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मलखान सिंह की कविताएँ और जाति के प्रश्न

कमलेश वर्मा बता रहे हैं कि मलखान सिंह की कविताएं दलित विमर्श के तर्ज पर नहीं लिखी गई हैं, बल्कि उनकी कविताएं दलित विमर्श की वैचारिकी रचती हैं। वे सतह पर दिखने वाले यथार्थ के भीतर के परत-दर-परत यथार्थ को उजागर करते हैं। मौलिकता और ताज़गी उनकी कविताओं की पहचान है:

मलखान सिंह (जन्म- 1948, जिला- हाथरस, उत्तर प्रदेश) की कविताएँ आत्मकथा हैं। वे आत्मकथा हैं, इसलिए सच्ची हैं। इनकी शैली आत्मकथात्मक है, इसलिए कथन में विश्वसनीयता है। मलखान जी पर भरोसा हो जाता है कि इनकी कविताओं के चित्र सच्चे हैं। इन चित्रों के कई रंग हैं। ऐसा नहीं है उनकी कविताएँ दलित विमर्श के सिद्धांतों से जन्म लेती हैं, बल्कि उनकी कविताओं को पढ़कर दलित विमर्श के सिद्धांतों को समृद्ध किया जा सकता है। वे हिन्दी दलित विमर्श के शुरुआती कवियों में से एक हैं। उन्होंने अपना लेखन तब शुरू किया, जब दलित जीवन की कविताएँ आकार प्राप्त कर रही थीं। यही कारण है कि उनकी अभिव्यक्ति में मौलिकता और ताज़गी महसूस होती है।

दलित समाज का प्रारम्भिक संघर्ष यही रहा है कि उसे मनुष्य का समाज समझा जाए! उसे वे प्राथमिक अधिकार और सम्मान प्राप्त हो जाएँ, जो मनुष्य होने मात्र से प्राप्त होते हैं। सोचा जा सकता है कि यह संघर्ष किस स्तर का होगा, जब एक मनुष्य अपने को मनुष्य सिद्ध करने का प्रयास कर रहा होगा। मलखान सिंह की कविताएँ इस संघर्ष को विस्तार से प्रकट करती हैं। ‘मैं आदमी नहीं हूँ’ शीर्षक से लिखी गयी उनकी दोनों कविताओं में यह संघर्ष व्यक्त हुआ है। इन दोनों कविताओं की शुरुआत इन्हीं पंक्तियों से होती है –

“मैं आदमी नहीं हूँ स्साब

जानवर हूँ

दो पाया जानवर” [i] 

आदमी से कमतर समझे जाने का दर्द  ‘मुझे गुस्सा आता है’  शीर्षक कविता में भी व्यक्त हुआ है,

“मरते समय बाप ने

डबडबाई आँखों से कहा था कि बेटे

इज्ज़त, इन्साफ़ और बुनियादी हकूक़

सबके सब आदमी के आभूषण हैं

हम जैसे गुलामों के नहीं”  [ii]

मलखान सिंह इसी कविता में बताते हैं कि आज़ादी की आधी सदी के बाद भी हम पैदायशी गुलाम हैं। हमारा धर्म है चाकरी करते जाना। और चाकरी से इंकार करने पर मार खाना या भूखे मरना। वे बताते हैं,

“मेरी ख़ुद की थूथन पर

अनगिनत चोटों के निशान हैं”  [iii] 

मलखान सिंह ने दलित समाज को पशु बनाए रखने के पीछे मौजूद धर्म सत्ता को ‘आख़िरी जंग’ शीर्षक कविता में अत्यंत मार्मिकता से व्यक्त किया है,

“ओ परमेश्वर!

कितनी पशुता से रौंदा है हमें

तेरे इतिहास ने” [iv]   

