न्याय क्षेत्रे-अन्याय क्षेत्रे
“स्त्री को अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए, कानूनी हथियार उठाने ही होंगे।”
सुश्री सी.बी. मुथम्मा (1924-2009) पहली महिला थीं, जो भारतीय विदेश सेवा के लिए चुनी गई थीं। पहली महिला राजनयिक (राजदूत) थीं। नौ साल की थीं, जब उनके पिता का देहांत हुआ। वह लैंगिक अधिकारों की रक्षा के लिए, जीवन भर लड़ती रहीं। उनकी एक बहुचर्चित पुस्तक है ‘स्ले बाई सिस्टम’।
मुथम्मा अक्सर बेहद आहत और अपमानित महसूस करतीं। आज़ादी के 32 साल और संविधान लागू होने के 29 साल बाद भी भारतीय विदेश सेवा तक में, विवाहित महिला पद के लिए अयोग्य मानी जाती है और महिला सदस्य को विवाह करने से पूर्व, सरकार से लिखित अनुमति लेना अनिवार्य है। क्यों? क्योंकि वह स्त्री है, आधी दुनिया की गुलाम नागरिक!
मुथम्मा ने जब इसके बारे में सोचना शुरू किया तो पता चला राधा चरण पटनायक बनाम ओडिशा राज्य (ए आईआर 1969 ओडिशा 237) मामले में सत्र न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए निकले/निकाले विज्ञापन में, विवाहित स्त्रियों की नियुक्ति पर प्रतिबंध था। नियुक्ति के बाद विवाह पर अगर सरकार को लगे कि इससे कार्य क्षमता प्रभावित हो रही है, तो महिला को इस्तीफा देने के लिए कह सकती है। मतलब नौकरी से हटा सकती है। इस प्रावधान को महिला वकीलों द्वारा अदालत में चुनौती दी गई थी। ओडिशा उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एस. बर्मन और बी.के. पात्रा ने उपरोक्त नियमों को भेदभाव पूर्ण मानते हुए, असंवैधानिक करार दिया था। यह निर्णय पढ़ने के बाद मुथम्मा को अंधेरी कोठरी में उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी।
गहन चिंतन के बाद एक दिन उन्होंने फैसला किया कि जो हुआ सो हुआ, वह अब चुप नहीं रहेगीं। उन्होंने ठान लिया कि कानून के समक्ष समानता के मौलिक अधिकार और धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव से रोक के बावजूद, स्त्री विरोधी शर्मनाक यौन पूर्वाग्रह (दुराग्रह) और वैधानिक भेदभाव को जड़ से नष्ट करवाने के लिए, अदालत का दरवाजा खटखटाना ही पड़ेगा। पहल करते हुए मुथम्मा ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सीधे सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
उल्लेखनीय है कि अदालत में बहस के दौरान महाधिवक्ता सोली सोराबजी ने सरकार की तरफ से दलील दी थी कि महिलाओं द्वारा विवाह करने की स्थिति में, गोपनीय और महत्वपूर्ण सरकारों सूचनाओं और दस्तावेजों के लीक होने का खतरा या संभावना बढ़ सकती है। इस पर न्यायमूर्ति अय्यर ने पूछा था “क्या पुरुषों द्वारा शादी करने से यह खतरा संभावना शून्य है?”
