ओबीसी साहित्य को नजर अंदाज करने के लिए क्या कुछ नहीं हुआ? समाज का वह तबका जो पूर्व से साहित्य को सिर्फ अपना बौद्धिक-कर्म समझता आया है; वह साहित्य की इस धारा से काफी कूढ़- सा गया! उसे लगा हम कहां जाएंगे? उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम? सब जगह, अब भरने लगी है, उससे नहीं, उसके प्रतिद्वंदियों से!
समाज का हाशिया पहले से ज्यादा होशियार व कलात्मक हुआ है, उसने जिंदगी को अपनी तरह देखा, परखा व मूल्यांकित किया है – नहीं तो अबतक जो भी अनुभव व मूल्यांकन थे; वह तो सब सवर्ण-दृष्टि ही थी,जिसमें अनुभूति की गहराई उतनी नहीं थी; जितनी कि समाज के हाशिए पर के लोगों ने भोगा था; जीवन को जीया व देखा था। उसके पास भाषा नहीं थी; लोक था। इसलिए, अपनी बात लोकगीतों व लोक-कहानियों में तो वह दूहरा ले रहा था; किंतु मुख्य-धारा का जो साहित्य था; जो भाषा थी- उसमें वह अनुपिस्थत सा था। अनुपस्थिति के पीछे जो और कारण थे; उसमें से यह भी एक था कि उसकी सामाजिक-स्थिति, जन्मपत्री देखकर तथाकथित बड़े घराने व समाज से संबंध रखने वाला हिन्दी तथा अन्य भाषाओं का लेखक, उसे नजर-अंदाज करते आए।
उड़िया के मल्ल रचनाकार फकीर मोहन सेनापति के साथ भी ऐसा हुआ कि उनके जमाने के राधामोहन राय, मधुसूदन राय प्रभृति लोगों ने; उन्हें उपेक्षित रखने की कोशिश की, ठीक उसी तरह हिन्दी में अनूपलाल मंडल जैसे बड़े रचनाकार-उपन्यासकार की चर्चा बहुत कम हुई; जितनी होनी चाहिए थी। हिन्दी के यशस्वी कहानीकार उपन्यासकार मधुकर सिंह के साथ कुछ ऐसा ही हुआ कि हिन्दी का कोई बड़ा साहित्यिक आलोचक हरी घास डालने से कतराते रहे।
हिन्दी के जनवादी-धारा का लेखक बनाफर चन्द्र को अपने संगठन में ही, प्रतिभा के बावजूद वह सम्मान नहीं मिला जो, उनके समकालीन दुधनाथ सिंह और काशीनाथ सिंह को मिला। जबकि बनाफर चन्द्र नागार्जुन की परंपरा के बिहार के एक बड़े कहानीकार, कवि व उपन्यासकार थे; जिनका ठिकाना भोपाल था। राजेश जोशी जैसे लोग, उनकी प्रतिभा से अच्छी तरह परिचित थे; किंतु अन्यों ने स्वयं को उनकी चर्चा से दूर रखा।
आरा के जगदीश नलिन ऐसे ही ओबीसी के जनवादी धारा के साफ-सुथरे शब्दों के सुंदर व बड़े कवि हैं। लेकिन, उनका युवा-काल उतना आदर-युक्त न रहा जितना, होना चाहिए था। उनका ‘सपना साथ नहीं छोड़ता’ एक बेहतरीन काव्य-संग्रह है; जिसकी ताजगी फूलों की खुश्बू की तरह अह्लादित करने वाली है। आरा के ही एक बड़े आलोचक जिन्होंने रामविलास शर्मा से लेकर अन्य प्रगतिशील रचनाओं पर – बेहतरीन कलमें चलाई; स्वयं को डी-क्लास करके; फिर भी उन्हे उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया; क्योंकि वे ओबीसी (कुर्मी) कम्यूनिस्ट थे। यह दर्द ही है कि जो ओबीसी अपने को डी-क्लास कर, पूर्ण सेवा भाव से साहित्य को हथियार बना, समाज की कुरीतियों, असमानताओं व शोषण से लड़ता है; उसी को साहित्य के मुख्य -केन्द्र से अलग कर दिया जाता है। उससे सबसे बड़ा नुकसान आखिर किसका होता है? साहित्य को ही न! उसी तरह ओबीसी (कुशवाहा) परिवार से आने वाले हिन्दी व मगही के लघुकथाकार अलख देव प्रसाद अचल हैं; जिन्होंने अपनी रचनाओं (‘चिंनगारी’ (2010) (हिन्दी लघु कथा-संग्रह) व ‘अजब-गजब आदमी’ (2017 मगही व्यंग्य-संग्रह) से व्यवस्था व पुरोहितवाद पर ऐसा करारा व्यंग्य किया है कि लोग तिलमिला जाएं। किंतु दुर्भाग्य कि मगही के इस बड़े लेखक को घोर मानसिक -कष्ट, कुछ प्रगतिशीलों ने दिया, उस पर बलजोड़ी समझ थोपने की कोशिश की गई; पर वह नहीं डिगे।
