बिहार में चुनाव के सारे पूर्वानुमान ध्वस्त करते हुए , भाजपा ,नीतीश और रामविलास के एनडीए ने कुल चालीस में से उनचालीस सीटें जीत ली हैं। भाजपा के सभी सतरह, लोजपा के सभी छह और जेडीयू के कुल सत्रह में से , एक छोड़ सोलह उम्मीदवार चुनाव जीत गए हैं। कांग्रेस को येनकेन मामूली मतों से किशनगंज की सीट प्राप्त करने का अवसर या गौरव मिला है और इसके साथ वह महागठबंधन की एकमात्र जीती हुई सीट हो गयी है। लालू, मांझी और कुशवाहा की पार्टियों को कोई सीट नहीं मिल सकी। इनके सभी उम्मीदवार बुरी तरह पराजित हो गए। और इस तरह बिहार के राजनीतिक इतिहास में एक नयी इबारत लिख दी गयी है। कोई भी कह सकता है कि यह राजनैतिक आंधी केवल और केवल नरेंद्र मोदी की थी, जो लगभग पूरे देश में चली, बिहार में कुछ अधिक चली। संयुक्त बिहार में लोगों ने तीन दफा ऐसी आंधी देखी है। पहली दफा 1977 में, जब सभी 54 सीटें जनता पार्टी ने जीत ली थी। यह इमरजेंसी की प्रतिक्रिया थी। दूसरी दफा तब, जब 1984 में इंदिरा जी की हत्या के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को 54 में से 48 सीटें मिली थीं। फिर 1991 में मंडल आंदोलन की पृष्ठभूमि में हुए चुनाव में लालू प्रसाद के नेतृत्व में मोर्चे ने 54 में से 48 सीटें जीती थी और एक राजनैतिक तूफ़ान का अहसास कराया था।
अब यह 2019 है जब लगभग 1977 की तरह का इकतरफा नतीजा आया है। बिहार का विपक्ष और महागठबंधन के नाम से अभिहित राजनैतिक मोर्चा पूरी तरह तहस-नहस हो गया है। यह आखिर क्या है? पुलवामा की प्रतिक्रिया या नरेंद्र मोदी-नीतीश कुमार के मिले-जुले कामों पर जनता की मुहर। या फिर तथाकथित राष्ट्रवाद और बिहारी जातिवाद के बीच सीधा मकाबला, जिसमें जाति की राजनीति वाला फार्मूला ध्वस्त हो गया। लेकिन यह कोई प्रांतीय स्तर का चुनाव नहीं था, राष्ट्रीय स्तर का चुनाव था और भाजपा को जीत भी दक्षिण को छोड़ कर लगभग पूरे भारत में मिली है। बिहार की यह विजय असंगत नहीं, सुसंगत और राष्ट्रीय अनुक्रम में है। इसलिए भले ही बिहार में इसका तनिक भिन्न चेहरा दिखा हो, लेकिन यह प्रांतीय चरित्र का चुनाव नहीं था। देश के दूसरे हिस्सों में भी जातिवाद है और उसकी राजनीतिक प्रवृतियां भी दिखाई पड़ती हैं। स्वयं नरेंद्र मोदी-अमित शाह के गुजरात से ही ‘खाम’ की जातीय जुगलबंदी 1970 के दशक में शुरू हुई थी, जिसका अनुगमन उत्तरप्रदेश में ‘अजगर’ के रूप में हुआ। बिहार में भी त्रिवेणी संघ के रूप में 1930 के दशक में चले आंदोलन को 1970 के दशक में आंशिक फेरबदल के साथ कुछ लोगों ने शुरू किया, तो इस खाम और अजगर से ही प्रेरणा ली। इसलिए गुजरात तो लोकतान्त्रिक भारत में जातिवादी राजनीति का ननिहाल है। बिहार तो इस मामले में बहुत पीछे है। ठेठ बिहारी तर्ज में कहें तो ‘झुट्ठो बदनाम है।’
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लेकिन मैं अपनी बात को बिहार और अधिक से अधिक उत्तर प्रदेश पर ही केंद्रित करूँगा। क्योंकि यहीं से भाजपा को निर्णायक चुनौती मिलनी थी। 2004 में अटलजी जब प्रधान थे, तब भी वह इस हिंदी पट्टी के कारण ही पराजित हुए थे, तब अटल सरकार को सत्ता से बाहर करने में लालू, मुलायम, मायावती की राजनीति की निर्णायक भूमिका थी। बिहार-उत्तरप्रदेश की राजनीति पर जब भी बात होती है, तब जाति-प्रसंग छिड़ जाता है। इस चुनाव के बाद भी, खास कर कल के नतीजों के आने के बाद, लोग जातिवार वोट के जोड़-घटाव करने में जुटे हैं और उन्हें कुछ हासिल नहीं हो पा रहा है। इस चुनाव में बिहार में उल्लेखनीय राजनैतिक मोर्चेबंदी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग और महागठबंधन का था। राजग में भाजपा, नीतीश कुमार की अध्यक्षता वाली जनतादल यूनाइटेड और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी हैं। महागठबंधन में लालू प्रसाद का राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, और उपेंद्र कुशवाहा व जीतनराम मांझी की पार्टियां हैं। कांग्रेस और भाजपा तो राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां हैं; लेकिन बाकी सब के नाम में भले ही राष्ट्रीय शब्द जुड़ा हो, सब का चरित्र प्रांतीय भी नहीं जातीय है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि इस या उस मोर्चे में राष्ट्रीयता और जातीयता के इतने-इतने तत्व हैं। दोनों तरफ जातिवादी बिसातें थीं और इन सब पर एक-एक राष्ट्रीय दल की चौकीदारी थी। इस तरह यह मोर्चेबंदी भाजपा और कांग्रेस के बीच की ही मोर्चेबंदी कही जाएगी।
बिहार से तनिक भिन्न स्थिति उत्तरप्रदेश की थी। वहाँ गठबंधन के साथ कांग्रेस नहीं थी। लेकिन भाजपा के साथ भी कोई नीतीश कुमार और रामविलास पासवान नहीं था। वहां सपा और बसपा की राजनैतिक औकात बिहार के राजद से बड़ी है और मुस्लिम व दलित मतों का प्रतिशत भी बिहार के मुकाबले वहाँ चार-चार प्रतिशत अधिक है।
लेकिन इसमें एक मोर्चा क्यों हार गया और दूसरा क्यों जीत गया? यक्ष -प्रश्न तो यही है। कायदे से देखा जाय तो महागठबंधन की मुश्किलें तभी शुरू हो गयी थीं, जब साल 2017 में, नीतीश कुमार उससे अलग हुए। घंटे भर के भीतर वह भाजपा से जा मिले। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, राजद और जेडीयू ने एक साथ होकर महागठबंधन बनाया था और भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को बुरी तरह पराजित कर दिया था। लेकिन नीतीश जब पुनः भाजपा से जा मिले, तब कांग्रेस भी दो भाग हो गयी। प्रदेश अध्यक्ष रहे उनके नेता सहित कुल छह में से चार एमएलसी भी जेडीयू से जा मिले। राजद ने नयी राजनीतिक मोर्चेबंदी के तहत उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी को एनडीए से अलग किया और महागठबंधन से जोड़ा। महागठबंधन को उम्मीद थी कि इससे वह नीतीश के छिटकने से हुए नुक़सान की भरपाई कर लेंगे। लेकिन यह नहीं हो सका। इस लोकसभा चुनाव में बिहार एनडीए को कुल 53.2 फीसद वोट मिले हैं। महागठबंधन को प्राप्त वोट लगभग 31 प्रतिशत है। इस तरह दोनों मोर्चों के बीच लगभग 22 प्रतिशत मतों का अंतर है। यही कारण है कि महागठबंधन के अधिकतर उम्मीदवारों की पराजय लाखों वोट से हुई है। उत्तरप्रदेश के वोटों का पार्टीवार प्रतिशत अभी मेरे पास नहीं है, इसलिए उस पर अधिक कहने की स्थिति में मैं नहीं हूँ।
आखिर नरेंद्र मोदी और भाजपा ने कौन-सा जादू किया? बिहार से भी अधिक करिश्माई जीत उसे बंगाल और उत्तरप्रदेश में मिली है। महाराष्ट्रीय हिंदुत्व बंगला हिंदुत्व पर छा गया है और कोई भी कह सकता है अगली प्रांतीय सरकार वहां भाजपा की होगी। उत्तरप्रदेश में सपा और बसपा के अभेद्य माने जाने वाले राजनीतिक समीकरण को भी उसने ध्वस्त कर दिया है। इसलिए यह स्वीकार करना होगा कि जातिवादी राजनीतिक जुगलबंदियों और सेकुलर राजनैतिक चेतना की नरेंद्र मोदी की इस आँधी ने कोई परवाह