मेरठ के चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी (सीसीएसयू) में दो असिस्टेंट प्रोफेसरों की सेवाएं खत्म कर दी गई हैं। इसे लेकर पूरा विश्वविद्यालय प्रशासन सवालों के घेरे में है। एक पीड़ित प्रोफेसर ने अदालत का दरवाजा खटखटाया है। और अब हालत यह है कि अदालत में बहुत सफाई के साथ विश्वविद्यालय प्रशासन बचकाने आधार बताते हुए निकलने की फिराक में है।
यह विडंबना है जो चौंकाती ही नहीं, परेशानी और चिंता में भी डालती है। विश्वविद्यालय में एक ही समय में 13 लोगों की प्रोफेसरों के पद पर एक ही आधार और नियमों से नियुक्ति होती है लेकिन उनमें दो लोग बारी-बारी से यूनिवर्सिटी ने बाहर कर दिए। ये दो नाम हैं अनिल कुमार और गरिमा सिंह। इस मामले में गरिमा अदालत जा चुकी है और अनिल कुमार का केस अभी लंबित है। हालांकि इस मामले में एक हकीकत यह भी है कि विश्वविद्यालय ने अपनी ही चयन समिति को कठघरे में खड़ा कर दिया है और इस पर राज्यपाल, जो कुलाधिपति होते हैं, ने इस पर स्पष्ट संस्तुति दे दी है।
पहले संक्षेप में पूरा मामला समझते हैं। यूनिवर्सिटी ने फ़रवरी 2015 में विभिन्न विषयों में कुल 13 असिस्टेंट प्रोफेसरों को नियुक्ति दी। इसमें समाजशास्त्र में अनिल कुमार की भी नियुक्ति हुई। फ़रवरी 2015 में ही विभागाध्यक्ष और कुलपति से अनिल कुमार के खिलाफ शिकायत की गई कि उनकी नियुक्ति में अनियमितता बरती गई है और चयन समिति ने गलत तरीके से ज्यादा अंक दिए हैं जिसके हक़दार अनिल कुमार नहीं थे। शिकायत में कहा गया कि अनिल कुमार ने तत्कालीन कुलपति गोयल और प्रति-कुलपति को रिश्वत दी, जिसके चलते उनका चयन हुआ।
चयन समिति दोषी है तो प्रोफेसरों पर क्यों गाज गिरी?
फारवर्ड प्रेस के पास मौजूद दस्तावेज कहते हैं कि इन शिकायतों पर यूनिवर्सिटी ने अनिल कुमार के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। इसलिए यह शिकायत उस समय के कुलाधापति यानी राज्यपाल राम नाईक से की गई। रिश्वत को साबित करने के लिए यह कहा गया कि अनिल कुमार को “अवैध” तरीके से दस (10) अंक दिए गए, जिसके कारण अनिल कुमार का चयन सुनिश्चित हो गया। यह बात प्रमुखता से कही गई कि आवेदन के आखिरी दिन अनिल कुमार ने अपनी पीएचडी जमा नहीं की थी, लेकिन चयन समिति ने अनिल कुमार पीएचडी जमा करने के सात (7) अंक प्रदान किए। इस तरह अनिल कुमार का चयन सुनिश्चित हो गया अन्यथा अनिल कुमार का चयन नहीं होता। बहरहाल, तब राज्यपाल का ऑफिस सोया हुआ नहीं था और इस संदर्भ में अनिल कुमार से इसकी सफाई मांगी गई।
अनिल कुमार ने फौरन 20 अगस्त 2015 को कुलाधिपति को लिखा कि वह शिकायतकर्ता के क़ानूनी अधिकार का सम्मान करते हैं लेकिन उसका जन्म मिट्टी के घर में हुआ है, आज भी उसका घर वैसा ही है, अर्थात उनकी हैसियत नहीं है कि किसी को चयन के लिए रिश्वत दे सकें। हालांकि यह भी गौरतलब है कि उस समय तक अनिल कुमार का चयन टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज के लिए हो चुका था, साथ ही पोस्ट डाॅक्टोरल रिसर्च के लिए डेनमार्क की आरहुस यूनिवर्सिटी में सेलेक्ट हो गए थे।
अनिल कुमार ने कुलाधिपति को लिखा कि उन्होंने अपने आवेदन में नहीं लिखा था कि उसके पास पीएचडी की डिग्री है या पीएचडी जमा की है। बल्कि साक्षात्कार के पहले सभी उम्मीदवारों को अपनी वर्तमान उपलब्धि का जिक्र करने को कहा था, जहाँ उन्होंने सर्टिफिकेट के साथ इसका जिक्र किया कि पीएचडी जमा कर दी है। यह अवसर सभी विषयों के सभी उम्मीदवारों के पास था। सबने ऐसा किया। सभी उम्मीदवारों को आवेदन के बाद के उपलब्धियों के लिए अंक दिए गए जिसमें वह भी हैं। गोयल ने राज्यपाल को लिखा कि अनिल कुमार की नियुक्ति में कोई भी अनियमितता नहीं बारती गई है। उनकी नियुक्ति में वही प्रक्रिया अपनाई गई जो अन्य उम्मीदवारों के लिए अपनाई गई थी।
यूनिवर्सिटी के लिखने के बाद भी राज्यपाल ने बिना किसी विशेष जाँच या तथ्यों को ध्यान में रखे दिसंबर 2015 में बर्खास्तगी का आदेश पारित कर दिया। हालांकि यह उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है।
दरअसल नियमानुसार, राज्यपाल (कुलाधिपति) को कोई अधिकार नहीं था कि वह अनिल कुमार को बर्खास्त करते। अगर चयन में कोई गड़बड़ी थी तो इसकी जाँच करानी चाहिए थी। यह भी महत्वपूर्ण है कि चयन समिति का चयन कुलाधिपति के सहमति से कुलपति करते हैं और साक्षात्कार में कुलाधिपति के प्रतिनिधि मौजूद होते हैं। अनिल कुमार को अखबार के जरिए पता चलता है कि उनको बर्खास्त कर दिया गया है। कुलाधिपति द्वारा बर्खास्तगी का पत्र पत्र रात साढ़े नौ बजे अनिल कुमार के निवास पर आकर एक कर्मचारी देता है।
शिकायतकर्ता और कुलाधिपति दोनों का मानना है कि इंटरनल क्वालिटी एश्योरेंस सेल (आईक्यूएसी) ने अनिल कुमार कुमार को जितने अंक दिए थे, चयन समिति ने भ्रष्टाचार करते हुए अवैध तरीके से अनिल कुमार को अंक दिए। शिकायतकर्ता और कुलाधिपति दोनों ‘अवैध तरीके’ शब्द का प्रयोग चयन समिति के लिए किया। इसके ही बाद अनिल कुमार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में दस्तक दी।
असल जवाब चयन समिति को देना चाहिए था, लेकिन अहित तो अनिल कुमार का हो रहा था। इसलिए उन्होंने हाईकोर्ट के सामने प्रमुख तथ्य रखे- एक, असिस्टेंट प्रोफेसर के चयन का अधिकार सिर्फ विशेषज्ञ चयन समिति को है, इसके अलावा किसी और को नहीं है। दो, आईक्यूएसी का असिस्टेंट प्रोफेसर के नियुक्ति में कोई योगदान नहीं है। इसलिए यह कहना कि जो अंक दिए उससे ज्यादा अंक चयन समिति ने दिए- बेबुनियाद और काल्पनिक है। तीन, असिस्टेंट प्रोफेसर के चयन का कार्य और अधिकार सिर्फ चयन समिति को है। इसी कड़ी में उन्होंने कहा कि आईक्यूएसी को कोई भी अंक देने का अधिकार ही नहीं है इसलिए सवाल आधारहीन है कि अनिल कुमार को ज्यादा अंक चयन समिति ने दिए हैं।