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सुश्री मुथम्मा (याचिकाकर्ता) की शिकायत है कि उन्हें गैरकानूनी और असंवैधानिक रूप से भारतीय विदेश सेवा के ग्रेड-I में पदोन्नति से वंचित किया गया है। उसे अपने ही शब्दों को उद्धृत करने के लिए;
“… पदोन्नति में याचिकाकर्ता की उपेक्षा के कारणों में से एक महिलाओं के खिलाफ शत्रुतापूर्ण भेदभाव की लंबे समय से चली आ रही प्रथा है। यहां तक कि आरम्भ में ही जब याचिकाकर्ता ने संघ लोक सेवा के लिए चुनी गई तो साक्षात्कार के समय संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष ने याचिकाकर्ता को विदेश सेवा में शामिल ना होने के लिए प्रेरित (रोकने/मनाने) करने की कोशिश की। बाद में एक अवसर पर उन्होंने व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता को बताया कि उन्होंने अध्यक्ष के रूप में अपने प्रभाव का उपयोग, साक्षात्कार में उसे न्यूनतम अंक देने के लिए किया था। विदेश सेवा में प्रवेश के समय, याचिकाकर्ता को यह वचन भी देना था कि यदि वह विवाह करती है, तो विदेश सेवा से इस्तीफा दे देगी। कई अवसरों पर याचिकाकर्ता को एक स्त्री होने के परिणामों का सामना करना पड़ा और इस तरह (कानूनी!) भेदभाव का शिकार होना पड़ा, हालांकि संविधान विशेष रूप से अनुच्छेद 15 के तहत धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है और संविधान का अनुच्छेद 14, कानून के समक्ष समता का अधिकार प्रदान करता है। केंद्रीय मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति के सदस्य और प्रतिवादी नंबर 2 मूल रूप से महिलाओं के विरुद्ध एक समूह के रूप में पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। प्रेस के अनुसार भारत के प्रधान मंत्री ने कहा है-’यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अधिकांश महिलाएं जो वरिष्ठ स्तर पर सेवा में हैं, उन्हें बहुत ही व्यवस्थित रूप से उन पदों के लिए चुना जा रहा है, जिन्हें परंपरागत रूप से मंत्रालय द्वारा कम प्राथमिकता दी गई थी।’
यदि इन दावों का एक अंश भी सच था, तो प्रशासनिक मानस और मर्दाना अहंकार में व्यापक असंवैधानिकता रची-बसी है, जो कि (संविधान के) भाग-III के लिए अभिशाप है जो संबंधित मंत्रालय में निर्दोषों का शिकार करता है। अगर कहीं इस तरह का लैंगिक अन्याय सक्रिय है, तो शिखर द्वारा गंभीरता से ध्यान देने योग्य है, ताकि इस तरह की (कु)प्रवृत्ति को समाप्त किया जा सके। विदेशी सेवा में स्त्री द्वेषी के रूप में और अधिक स्पष्ट दो हठी नियम हैं, जो याचिका में बताए गए हैं। भारतीय विदेश सेवा (आचरण और अनुशासन) नियम,1961 के शर्मनाक नियम 8 (2), पढ़ें जा सकते हैं :
नियम 8 (2) : “उन मामलों में जहां उप-नियम (1) लागू नहीं होता है, विदेश सेवा की महिला सदस्य शादी से पूर्व सरकार से लिखित में अनुमति लेगी। विवाह के बाद किसी भी समय, महिला सदस्य को सेवा से इस्तीफा देने की आवश्यकता पड़ सकती है, अगर सरकार संतुष्ट हो कि परिवार और घरेलू प्रतिबद्धताएं उसके कर्तव्यों के उचित और कुशल निर्वहन के रास्ते में आने की संभावना है।”
