(सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता चर्चित लेखक अरविंद जैन की किताब ‘औरत होने की सजा’ को हिंदी के वैचारिक लेखन में क्लासिक का दर्जा प्राप्त है। यह किताब भारतीय समाज व कानून की नजर में महिलाओं की दोयम दर्जे को सामने लाती है। इसका पहला प्रकाशन ‘विकास पेपरबैक’, नई दिल्ली से 1994 में हुआ था। 1996 में इसे राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया। अब तक इसके 25 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। स्त्रीवाद व स्त्री अधिकारों से संबंधी अध्ययन के लिए यह एक आवश्यक संदर्भ ग्रंथ की तरह है। हम अपने पाठकों के लिए यहां इस किताब को हिंदी व अंग्रेजी में अध्याय-दर-अध्याय सिलसिलेवार प्रकाशित कर रहे हैं। फारवर्ड प्रेस बुक्स की ओर से हम इसे अंग्रेजी में पुस्तकाकार भी प्रकाशित करेंगे। हिंदी किताब राजकमल प्रकाशन के पास उपलब्ध है। पाठक इसे अमेजन से यहां क्लिक कर मंगवा सकते हैं।
लेखक ने फारवर्ड प्रेस के लिए इन लेखों को विशेष तौर पर परिवर्द्धित किया है तथा पिछले सालों में संबंधित कानूनों/प्रावधानों में हुए संशोधनों को भी फुटनोट्स के रूप में दर्ज कर दिया है, जिससे इनकी प्रासंगिकता आने वाले अनेक वर्षों के लिए बढ गई है।
आज पढें, इस किताब में संकलित ‘कन्यादान अनिवार्य नहीं’ शीर्षक लेख। इसमें बताया गया है किस तरह कार्यस्थलों पर कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानूनों के बावजूद स्थितियों में अपेक्षित सुधार नहीं हो सका है – प्रबंध संपादक)
महिलाएं : न घर में सुरक्षित न बाहर
- अरविन्द जैन
दफ्तरों में कामकाजी महिलाओं के यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी निर्देश[i] स्वागत योग्य है, किंतु यह महज चर्चा का विषय बनकर रह जाएगा। हो सकता है कि यह निर्देश थोड़ा-बहुत मौलिक परिवर्तन कर दे। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश की भाषा पर गौर करें, तो लगता है कि जैसे इसमें तर्क और न्याय का अभाव है। साथ ही यह निर्देश किसी राजनीतिक दल का चुनाव घोषणा पत्र जैसा लगता है। उक्त निर्देश में न्यायालय ने खुद स्वीकार किया कि महिलाओं के यौन उत्पीड़न को रोकने में वर्तमान कानून अपर्याप्त हैं। हालांकि कानून बनाने का अधिकार संसद को है और इसे लागू कराने की जिम्मेदारी कार्यपालिका की है। बलात्कार और दहेज विरोधी कानूनों के साथ भी ऐसा ही लचर रवैया अपनाया जाता है। इसका कारण यह है कि यह अपने-आप में विरोधाभासी और विडंबनाओं का पुलिंदा है।
अदालत ने अपने निर्देश में कहा है कि अगर यौन उत्पीड़न का कोई आपराधिक और कानूनी मामला बनता हो तो नियोक्ता खुद भी प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ.आई.आर.) दर्ज कराए। इस वक्त भारत में भारतीय दंड संहिता की दो धाराओं अर्थात् धारा 354 और 506 के तहत एफ.आई.आर. दर्ज होती है। पर इन दो कानूनी प्रावधानों को सख्ती से लागू करने और इनकी खामियों को दूर करने की दिशा में अदालत ने कोई कदम नहीं उठाया है। ऐसे अधिकांश मामलों में अपराध साबित करना मुश्किल होता है। इन कानूनी प्रक्रियाओं से गुजरना इतना त्रासद और अपमानजनक है कि एक साधारण महिला को न्याय मिल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।
यही हाल बलात्कार संबंधी कानूनों का है। जैसे भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1873 की धारा 155 (4) के अनुसार यदि किसी व्यक्ति पर बलात्कार का आरोप है और वह प्रमाणित कर दे कि बलात्कार की शिकार महिला बदचलन और चरित्रहीन है, तो वह व्यक्ति बाइज्जत बरी हो सकता है।[ii] इसी आधार पर शीर्ष अदालत ने कई मुजरिमों को बरी किया या सजा कम की। भारतीय न्यायालयों में ऐसे निर्णयों के सैकड़ों उदाहरण देखे जा सकते हैं, जहां कानून के भेदभावपूर्ण होने के कारण अपराधी छूटते रहे हैं। मथुरा बलात्कार मामले में तो हद हो गई, जिसमें उसके साथ थाने में बलात्कार हुआ और सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि मथुरा एक बदचलन लड़की थी जो अपनी मर्जी से पुलिसवालों के पास आई थी। यदि इसे सच भी मान लें तो क्या सरकारी दफ्तर या थाने में किसी महिला के साथ उसके सहमति से संभोग करने की कानून इजाजत देता है? क्या यह राजकीय सेवा अधिनियम का उल्लंघन नहीं? दरअसल समूची भारतीय न्यायिक प्रक्रिया और कानून औरतों के प्रति होने वाले अपराधों को बढ़ावा देने वाले हैं। ऐसे में शीर्ष अदालत में मौजूदा आदेश का भी वैसा ही हश्र होगा, जो पहले के कानूनों का हुआ। आप देख लें कि इन कानूनों के तहत औरतों पर अत्याचार करने वाले कितने लोगों को सजा हुई है!
