आजादी के बाद पिछले 70 सालों में संविधान आधारित व्यवस्था ने ब्राह्मणों के चौतरफा वर्चस्व को चुनौती दी है तब वे स्वाभाविक रूप से एक प्रतिक्रान्ति के समय का इन्तजार कर रहे थे। सत्ता-शासन में आज जो विचारधारा हावी है वह उनके लिए स्वर्णिम काल रचता है इसलिए स्वाभाविक ही है कि केरल उच्च न्यायालय में जज जैसे संवैधानिक पद पर बैठे जस्टिस वी. चितम्बारेश ने ब्राह्मणों को श्रेष्ठ बताते हुए उन्हें ‘आर्थिक आरक्षण’ के पक्ष में आंदोलन और अभियान के लिए पुकारा। यही नहीं उन्होंने यह भी कहा कि ‘ एक ब्राहमण स्वभाव से अहिंसक होता है, वह कभी आक्रामक नहीं होता, लोगों से प्यार करता है, साम्प्रदयिक नहीं होता।’ वे यहीं नहीं रुके उन्होंने यह भी कहा कि ‘ब्राहमण वह है जो अपने पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण दो बार जन्म लेता है, द्विज कहलाता है। वह स्वच्छ रहता है, मुख्यतः शाकाहारी होता है, आदि.. आदि।’
सत्य की कसौटी पर ब्राह्मणों की शान्तिप्रियता का दावा
आर्थिक आरक्षण के पक्ष में जस्टिस चितम्बरेश के आह्वान पर आगे बात करते हैं। अभी यह देखने की कोशिश करते हैं कि ब्राह्मणों की शांतिप्रियता और बंधुत्व का उनका दावा किस तरह एक झूठ है।
ब्राहमण के शाकाहारी होने का जस्टिस चितम्बरेश का दावा ऐतिहासिक रूप से सत्य प्रमाणित नहीं है। पुराने समय से ही ब्राह्मण मांसाहारी रहे हैं। आज भी किसी-किसी क्षेत्र में पूरा ब्राह्मण समुदाय मांसाहारी हैं। मार्कंडेय पुराण में उल्लेख है कि गो-मांस से पितर 10 माह तक तृप्त होते हैं। मार्कंडेय पुराण का ही एक हिस्सा दुर्गा सप्तशती है, जिसका पाठ दुर्गा पूजा के अवसर पर घर-घर में होता है। मार्कंडेय पुराण के अनुसार, ‘हवि ( खीर) से पितर 1 माह तक तृप्त रहते हैं, गौ-मांस से 10 माह तक। पितरों को हमेशा तृप्त रखने के लिए ‘गैंडे के मांस का उपदेश यहां दिया गया है।’ मतलब स्पष्ट है कि ब्राहण मृत्यु भोज में किस तरह मांसाहार करते थे।
भवभूति लिखित उत्तररामचरित में एक प्रसंग और संवाद में यह स्पष्ट होता है कि राम के गुरू वशिष्ठ ‘पूरा का पूरा बछिया, यानी छोटी गाय चबा जाते थे।’ ब्राह्मणों की कथित सफाई का दावा भी निराधार है। श्रम से खुद को मुक्त कर लेने के बाद यह समाज परजीवी हुआ है। श्रमिकों के अधिशेष (श्रम से उत्पन्न अधिक आय और समय) का वे भरपूर दोहन करते रहे हैं। श्रम वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणेत्तर जातियों का कर्तव्य निर्धारित है। उससे पैदा हुए अधिशेष का इस्तेमाल करते हुए अल्पसंख्यक ब्राह्मण पूजा-पाठ, पठन-पाठन में लगे रहे हैं और इस तरह कथित सफाई की सुविधा और उसके लिए समय का उपयोग करते रहे हैं। इसके बावजूद चिकित्सकीय स्वच्छता के प्रति यदि उनकी परम्परा आड़े आती है तो वे उसके प्रति आक्रामक रूप से रूढ़िवादी होते हैं।
यू. आर. अनंतमूर्ती का एक उपन्यास है ‘संस्कार’। उपन्यास ब्राह्मणों की अतीतजीविता, परम्परावादी समझ और उसके प्रति महान आस्था, संकीर्णता, की प्रवृत्ति को विषय बनाकर लिखा गया है। दुनिया-समाज और अपने लिए तय संकीर्ण घेरे और कर्मकांड में फंसा ब्राह्मणों का एक पूरा गांव लकीर पीटते हुए अंततः नष्ट हो जाता है, सारे लोग प्लेग से मर जाते हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु के कालजयी उपन्यास ‘मैला आंचल’ में एक ब्राहमण महिला इसलिए असमय मौत की शिकार होती है कि उसकी जांघ पर जख्म वह डॉक्टर को कथित ‘लज्जा’ की रक्षा के कारण नहीं दिखाने के लिए बाध्य है। ब्राह्मणों ने अपने समाज की इस कदर घेरेबंदी कर रखी है कि कोई इनके भीतर से इनके लिए और वृह्द्तर समाज के लिए समता, बंधुता का काम करना चाहता है तो वे उसे कुल-कलंकित मानकर अपने जाति-समाज से बहिष्कृत कर देना पसंद करते रहे हैं। किसी भी तरह सुधार की हवा सबसे आखिर में इनकी ‘सुरक्षा कवच’ को भेद पाती है। राजाराम मोहन राय, विद्याचन्द्र सागर, दयानंद सरस्वती के प्रति इनकी आरंभिक प्रतिक्रिया ऐतिहासिक तथ्य है कि किस तरह उनका बहिष्कार हुआ।
ब्राह्मण समुदाय में निश्चित ही बड़ी संख्या में उदार और सामाजिक परिवर्तन के हिमायती लोग रहे हैं, लेकिन सामान्य तौर पर – ब्राह्मणों की कथित सहनशीलता तभीतक काम करती है जबतक उनकी अपनी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक सत्ता को चुनौती नहीं मिलती। वे हमेशा हिंसा से नहीं सांस्कृतिक अधीनस्थता से अपनी हिफाजत करते हैं-धर्म इसका सबसे बड़ा हथियार है उनके लिए। श्रेणीक्रम में नीचे की जातियां आपस में उलझी रहें, लड़ते रहें तबतक ब्राह्मणों की उदारता स्वयंसिद्ध है लेकिन जैसे ही उनकी सुप्रीम सत्ता को चुनौती मिलती है वैसे ही वे कर्म और चिंतन में आक्रामक हो जाते हैं। 20वीं सदी के प्रारम्भिक दशक में बिहार में खुद पहली बार ‘यज्ञोपवित/जनेऊ’ लेने वाले और अपने ब्राहमणत्व का पुनः दावा करने वाले भूमिहारों ने काफी हिंसा की जब यादवों ने जनेऊ लेते हुए द्विजत्व पर अपना दावा ठोका। और तो और ब्राह्मण सबसे हिंसक और मर्दवादी मिथकीय अवतार परशुराम को अपना ‘पितृपुरुष’ मानते हैं, जिसने अपनी माँ की हत्या अपने पिता के कहने पर कर दी थी।
जाति आधारित आरक्षण से क्यों बेचैन हैं ब्राह्मण?
संख्या मे सबसे कम ब्राह्मणों का शासन-प्रशासन पर कब्जा रहा है। आज भी कमोबेश स्थिति वही है लेकिन उनकी सत्ता को 70 सालों में, संविधान लागू होने के बाद जाति आधारित आरक्षण ने चुनौती दी है, दे रही है। आरक्षण अपने स्वरूप में बना रहा तो सत्ता संस्थानों में उनके एकमात्र वर्चस्व को खत्म होना ही होना है। इसी वर्चस्व की रक्षा के लिए जस्टिस चितम्बरेश के उद्गार सामने आये हैं। ऐसा भी नहीं है कि आर्थिक आरक्षण की पहली बार वकालत की गयी है, लेकिन केंद्र में अपनी संरक्षक सरकार को देखते हुए जस्टिस चितम्बरेश ब्राह्मणों को चेतावनी दे रहे हैं कि वे स्वयं सुनिश्चित करें कि कहीं यह अवसर हाथ से निकल न जाय। केंद्र की सरकार ने आर्थिक आधार पर सवर्णों को दस फीसदी आरक्षण देकर और उससे पहले से आरक्षित वर्ग को बाहर रखकर लगभग 5% आरक्षण (अब तक निर्धारित आरक्षण 49.5% से) की कमी पहले ही कर दी है।
सवाल यह है कि आर्टिकल 15 और 16 में संविधान ने सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जमात के लिए जो प्रावधान किया है उसके खिलाफ संवैधानिक पद पर बैठा ब्राह्मण आह्वान क्यों कर रहा है? इसलिए कि वह इस देश का नागरिक बाद में है ब्राहमण पहले है और ब्राह्मणों के वर्चस्व को मिली चुनौती से व्यथित है। यह एक बानगी है सत्ता में बैठे ब्राह्मण के आचरण की। ब्राह्मण अपनी बराबरी करने वाले किसी भी समूह और व्यवस्था को माफ़ नहीं करता। भारत में बौद्ध धर्म को नष्ट करने के पीछे उनकी भूमिका का कारण यही है कि बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणों की धार्मिक सत्ता को अभेद्य नहीं रहने दिया। मुसलमानों से नफरत के मनोविज्ञान की रचना भी उन्होंने इसीलिए की क्योंकि भारत में इस्लाम ने एक झटके में वैसे समूह को धार्मिक बराबरी का अहसास दे दिया जिन्हें उन्होंने धार्मिक अधिकार नहीं दे रखे थे।
ब्राह्मणों का इतिहास मानस और कर्म से इन क्रूरताओं का ही इतिहास है और उन्होंने अपने लिए भी एक मकडजाल बना रखी है, जो उन्हें इन्सान बनाने से रोक देती है।
(कॉपी संपादन : नवल)
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