को ही एक दूसरे के सहारे की जरूरत है। आजकल तीसरी शक्ति पूंजीवाद भी इस गठजोड़ में शामिल हो गई है। इसके पास धन की अपार शक्ति है जो दोनों को चाहिए। धन आरएसएस को भी चाहिए और उसकी राजसत्ता को भी। इसीलिए पूंजीवाद की जय जयकार दोनों करते हैं।
पूंजीवाद जनता के शोषण पर जीने वाली व्यवस्था है यह कार्ल मार्क्स कह गए हैं। पर वह यह भी कह गए हैं कि धर्म और राज्य सत्ताएं भी जनता के शोषण पर जीने वाली व्यवस्थाएं हैं। धर्म को उन्होंने इसीलिए अफीम कहा है क्योंकि वह जनता को अचेत अवस्था में रखता है जिससे धर्म आधारित राजसत्ता को मजबूती मिलती है। धर्म की अफीम ने हिंदू स्त्रियों को जकड़ कर परतंत्र बना रखा है।”
‘स्वदेशी देश का प्राण’ अध्याय में बताया गया है कि किस प्रकार से स्वदेशी के नाम पर आरएसएस एवं उसके सहयोगी संगठनों ने देश में लूट मचाई हुई है। और किस प्रकार से शोषण और दमनचक्र चला रहा है। कँवल भारती लिखते हैं “बनिया व्यापार करता है वह गांव का महाजन है। उसी की पूंजी से उत्पादक जातियां अपना उद्यम चलाती हैं। बनिया उन्हें ब्याज पर पूंजी देता है और बदले में उसके पास जो भी अचल संपत्ति होती है उसे गिरवी रखता है। शिल्पकारों के उत्पाद को भी बनिया ही खरीदता है। पर वह उसे भी उधार ही खरीदता है जिस पर वह कोई ब्याज नहीं देता किंतु वह अपनी पूंजी पर ब्याज वसूलना कभी नहीं भूलता। इसलिए जब वह हिसाब करता है तो उत्पादक के हाथ में अक्सर पूंजी और ब्याज काट कर जो रकम आती है उससे उसे श्रम का मूल्य भी नहीं आता। परिणाम स्वरूप घर-गृहस्थी चलाने के लिए फिर से बनिया से एक कर्ज लेता है इस प्रकार गांव की उत्पादक जातियां हमेशा बनिये की कर्जदार रहती हैं। कर्ज की दलदल से वह तभी मुक्त होता है जब वो या तो मर जाता है या गांव से शहर भाग जाता है।”
अगले अध्याय ‘वीर सावरकर और डॉ. आंबेडकर’ से संबंधित है। क्या वास्तव में वीर सावरकर दलित विचारक थे? और यह जवाब हमें मिलता है कि कभी नहीं। वीर सावरकर जैसे लोग दलितों के उद्धारक कभी हो ही नहीं सकते।
अगला और अंतिम अध्याय ‘आरएसएस के डॉ. आंबेडकर’ है। हमें याद रखना चाहिए कि विगत लगभग 5 वर्षों में आरएसएस ने आंबेडकर के किस तरह से उपयोग और दुरुपयोग किए हैं। समानता की जगह समरसता और संवैधानिक मूल्यों की जगह धार्मिक मूल्यों की स्थापना का जोर जिस तरीके से इस समय सरकार ने दिया है। जिस तरीके से संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। इसके आलोक में डॉ. आंबेडकर के प्रति आरएसएस के प्रेम को परखा जा सकता है। कमलेश्वर ने अपनी पुस्तक कितने पाकिस्तान में एक जगह लिखा है कि ‘भारतीय इस्लाम भी यहां के घटिया हिंदुत्व का बर्बर शिकार हुआ।’
इस अध्याय में कँवल भारती ने डॉ. आंबेडकर की कुछ की कुछ पुस्तकों के हवाले से आरएसएस के दावों की पोल खोली है कि किस तरह से डॉ. आंबेडकर बौद्ध धर्म को कम्युनिज्म से बेहतर मानते थे। यहाँ पर यह हमेशा ध्यान रखना होगा कि आंबेडकर ने हिन्दू धर्म की मक्कारी और शोषणकारी मूल चरित्र के कारण ही बौद्ध धर्म स्वीकार किया था।
कँवल भारती की यह पुस्तक कुल मिलाकर वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य एवं विशाल बहुजन वर्ग के ऊपर किए जा रहे धर्म आधारित पूंजीवादी राजसत्ता के अत्याचारों के परिप्रेक्ष्य में एक आवश्यक किताब जान पड़ती है।
हालांकि सभी पुस्तकों की तरह इसकी भी अपनी एक सीमा है। जैसे कि मिथकीय और ऐतिहासिक आख्यानों के वर्णन के समय लेखक ने प्रचलित इतिहास के लोकप्रिय आख्यानों को और लोकप्रिय तौर-तरीकों को ही अपना विषय बिंदु बनाया है। यहां पर मेरा व्यक्तिगत सुझाव और मेरा व्यक्तिगत मानना यह है कि कहीं ना कहीं इसमें सम्यक इतिहास बोध की कमी झलकती है एवं यहाँ से सामाजिक पुनर्निर्माण का रास्ता तय करने में समस्या होगी। ऐसा लगता है कि इस मुद्दे पर लेखक ने कोई विस्तृत छानबीन नहीं की। बावजूद इसके पुस्तक प्रासंगिक है।
एक अन्य मुद्दा भी है। और यह मुद्दा अधिक गंभीर है कि पुस्तक का शीर्षक आरएसएस और बहुजन चिंतन है। बावजूद इसके इस पूरे किताब में बहुजन सिरे से गायब मालूम होता है। आखिर बहुजन के नाम पर सिर्फ दलितों की चिंता तो नहीं की जा सकती। और न ही दलित मात्र ही बहुजन है। सामान्य समझ वाला इंसान भी जानता है कि बहुजन भारत देश की लगभग 90 की आबादी है। जबकि दलितों की संख्या महज 12 से 15 फ़ीसदी की होगी। आखिर ऐसे में आप किसानों को और आदिवासियों को और हिंदू धर्म से अलग धर्मों की वंचित जमात को कहां पर रखें। अब उन्हें कुछ स्थानों पर उत्पादक जातियां कह देने मात्र से लेखक के मंतव्य पर सवालिया निशान भी लगाता नजऱ आता है।
बहरहाल, पुस्तक की तीक्ष्ण विश्लेषण शैली जोतीराव फुले, ताराबाई शिंदे, बड़े लाल मौर्य एवं विनीत विक्रम बौद्ध की याद दिलाती है। बड़े लाल मौर्य ने ‘धर्म के नाम पर शोषण का धंधा’ एवं विनीत विक्रम बौद्ध ने ‘बुद्धचरित चंद्रोदय’ ‘चारुवाक’ जैसी पुस्तकों में इस तरह की दृष्टिखोलक लेखन शैली का प्रयोग किया है। अर्थात एक बार पुस्तक पढ़ लेना ही आपको नए सिरे से सोचने के लिए बाध्य कर देता है। कुल मिलाकर आरएसएस के प्रोपेगंडा एवं राजनीतिक चालबाजी व सांस्कृतिक कब्ज़े के दांव-पेंच को समझने के लिये किताब अपने उद्देश्य में सफल है।
पुस्तक का नाम : आरएसएस और बहुजन चिंतन
लेखक का नाम : कंवल भारती
प्रकाशक : फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली
प्रकाशन वर्ष : 2019
मूल्य : 500 रुपए (सजिल्द), 200 रुपए (अजिल्द)
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(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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