केवल भावनाओं को उभार कर किसी दृष्टिकोण या विचार को सही ठहराने के इस युग में, अगर आप शब्दों से खेलने में माहिर हैं तो आप झूठी खबरें ही नहीं बल्कि झूठे विचार फैला कर नाम कमा सकते हैं. केवल भाषा के कुशल इस्तेमाल से विभ्रम फैलाने के कई तरीके आज के युग में उपलब्ध हैं. और यह स्थिति केवल सोशल मीडिया – जहाँ कोई भी कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र है – तक सीमित नहीं है. यह उच्च शैक्षणिक जगत में भी हो रहा है – उस जगत में जो उच्च स्तर के ज्ञान का निर्माण और प्रचार-प्रसार करता है. यह ज्ञान सत्य का वाहक भी हो सकता है और गुमराह करने वाला भी; यह मुक्ति के द्वार भी खोल सकता है और दमन के नरक में भी ढकेल सकता है; या यह दोनों का मिश्रण भी हो सकता है. बहुत समय पहले, अमरीका के निर्माताओं में से एक, जॉन एडम्स, ने ज्ञान के इस दोहरे चरित्र का खुलासा अत्यंत सुस्पष्टता से किया था. उन्होंने लिखा था, “बुरे लोग ज्ञान में उतनी ही तेजी से वृद्धि करते हैं जितने कि अच्छे लोग. विज्ञान, कलाओं, लोगों की रुचियों, उनकी समझ और साहित्य का प्रयोग भलाई या अन्याय दोनों करने के लिए किया जा सकता है.” चूँकि हमारा ज्ञान – विशेषकर समाज और राजनीति से सम्बंधित ज्ञान – बनावटी और झूठा भी हो सकता है इसलिए जो भी ज्ञान हमें प्राप्त होता है, हमें उसे सावधानी से परखना चाहिए और उसके प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए. यह इसलिए और ज़रूरी है क्योंकि सत्ताधारी ऐसे ज्ञान का निर्माण और प्रचार कर सकते हैं जो उनके हितों का संरक्षण करे और उनकी सत्ता को बनाये रखने में मददगार हो. यह सत्ता-ज्ञान गठबंधन अनेक तरीकों से स्थापित सत्ता, विशेषाधिकारों और सामाजिक ऊँच-नीच को मजबूती देता है. जैसा कि मैंने अपनी दो पुस्तकों डीब्राह्मणनाइसिंग हिस्ट्री और नॉलेज एंड पॉवर में विस्तार से बताया है, भारत जैसे जाति-ग्रस्त देश में यह समस्या और गंभीर है क्योंकि यहाँ अनादि काल से ज्ञान पर ब्राह्मणों का कड़ा नियंत्रण रहा है और इसने उच्च जातियों का वर्चस्व बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है.