यह भी पढ़ें : बहुजन साहित्य की रूपरेखा
इसी क्रम में भोजपुरी के उपन्यासकार -कहानीकार रामलखन ‘विद्यार्थी’ का नाम लेना अनुचित न होगा। वे बिक्रमगंज के घुसिया कला के रहने वाले हैं। डेहरी-ऑन-सोन में रहते हैं। उनकी बिरादरी कुर्मी है। उन्हें सन् 2017 में ‘संगम-साहित्य’ पुरस्कार भी बनाफर चन्द्र के हाथों मिला। वे आजीवन भोजपुरी व हिन्दी की सेवा करते रहे; बुजुर्ग होने के बावजूद भी अभी भी वे सेवा कर रहे हैं। उनका चर्चित भोजपुरी उपन्यास ‘इयाद रह जाला’ (2016) अपनी कसक से पाठकों को विरेचित करने का दम रखता है; फिर भी रामलखन ‘विद्यार्थी’ जी (जन्म 1 अक्टूबर 1933) तड़क-भड़क व साहित्य के क्षेत्र में ढ़ोल-नगाड़े के साथ उपस्थित होने वाले लेखकीय-प्रचार तंत्र से काफी दूर रहे; वरना उनकी ख्याति भी दूर-दूर फैल जाती; किंतु ऐसा करने से स्वयं को उन्होंने दूर रखा और बड़ी शालीनता से; पर दाब के साथ अपनी ‘फुलकेसिया’ के साथ बने रहे। उसी को सहारा लेकर ‘बात-बात’ में भी व्यवस्था को आड़े हाथों लिया। उनका उपन्यास ‘घटवारा’ को लोगों ने खूब पसंद किया। इसके आलावा उन्होंने ‘आज के आदमी’, ‘भूमिहीन’ जैसे कहानी-संग्रह पाठकों को दिए; वहीं ‘माटी के पहरूआ’ भोजपुरी नाटक पर ‘अखिल भोजपुरी सम्मेलन-मुबारकपुर ने सन् 1994 में पुरस्कार भी दिया।
‘‘एकर का मतलब ललना, साफ तू खोल, कहऽ समुझावऽ
बात के भीतर बात बुझात बा, झूठ न एकउ बात बनावऽ
अँखिया हमरे फरके दाहिनी, बदरी बीचवा विजुरी न बसावऽ
हमरे दूधवा किरिया पूतवा, बतिया असली हमसे न छिपावऽ।’’[1]
गुलाबचन्द सिंह ‘आभास’ ने सवा दर्जन के आस-पास कुल भोजपुरी-हिन्दी पुस्तकें लिखीं। हिन्दी में क्रांतिकारी ‘वीर भगत सिंह’, लौह-पुरूष’ जैसे प्रबन्ध-काव्यों की रचनाकर हिन्दी साहित्य को खूब समृद्ध किया। इनके भाई प्रो. गोवर्धन प्रसाद सिंह भी एक अच्छे वक्ता व लेखक हैं। सुभाष चंद्र कुशवाहा ओबीसी के एक बड़े लेखक का नाम है – उनका ‘चौरी-चौरा‘ तथा ‘अवध का किसान विद्रोह’ मुख्य दो उल्लेखनीय पुस्तक हैं। एक अच्छे कहानीकार होने के साथ-साथ उन्होंने किसानों के इतिहास पर; खूब अच्छा तथा अलग नजरिये से काम किया। बनारस के कमलेश वर्मा ने भी अपनी आलोचना पुस्तक ‘जाति के प्रश्न पर कबीर’ से खूब प्रशंसा अर्जित की। इनकी आलोचना दृष्टि ओबीसी साहित्य की रचना दृष्टि है।
यह भी पढ़ें : अवध के किसान विद्रोह का बहुजन पुनर्पाठ
