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प्रोफेसर, क्या आप जानते हो कि नालंदा क्यों जलता रहा?

जेएनयू के संबंध में सरकार प्रायोजित दुष्प्रचार और  इस यूनिवर्सिटी के पतन को  लेकर  प्रोफेसर अभिजीत पाठक और प्रोफेसर अपूर्वानंद ने मार्मिक लेख लिखे हैं, जो क्रमश: द वायर और इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुए हैं। फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन उनके विमर्श को आगे बढाते हुए, इस संघर्ष को गैर-अकादमिक दुनिया के बुद्धिजीवियों, समाज-संस्कृति कर्मियों तथा सामाजिक न्याय की लडाई से जोड़ने की आवश्यकता बता रहे हैं

बहु-जन दैनिकी

दिल्ली स्थित प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के पतन को लेकर पिछलेे दिनों दो मार्मिक लेख प्रकाशित हुए हैं। दोनों ही लेख अभिव्यक्ति और विमर्श की आजादी के पक्षधर लोगों को झकझोर देने वाले हैं। इनमें से एक के लेखक हैं- जेएनयू में समाजशास्त्र के प्रोफेसर अभिजीत पाठक तथा दूसरे के लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर अपूर्वानंद हैं। ये क्रमश: ‘द वायर’ और इंडियन एक्सप्रेस में “The Story of the Fall of a Great University (एक महान विश्वविद्यालय के पतन की कहानी)” और  ‘Killing JNU’ (जेएनयू की हत्या की जा रही है) शीर्षकों से प्रकाशित हुए हैं। दोनों ही लेख साहस और प्रतिरोध की बेहतरीन बानगी हैं, तथा मौजूदा सरकार की कारगुजारियों को उजागर करते  हैं। लेकिन, दुर्भाग्य से उनका सत्य एकांगी है और उनके द्वारा प्रस्तुत तर्क न तो गैर-प्राध्यापक बुद्धिजीवी तबकों को अपने साथ जोड़ पाएंगे, न ही बहु-संख्यक जनता को।

प्रोफेसर पाठक की पीड़ा

प्रोफेसर पाठक ने 29 जुलाई, 2019 को प्रकाशित अपने लेख में उस पीड़ा को व्यक्त किया है, जब उन्होंने भरे मन से अपने मित्र की बेटी को जेएनयू में नामांकन न करवाने की सलाह दी। उन्होंने बताया है कि एक समय था जब मैं लोगों को बताता था कि हमारी यूनिवर्सिटीजेएनयूएक सपना, एक महान परियोजना, उत्कृष्टता और समानता के विचारों को समेटने वाला एक अद्भुत प्रयोग है। मैं मिलने वालों से कहा करता था कि जेएनयू वैकल्पिक जीवनपद्धतियों के विकास के लिए एक ऐसा अनुकूल रचनात्मक स्थान है, जिसका अनुकरण किया जाना चाहिए।[1] लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में जो स्थितियां निर्मित हुई हैं, उनके कारण मैंने वह आत्मविश्वास खो दिया है। आज मैं अपने दोस्त को अपनी बेटी को एक ऐसे विश्वविद्यालय में भेजने के लिए कैसे कह सकता हूं, जहां जीवन के हर क्षेत्र में भय व्याप्त हो।[2] “आज हालत यह है कि “मैं अपने शोध छात्रों से कह रहा हूं कि जितनी जल्दी हो सके वे अपना शोध-प्रबंध जमा करके, यूनिवर्सिटी छोड़ दें। पता नहीं यहां कब क्या हो जाए? अब यह वह जगह नहीं रही, जिसका आपने सपना देखा था। इस विश्वविद्यालय को बनाने के लिए अनेक दिग्गजों ने अपना जीवन खपाया था। लेकिन, यह कैसी बिडंबना है कि इसे महज तीन साल में खत्म कर दिया गया।”[3]

