पिछले रविवार को मैं अपने एक दोस्त की शादी में गया। लेकिन शादी जैसे मौज-मस्ती वाले माहौल में भी उदासी के बादल छाए हुए थे, क्योंकि इस शादी को अभिभावकों की मंज़ूरी से नहीं हो रही थी। इसके पीछे क्या कारण था? इसका मुख्य कारण यही था कि दुल्हन एक सवर्ण हिन्दू परिवार से थी, जबकि दूल्हा पिछड़ी जाति -ओबीसी परिवार से था। इस बात से दोनों के परिवारों को आपत्ति थी, हालांकि दुल्हन के परिवार की नाख़ुशी ज़्यादा स्पष्ट रूप से झलक रही थी।
भारत में विवाह को पवित्र और अनिवार्य माना जाता है, जो स्त्रियों को पराधीन बनाने के लिए काफी हद तक एक पितृसत्तात्मक संस्था का रूप ले चुका है। यहां विवाह धर्म, सामाजिक रीति-रिवाज़ों और राज्यों के कानूनी प्रावधानों से संचालित होता है। इसे पूरे समाज की मान्यता और स्वीकृति प्राप्त है। इसमें सभी धर्मों और जातियों के लोग शामिल हैंं। सभी धर्म और जातियाँ विवाह जैसी सामाजिक व्यवस्था को प्रोत्साहित करती हैं, और अपने अनुयायियों को धर्म या जाति के भीतर ही विवाह करने की छूट देती हैं। जाति और धर्म से बाहर जाकर अपने जीवन-साथी चुनने की उनको अनुमति नहीं दी जाती। युवाओं के लिए अंतरजातीय या अंतर-धार्मिक विवाह के लिए धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक स्वीकृति प्राप्त करना टेढ़ी खीर है। धर्म, समाज, परिवार और कभी-कभी राज्य की संगठित शक्ति द्वारा चुनौती दिए जाने पर उनके पास अक्सर न तो ज़्यादा विकल्प बचता है और ना ही उनकी राय के कोई मायने रह जाते हैं। उनमें से कुछ लोग, जो अपनी पसंद के जीवन-साथी के साथ विवाह-बंधन में बंधने की हिम्मत दिखाते हैं, उन्हें या तो ‘इज़्ज़त’ के नाम पर अपनी ज़िन्दगी की आहूति देनी पड़ती है या फिर कानून और कानूनी संस्थाओं के रहमत -ओ – करम पर जीना पड़ता है।
कानूनी तौर पर, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत अंतरजातीय विवाह मान्य है। अधिनियम की धारा 5 में यह कहा गया है कि इस अधिनियम के तहत, दो हिन्दुओं के बीच विवाह को मान्यता दी जा सकती है। साथ ही, अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित करने के लिए, केंद्र सरकार का सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ‘डॉ आंबेडकर स्कीम फॉर सोशल इंटीग्रेशन थ्रू इंटर-कास्ट मैरिज’ नामक योजना चलाता है। 2013 में शुरू की गई इस योजना के अंतर्गत ऐसे विवाहित जोड़ों, जिनमें एक साथी दलित हो, को 250,000 रुपये का आर्थिक प्रोत्साहन प्रदान किया जाता है। चूंकि एक वर्ष में 500 विवाह ही इसके तहत संपन्न होते हैं, इसीलिए इस योजना की संभावनाएं सीमित हैं, हालांकि कई राज्य इस योजना के ही तरह अन्य योजनाएं राज्य स्तर पर भी चला रहे हैं। गौरतलब है कि इन योजनाओं का लाभ तभी मिलता है जब विवाह सफलतापूर्वक संपन्न हो चुका होता है। विवाह की तैयारी के दौरान कानून की तरफ़ से कोई ख़ास सहायता नहीं मिलती, जिसके परिणामस्वरूप अंतरजातीय विवाह कराने की यह योजना कम ही सफल रही।
जहाँ तक अंतर-धार्मिक विवाह की बात है, हिंदू विवाह अधिनियम हिंदुओं, सिक्खों, बौद्धों और जैनियों पर लागू होता है; जो विवाह इन समुदायों के बाहर होते हैं, वे इस अधिनियम के तहत संपन्न नहीं हो सकते। मुस्लिम लॉ के तहत, एक पुरुष ईसाई धर्म और यहूदी धर्म जैसे किसी भी एकेश्वरवादी धर्म का पालन करने वाली महिला से विवाह कर सकता है, हालांकि महिला के लिए ऐसा कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम के तहत ईसाइयों के बीच ही विवाह संपन्न होने के प्रावधान हैं। लेकिन, विशेष विवाह अधिनियम, 1954, जो पर्सनल लॉ का एक विकल्प है, विवाह करने वाले दोनों पक्षों के धर्म को महत्वहीन मानता है और इसीलिए सभी अंतर-धार्मिक विवाह इस अधिनियम के तहत संपन्न हो सकते हैं। इस अधिनियम को ‘स्पेशल’(विशेष) होने का दर्ज़ा दिए जाने से ही इसके तहत होने वाले विवाहों की खासियत का बोध होता है। अधिनियम में ऐसी प्रक्रियागत औपचारिकताओं का भी निर्धारण किया गया है, जिनका दुरुपयोग अंतर-धार्मिक, यहाँ तक कि अंतरजातीय विवाहों में अवरोध पैदा करने के लिए किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, पिछले साल विधि आयोग ने पारिवारिक कानून में सुधार पर अपने परामर्श पत्र में कहा कि विवाह अधिकारी द्वारा रखी गयी माँगों के अनुसार, विवाह पब्लिक नोटिस जारी होने के तीस दिन बाद ही संपन्न हो सकता है। अतः अंतर-धार्मिक और अंतरजातीय विवाहों के लिए यह माँग अवरोधक का काम कर सकता है।
अंतरजातीय विवाह के विपरीत, अंतर-धार्मिक विवाह करने वालों को कोई आर्थिक प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है और वर्तमान सरकार की ओर से ऐसे विवाहों को प्रोत्साहित करने की कोई योजना नहीं है। और फिर इस्लाम के अनुयायी पुरुष और हिन्दू स्त्री के बीच विवाह को भी ‘लव जिहाद’ जैसे कुत्सित शब्द का इस्तेमाल कर व्याख्यायित किया जा रहा है। मज़बूती से स्थापित पितृसत्ता और अल्पसंख्यकों के प्रति सरकार-समर्थित द्वेष ने अंतर-धार्मिक विवाहों की एक ख़ास श्रेणी को दुष्प्रचारित किया है और हैरानी की बात है कि देश के कुछ न्यायिक संस्थानों ने भी इसमें भूमिका निभाई। अतः देश में अंतर-धार्मिक विवाहों की सामाजिक स्वीकृति और समावेशन की संभावना कम ही दिखती है। अपनी अत्यंत प्रभावशाली रचना, ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने अंतरजातीय विवाह को जाति उन्मूलन का वास्तविक उपाय बताया था। उनके अनुसार, रक्त के मिश्रण से ही सगे-सम्बन्धी होने की भावना पैदा हो सकती है और जब तक परिजन होने की यह भावना सर्वोपरि नहीं हो जाती, तब तक जाति द्वारा निर्मित अलगाववादी भावना ख़त्म नहीं होगी। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने जाति को खत्म करने के लिए “रोटी और बेटी” का नारा दिया था। इसकी अनिवार्यता पर ज़ोर देते हुए उन्होंने अंतरजातीय विवाह में लैंगिक असमानता को भी उजागर किया। जिसमें पुरुषों, विशेषकर ‘उच्च-जाति’ के पुरुषों को महिलाओं की तुलना में जीवन-साथी चुनने की अधिक स्वतंत्रता है। इस प्रकार लोहिया ने कहा कि लोगों को अपनी बेटियों का विवाह दूसरी जाति के पुरुषों से करने के लिए तैयार होना होगा।
ये विचार अंतर-धार्मिक विवाहों पर भी समान रूप से लागू होते हैं। आज भारत ‘हम बनाम वे’ की दो अलग-अलग गुटों में विभाजित करने वाली भावना से ग्रसित है, इसकी विविधता एक विशेष प्रकार की बहुसंख्यक समरूपता का रूप ले चुकी है। फिर भी, इस देश में दुनिया की सबसे बड़ी बहुसंख्यक युवा आबादी के सपने और उनकी आशाएं पलती हैं। उनमें से बहुत से लोग मानव-निर्मित जाति और धर्म की सीमाओं को लांघकर विवाह करना चाहेंगे, यदि वे अपनी मर्ज़ी से विवाह करना चाहें तो। हमें उनके रास्ते में किसी प्रकार का अवरोध पैदा नहीं करना चाहिए, क्योंकि शायद वे भारत को एकसूत्र में बांधे रखने की हमारी एकमात्र उम्मीद हैं। कहीं धर्म, समाज और परिवार के प्रभुत्व की तिकड़ी उनके अरमानों को कुचलकर उनके जीवन में रोष न भर दे, उनको ऊपर उठने न दे, हमें इसका ध्यान रखना होगा।
डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि किसी छिन्न-भिन्न होते समाज को एकसूत्रता में बाँधने के लिए विवाह अत्यावश्यक हो जाता है। इसलिए, आज के द्वेषपूर्ण माहौल में अंतरजातीय और अंतर-धार्मिक विवाह की सख्त ज़रूरत । जहाँ एक तरफ़ उन्हें सुगम बनाने में कानून को सकारात्मक भूमिका निभाने की जरूरत है, वहीं दूसरी तरफ़ ,ऐसे विवाहों की कम संख्या से ज़ाहिर होता है कि अकेला कानून इस दिशा में पर्याप्त नहीं है। समय की माँग है कि समाज और परिवार ऐसे विवाहों को बिना किसी विवाद के स्वीकारें और एक ऐसे बदलाव की शुरुआत करें, जिसकी आज देश को दरकार है। धर्मनिरपेक्षता केवल एक संवैधानिक आदर्श भर नहीं है ; एक बहुल , विविध और सहिष्णु भारत में हर नागरिक से धर्मनिरपेक्षता की अपेक्षा की जाती है।
(अनुवाद: डॉ देविना अक्षयवर, संपादन- सिद्धार्थ)
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