नहीं की। उसे तहस-नहस कर दिया। लेकिन जो लोग यह मानते हैं कि यह केवल हिंदुत्व या हिन्दू राष्ट्रवाद की जीत है, उन्हें तनिक गहराई में जाना होगा। नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने भाजपा को अटल बिहारी वाजपेयी-लालकृष्ण आडवाणी की मानसिकता से निकाला। उसे नागपुर केंद्रित आरएसएस की उस चौकड़ी से भी बाहर किया, जिसकी नुमाइंदगी कभी-कभार गडकरी करते दिखलाई पड़ते हैं। मोदी-शाह की जोड़ी ने अपने ही प्रान्त के खाम समीकरण से सीखा और भाजपा के एक बूढ़े नेता कल्याण सिंह के जातिवादी-राष्ट्रवादी घालमेल को जिसका उनने उत्तरप्रदेश में एक समय सफल प्रयोग किया था, राष्ट्रीय स्तर पर फैला दिया। प्रकारांतर से कहें तो भाजपा के ब्राह्मण-बनिया सामाजिक समीकरण को पीछे करते हुए, भाजपा को अतिपिछड़ी-महादलित जैसी उपेक्षित जातियों का महामंच बना दिया। 2005, 2009 और 2010 के चुनाव में बिहार में नीतीश ने इसी समीकरण से लालू की राजनीति को ध्वस्त किया था। नीतीश को बाद में अफसरों की चौकड़ी ने घेर कर बर्बाद कर दिया और आज वह भाजपा के पीछे खड़े रहने के लिए अभिशप्त हैं। यही कारण है कि इस विजय-वेला में भी टीवी पर उनका चेहरा उदास-उदास दिख रहा है। वह जीत कर भी हार चुके हैं। क्या हारे हैं, यह उनसे अधिक और कोई नहीं जानता।
भाजपा ने हिन्दुओं और शहरियों के उच्च तबकों और अतिपिछड़ी और महादलित जातियों पर खुद को केंद्रित किया। बिचौलिया अथवा मध्यवर्ती जातियों के लिए भी दरवाजे खुले रखा। इस तरह एक ऐसे हिंदुत्व को खड़ा किया जो सावरकर और हेडगवार के हिंदुत्व से आगे का था। दूसरी तरफ उनके प्रतिपक्ष जिसमे मुख्यरूप से कांग्रेस थी, द्विज हिन्दुओं और शहरियों से तादात्म्य स्थापित करने में विफल रही। राजद और इस तरह की अन्य पार्टियां विशुद्ध जातिवादी संगठन बन कर रह गयीं। ऐसे में वहाँ पैसे लेकर टिकट बेचने से लेकर अन्य तरह का भ्रष्टाचार, जिसमे कुनबावाद भी शामिल था का बढ़ना स्वाभाविक था। बिहार और उत्तरप्रदेश के भाजपा-विमुख राजनैतिक गठबंधन उच्च पिछड़ी और उच्च दलित जातियों की राजनीतिक अभिव्यक्ति के मझोले मंच बन कर रह गए। यादवों, कुशवाहों, कुर्मियों, जाट, चमारों से उनसे निम्न तबके की जातियां घृणा करने लगी हैं। इन मध्यवर्ती जातियों के मुकाबले उच्च द्विजों के साथ अपनी राजनीतिक जुगलबंदी को उनलोगों ने बेहतर माना। मध्यवर्ती जातियों और उच्च-दलितों का एक मजबूत हिस्सा भी सत्ता का लाभ लेने भाजपा कैंप में पहुँच चुका है। आरक्षण का लाभ ले मुटियाये इस तबके को राजनैतिक संरक्षण की बड़ी जरुरत होती है। इसके विपरीत मध्यवर्ती जातियों की पार्टियां अपने बिखरते वोटबैंक को बनाये रखने के लिए अधिक कंजर्वेटिव रुख अख्तियार करती हैं। ऐसे में वह अपने में सामाजिक दकियानूसीपन विकसित करती हैं और धीरे-धीरे सामाजिक-राजनीतिक ग्राह्यता को कमजोर कर लेती हैं। मुसलमानों का एक पृथक मनोविज्ञान है। दकियानूसीपन की वहाँ भी कोई कमी नहीं है। भाजपा का उनके प्रति आक्रामक रुख उन्हें सुरक्षात्मक स्थिति में लाये हुए है। वह आज़ादी से कुछ विचारने की स्थिति में नहीं हैं। फिलहाल मुसलमानों के पास कोई विकल्प नहीं था। अतएव उनका समर्थन गठबंधन को अवश्य मिला, लेकिन सब मिला कर भी भाजपा के सामाजिक-इंजीनियरिंग के सामने गठबंधन-महागठबंधन धड़ाम हो गए।
कॉपी संपादन : नवल)
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