प्रोफेसर अभिजीत पाठक और प्रोफेसर अपूर्वानंद

उन्होंने लिखा है कि विमर्श का गढ़ माने वाले जेएनयू में आज विद्यार्थियों द्वारा लगाए गए राजनीतिक-सामाजिक संदेश देने वाले पोस्टर हटाए जा रहे हैं तथा उन्हें ‘सीमा में’ रहने के लिए चेतावनी दी जा रही है। उन शिक्षकों को भी आधिकारिक तौर पर प्रताड़ित किया जा रहा है, जिन्होंने पिछले वर्ष विद्यार्थियों द्वारा निकाले गए एक प्रतिरोध-मार्च में भाग लिया था। प्रतिरोध मार्च में भाग लेने के लिए जिन 48 शिक्षकों को चार्जशीट किया गया है; उनमें स्वयं प्रोफेसर पाठक भी शामिल हैं। यूनिवर्सिटी की हवा में आज विमर्श के तेवर की जगह कथित ‘सक्षम प्राधिकार’ के एकतरफा आदेशों का बोलबाला है। शिक्षक-विद्यार्थी, सभी सशंकित और भयभीत हैं। पूरा वातावरण अपनी खाल बचाने के पाखंड और सतहीपन से उत्प्लावित हो चुका है।

प्रोफेसर अभिजीत पाठक की तरह प्रोफेसर अपूर्वानंद ने भी 2 अगस्त, 2019 को प्रकाशित अपने लेख में जेएनयू की जनतांत्रिक संस्कृति का खात्मा किए जाने का उल्लेख किया है। उन्होंने बताया है कि जेएनयू के प्रोफेसरों को सभा-सेमिनारों में भाग लेने की अनुमति नहीं दी जा रही है, तथा उन पर अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित करने वाले उन नियमों को थोपा जा रहा है; जो सरकारी बाबुओं के लिए बने हैं।

प्रोफेसर अपूर्वानंद का तर्क

प्रोफेसर अपूर्वानंद का कहना है कि “समाज में प्राध्यापकों की भूमिका सरकारी नौकरों से काफी अलग है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में विभिन्न राजनीतिक शक्तियां शासन के लिए अपना दावा करती हैं तथा इसके लिए अपनी विचार-योजनाएं जनता के सामने पेश करती हैं। जनता उनके दावों के आधार पर यह फैसला करती है कि कौन-सी राजनीतिक शक्ति उनके लिए उपयुक्त है। लेकिन, सामान्य जनता के पास वह बौद्धिक भंडार नहीं होता, जिससे वह राजनीतिक शक्तियों द्वारा प्रस्तुत किए जा रहे दावों की जांच कर सके। यहीं शिक्षाविदों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। ज्ञान के साथ लंबे जुड़ाव वाले शिक्षाविदों के पास वे बौद्धिक उपकरण होते हैं, जिनसे वे राजनीतिक शक्तियों द्वारा लोगों से किए जाने वाले राजनीतिक और नीतिगत वादों की जांच कर सकें। वे जागरूक फैसला लेने में जनता की मदद करते हैं। इसलिए उन्हें यह छूट होनी चाहिए कि वे अपनी समझ को जनता के साथ साझा करें, ताकि लोग तथ्य और सूचनाओं से परिपूर्ण होकर निर्णय कर सकें। शिक्षाविदों को स्वयं के लिए नहीं, बल्कि समाज की भलाई के लिए स्वतंत्रता दिए जाने की आवश्यकता है।”[4]

असहज करने वाले सवाल

प्रोफेसर पाठक और अपूर्वानंद अकादमिक दुनिया के प्रतिष्ठित नाम हैं। उनके द्वारा कही गई ये बातें सिर्फ जेएनयू के लिए ही नहीं, बल्कि देश के उन सभी उच्च अध्ययन संस्थानों के लिए भी सही हैं, जिन्हें मौजूदा सरकार अपना पिट्ठू बनने पर मजबूर कर रही है। इन प्रोफेसरों की मुख्य चिंता यूनिवर्सिटी से जुड़े बुद्धिजीवियों की मानसिक-भौतिक प्रताड़ना तथा मौजूदा अकादमिक परिदृश्य से बौद्धिक लोकतंत्र के खात्मे को लेकर है। उनके ये सरोकार कमोबेश पूरे अकादमिक जगत की चिंताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

निश्चित रूप ये यह अकादमिक जगत की इन चिंताओं से सहमत होने तथा उनके पक्ष में खड़े होने का समय है। लेकिन, साथ-साथ हमें उन कारणों की ओर भी देखना होगा, यह स्थितियां जिनकी अवश्यसंभावी परिणति हैं। एक ऐसे समय में, जब अकादमिक जगत की स्वायत्तता को गहरी चोट पहुंचाई जा रही है; इन कारणों की ओर देखना अकादमिक दुनिया के लोगों को असहज कर सकता है। लेकिन, यही वह सही समय है, जब उन्हें भी मुड़कर देखना चाहिए कि इस स्थिति के लिए क्या सिर्फ सरकार जिम्मेदार है?

दरअसल यह वह समय है, जब वे उन चीजों को देखने के लिए मजबूर किए जा रहे हैं, जिनकी ओर देखना उन्हें प्राय: गवारा नहीं था। लेकिन, सवाल यह है कि क्या वे अब भी उन स्थितियों को बदलने के लिए तैयार हैं, जिन्होंने उन्हें यहां पहुंचाया है?

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मसलन, प्रोफेसर अपूर्वानंद ने अपने उपरोक्त लेख में लिखा है कि सरकार द्वारा “जो स्थितियां पैदा की गई हैं, उसकी जनता द्वारा सार्वजनिक जांच की जानी चाहिए।”[5] जाहिर है, उनका यह प्रस्ताव वायवीय है। यूनिवर्सिटी के बुद्धिजीवी सरकार के हाथों चाहे जितना प्रताड़ित हों; वे सार्वजनिक निगरानी में आने को तैयार नहीं होंगे।

हमारी यूनिवर्सिटियों ने स्वायत्तता के नाम पर बौद्धिक और भौतिक विलास का एक ऐसा कुआं निर्मित किया है, जिसका जल सिर्फ प्राध्यापक ही पी सकते हैं। जनता तो दूर, उन्होंने सावर्जनिक जीवन में कार्यरत गैर-प्राध्यापक बुद्धिजीवियों को भी हिकारत की दृष्टि से देखा। सरकारी पैसे से होने वाले सभा-सेमिनारों, भांति-भांति के जलसों, शोध-परियोजनाओं, देश का बौद्धिक प्रतिनिधित्व करने वाली विदेश यात्राओं आदि को उन्होंने सिर्फ प्राध्यापकों तक सीमित कर दिया।

हाल के ही एक उदाहरण को लें। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने एक सर्कुलर जारी कर कहा कि विश्वविद्यालय उन्हीं पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री को मान्यता दें, जिन्हें यूजीसी ने अपनी लिस्ट में रखा हो। मानविकी-सामाजशास्त्र के विभिन्न अनुशासनों में विपुल योगदान करने वाली हिंदी पत्रिकाएं- फारवर्ड प्रेस, हंस, समयांतर, कथादेश, नया ज्ञानोदय, उद्भावना आदि इस सूची में नहीं हैं। जब इन पत्रिकाओं की ओर से इसका विरोध हुआ, तो यूजीसी ने कहा कि वह इसके लिए एक कमेटी बनाएगी तथा यूनिवर्सिटियों से पत्रिकाओं के नामों की अनुशंसा करने को कहेगी। यूनिवर्सिर्टियों से प्राप्त अनुशंसा के आधार पर वह मान्यता प्राप्त पत्रिकाओं की सूची तैयार करेगी।

यूजीसी के इस नियम में प्राध्यापकों को कुछ भी अजीब नहीं लगा; बल्कि उन्होंने इसे उचित ही माना कि अनुशंसा करने का अधिकार उनके पास रहेगा। उन्होंने इस पर विचार करना भी गवारा नहीं समझा कि यूजीसी का यह फरमान लोक-वृत्त में व्याप्त ज्ञान, रचात्मकता और प्रोफेशनल अनुभव का अपमान है। यूनिवर्सिटियों का काम अपने विद्यार्थियों को समाज में व्याप्त ज्ञान और विज्ञान के अध्ययन के लिए प्रमाण-पत्र बांटना है; न कि उनके पास पूरे समाज को प्रमाण-पत्र देने की कुव्वत है। ऐसा करने की कोशिश करके वे सिर्फ अपनी कूपमंडूकता को ही बढ़ा सकती हैं।

यूनिवर्सिटियों में अनेक योग्य लोग भी हैं, जिन्होंने सार्वजनिक महत्व के बौद्धिक काम किए हैं; लेकिन विडंबना यह है कि उनमें से अधिकांश ने बौद्धिक लोकतंत्र के विकास की बजाय उन राजनीतिक संगठनों को महत्व दिया, जिनके वे सदस्य थे। नियुक्तियों, फेलोशिप आदि की रसमलाई भाई-भतीजावाद, जातिवाद, चेलावाद, संगठनवाद के आधार पर बांटी जाती रहीं। नतीजा यह हुआ कि अकादमिक जगत कुछ उच्च कही जाने वाली जातियों- मुख्य रूप से ब्राह्मणों व अन्य द्विजों का अभ्यारण्य बन गईं।

प्रोफेसर अपूर्वानंद ने अपने उपरोक्त लेख में लिखा है कि “शैक्षणिक/अकादमिक स्वतंत्रता का महत्व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से थोड़ा अधिक है। यह एक बुनियादी आवश्यकता है, जिसके बिना ज्ञान का व्यवसाय संचालित नहीं किया जा सकता है।”[6] क्या यह एक विरोधाभास नहीं है कि प्राध्यापक-गण एक ओर जनता से अपने संघर्ष में साथ आने की उम्मीद करते हैं, तो दूसरी ओर अपनी आवश्यकताओं को अन्य लोगों की आवश्यकताओं से अधिक होने की अश्लील सैद्धांतिकरण करते हैं।

प्राध्यापकों का मुख्य काम शिक्षण, यानी ज्ञान की व्याख्या करना है। ज्ञान का निर्माण एक सतत प्रक्रिया है, जो समाज में घटित होती है, यूनिवर्सिटियां भी इस प्रकिया का उतना ही अंग हैं, जितना किसी किसान का खलिहान, पशुपालक की गौशाला या लोहार की भट्ठी।

ज्ञान का निर्माण मशीनी रूप से नहीं किया जा सकता। ज्ञान के निर्माण के नाम पर यूनिवर्सिटियां पुस्तकों और दस्तावेजों को पगुराने[7] वाला नाद बन गईं। एक कागज की दूसरे कागज पर नकल उतारने के लिए हजारों-लाखों रुपए के प्रोजक्ट, फेलोशिप आदि बांटे जाते रहे। हर प्राध्यापक स्वयंभू लेखक-चिंतक बन गया। वे स्वयं ही सेमिनार करते, स्वयं भाषण देते, स्वयं ही प्रमाण-पत्र लेते-देते, स्वयं ही किताबें लिखते और स्वयं ही उन्हें कोर्स में लगवाते। स्वायत्तता के नाम पर इन्होंने यूनिवर्सिटियों को ही नहीं, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसी संस्थाओं को भी अपने चंगुल में रखा।

आधुनिक द्रोणों और चाणक्यों  ने समाज के कमजोर तबकों से आने वाले युवाओं का यूनिवर्सिटियों में प्रवेश न होने देने के लिए अपनी चोटी खोल ली। सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण का प्रावधान 1992 में हुआ था; जिसे धीरे-धीरे समाज के सभी तबकों ने स्वीकार कर लिया। लेकिन, इसके 14 वर्ष बाद भी जब 2006 में उच्च शिक्षा में आरक्षण लागू हुआ, तो यूनिवर्सिटियों पर काबिज तबके ने इसका पुरजोर विरोध किया। यहां तक कि इस वर्ष (2019) तक भी वे एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पद पर ओबीसी को आरक्षण नहीं दे रहे थे।  मौजूदा सरकार के कड़े हस्तक्षेप के बाद पिछले कुछ महीनों में नियुक्तियों के लिए जो विज्ञापन निकाले गए हैं, उनमें इन पदों पर ओबीसी को आरक्षण दिया जा रहा  है।  सरकार ने यह कदम उठाकर दो निशाने साधे हैं, जिसमें प्राथमिक है हाल ही में लागू किए गए ‘आर्थिक रूप से पिछडे  तबकों के लिए आरक्षण’ (सवर्ण आरक्षण) के प्रावधान को सामाजिक और तकनीकी वैधता[8] प्रदान करना।

ओबीसी आबादी के हिसाब से भी इस देश का सबसे बड़ा वर्ग है। तमाम सर्वेक्षण और आंकड़े बताते हैं कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इस वर्ग का प्रतिनिधित्व सबसे कम है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र से इस वर्ग की गैर-मौजूदगी का अर्थ है कि यह क्षेत्र देशज ज्ञान और अनुभव के सबसे बड़े स्रोत से वंचित है। यह सिर्फ नौकरी या सुविधाओं का सवाल नहीं है। देश की 60 फीसदी आबादी के ज्ञान से नि:स्पृह यूनिवर्सिटियां दूर से भले ही हरे-भरे द्वीप की तरह दिखें; लेकिन अगर इनके मानविकी विभागों से दलित और आदिवासी विमर्श को बाहर कर दिया जाए, वे वस्तुत: ज्ञान के मरुस्थल हैं।

इन मरूस्थलों के बीच जेएनयू अगर एक हरा-भरा नखलिस्तान बना सका, तो उसका मुख्य श्रेय कुछ निश्चित जाति-समुदायों के आने वाले कुलपतियों, रजिस्ट्रारोंं या प्रोफेसरों को नहीं, बल्कि जेएनयू की अनूठी आरक्षण नीति को है। जेएनयू देश का एकमात्र ऐसा संस्थान है, जिसमें नामांकन के दौरान पिछड़े इलाके (ऐसे क्षेत्र, जो आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछडे हैं) से आने वाले विद्यार्थियों तथा  सभी क्षेत्रों की महिलाओं को अतिरिक्त अंक प्रदान किए जाते हैं। इस नियम के कारण  देश के पिछड़े इलाकों से हजारों युवाओं का अपने विराट जीवन-अनुभव के साथ जेएनयू जैसे संस्थान में पहुंचना संभव हो सका। इन युवाओं की बौद्धिक क्षमता ने जेएनयू को जेएनयू बनाया। इन्हीं युवाओं ने बाद के वर्षों में जेएनयू में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सरकारी आरक्षण को लागू करवाने तथा अन्य पिछड़ा वर्ग को विशेष वरीयता दिए जाने की लड़ाई लड़ी, जिसकी अगुवाई पिछड़ी जाति से आने वाले कामरेड चंद्रशेखर की। वे जीते और 2006 में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए उच्च शिक्षा में आरक्षण का प्रावधान होने के 11 वर्ष पहले,  1995 में ही- जेएनयू में अन्य पिछड़ा वर्गों को नामांकन में वरीयता दिए जाने का नियम बना। (अतिरिक्त जानकारी के लिए देखें फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2016 में प्रकाशित लेखबहुजन विमर्श के कारण के निशने पर है जेएनयू’)

जेएनयू के जेएनयू बनने तथा इसके पतन में देश के विभिन्न  पिछड़े इलाकों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के योगदान को रखांकित किए बिना आप भविष्य की कोई रूप-रेखा नहीं तैयार कर सकते।

लेकिन पिछड़ा वर्ग, जो कि इस देश का मुख्य श्रमिक, उत्पादक और शिल्पकार वर्ग है, की उच्च शिक्षा में प्रवेश की लडाई सरकारी सहयोग के बावजूद आज कहां पहुंच सकी? अकादमिक स्वतंत्रता की मांग करने वाले प्रोफेसरों ने उस लड़ाई को आगे बढाने के लिए कब संघर्ष किया? क्या उन्होंने कभी कहा कि जेएनयू में विद्यार्थियों के नामांकन में पिछड़े इलाकों तथा पिछड़े वर्ग के युवाओं को वरीयता दिए जाने से हमारी अकादमिक दुनिया को जो लाभ हुआ है, उससे सबक लेकर हम वही नियम फैकल्टी की नियुक्तियों में भी लागू करें?

आज अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए न तो केंद्रीय यूनिवर्सिटियों (जेएनयू समेत) के हॉस्टलों में आरक्षण है; न ही पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप और प्रोजेक्टों में उन्हें आरक्षण दिया जाता है; न ही उन्हें आवेदन आदि की फीस में कोई छूट दी जाती है। समाज-विज्ञान में शोध को बढ़ावा और धनराशि उपलब्ध कराने वाले इंडियन काउंसिल फॉर सोशल साइंस रिसर्च (ICSSR), नीतियों पर शोध करने वाले संस्थान इम्पैक्टफुल पॉलिसी रिसर्च इन सोशल साइंसेस (IMPRESS), इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज समेत अनेकानेक अध्ययन संस्थानों में शोध के लिए अन्य पिछडा वर्ग[9] को आरक्षण नहीं दिया जाता।

हालांकि अपूर्वानंद, अभिजीत पाठक व उन जैसे उंगलियों पर गिने जा सकने वाले प्राध्यापकों के उन वैचारिक योगदानों, लेखन तथा व्यक्तिगत जीवन में लोकतांत्रिक मूल्यों के पालन  को भुलाया नहीं जा सकता, जो उन्होंने धार्मिक सौहार्द्र तथा एक बेहतर दुनिया के सपने के साथ ईमानदारी से किए हैं। लेकिन यूनिवर्सिटियों की स्वायत्तता के लिए सरकार से संघर्ष कर रहे प्राध्यापकों को ठोस रूप से यह विचार करना चाहिए कि वे इस संघर्ष में  किन-किन से मदद की उम्मीद रखते हैं? देश की जनता उनका साथ देने को उत्सुक है; लेकिन पहले उन्हें विश्वास दिलाना होगा कि वे स्वयं को जनता का हिस्सा मानते हैं तथा अपने सभी भाई-बहनों को प्रतिनिधित्व देने तथा उनके ज्ञान का सम्मान करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अकादमिक दुनिया के बाहर सक्रिय बुद्धिजीवी, समाज-संस्कृतिकर्मी भी उनके संघर्ष में तभी साथ आएंगे, जब आप उनके ज्ञान को निखारने और उसका सम्मान बढाने के लिए अपनी अकादमिक क्षमताओं का उपयोग करेंगे।

ऐतिहासिक रूप से भले ही यह विवादित हो; लेकिन लोक-किवदंती के अनुसार आक्रांताओं द्वारा नालंदा महाविहार (नालंदा विश्वविद्यालय) को आग लगाए जाने के बाद उसके भवनों से छह महीने तक धुआं निकलता रहा था। आग लगने के बाद बौद्ध-साहित्य के अध्येता वहां से भाग खड़े हुए; आग लगाने वाले आक्रांता भी वहां से जा चुके थे। लेकिन, आखिर क्यों विश्वविद्यालय के आसपास के 200 गांवों के लोगों ने आग को बुझाने में कोई दिलचस्पी नहीं ली, जिनकी जिम्मेदारी इस विहार को राशन-पानी उपलब्ध करवाने की थी? शायद इसलिए, क्योंकि महाविहार की सुख-सुविधाओं और बौद्धिक-विलास में उनकी कोई हिस्सेदारी नहीं थी। उनके लिए वह एक बोझ था, जो उनके ज्ञान का सम्मान नहीं करता था।

कम ही लोग जानते हैं कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भवन का स्थापत्य प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की तर्ज पर किया गया है। उसी तरह का बहुमंजिला पुस्तकालय जेएनयू में है, जैसा नालंदा में था और छात्रावासों की व्यवस्था भी वैसी ही है। छात्रों-शिक्षकों के बीच आत्मीय संबंध विकसित करने की अनेक अवधारणाएं जेएनयू ने नालंदा विहार से उधार ली हैं।

2016 में जब जेएनयू पर सरकार पोषित संगठनों ने हमला बोला और उसे टीवी चैनलों और अखबारों में बदनाम किया गया, तो दिल्ली में उसके पास स्थित बस्ती मुनिरका के लोग विश्वविद्यालय के साथ नहीं, बल्कि आक्रांताओं के पक्ष में खड़े हुए। मुनिरका के लोगों, जिसकी ज्यादातर आबादी अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की है; ने जेएनयू के खिलाफ सभाएं आयोजित कीं तथा प्रदर्शन किए।

यह समानता अनायास नहीं है प्रोफेसर! इन समानताओं और विडंबनाओं को आप प्रतिक्रियावादी राजनीति की देन कहकर नहीं बच सकते। ये इतिहास के सबक हैं; जिनसे सीखकर हम भविष्य का निर्माण कर सकते हैं।

(कॉपी संपादन : अनिल कुमार/प्रेम)


[1]पाठक, द वायर, The Story of the Fall of a Great University (एक महान विश्वविद्यालय के एक महान विश्वविद्यालय के पतन की कहानी), 29 जुलाई, 2019, मूल अंग्रेजी का भावार्थ

[2] वही

[3] वही

[4] अपूर्वानंद, इंडियन एक्सप्रेस, Killing JNU (जेएनयू की हत्या की जा रही है), 2 अगस्त, 2019, मूल अंग्रेजी का भावार्थ

[5] वही

[6] वही

[7] यूपी और बिहार में मवेशियों द्वारा चारा पचाये जाने के लिए जुगाली करने की प्रक्रिया को पगुराना कहा जाता है

[8] अन्य पिछडा वर्ग को एसोसिएट और प्रोफेसर पद पर आरक्षण न देने के लिए यूजीसी और यूनिवर्सिटियां एक नियम-विरोधी तर्क देती थीं। उनका कहना था कि  चूंकि इन पदों पर नियुक्ति के लिए सामान्यत: अस्टिटेंट प्रोफेसर के पद पर काम करने का अनुभव अनिवार्य शर्त है  और अस्टिटेंट प्रोफेसर  का वेतन ‘क्रीमी लेयर’ के दायरे में आ जाता है, इसलिए इन पदों पर ओबीसी (नॉन-क्रीमी लेयर) आरक्षण लागू नहीं किया जा सकता। सवर्ण आरक्षण लागू होने के बाद इसी तर्क सवर्णों को भी असोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पद पर आरक्षण का लाभ नहीं मिलता।

[9] इन संस्थनों में सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रवधान है


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लेखक के बारे में

प्रमोद रंजन

प्रमोद रंजन एक वरीय पत्रकार और शिक्षाविद् हैं। वे आसाम, विश्वविद्यालय, दिफू में हिंदी साहित्य के अध्येता हैं। उन्होंने अनेक हिंदी दैनिक यथा दिव्य हिमाचल, दैनिक भास्कर, अमर उजाला और प्रभात खबर आदि में काम किया है। वे जन-विकल्प (पटना), भारतेंदू शिखर व ग्राम परिवेश (शिमला) में संपादक भी रहे। हाल ही में वे फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक भी रहे। उन्होंने पत्रकारिक अनुभवों पर आधारित पुस्तक 'शिमला डायरी' का लेखन किया है। इसके अलावा उन्होंने कई किताबों का संपादन किया है। इनमें 'बहुजन साहित्येतिहास', 'बहुजन साहित्य की प्रस्तावना', 'महिषासुर : एक जननायक' और 'महिषासुर : मिथक व परंपराएं' शामिल हैं

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