यह भी पढ़ें : कन्यादान अनिवार्य नहीं
इस आदेश में सबसे बड़ी खामी यह है कि यह लागू कैसे होगा या इसके कार्यान्वयन की प्रक्रिया क्या होगी, यह नहीं बताया गया है। सभी कार्यालयों में अनुशासन के नियम, विभागीय जांच आदि का प्रावधान तो पहले से है। हां स्थानांतरण वाली बात जरूर नई है, पर मेरा ख्याल है कि इसका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग होगा।
यह नहीं माना जा सकता है कि शीर्ष अदालत के इस आदेश से महिलाओं का यौन उत्पीड़न रुक जाएगा। इस आदेश पर बारीकी से दृष्टि डालने पर इसकी दुर्व्याख्या होने की ज्यादा संभावना है। प्रश्न है कि क्या सामान्य मजाक या तारीफ को यौन उत्पीड़न मान लिया जाए, क्योंकि जिस तरह हमारे समाज में तब्दीलियां आ रही हैं, उसे देखते हुए ‘समस्या’ के मूल कारणों पर विचार किए बिना केवल एक नीतिशास्त्रीय वक्तव्य से बात नहीं बनेगी। कुछ अर्थों में यह एक प्रतिगामी आदेश लगता है। जिन प्रक्रियाओं को अदालत ने यौन उत्पीड़न माना है, उनसे मुक्त जगह इस पृथ्वी पर भला कहां है?
आज जिस ढंग से मीडिया आम आदमी की चेतना की छवि लगातार एक ‘सेक्सी वस्तु’ के रूप में प्रक्षेपित करता जा रहा है, इसका कहीं न कहीं घर या दफ्तर में पुरुषों के व्यवहार में असर तो होगा ही। व्यावसायिक हितों के कारण एक ओर हम इसे रोक नहीं सकते, तो दूसरी ओर हम चाहते हैं कि हमारे घर में पारंपरिक मूल्य-मर्यादा बरकरार रहें- यह कैसे संभव है? प्रश्न यह भी है कि क्या अश्लीलता और अश्लील व्यवहार पर कानून में कोई संगति और आम राय बन पाई है? भारतीय दंड संहिता की धारा 292 और ‘इंडिसेंट रिप्रेजेंटेशन आफ वूमेन एक्ट’ के तहत कितने मामलों में सजा हुई है?
कामकाजी महिलाओं की स्थिति तो फिर भी बेहतर है। परिवार के भीतर आम औरतों पर होने वाले अत्याचार लगातार बढ़ रहे हैं। समाज में अकेली रहने वाली औरतों की संख्या लगातार बढ़ रही है। उसके पारंपरिक रक्षक पिता-पति और पुत्र ही हिंसक हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में कोई कानून क्या कर लेगा? दरअसल हमारा पूरा समाज, प्रशासन और न्यायपालिका, राजनीति और अर्थतंत्र औरत के विरोध में खड़ा है यह जटिल समस्या है। इससे निपटने के लिए शिक्षा और संस्कारों में भी बदलाव की जरूरत है। जैसे-जैसे कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ेगी, उसी दर से यह समस्या थोड़ी कम भी होगी। लेकिन औरतों में जितना अन्याय और उत्पीड़न के प्रति विरोध बढ़ेगा, उनके प्रति, पितृ-सत्ता द्वारा दमन भी बढ़ेगा।
इसलिए औरतों का यौन उत्पीड़न केवल एक कानूनी मामला नहीं है, बल्कि यह सामाजिक मामला भी है। यदि सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर कुछ अधिक नहीं किया गया तो अन्य कानूनों की तरह सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश से भी कोई ठोस परिणाम नहीं निकलेगा, पर इस दिशा में यह आदेश एक सकारात्मक कदम तो है ही।
(मूल लेख 30 अगस्त, 1997 को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित)
[i] इससे बड़ी न्यायिक विडम्बना और क्या होगी कि देश की सर्वोच्च अदालत ने (‘विशाखा’ बनाम राजस्थान राज्य, एआईआर 1997 सुप्रीम कोर्ट 3012) ‘कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न’ रोकने के लिए, 13 अगस्त 1997 को जो ऐतिहासिक ‘दिशा-निर्देश’ जारी किये थे, उन्हें खुद अपनी अदालत में लागू करने में लगभग 17 साल लग गए। सरकार और कानून मंत्रालय भी विधेयक बनाने के बारे में 17 साल तक सोचते-विचारते रहे। आख़िरकार, 22 अप्रैल 2013 को कानून बन पाया। कारण एक नहीं, अनेक हो सकते हैं, पर इससे लिंग समानता और स्त्री रक्षा-सुरक्षा के सवाल पर, विधायिका और न्यायपालिका की गंभीरता का अनुमान तो लगाया ही जा सकता है।
[ii] भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 155(4) को 31 दिसंबर, 2002 से संशोधन द्वारा हटा दिया गया है।
(काॅपी संपादन : नवल/इमामुद्दीन)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें
मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया