छत्तीसगढ़ सहित देश के जनजातीय इलाकों में बाहरी हस्तक्षेप लगातार बढ़ता जा रहा है। जहां एक ओर अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोगों से उनका जल-जंगल-जमीन छीना जा रहा है तो दूसरी ओर उनके उपर बाहरी संस्कृति भी थोपी जा रही है। इस क्रम में उनके पर्व-त्योहारों को भी हिंदुत्व के रंग में रंगा जा रहा है। इसका एक उदाहरण पोला पड्डुम पर्व है। आजकल इस पर्व को हिन्दू देवी-देवताओं से जोड़ा जा रहा है जबकि यह गोंड सभ्यता का पर्व है जिसका संबंध पारी पहान्दी कुपार लिंगो से है।
दरअसल, कोइतूर संस्कृति में पाबुन पड्डुम[i] का बड़ा महत्त्व है। गोंडी भाषा में कोइतूर भारत[ii] के मूल निवासियों को कहा जाता है।[iii] इतिहासकारों ने इसकी पुष्टि की है कि कोइतूर समाज के लोगों ने खेती का आविष्कार किया था।[iv] कृषि शुरू करने से पहले ये कबीलाई लोग पशु पक्षियों के शिकार, जंगलों से इकठ्ठा किए गए कंद मूल और फल फूल पर आश्रित रहते थे। कोयापुनेम के प्रवर्तक पारी पहान्दी कुपार लिंगो ने सर्वप्रथम कोयतूरों को खेती करना सिखाया। ऐसा माना जाता है कि सर्वप्रथम उन्होंने धान[v] की खेती करना सिखाया। इसके लिए जिस पद्धति का इस्तेमाल किया जाता था, उसे धाया[vi] विधि भी कहते हैं।
कोइतूर संस्कृति के विकास और संपन्नता में खेती का बहुत बड़ा योगदान था। यह कृषि व्यवस्था ही थी जिसके कारण भारत में सभ्यता के विकास के नये आयाम सामने आए। हालांकि पारी पहान्दी कुपार लिंगो की प्राचीन विधि धाया प्रासंगिक नहीं रही। वजह यह रही कि हर बार खेती करने के लिए जंगलों को काटकर आग लगानी पड़ती थी। कालांतर में लिंगो भीमाल पेन, उनके भाइयों और बहनों ने कृषि की अन्य बहुत सारी नई नई तकनीकें विकसित की। भीमाल पेन ने धान की खेती के नये तरीकों को बताया। साथ ही सिंचाई के तरीके[vii] भी लोगों को बताये। इन तरीकों के कारण कृषि में नयी क्रांति आयी और कोइतूर समाज समुन्नत हुआ। उसी काल में मोहनजोदड़ों और हड़प्पा जैसी नगर संस्कृतियों का विकास हुआ। जिन्हे आर्यों के आक्रमण के बाद तहस नहस कर दिया गया।[viii]
पोला पड्डुम मूल रूप से खेती-किसानी से जुड़ा हुआ त्यौहार है। ऐसे ही अनेक त्यौहार हैं जो खेती से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित हैं। कोइतूर समाज के लोगों ने ही दो तरह की फसलें उगानी शुरू की। इनमें से एक उन्हारी (रबी) और दूसरी सियारी (खरीफ) है। वंजी यानी धान सियारी खेती की मुख्य फसल है। इसके बीज बोये जाने से लेकर काटे तक कई त्यौहार मनाए जाते हैं। इनमें बिदरी पाबुन[ix], हरेली पड्डुम[x], पूनल जीवा जाड़ी पड्डुम[xi], जीवती पड्डुम[xii], पोला पड्डुम[xiii], पाठ पीढ़ा पड्डुम[xiv], जंगो[xv] लिंगो[xvi] लाठी पड्डुम[xvii] और पूनल वंजी पड्डुम[xviii] और संजोरी पाबुन शामिल हैं।[xix]
पोला शब्द गोंडी भाषा (कोइयाँ भाषा) के “पाल” शब्द से आता है जिसका मतलब दूध होता है।[xx] यह त्यौहार कई चरणों में मनाया जाता है।
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पहले चरण में कोइतूर समाज के लोग जंगलों से जड़ी-बूटी आदि लाते हैं और उन्हें अपने खेतों में डालते हैं। इसके पीछे मकसद यह होता है कि कीट-पतंग धान के पौधे के दानों, जिनमें दूध है, उसे नष्ट न कर दें। इसके लिए भिलवा नामक पेड़ की टहनियों को तोड़कर खेत के मेड़ों पर लगाया जाता है। इसके प्रभाव में आने के बाद फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीट-पतंग मर जाते हैं। इसके अलावा लोग इन टहनियों को अपने घरों के आसपास भी लगाते हैं। अन्य गुणकारी और कीटनाशक वनस्पतियाँ जैसे समोका, वड्ढुर, नारबोद, कोहका (कोक्का), सिंघी और घर्रा इत्यादि पेड़ों के जड़, तनों, टहनियों, पत्तों, फूल और फलों का उपयोग भी इसी उद्देश्य से किया जाता है।
दूसरे चरण में लोग अपने पशुधन मुख्यतया बैलों का सम्मान और धन्यवाद ज्ञापित करते हैं जिनके कारण ही कृषि कार्य सफलता पूर्वक संभव हो पाता है। धान की फसल लगाने के बाद बैल खाली हो जाते हैं और बरसात का मौसम होने के कारण उनके खुरों और पैरों में बहुत सी बीमारियाँ होने के खतरे बढ़ जाते हैं । इसलिए पहले दिन बैलों को नदी, तालाब आदि में में नहला धुलाकर उनके खुरों और सींगों में तेल, काजल के साथ अन्य औषधियां लगाई जाती है। इस मौके पर उन्हे खिचड़ी खिलाई जाती है। (कंगाली 2011)। चूंकि पहले कृषि कार्य बैलों द्वारा ही सम्पन्न होता था इसलिए उनकी भी सुरक्षा और सम्मान के लिए भी पोला का पर्व मनाया जाता है।
इस मौके पर बैलों को लाल-पीले और हरे रंगों से रंग कर उन्हे तरह तरह के घूँघरू-घंटियों से सजाया जाता है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में में मुर्र मड़ा (पलाश के पेड़ ) की छाल से बनी रस्सियों से बैलों को बंधा जाता है। इसी दिन बैलों की दौड़ भी होती है। कहीं-कहीं बैलगाड़ी के दौड़ भी होती है जिसमें गाँव के सभी हृष्ट पुष्ट बैल भाग लेते हैं। कई जगहों पर ’बैल सजाओ प्रतियोगिता’ भी आयोजित की जाती हैं जिसमें सबसे अच्छे ढंग से साज सज्जा किए हुए बैल को पुरस्कृत किया जाता है। महाराष्ट्र के कुछ भागों में इस त्योहार पोला-बड़गा पड्डुम नाम से जाना जाता है। (कंगाली 2011)
पोला के तीसरे चरण में यानि बड़े पोला के दिन लकड़ी, धातु या मिट्टी के बने बैल की पूजा (गोंगो) करते है और अगले दिन सुबह बच्चे घर घर जा कर बडग्या यानि पैना[xxi] और मिट्टी के बने बैल के खिलौने आदि को ले जाकर बोजारा मांगते है। इस मौके पर बच्चे सब मिलकर ‘रेरेलो रेरेलो रेमसा कोटेला’ नमक गोंडी गीत गाते हैं। महाराष्ट्र और दक्षिणी मध्य प्रदेश में बडग्या को रेमसा कोटला भी कहते हैं।
इस पर्व के इसी तीसरे चरण में बच्चों की सुरक्षा के लिए प्रयोग किए गए गेंडी का सम्मान किया जाता है । गेंडी बांस का बना हुआ एक यंत्र होता है जिस पर चढ़ कर बच्चे बरसात में चलते हैं इससे उनके पैरों में मिट्टी कीचड़ नही लगता है और साथ ही साथ जमीनी कीड़े मकोड़े, साँप बिच्छू आदि से भी सुरक्षा होती है । कोयतूर संस्कृति में गेंडी का एक प्रमुख स्थान है और यह बच्चों की सुरक्षा और सांस्कृतिक विकास में सहायक होती है। लड़कियां चूल्हा, कढ़ाई, पोरा, चुकिया, जांता या चक्की, बाल्टी, गु़ंडी, झारा, करछुल, चम्मच, प्लेट इत्यादि से खेलती हैं। जबकि लड़के मिट्टी के बैल, घोड़े और अन्य कृषि यंत्रों से खेलते हैं।
इसी चरण में बच्चे अपने साथियों के साथ गाँव के बाहर मैदान में पोरा पटकने जाते हैं। इस परंपरा में युवक-युवतियाँ अपने-अपने घरों से एक-एक मिट्टी के खिलौना ले जाकर निर्धारित स्थान में फोड़ते हैं और बाद में अपनी-अपनी टोली बनाकर मैदान में कुश्ती, सूरपाटी, कबड्डी, खो-खो आदि खेल खेलते हैं। उसी दिन सुबह पाड़वा मनाया जाता है जिसमे बच्चे और युवा गाँव के बाहर खाली स्थान पर गेंडी खेलते है और गेंडी नृत्य करते हैं।
(पोला पर्व के मौके पर गेंडी नृत्य की परंपरा है। इस नृत्य में बांस की लाठियों का इस्तेमाल किया जाता है।)
चौथे चरण में अन्य त्योहारों की भांति पोला में विभिन्न पकवान बनाए जाते हैं। कोशिश होती है कि सभी पकवान प्रकृतिक रूप से बनाए और परोसे जाएँ। इस दिन बर्तन के रूप में ढांक/ पलाश(मुर्र मड़ा ) के पत्तों का भी प्रयोग खान पान के लिए किया जाता है। इस दिन स्वादिष्ट व्यंजन जैसे गुड़हा चीला, अनरसा, सोहारी, चौसेला, बरा, मुरकू, भजिया, मुठिया, गुजिया, तसमई पूरी, हलुआ, चावल की खीर, ख़ुरमा, ठेठरी, पूरन पोली(साटोरी), चने की सब्जी, महुए के व्यंजन और मिठाईयाँ इत्यादि बनाए जाते हैं। इन पकवानों को मिट्टी के बर्तन और खिलौने में गोंगों (पूजा) करके भरते हैं जिससे पूरे वर्ष घर के बर्तन अन्न से भरे रहें।[xxii]
जिस दिन पोला मनाया जाता है उस दिन का विशेष महत्व यह भी है कि कोइतूर समाज के बैगा[xxiii] और भुमका[xxiv] लोगों को जंगलों में ले जाकर औषधिय पौधों के बारे में जानकारी देते हैं।
कुल मिलाकर पोला एक ऐसा त्यौहार है, जिसमें सभी पुरुष, महिला और बच्चे शामिल होते हैं। इस मौके पर खेत से लेकर पशुधन तक की पूजा की जाती है। हाल के दिनों में इसमें बदलाव आया है। पोला पर्व को हिन्दू धर्म से जोड़कर बताया जाने लगा है। इसके सहारे कोइतूर समाज की परंपराओं को कमतर बताकर हिन्दू धर्म के मिथकीय पात्रों मसलन, ब्रह्मा, विष्णु और महेश को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। इसका विरोध किया जाना चाहिए।
(संपादन : चंद्रलेखा कंगाली/उषाकिरण आत्राम/नवल)
[i] तीज त्योहारों (पूर्णिमा के दिन मनाए जाने वाले उत्सवों को पाबुन और अमावस्या के मनाए जाने वाले उत्सवों को पड्डुम कहते हैं )
[ii] गोंडी भाषा में भारत को कोयामूरी द्वीप कहा जाता है और कोइतूर का अर्थ “कोयामूरी दीप में जन्मे प्रथम मानव के वंशज”
[iii] कोरेटी, शामराव (2015): गोंड’ जनजातियों का धर्म : मध्य भारत दक्षिण एशिया संस्कृति, इतिहास और विरासत पृष्ठ 88. http://repository.kln.ac.lk/bitstream/handle/123456789/11486/86-93.pdf?sequence=1&isAllowed=y
[iv] चैटरटन डी डी, आइर (1916). द स्टोरी ऑफ द गोंडवाना : सर आइजैक पिटमैन एंड संस, लिमिटेड, 1 आमीन कॉर्नर, ई.जी.,और बाथ, न्यूयॉर्क और मेलबर्न से मुद्रित और प्रकाशित , पृष्ठ सं 166
[v] धान को गोंडी भाषा में वंजी कहा जाता है
[vi] इस विधि के तहत जंगलों में पेड़ों काटकर उसमें आग लगा दिया जाता था। बाद में धान के बीच राखों पर छींट दिया जाता था। बरसात होने पर राख से ही धान के पौधे निकलते थे।
[vii] इन तरीकों को गोंडी भाषा में मीजान कहा जाता है।
[viii] कंगाली, मोतीराम (2011) : पारी कुपार लिंगो कोयापुनेम दर्शन, चतुर्थ संस्करण, ४८, उज्ज्वल सोसाइटी , जयतला रोड नागपुर से प्रकाशित ,पृष्ठ सं 254-255.
[ix] बिदरी पाबुन – धान के बीज बोये जाने के अवसर पर यह पर्व पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है।
[x] हरेली पड्डुम – धान के पौधे जब छह-सात इंच लंबे हो जाते हैं और खेतों में हरियाली दिखने लगती है तब अमावस्या के दिन इस पर्व को मनाया जाता है।
[xi] पूनल जीवा जाड़ी पड्डुम – आषाढ़ के महीने में जब पानी के कारण गांव=जवार में कई सारे पौधे निकल आते हैं तथा तालाबआदि में नये जंतू जैसे मेढ़क, मछलियां आदि जन्म लेते हैं। उनके स्वागत में यह पर्व आषाढ़ की अमावस्या को मनाया जाता है।
[xii] जीवती पड्डुम – जब धान के पौधे में फूल आते हैं तब यह पर्व सावन की अमावस्या को मनाया जाता है।
[xiii] पोला पड्डुम – भादो की अमावस्या को मनाया जाने वाला यह एक महत्वपूर्ण पर्व है जब धान के पौधे में दाने बनने शुरू होते हैं। गोंडी मान्यता के मुताबिक जब दानों में दूध (पाल) आता है।
[xiv] पाठ पीढ़ा पड्डुम – आसिन की अमावास्या के दिन कोइतूर समाज के लोग जंगलों की पूजा करते हैं। परंपरा के मुताबिक जंगल पिता के समान होते हैं। इसलिए इसे पितृ अमावस्या कहते हैं।
[xv] कोइतूर समाज की परंपरा के मुताबिक जंगो यानी (जननी) हैं।
[xvi] कोइतूर समाज की परंपरा में लिंगो को कोइतूर संस्कृति का प्रवर्तक पुरूष कहा जाता है।
[xvii] जब धान के दाने पकने लगते हैं तब कोइतूर समाज के लोग जंगो और लिंगों की पूजा करते हैं। यह पर्व कार्तिक की अमावस्या को मनाया जाता है।
[xviii] धान के पूरी तरह पकने और घर में लाए जाने के बाद यह पर्व मनाया जाता है। इस मौके पर नये धान को कूट पीस कर आटा बनाया जाता है और जिसे गूंथकर दीये बनाये जाते हैं। इसे दियारी कहा जाता है। अगहन की अमावस्या की रात को इन दीयों से नये फसल के स्वागत में यह पर्व मनाया जाता है। उत्तर भारत में इसे ही दीवाली कहा जाता है।
[xix] विभूति: पोला त्योहार का महत्त्व (2019). https://www.deepawali.co.in/pola-festival-mahatv-hindi-%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%BE-%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0.html
[xx] मैत्री के एम (2017) : गोंडवाना गोंडी शब्द कोश ; कन्नड विश्वविधालय क्षेत्रीय केंद्र , पैलेस रोड बंगलोर से प्रकाशित पेज नं. 57
[xxi] पैना – बांस की छोटी लाठी जिसके सहारे बैलों को हांका जाता है
[xxii] कासलीवाल राजश्री (2019) : पोला-पिठोरा : किसानों का प्रमुख पर्व (हिन्दी वेब दुनिया ) समाचार पत्र
https://hindi.webdunia.com/other-festivals/bull-worshiping-festival-115091100057_1.html
[xxiii] वैद्य
[xxiv] पुरोहित