महिलाओं के विरुद्ध भेदभावपूर्ण इस नियम में पारदर्शी पीड़ा मौजूद है। यदि कोई महिला सदस्य विवाह करने से पहले सरकार की अनुमति प्राप्त करेगी, तो सरकार को वही जोखिम तब भी होगा (होना चाहिए!) यदि पुरुष सदस्य विवाह करता है। यदि सेवा की महिला सदस्य के परिवार और घरेलू प्रतिबद्धतायें उसके कर्तव्यों के कुशल निर्वहन के रास्ते में आने की संभावना है, तो पुरुष सदस्य के मामले में भी तो ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो सकती है। एकल परिवारों, अंतर-महाद्वीपीय विवाह और अपरंपरागत व्यवहार के इन दिनों (समय) में, कोई भी व्यक्ति सभ्य स्त्री प्रजाति के खिलाफ इस नग्न पूर्वाग्रह को समझने में विफल है (होगा)। भारतीय विदेश सेवा (भर्ती संवर्ग, वरिष्ठता और पदोन्नति) नियम,1961 के नियम 18 (4) में भी वैसा ही पूर्वाग्रह और तनाव कुंडली मारे बैठा हैं :
‘(4) किसी भी विवाहित महिला को सेवा में नियुक्त होने का अधिकार नहीं होगा।’
प्रथम दृष्टि में ही यह नियम लज्जाजनक और अनुच्छेद 16 की अवहेलना है। यदि विवाहित पुरुष को अधिकार है, तो विवाहित महिला (अन्य चीजें समान होने पर), को क्यों नहीं! वह किसी बदतर धरातल पर नहीं खड़ी।यह स्त्री विद्वेषी मुद्रा मर्दाना संस्कृति की खुमारी है, जो अबला स्त्री को बेड़ियों में जकड़ना है और यह भूलते हुए कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए हमारा संघर्ष, महिला दासता के खिलाफ लड़ाई थी। स्वतंत्रता अविभाज्य है, इसलिए न्याय भी। अनुच्छेद 14 और 16 में हमारे मूल विश्वास को ‘आधी दुनिया’ और मानवता के संदर्भ में पूरी तरह नजरअंदाज किया जाना, संविधान और व्यवहारिक कानून के बीच की दूरी का उदास प्रतिबिंब हैं। और अगर संसद के ‘सरोगेट’ के रूप में कार्यपालिका, (संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार से सम्बंधित) भाग-III के दांतों में ऐसे नियम बनाता है, खासकर जब उच्च राजनीतिक कार्यालय, यहां तक कि राजनयिक पद जो महिलाओं द्वारा भरा गया है, तो लिंग समानता के प्रति सख्त ‘एलर्जी’ का विरोध अपरिहार्य है।
हमारा अभिप्राय यह सामान्यीकरण करना नहीं है कि सभी व्यवसायों और सभी स्थितियों में पुरुष और महिलाएं समान हैं और यह दावा भी नहीं कि विशेष रोजगार की आवश्यकताएं, यौन संवेदनशीलता या सामाजिक क्षेत्रों की विशिष्टताओं या दोनों में से किसी भी बाधा को दूर करने के लिए, यौन आधार पर चयन की विवशता या आवश्यकता ही नहीं है। लेकिन जहां भेदभाव प्रदर्शनीय है, वहाँ समानता का नियम ही चलना चाहिए। हमारे संविधान के इस पंथ ने आखिर हमारे सरकारी उल्लेख पर बताया, शायद आंशिक रूप से इस लंबित याचिका के दबाव में ही सही प्रतिवादी हलफनामे में यह कहा गया है कि नियम 18 (4) (पूर्व में संदर्भित) 12 नवंबर, 1973 को हटा दिया गया है। और इसी तरह, केंद्र सरकार का हलफनामा कहता है कि नियम 8 (2) भी विलुप्त होने के रास्ते में है, जिसे नियमावली से हटाने के बाद राजपत्रित किया जा रहा है। देर आए दुरुस्त आए। खैर! हमें इन नियमों की छानबीन करने या असंवैधानिक घोषित करने की आवश्यकता से राहत मिली।
इस कानूनी कार्यवाही के बाद याचिकाकर्ता को पदोन्नत कर दिया गया है। कह सकते हैं कि इसके बाद, यह तो होना ही था।जहां न्याय हो चुका हो, तो आगे की जांच व्यर्थ है। केंद्र सरकार बताती है कि हालांकि याचिकाकर्ता को कुछ महीने पहले पदोन्नति के लिए पर्याप्त योग्य नहीं पाई गई थी, लेकिन वह अब उपयुक्त पाई गई है, उसे पदोन्नत किया गया है और ‘हेग’ में भारत के राजदूत के रूप में नियुक्त किया गया है। अब उसकी एक शिकायत शेष बची है। उसके पहले मूल्यांकन और दूसरे मूल्यांकन के बीच कुछ महीनों के अंतराल के दौरान, कुछ कनिष्ठ अधिकारी उससे वरिष्ठ हो गए हैं भारतीय आधिकारिक जीवन की चूहा दौड़ में, वरिष्ठता एक धार्मिक सम्मान प्राप्त करती दिखाई देती है। चूंकि याचिकाकर्ता के आगे का कैरियर बुरी तरह से प्रभावित हो सकता है, क्योंकि यह तथ्य है कि उसका सेवा ग्रेड I में पहले जन्म हुआ था, इसलिए उसकी वरिष्ठता को बदलने वाली शिकायत को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता है। उनका मामला, वरिष्ठता पर विशेष ध्यान केंद्रित करते हुए, उन कनिष्ठों के संदर्भ में समीक्षा के योग्य है, जिन्हें कुछ महीनों के अंतराल में पदोन्नत किया गया है। अन्याय की भावना नासूर है, जिसे पूर्णतया नष्ट किया जाना चाहिए ताकि रणनीतिक स्थिति में हर नौकर देश के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ दें। हमें भारत के संघ की तरफ से महाअधिवक्ता (सॉलिसिटर जनरल सोली सोराबजी) की उपस्थिति का विशेष लाभ मिला है। चारित्रिक निष्पक्षता के साथ उन्होंने अपने मुवक्किल को इस बात के लिए राजी कर लिया है कि हम जिसे सिर्फ इशारे के रूप में मानते हैं, वह यह है कि प्रतिवादी सरकार (यूनियन ऑफ इंडिया) जल्द ही याचिकाकर्ता की वरिष्ठता की समीक्षा करेगा, उसकी योग्यता का पता लगाया जा चुका है और ग्रेड-II में उसकी वरिष्ठता की पहचान की जा चुकी है। हम उसी के अनुसार निर्देशित करते हैं।
उपरोक्त कथन के अधीन रहते हुए, हमें याचिका में लगाए गए बदनीयती के आरोपों की जांच करना जरूरी नहीं लगता। याचिका या लैंगिक धर्माथ से किसी प्रेरणा का इंतजार किए बिना, हम सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि सरकार को यौन भेदभाव को समाप्त करने के लिए, सभी सेवा नियमों को खत्म करने की आवश्यकता है। हम याचिका निरस्त कर रहे हैं लेकिन समस्या नहीं।”( ए.आई.आर1979 सुप्रीम कोर्ट 1868)
न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर की संवेदनात्मक न्यायिक भाषा और प्रगतिशील दृष्टिकोण को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जानना-समझना जरूरी है। हालांकि याचिका अंततः निरस्त कर दी गई। खैर…इस कड़ी में आगे महिलाओं के उन तमाम न्यायिक संघर्षों पर संवाद होना चाहिए, जिन्होंने आधी दुनिया को रोशन करने की पहल और अभूतपूर्व भूमिका का सफलता पूर्वक निर्वाह किया है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि सुश्री मुथम्मा ने यह कदम अपने व्यक्तिगत हितों का बचाव करने के लिए ही किया था। लेकिन निश्चित रूप से संघर्ष की इस राह ने बहुत सी स्त्रियों को प्रेरित किया। जब और कोई रास्ता नहीं बचा तो स्त्री विरोधी नियमों, कानूनों, कुप्रथाओं, विसंगतियों की संवैधानिक वैधता को ही चुनौती देनी पड़ी। एक बार नहीं, अनेक बार। ऐसे अनेक ऐतिहासिक मुकदमों की लंबी सूची है।
एयर इंडिया में भी एयर होस्टेस के संदर्भ में ऐसे ही भेदभाव पूर्ण नियम थे, जिन्हें बाद में एयर इंडिया बनाम नरगेश मिर्ज़ा (ए आई आर 1981 सुप्रीम कोर्ट 1829) मामले में चुनौती दी गई थी।
विचित्र विडंबना है कि आज भी घोषित-अघोषित रूप से भारतीय समाज और गैर-सरकारी क्षेत्र में अविवाहित लड़कियों को ही प्राथमिकता दी जाती है और विवाहित स्त्रियों को नौकरी के लिए ‘अयोग्य’ समझा जाता है। ‘प्रसवाकाश’ मांगते ही नौकरी से हटा दिया जाता है। साधन-संपन्न वर्ग में शादी के बाद नौकरी छोड़ने का पारिवारिक दबाव-तनाव बढ़ने लगता है। यौन हिंसा और कार्यस्थल पर यौनिक उत्पीड़न के आतंक से भयभीत स्त्रियों के एक बड़े समूह को,घर-परिवार और बच्चे पालना ही अधिक सुरक्षित जान पड़ता है। क्या यह स्त्रियों की ‘व्यवस्था द्वारा हत्या’ नहीं!
(कॉपी संपादन : नवल)
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