वीरेन्द्र यादव हिन्दी के प्रगतिशील धारा के वैसे आलोचकों में से हैं – जिन्होंने साहित्य के ओबीसी पात्रों में नायकत्व को खास रूप से उभारा है। इनका ‘प्रगतिशीलता के पक्ष’ में काफी-चर्चित व उल्लेखनीय आलोचना पुस्तक है। इसे पढ़ने पर वीरेन्द्र यादव का किसान संबंधी दृष्टिकोण का पता चलता है कि वे किसानों के प्रति कितने सचेत, ईमानदार व साथ हैं। चौथीराम यादव की आलोचना दृष्टि का कमाल ही है कि वे सूरदास में लोक-तत्व व लोक संस्कृति की तलाश करते हैं तथा अनार्यों पर विशेष रूप से फोकस करते हैं। चौथीराम यादव ओबीसी चेतना के प्रगतिशील आलोचक हैं। आलोचना के क्षेत्र में ओबीसी के जिन युवा रचनाकारों की विशेष रूप से चर्चा हुई; उनमें रमेश ऋतंभर, डाॅ. अमल सिंह ‘भिक्षुक’ व रामकृष्ण यादव महत्वपूर्ण हैं। रमेश ऋतंभर (जन्म 2 अक्टूबर 1970, बनिया समुदाय) ने ‘सृजन के सरोकार (2013) तथा ‘रचना का समकालीन परिदृश्य’ (2012) जैसी आलोचना पुस्तक के माध्यम से ओबीसी की प्रगतिशील-धारा को मजबूत किया है। इनपर राजेन्द्र यादव व फणीश्वर नाथ रेणु की रचना दृष्टि का प्रभाव नजर आता है। अमल सिंह ‘मिक्षुक’ ने आलोचना के क्षेत्र में ‘समकालीन हिन्दी कविता, आलोचना तथा अन्य निबंध’ (2007) तथा ‘छायावाद, नयी कविता और नवगीत’ (2012) के माध्यम से छायावाद और समकालीनता को बखूबी समझा व समझाया है। इनका स्पष्ट मत है कि -‘‘लोक जीवन में उत्सव का सांस्कृतिक महत्व है और उसकी उपलब्धि भी कम नहीं है। लोकोत्सव न हो तो मानव जीवन नीरस हो जाएगा। लोकोत्सव की उदात्त परिपाटी मनुष्य की सृजनशीलता का प्रमाण है।’’[2]
ओबीसी साहित्य की प्रवाहित धारा लोक जीवन, लोक-उत्साह, लोक संस्कृति व लोक-साहित्य में सदैव प्रवाहित होती रही है। और यही कारण है कि भारत जैसे विशाल देश में एक लंबी कृषि-संस्कृति की परंपरा अब तक बरकरार रही है। किसान, शिल्पी, कारीगर अपना सबकुछ होम करके भी; जीवन देने में, उसके फलने-फूलने में विश्वास करते हैं। राजेन्द्र यादव को उस कृषक वर्ग से इतना लगाव था; जबकि वे शहरी थे कि वे हमेशा यह कहा करते थे – “जो फसल बोएगा, वहीं काटेगा। ऐसा नहीं होगा, मेरे जीते जी कि फसल बोय कोई और काटे कोई और।’’[3] हिन्दी के युवा आलोचक व पत्रकार रामकृष्ण यादव को शायद इसीलिए सबसे ज्यादा ओबीसी के साहित्यकारों में पसंद राजेन्द्र यादव ही थे और उन्होंने उन पर एक बेहतरीन पुस्तक संपादित की -‘‘ राजेन्द्र यादव: जीवन और साहित्य’’ (2018)।[4]
ओबीसी साहित्य के दो प्रमुख हस्ताक्षरों में ‘भोजपुरी जिनगी’ के संपादक संतोष पटेल तथा युवा-लेखिका नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’ का नाम लिया जा सकता है। प्रथमतः यह कि संतोष जी ने बहुत कम उम्र में भोजपुरी को एक आंदोलन का रूप दे दिया और नीतू सुदीप्ति अपने ‘हमसफर’ द्वारा अपने दिल में सुराख होने के बाद भी हिन्दी और भोजपुरी में कई कहानी संग्रह व उपन्यास दिए। यह ओबीसी साहित्य की समृद्धि के शुभ संकेत हैं।
(कॉपी संपादन : नवल)
[1] माटी के लाल, प्रो. गुलाबचन्द्र ‘आभास’ पृ.-92
[2] छायावाद नयी कविता ओर नवगीत, डाॅ. अमल सिंह ‘भिक्षुक’ पृ. -65
[3] पहचान, संपादक – सी.डी. सिंह, नवम्बर -दिसम्बर 2015, पृ. 25
[4] राजेन्द्र यादव: जीवन और साहित्य, रामकृष्ण यादव, पृ. -93
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें
मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया