न्याय क्षेत्रे-अन्याय क्षेत्रे
बम्बई उच्च न्यायालय ने गौतम नवलखा की याचिका नामंज़ूर कर दी है। याचिकाकर्ता को नहीं मालूम कि सरकारी वकील ने माननीय न्यायमूर्ति को ‘सील बंद लिफाफों’ में क्या साक्ष्य दिए। फिलहाल तीन हफ्तों का समय सुप्रीम कोर्ट अपील करने तक अदालत ने गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। कहना कठिन है कि सुप्रीम कोर्ट क्या फैसला करेगी।
उल्लेखनीय है कि मानवाधिकार कार्यकर्ता व वकील सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा, सुजन अब्राहम, पत्रकार क्रांति तेकुला, कवि वरवर राव, फादर स्टेन स्वामी, आनन्द तेलतुंबडे, गौतम नवलखा और वरनॉन गोंजालविस के घरों की तलाशी के बाद भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में पांच को (28 अगस्त 2018) भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 153ए, 505, 117 और 120 के साथ ही ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) क़ानून,1967 की विभिन्न धाराओं के तहत गिरफ्तार किया गया है। 28 अगस्त को ही गौतम और सुधा केस में दिल्ली और पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट ने फिलहाल उन्हें पुणे ले जाने पर रोक लगा दी थी।
जांच मराठी में, इंसाफ अंग्रेज़ी में!
अगले दिन 29 अगस्त, 2018 को दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति एस. मुरलीधर ने सुनवाई के दौरान बार-बार कहा कि जिस मजिस्ट्रेट ने रिमांड दिया, वो मराठी जानता नही और सारे दस्तावेज़ मराठी में है। केस डायरी तक मराठी में है, जो उन्हें (मजिस्ट्रेट) दिखाई ही नहीं गई। तो न्यायिक संतुष्टि, कैसे हो गई या कैसे संभव है।
कहना ना होगा कि जनभाषा और न्याय की भाषा या कानून की भाषा अलग- अलग होने की वजह से ही/भी, अक्सर अन्याय होता (रहा) है। जांच-पड़ताल मराठी (हिंदी, बंगाली आदि) में और इंसाफ अंग्रेज़ी में होता (रहा) है। आखिर ऐसा कब तक! न्यायमूर्ति एस. मुरलीधर ने बेहद संवेदनशीलता से इस तरफ संकेत किया है। उम्मीद करनी चाहिए कि जनभाषा और न्याय की भाषा के बीच की दूरी कम हो। इस दिशा में एक ना एक दिन गंभीर कदम उठाने अनिवार्य हैं।
महाराष्ट्र पुलिस के वकील अतिरिक्त महाधिवक्ताअमन लेखी याचिका की तकनीकी खामियों को लेकर तर्क देते रहे, लेकिन अदालत ने नहीं माना। आदेश लिखवाने के दौरान ही सूचना आई कि सुप्रीम कोर्ट ने पांचों के रिमांड आर्डर पर स्थगन आदेश पारित कर दिया है। सुनवाई 6 सिंतबर, 2018 के लिए टल गई।
“विरोध दबाया तो विस्फोट होगा”
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति चंद्रचूड ने कहा कि ‘लोकतंत्र में असहमति, प्रेसर कुकर के सेफ्टी वॉल्व की तरह है। असहमति लोकतंत्र में सेफ़्टी वॉल की तरह है।’ मतलब! असहमति का दबाव-तनाव बढ़े तो उसे निकलने दें, ताकि कोई विस्फोट ना हो। राजनीति में इसे विरोध या असहमति की उपेक्षा का सिद्धांत कहा जाता है।
सुप्रीम कोर्ट में याचिका रोमिला थापर, प्रभात पटनायक व अन्य बुद्धिजीवियों ने दायर की थी और दोनों तरफ से अनेक वरिष्ठ अधिवक्ता पेश हुए। जाने-माने बुद्धिजीवी ना होते, तो अदालत का दरवाज़ा कौन खटखटाता! संयोग से यहाँ सभी (गिरफ्तार, याचिकाकर्ता और बचाव पक्ष के वरिष्ठ अधिवक्ता) राजधानी समाज के साधन संपन्न वर्ग के प्रभावशाली व्यक्ति हैं।
सवालों के मकड़जाल
यहाँ बहुत से सवाल आ खड़े हुए हैं। क्या इन बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी अन्य लोगों को डराने-धमकाने या चुप कराने का प्रयोग है/था, जो अदालतों को प्रथम दृष्टया ही उचित नहीं लगा। क्या धर्म-अपराध और कॉरर्पोरेट पूँजी के दबाव-तनाव में सियासत, अभिव्यक्ति के तमाम लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों का गला घोंटना चाहती है?
क्या यह अगले चुनाव 2019 में किसी भी तरह सत्ता हथियाने के लिए, पुलिस के माध्यम से कानूनी प्रक्रिया का पारदर्शी दुरुपयोग नहीं था? इसके बाद राष्ट्रवादी सिद्धान्तों के मकड़जाल में उलझी राजनीति ने क्या-क्या और कैसे-कैसे रूप धारण किये या फिर करेगी-कहना कठिन है। अगर मक़सद सिर्फ चुनाव जीतना ही था, तो साफ है कि चुनाव से पहले सरकारी नीतियों के विरोध को हर संभव तरीके से दबाया-सताया जा सकता है। चुनावी जय-पराजय के बाद हिंसा और हत्या की घटनाएँ-दुर्घटनाएँ निरंतर बढ़ेंगी। नीतियों का विरोध, व्यक्तिगत आलोचना नहीं होती और ना ही मानी-जानी चाहिए।
मुद्दा यह भी कि दलित-आदिवासी मज़दूरों और महिलाओं के कानूनी अधिकारों की रक्षा करने वाले वकीलों को ही क्यों निशाना बनाया जा रहा है! सम्मानित बुद्धजीवियों को अपराधी घोषित करने के परिणाम कितने घातक होंगे, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। दरअसल मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर दमनात्मक कार्यवाही, अप्रत्यक्ष रूप से मानवाधिकारों पर कुठाराघात सिद्ध होगा।
कहने की जरूरत नहीं कि मौजूदा समय और समाज, अभिव्यक्ति के गंभीर संकट से ही गुजर रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हुसैन जैसे कलाकार को आखिरी बेला में देश छोड़ कर कतर बसना पड़ा, तस्लीमा ने इस संकट को प्रत्यक्ष भोगा है। कलबुर्गी से लंकेश तक को अभिव्यक्ति के दुस्साहस के लिए जान गंवानी पड़ी। कलबुर्गी अगर धर्म को आईना दिखा रहे थे, तो दाभोलकर धर्म से अंधश्रद्धा को बेदखल करने में लगे थे, पानसारे राजधर्म पर लिख रहे थे और गौरी लंकेश धर्म और राजनीति में हिंसक माहौल के विरूद्ध ही तो लिख-बोल रही थी। क्या हुआ? क्यूँ इन सबकी हत्या कर दी गयी, क्यों?
विचार की हत्या सम्भव नहीं
आज जैसा असहिष्णु राजनीतिक वातावरण है, वैचारिक रूप से अलग राय रखने वालों और लिखने-पढ़ने वालों को डराया-धमकाया जा रहा है, उन पर हमले हो रहे हैं। यहाँ तक कि उनकी हत्यायें की जा रही हैं। अभिव्यक्ति का गला घोंटने, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को दबाने या बुद्धिजीवियों को चुप करने-कराने की कोई भी कोशिश या क़ानून को एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना, गैर कानूनी और असंवैधानिक ही कहा जा सकता है। दमन, हिंसा, आतंक या हत्या से विरोध-प्रतिरोध समाप्त होने की अपेक्षा और बढता है। राजसत्ता के विरोध में खड़े बुद्धिजीवियों की आवाज को दबाना-कुचलना असंभव है। सरकार अगर विवेकपूर्ण ढंग से न्यायिक व्यवस्था का उपयोग नहीं कर रही है, तो विरोध और संघर्ष के अलावा कोई रास्ता भी नहीं है।
जो बुद्धिजीवियों सरकार या उसकी नीतियों का विरोध करते हैं, उनके विरुद्ध किसी व्यक्ति/संस्था के माध्यम से मुकदमा दर्ज करवा देना सरकार के लिए मुश्किल काम नहीं है। आजादी के पहले इस किस्म के मुक़दमे गांधी, नेहरू, तिलक आदि नेताओं के खिलाफ़ भी हुए। ब्रिटिश हुकूमत अपनी राजसत्ता को बचाए रखने के लिए, यह बार-बार करती रही। जो समाज बुद्धिजीवियों, लेखकों, विद्वानों, कलाकारों का सम्मान नहीं करते, वह अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारते हैं।
राजसत्ता से असहमति जताने का मतलब ‘देशद्रोह’ नही ही कहा-माना जा सकता। लोकतंत्र में असहमति के अधिकार के बिना तो लोकतंत्र का ही क्या मतलब है? अलग-अलग धर्म, जाति, मत, सिद्धांत, विचारधाराएँ, नीतियाँ, रीति-रिवाज हैं तो असहमतियाँ भी रहेंगी ही। सत्ताधारी दल या किसी दल की नीतियों के विरोध को क्या-क्यों ‘देशद्रोही’ कहा जाएगा? प्रजातंत्र में असहमति या विरोध के अधिकार के, राज्य बहुत दिन तक टिक नहीं सकता। लोकतंत्र की बुनियाद है असहमति। असहमति का गला घोंटने का अर्थ, लोकतंत्र का भी गला घोंटना हैं। इस मुद्दे पर लोकतांत्रिक सरकार को हमेशा, विवेक से ही काम लेना चाहिए।
आलोचना ना सुनने या इसे राजसत्ता का विरोध समझने का ही परिणाम था तस्लीमा को देश-निकाला, एम. एफ. हुसैन पर मुकदमेबाजी ताकि वे देश छोड़ने पर मजबूर हो जाएं। सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री आशीष नंदी पर भी, गुजरात में ‘देशद्रोह’ का मुकदमा चलाया गया था। यह किसी के भी साथ हो सकता है, भले ही लिखने के पीछे उनकी नीयत समाज में घृणा पैदा करना, दंगा-फसाद करवाना ना हो। जिन्होंने सामाजिक कल्याण के लिए जीवन न्यौछावर कर दिया हो, उन पर इस किस्म का अभियोग/लांछन अन्यायपूर्ण ही कहा जा सकता है। दरअसल हर रचना को उसकी पूरी पृष्ठभूमि और राजनीतिक स्थितियों के साथ पढ़ने और मूल्यांकन करने और समझने की जरूरत है।
जब भी बुद्धिजीवी सत्ता की नीतियों का विरोध करते है, तो उसमें से किसी एक-दो को ‘टारगेट’ करके, बाकी लोगों को यह सन्देश या सबक सिखाया जाता है कि चुप रहो, वर्ना तुम्हारा भी यही हाल होगा. फिर वर्षों तक उलझे रहो न्यायिक व्यवस्था के तहत, पुलिस जांच, गिरफ्तारी, कोर्ट-कचहरी जमानत में। अदालत तय करेगी लेकिन कानूनी प्रक्रिया से तो गुजरना ही पड़ेगा, जो बेहद तकलीफदेह हो सकती है। ऐसे दहशतज़दा माहौल में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर, जितना दमन का खतरा बढ़ता है, उतना ही विरोध-प्रतिरोध भी। इतिहास गवाह है कि कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग के खिलाफ़ भी, प्रेस और बुद्धिजीवी सुप्रीम कोर्ट तक लड़ते रहे हैं। लड़ते रहेंगे।
विचारकों की हत्या से तो विचारों की ही कमी (हत्या) होगी और बिना नए विचारों के राष्ट्र का नव निर्माण कैसे होगा? धार्मिक कट्टरता, हिंसा, घृणा और असहिष्णुता के कलुषित वातावरण में, सिवा आतंक और दहशतगर्दी के कुछ भी पनपना असंभव है। कलम की खामोशी से, दमनचक्र और तेज़ होगा और शासक निरंकुश।
(संपादन : नवल)
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