(‘ई. वी. रामासामी पेरियार का दर्शन’ असल में पेरियार का व्याख्यान है। 1947 में उन्हें सलेम कॉलिज के दर्शन विभाग ने एक व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया था। विभागाध्यक्ष थिरू रामासामी ने उस कार्यक्रम की अध्यक्षता की थी। दर्शनशास्त्र पर दिए गए उस व्याख्यान में पेरियार ने हिंदू धर्म के लोकप्रिय तत्वों पर अपनी बात रखी थी। एक वैज्ञानिक की भांति वे धर्म, ईश्वर, आत्मा आदि का विश्लेषण करते हैं। उनका कहना था कि परमात्मा और धर्म से जुड़े मुद्दों पर गंभीर अन्वेषण की आवश्यकता है। ठीक वैसे ही जैसे दूसरे वैज्ञानिक विषयों के बारे में जरूरी होता है। उन्होंने जोर देकर कहा था कि शोध और विचार-विमर्श के दायरे से कुछ भी छूटना नहीं चाहिए।
उल्लेखनीय है कि पश्चिम में धर्म, ईश्वर आदि की ऐसी ही पड़ताल अठारवीं शताब्दी के विचारक रूसो ने भी की थी। पर पेरियार की चुनौती बड़ी थी। रूसो के सामने अनियंत्रित मशीनीकरण के कारण समाज में आ रही विकृतियां थीं। जबकि पेरियार के सामने हजारों साल पुरानी जाति की समस्या, ऊंच-नीच तथा भेदभाव थे। धर्म, दर्शन, ईश्वर आदि को लेकर पेरियार की कई स्थापनाएं हमें विचित्र लग सकती हैं। क्योंकि उस तरह से सोचने का हमें अभ्यास ही नहीं है। आमतौर पर धर्म-दर्शन की बात चलती है तो आस्था महत्त्वपूर्ण हो जाती है। यहां तक कि तटस्थता का दावा करने वाले विचारक भी, पूर्वाग्रहों के चलते, आस्था के अनकहे प्रभाव में आ जाते हैं। ऐसे में पेरियार का धर्म-दर्शन पर व्याख्यान, विशुद्ध दार्शनिक विमर्श है, जो हिंदू धर्म-दर्शन के प्रचलित मिथों को समझने की नई दृष्टि देता है। अनुवादक की टिप्पणी)
ई.वी. रामासामी पेरियार का दर्शन : लोकप्रिय दार्शनिक मिथों की वैज्ञानिक पड़ताल
- पेरियार
आज मुझे दर्शनशास्त्र पर अपनी बात कहने के लिए बुलाया गया है।
सलेम कॉलिज के इस प्रांगण में विद्यार्थियों, उनके अध्यापकों के अलावा और भी बहुत से लोग यहां उपस्थित हुए हैं। मैं नहीं मानता कि यहां, इतने गौरवशाली श्रोताओं को संबोधित करना मेरे लिए आसान बात होगी। मैं नहीं जानता कि मैं अपनी बातें कहां तक आप सबको समझा पाऊंगा, और आप मेरी बातों से संतुष्ट होंगे। इसके अतिरिक्त यह कहीं ज्यादा आवश्यक है कि कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण और अग्रणी दर्शन-सिद्धांतों पर आपसे चर्चा की जाए। मैं अनुभव करता हूं कि दर्शनों और स्थापित दार्शनिक मान्यताओं पर चर्चा करना मेरे लिए आसान नहीं होगा।
दार्शनिक बोध तथा दार्शनिक अभिव्यक्तियां सत्य होती हैं। उसकी पुनर्व्याख्या, उसे आगे तक पहुंचाने के लिए अपेक्षा की जाती है कि चीजों को उसी रूप में देखा जाए, जैसी कि वे हैं—और ठीक वैसा ही समझा जाए जैसा उनसे प्रत्याशित है। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि ज्ञान प्रकृति से, हमारे सहजानुभवों से प्राप्त होता है।