उच्च शिक्षा किसी भी जातीय समूह के आर्थिक और सामाजिक स्तर को मापने का सबसे अच्छा मानक है। लेकिन भारत में तकनीकी और उच्च शिक्षण संस्थानों में न सिर्फ छात्रों की तादाद बल्कि शैक्षणिक पदों पर भी उच्च वर्ग यानि सामान्य जाति से आने वालों का दबदबा बरक़रार है। हालांकि इसके लिए सरकारी अनदेखी, राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी के अलावा इन सामाजिक समूहों की उदासीनता भी कम ज़िम्मेदार नहीं है।
जून, 2018 में देश के 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों और संस्थानों में प्रोफेसर के 2421 जबकि एसोसिएट प्रोफेसर के 4807 स्वीकृत पद थे। दिलचस्प बात ये है कि इनमें एक भी प्रोफेसर या एसोसिएट प्रोफेसर ओबीसी नहीं है। कुल कार्यरत प्रोफेसर में 95.2%, एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर 92.9% और असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कुल कार्यरत लोगों में 66.27% सामान्य श्रेणी के हैं। हालांकि इन तमाम लोगों में ऐसे दलित या ओबीसी प्रोफेसर भी हो सकते हैं, जिन्होंने आरक्षण का लाभ नहीं लिया हो, लेकिन उनकी संख्या नगण्य ही होगी।
चार्ट : प्राध्यापकों की औसत आमदनी
पद | इन हैंड आमदनी* | शिक्षण के लिए निर्धारित घंटे |
---|---|---|
असिस्टेंट प्रोफेसर | 84 हजार से डेढ़ लाख रुपए तक | 16 घंटे प्रति सप्ताह (महज ढाई घंटे प्रतिदिन!) |
एसोसिएट प्रोफेसर | 1 लाख 75 हजार से ढाई लाख रुपए तक | 16 घंटे प्रति सप्ताह (महज ढाई घंटे प्रतिदिन!) |
प्रोफेसर | 1 लाख 90 हजार से ढाई लाख रुपए तक | 14 घंटे प्रति सप्ताह (महज दो घंटे प्रतिदिन!) |
(*केंद्रीय विश्वविद्यालयों में। गैर शैक्षणिक आधिकारिक कार्यों, जैसे उत्तर पुस्तिकाओं की जांच आदि के लिए मिलने वाले मानदेय इसके अतिरिक्त है। सबसे अधिक वेतन 15वें अकादमिक क्रम के प्रोफेसर को भारत सरकार के सचिव स्तर का वेतन दिया जाता है)
केंद्रीय विश्वविद्यालय और संस्थानों में प्रोफेसर के पद पर एससी की हिस्सेदारी 3.47% जबकि एसटी की हिस्सेदारी महज़ 0.7% है। देश के कुल एसोसिएट प्रोफेसर में 4.96% एससी हैं और महज़ 1.3 फीसदी एसटी हैं। ये संख्या आरक्षण के मौजूदा प्रावधानों को देखते हुए काफी शर्मनाक है।
ज़्यादातर दलित-बहुजन युवाओं की प्राथमिकता क्लर्क, टीटीई, सिपाही जैसी सुलभ नौकरियां हासिल करने की रहती है।
लेकिन जो बहुजन युवा उच्च शिक्षा हासिल कर सकते हैं उनका ज़ोर भी या तो तकनीकी डिग्रियां हासिल करने पर होता है या प्रशासनिक सेवाओं में भर्ती होने पर वे अकादमिक क्षेत्रों का रूख कम ही करते हैं।
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अब सवाल यह है ऐसा क्यों है? क्या उच्च शैक्षणिक पदों पर वेतन दूसरे विभागों के मुक़ाबले कम है या ये पद अधिक मेहनत से जुड़े हैं? दिलचस्प बात ये है कि विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर को सप्ताह भर में 16 घंटे जबकि प्रोफेसर और असोसिएट प्रोफेसर को महज़ 14 घंटे ही पढ़ाना होता है। एक प्रोफेसर औसतन एक हफ्ते में सिर्फ 4 क्लास लेता है। बाक़ी के समय अगर वो शोध, सामाजिक कार्यों और सामुदायिक गतिविधियों के लिए देना चाहता है तो इसपर कोई रोक नहीं है। ख़ासकर केंद्रीय विश्वविद्यालय सामाजिक रुप से काफी अहम हैं। यहां पढ़ाने के एवज़ मिलने वाला वेतन भी काफी आकर्षक है।
तकनीकी और मेडिकल शिक्षण संस्थानों में वेतन और भी ज़्यादा है। निजी क्षेत्र के प्रीमियम संस्थान प्रोफेसर को प्रति माह 5-7 लाख रुपये तक दे रहे हैं।
काम के घंटे, वेतन और सामाजिक कार्यो की छूट के अलावा उच्च शैक्षणिक पदों के साथ प्रतिष्ठा और सामाजिक सम्मान भी जुड़ा है। हालांकि ये प्रतिष्ठा आईएएस या आईपीएस की तरह नहीं है लेकिन उससे किसी भी तरह कम भी नहीं है। ख़ासकर अपने समाज के लिए कुछ करने की इच्छा हो तो शैक्षणिक पद काफी अहम हो जाते हैं।
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केंद्रीय विश्वविद्यालयों में जिस तरह की राजनीतिक गतिविधियां हैं और ये सरकार के लिए जिस तरह थिंक टैंक के रुप में काम कर रहे हैं उसके मद्देनज़र बहुजन समाज का यहां अपनी पकड़ बनाना बेहद ज़रुरी है। बहुजन समाज के युवाओं को समझना होगा कि उच्च शिक्षा से जुड़े पद न सिर्फ उनके बल्कि उनके वर्ग के भविष्य से जुड़े हैं। ये न सिर्फ आर्थिक और शैक्षणिक बल्कि सामाजिक और राजनीतिक बराबरी हासिल करने के अहम रास्ता बन सकते हैं। इसलिए बहुजन समाज के ज़्यादा से ज़्यादा युवाओं को केंद्रीय विश्वविद्यालयों का रुख़ करना चाहिए, न सिर्फ उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए बल्कि शैक्षणिक पदों पर समाज की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए भी।
(काॅपी संपादन : नवल)
(आलेख परिवर्द्धित : 23 जुलाई, 2019 7:54 PM)
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