सभी उम्मीदवारों को न सिर्फ समाजशास्त्र बल्कि सभी विषयों के उम्मीदवारों को साक्षात्कार से पहले एक मौका दिया गया था कि वे अपने डिग्री/ उपलब्धि का उल्लेख करें। अनिल कुमार इस मौके पर लिखा कि उन्होंने अपनी पीएचडी जमा कर दी। चयन समिति ने पीएचडी जमा करने के लिए निर्धारित सात (7) अंक दिए। शिकायतकर्ता, कुलाधिपति, अदालत और चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी के संतुष्टि के लिए अनिल कुमार ने यह चार्ट पेश किया कि कैसे आईक्यूएसी नहीं बल्कि अंतिम मूल्यांकन चयन समिति का था।
एक सवाल यह भी है कि अगर चयन समिति किसी का गलत तरीके से चयन करे तो सबसे पहले सजा किसे मिलनी चाहिए? किससे चयन प्रक्रिया पर सफाई मांगी जानी चाहिए? अगर चयन सच में गलत हो तो चयन समिति के सदस्यों को सजा मिलनी चाहिए या नही? न कुलाधिपति और न यूनिवर्सिटी ने कहा है कि अनिल कुमार ने कोई गलती की है, जिस फर्जी, मनगढंत गलती का जिक्र किया जाता है, वह चयन समिति के गलती का जिक्र किया जाता है, लेकिन बर्खास्तगी के रूप में सजा अनिल कुमार को मिली। गरिमा के केस में भी विश्वविद्यालय ने कुलाधिपति को वही बातें लिखीं जो अनिल कुमार के मामले में लिखीं थीं।
अनिल कुमार का पक्ष
अनिल कुमार से जब हमने पूछा तो वह कहते हैं, “विश्वविद्यालय कोर्ट में पलट गया है लेकिन मेरे विरुद्ध कोई भी दस्तावेज उपलब्ध नहीं करा सका है। यूनिवर्सिटी और राज्यपाल आफिस दोनों ने मेरे आरटीआई का जवाब नहीं दिया है। चांसलर/ कुलाधिपति का पत्र आप देख सकते हैं, सभी 13 असिस्टेंट प्रोफेसर की बहाली एक ही नियम के तहत हुई थी तो चांसलर/ गवर्नर ने मुझे कैसे बर्खास्त कर दिया था? शायद मेरी बर्खास्तगी के बाद लोगों को लगा कि सबकी बर्खास्तगी हो सकती है। इसकी डिमांड गवर्नर से की गई और अदालत का दरवाजा भी खटखटाया गया। अदालती आदेश के बाद गवर्नर ने यूनिवर्सिटी से राय ली जिसका जिक्र पत्र में है। यूनिवर्सिटी ने कहा कि सभी नियुक्तियां नियम संगत तरीके से हुई हैं। तत्कालीन कुलपति ने भी मेरे बारे में यही लिखा था। जिसे गवर्नर ने नहीं माना था। अब वही गवर्नर बाकी 11 लोगों के बारे में उसी यूनिवर्सिटी की बात मान रहे हैं।
अनिल कहते हैं, “मेरे केस में यूनिवर्सिटी अपनी ही रिपोर्ट को रद्द करते हुए गवर्नर के आदेश पर न सिर्फ मुझे बर्खास्त कर दिया बल्कि अदालत में भी कहा कि मेरी नियुक्ति में कानून की अवहेलना हुई है। अदालत को देखना होगा कि एक साथ एक सामान नियुक्ति में गवर्नर और यूनिवर्सिटी दो स्टैंड कैसे ले सकते हैं? सभी नियुक्तियों का नियम एक ही था पैनल भी एक ही था, सिर्फ सब्जेक्ट एक्सपर्ट अलग-अलग थे।
बहरहाल, अनिल कुमार इस लड़ाई को अभी लड़ रहे हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन को चाहिए वो मामले पर फिर से गौर करे, इससे पहले कि कोर्ट से उसे फटकार सुननी पड़े। विश्वविद्यालय के लिए बदनामी का कारण बने इस केस से वह चाहे तो अब भी भूल-सुधार कर सकता है।
(कॉपी संपादन : नवल)
(आलेख परिवर्द्धित : 7 अगस्त 2019, 6;06 PM)
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