दलित कवि मलखान सिंह

इनकी कविताएँ राजनीतिक भाषा का उपयोग कम करती हैं। वे अपनी पीड़ा का बयान करते हुए आक्रोश की भाषा का भरपूर उपयोग करते हैं, मगर उनकी भाषा राजनीतिक प्रतीकों का सीधे उपयोग नहीं करती है। वे वस्तुतः राजनीतिक विकास के बजाए सामाजिक परिवर्तनों को रेखांकित करनेवाले कवि हैं। ‘मुझे गुस्सा आता है’ कविता में वे बताते हैं कि मेरी माँ मैला कमाती थी और बाप बेगार करता था और मैं मेहनताने में मिली जूठन को इकठ्ठा करके खाता था। अब इतना परिवर्तन आया है कि जोरू मैला कमाने गयी है और बेटा स्कूल गया है और मैं कविता लिख रहा हूँ। राजनीति की भाषा का अनुसरण किए बगैर परिवर्तन की वास्तविक तस्वीर को कवि पेश कर रहा है। मलखान सिंह की कविताओं में ध्यान देने लायक जो पहली बात कही जा सकती है वह यही है कि वे दलितों को मनुष्य समझे जाने की बुनियादी लड़ाई से शुरू हुई हैं। इस लड़ाई को अपनी कविता में क्रमशः व्यक्त करते हुए वे किसी भी राजनीतिक व्यामोह के शिकार नहीं हुए हैं। दलितों के लिए हुए राजनीतिक प्रयासों को वे अलग से रेखांकित नहीं करते, मगर दलित समाज में हुए परिवर्तनों को वे ज़रूर पहचानना चाहते हैं। उनकी कविताएँ क्रमशः हुए परिवर्तनों को व्यक्त करती हैं।

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मलखान जी ने अपनी जाति और अपने टोले-मुहल्लेवाले गाँव को ‘सफ़ेद हाथी’  शीर्षक कविता तथा अन्य कविताओं में याद किया है। उनकी माँ मैला कमाती थीं और यह भी लिखा है कि मेरी जोरू मैला कमाने गयी है। गाँव के अपने टोले के बारे में लिखा है कि ‘यह डोम पाड़ा है’। ‘डोम’ जाति का अर्थ हुआ दलितों में सबसे निचले पायदान की एक जाति। मलखान सिंह जब इस जाति के एक व्यक्ति के रूप में और अपने समाज के एक प्रतिनिधि के रूप में कविता रचते हैं, तो उसके महत्त्व की बुनियाद ज्यादा गहरी मालूम पड़ने लगती है। दलितों में भी दलित —  इस महादलित जाति की पीड़ा इतनी गहरी है कि इन्हें सतानेवालों में कुछ दलित जातियाँ भी शामिल रही हैं। प्रमाणस्वरूप ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘शवयात्रा’ को पढ़ा जा सकता है जिसमें ‘जाटव’ जाति के द्वारा ‘बल्हार’ जाति के उत्पीड़न को विषय बनाया गया है। मलखान सिंह ने अपने टोले-मुहल्ले की दर्दनाक तस्वीरें खींची हैं। वे बताते हैं कि उनकी गलियाँ कीच से भरी हैं, जो इतनी सँकरी हैं कि धूप भी नहीं पहुँच पाती है। उनकी जाति-बिरादरी के लोग बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं,

“इस बदबूदार

छत के नीचे जागते हुए

मुझे कई बार लगा है कि

मेरी बस्ती के सभी लोग  

अजगर के जबड़े में फँसे

जिंदा रहने को छटपटा रहे हैं” [v]  

दमन करनेवाले पूरी निश्चिंतता से अपना काम करते जा रहे हैं और समाज की मुख्यधारा उनकी जय-जयकार कर रही है। झोपड़ियाँ जला दी जा रही हैं, गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर बंदूकें दाग दी जा रही हैं और दुध-मुँहें बच्चों को आग में झोंक दिया जा रहा है। यह सब हो रहा है स्वतंत्र भारत में। दमन करनेवाले के पक्ष में हर तरह की सत्ताएँ खड़ी हैं और दमित होनेवाले के सामने भागने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। ‘सफ़ेद हाथी’ जब अन्याय करता हुआ गाँव से गुजरता है, तब गाँव की दूसरी जातियों के लोग इस तरह की घटनाओं को ऐसे देखते हैं मानो ‘तमाशा’ हो रहा हो। यह सब कौन करता है? मलखान सिंह जवाब देते है कि यह सब ‘गाँव के चंद चालाक लोगों ने’ किया है। चूँकि अन्याय करनेवाले के पक्ष में हर तरह की सत्ताएँ खड़ी हैं, इसलिए उसके इन कुकर्मों को ‘दिव्यता’ प्रदान की जाती है, जैसे ‘हत्या’ को ‘वध’ कहकर महिमामंडन किया जाता रहा है। ‘सफ़ेद हाथी’ के रूपक को आगे बढ़ाते हुए मलखान सिंह लिखते हैं,

“हाथी देवालय के

आहाते में आ पहुँचा है

साधक शंख फूँक रहा है

साधक मजीरा बजा रहा है

पुजारी मानस गा रहा है

और वेदी की रज

हाथी के मस्तक पर लगा रहा है

देवगण प्रसन्न हो रहे हैं।।।” [vi]    

‘डोम पाड़ा’ में रहनेवाले डोम जाति के समाज के साथ जो अन्याय इस कविता में दिखाया गया है, उसके प्रति दूसरी जातियों की प्रतिक्रिया को देखना महत्त्वपूर्ण है। कुछ लोग ‘तमाशा’ देख रहे हैं — ये कौन लोग हो सकते हैं ? निश्चय ही ये गैर-डोम जातियाँ हैं। ज्यादा संभावना है कि ये पिछड़ी जातियों के लोग हों या डोम जाति की तुलना में बेहतर स्थिति में जीवन जी रही दलित जातियाँ हों। इसी क्रम में कवि ने एक पंक्ति यह भी लिखी है कि, ‘शब्बीरा नमाज़ पढ़ रहा है’। उसी गाँव में रहनेवाले मुसलमान इस अन्याय के खिलाफ़ खड़े नहीं हो रहे हैं, बल्कि इस नरसंहार के बाद दुआख्वानी कर रहे हैं। ऊपर की उद्धृत पंक्तियों में मलखान सिंह ने धर्मसत्ता के विरूद्ध अपने प्रतिवाद को सूक्ष्म तरीके से व्यक्त किया है। इससे कविता को कलात्मक ऊँचाई मिली है। वे लिखते हैं कि ‘देवालय’, ‘शंख’, ‘मजीरा’, ‘वेदी’ और ‘मानस’ का उपयोग आततायी जातियों के महिमामंडन के लिए किया जा रहा है। दलित विमर्श ने तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ की आलोचना कड़ी शब्दावली में की है। मलखान सिंह केवल इतना लिखते हैं कि गाँव में नरसंहार के बाद हत्यारे के माथे पर वेदी की रज लगाकर पुजारी ‘मानस’ गा रहा है। ‘रामचरितमानस’ का यह नृशंस उपयोग ‘रामचरितमानस’ की कड़ी आलोचना है। ‘रामचरितमानस’ के बचाव में अनेक तर्क दिये जा सकते हैं, लेकिन इस नृशंस उपयोग का कोई समुचित उत्तर नहीं हो सकता है।

दलित-बहुजन महिलाएं धान के खेतों में काम करने जाते हुए

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ‘डोम पाड़ा’ पर हुए जातिवादी जुल्म का विरोध उसी गाँव में रहनेवाली किसी भी जाति ने नहीं किया। उस गाँव की दूसरी जातियाँ या तो जुल्म करनेवालों में शामिल थीं या जुल्म को ‘तमाशा’ की तरह देखनेवालों में। ऐसी स्थिति में जुल्म का शिकार डोम जाति के सामने रास्ता क्या बचता है! मलखान सिंह लिखते हैं कि अँधेरा इतना गहरा है कि हम किसी भी तरफ जाएँ हमें ‘गच्चा’ ही खाना है। मलखान सिंह अपनी कविताओं में खुलकर कहीं भी दलित राजनीति का पक्ष लेते हुए दिखाई नहीं पड़ते हैं। वे दलित साहित्य की औसत रूप-रेखा और ढाँचे के भीतर कविता नहीं लिखते हैं। उनकी कविताएँ राजनीति के आगे हामी भरते रहनेवाली कविता नहीं है। वे मानते हैं कि उनकी जाति का समाज केवल ‘गच्चा’ खाता रहा है या उसे ‘गच्चा’ खिलाया जाता रहा है। ‘गच्चा’ खाने या खिलाने की वजह उसकी निम्नतर स्थिति है। वह सदियों से मनुष्य होकर भी मनुष्य न समझे जाने की बेबसी के बीच जीता आया है। इसलिए वह अगर सामने आता है तो जुल्म की चोट सहता है और भागना चाहता है तो अँधेरा उसे भागने नहीं देता है,

“अँधेरा बढ़ता जा रहा है

और हम अपनी लाशें

अपने कन्धों पर टाँगे

सँकरी-बदबूदार गलियों में

भागे जा रहे हैं

हाँफे जा रहे हैं

अँधेरा इतना गाढ़ा है कि

अपना हाथ

अपने ही हाथ को पहचानने में

बार-बार गच्चा खा रहा है।” [vii]

मलखान सिंह की कविताओं का संसार बहुत बड़ा नहीं है। उनके काव्य-संग्रह ‘सुनो ब्राह्मण’ में कुल 16 और ‘ज्वालामुखी के मुहाने’ में कुल 22 कविताएँ हैं। ये 38 कविताएँ आकार में भी लंबी नहीं हैं। संक्षिप्तता मलखान सिंह की विशेषता है। उनकी कविताएँ संक्षिप्त होकर भी मुकम्मल जान पड़ती हैं। ज्यादा बोलना उनकी कविताओं का स्वभाव नहीं है। मगर यह भी नहीं लगता है कि कवि ने कहने में कमी कर दी है।

मलखान सिंह की कविताओं में जातिवाद का विश्लेषण व्यापकता लिए हुए है। उनमें जाति-भेद की पीड़ा को दलित जीवन के भीतर और बाहर भी समझने के सूत्र पाए जा सकते हैं। ‘फटी बंडी’ जातिवाद पर चोट करती हुई उनकी प्रसिद्ध कविता है। निश्चित रूप से इस कविता का कथ्य उनकी जाति की अपमानजनक स्थिति से जुड़ा है, मगर इस कविता का एक अर्थ यह भी है कि हमारा समाज सामनेवाले की जाति जानने की पूरी कोशिश करता है और जाति की पहचान करने के बाद निश्चिन्त होकर उसी के अनुसार विश्वासपूर्वक व्यवहार करता है। यह बात दलित और गैर-दलित जातियों पर एक तरह से तो नहीं, मगर कुछ हद तक तो समान रूप से लागू होती है। मलखान सिंह को ‘दलित कवि’ के रूप में तो पहचानना ही चाहिए, मगर उन्हें हिन्दी के एक ऐसे कवि के रूप में भी पहचानना चाहिए जिसने अपनी कविताओं में जाति-आधारित भेद-भाव को दलित-जीवन के दायरे से बाहर निकालकर भी देखा है। ‘फटी बंडी’ का एक अंश देखिए,

“मैं अनामी हूँ

अपने इस देश में

जहाँ-जहाँ भी रहता हूँ

आदमी मुझे नाम से नहीं

जाति से पहचानता है और

जाति से सलूक करता है।” [viii]

यह अंश दलित-जीवन पर तो लागू होता ही है, उन सभी दूसरी जातियों के जीवन पर भी लागू होता है जो अपनी जाति की पहचान छिपा लेना चाहते हैं ताकि अपमानजनक व्यवहार से बचा जा सके। इसलिए यह कहा जा सकता है कि मलखान सिंह की कविताएँ केवल दलित-समाज के काम की ही नहीं हैं, बल्कि उन तमाम कमजोर जातियों के दर्द को व्यक्त करती हैं जिनके साथ जाति-आधारित भेदभाव होता रहा है। ऐसी जातियों में कई कमजोर पिछड़ी जातियाँ भी हैं। मगर, इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि मलखान सिंह की कविताओं का सन्दर्भ उनकी दर्द भरी सामाजिक ज़िंदगी के भीतर मौजूद है। इसलिए आलेख के शुरू में ही यह बात कह दी गयी है कि उनकी कविताएँ उनकी आत्मकथा है और भरोसे के लायक है। इसी कविता की कुछ और पंक्तियों को देखा जाए जिनमें इस दर्द का विस्तार मौजूद है,

“सामने खड़ी भीड़ के करीब से गुजरने पर

मन काप-काँप जाता है।

परिचित श्रीमान् से बात करते

जीभ हकलाती है

अपरिचित श्रीमान् से हाथ मिलाते

हाथ काँपता है।

लगता है कि ठाँव की पूछने के बाद

वह पाँव की भी पूछेगा।

बात ! अगैरा-बगैरा को लाँघ

नथिया के लँहगे तक जा पहुँचेगी

तब लाख अंगरखा पहने हुए भी

मेरा सख्त चेहरा

भीतर कन्धों में फँसी बंडी की

कैफ़ियत बयान कर देगा।” [ix]

कहा जा सकता है कि मलखान सिंह की कविता जाति-आधारित सामाजिक अपमान को झेलनेवाली जातियों के दर्द की कविता है। वर्चस्व और अपमान की परंपरा को कितनी दर्द-भरी खूबसूरती के साथ वे व्यक्त करते हैं,

“कि हमारी बस्ती में उगा पौधा

दरख़्त होने से पहले ही

सूख जाता है

उनके आँगन का बूढ़ा पेड़ भी

हाथी-सा झूमता है।” [x]

आश्चर्य किया जा सकता है आज के भारत में जो राष्ट्रवाद की आँधी चल रही है, उसका पर्दाफाश मलखान सिंह की कविताओं में पहले से मौजूद है। गाय और गोबर की राजनीति से त्रस्त भारतीय समाज उसका प्रतिकार नहीं कर पा रहा है। हमारा मौजूदा समय इस राजनीति की चपेट में भले आ गया हो। आज इस सत्ता के समर्थन में सैंकड़ों लेखकों की सूची भले जारी हो जा रही हो। आज दलित प्रतिनिधित्व पग-पग पर अपमानित होकर भले ही इसकी जय-जयकार कर रहा हो। मगर, हमारी अंतरात्मा जानती है कि भारतीय समाज की वास्तविक समस्याओं का समाधान सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की नीतियों में है ही नहीं! मलखान सिंह ‘एक नया ताड़ वृक्ष’ शीर्षक कविता में कहते हैं,

“आज तक

मुट्ठी भर सुख के लिए

कितने सागरों को हाथों से धोया

कितने पर्वतों को कंधों पर ढोया है

कितनी बंज़र ज़मीं में

बसंत वन बोया है

लेकिन हमारे हिस्से हर बार

आये हैं उजाड़ घर

गाय का मूत रचा

गोबर पुता इतिहास

जिसके पन्ने-पन्ने पर

उत्पीड़न और अपमान के

प्रतिमान टंगे हैं

बिछी है नफ़रत और पाखण्ड की

बेजोड़ तहरीरें।” [xi]

इस अंश में एक बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि कवि ने दलित समाज के योगदान पर बात की है। वे कहते हैं कि हमने सागरों को धोया है और पर्वतों को ढोया है, हमने बंजर में बसन्त वन बोया है। फिर भी, हमें अपमान से सिवा मिला क्या है? दलित साहित्य में प्रायः पीड़ा की अभिव्यक्ति पर ज्यादा ध्यान दिया गया है। कहा जा सकता है कि दलित समाज के योगदान पर बात ज़रूर होनी चाहिए। महत्ता प्राप्त करने का एक बड़ा आधार योगदान को रेखांकित करने से प्राप्त होता है और मलखान सिंह की कविता में यह मौजूद है।

वे बारीक कवि हैं। वे वैचारिकी के किसी छोटे साँचे में बँधकर कविता नहीं रचते हैं। वे ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ होने की चिंता किए बगैर अपनी समझ पर भरोसा करके कविता रचते हैं। ‘हमारे गाँव में’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं,

“ हमारे गाँव में नम्रता

जन की खास पहचान है

और उद्दंडता हरि का बाँकपन ।।।

।।।यह हरगिज नहीं कि

जन को गुस्सा नहीं आता है।

आता है बहुत बहुत आता है

लेकिन अफ़सोस ! यह गुस्सा

साँपिन बन अपनों को ही खाता है।

जब हरि की साजिश से

दूसरी पाँति का जन, ताल ठोंक

मैदान में उतर आता है।” [xii]

यह कविता बताती है कि जुल्म ढानेवाली ऊँची जातियों का साथ ‘दूसरी पाँति का जन’ यानी पिछड़ी जातियाँ भी देती हैं। इन तमाम तकलीफों के बावजूद मलखान सिंह उम्मीद करते हैं कि एक समय आएगा जब हमारा दलित समाज जाति-आधारित भेदभावों से मुक्त होगा,

“देखो !

बंद किले से बाहर

झाँक कर तो देखो

बरफ पिघल रही है।

बछेड़े मार रहे हैं फुर्री

बैल धूप चबा रहे हैं

और एकलव्य

पुराने जंग लगे तीरों को

आग में तपा रहा है।” [xiii]

सन्दर्भ:

[i] सुनो ब्राह्मण- मलखान सिंह, रश्मि प्रकाशन, लखनऊ,2018, पृ।-63

[ii] वही, पृ।- 172

[iii] वही, पृ।- 72

[iv] वही, पृ।- 81

[v] वही, पृ।- 68

[vi] वही, पृ।- 70

[vii] वही, पृ।- 70

[viii] वही, पृ।- 75

[ix] वही, पृ।- 75

[x] ज्वालामुखी के मुहाने, रश्मि प्रकाशन, लखनऊ, 2019, पृ।- 16-17

[xi] सुनो ब्राह्मण- मलखान सिंह, रश्मि प्रकाशन, लखनऊ, 2018, पृ।- 87

[xii] वही, पृ।- 90-91

[xiii] वही, पृ।- 102

(कॉपी संपादन : नवल/सिद्धार्थ)


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लेखक के बारे में

कमलेश वर्मा

राजकीय महिला महाविद्यालय, सेवापुरी, वाराणसी में हिंदी विभाग के अध्यक्ष कमलेश वर्मा अपनी प्रखर आलोचना पद्धति के कारण हाल के वर्षों में चर्चित रहे हैं। 'काव्य भाषा और नागार्जुन की कविता' तथा 'जाति के प्रश्न पर कबीर' उनकी चर्चित पुस्तकें हैं

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