यह पुस्तक ‘एक था डाॅक्टर और एक था संत, आंबेडकर-गाँधी संवाद: जाति, नस्ल और जाति का विनाश’ अरुंधति राय द्वारा अंग्रेजी में लिखी गई है तथा इसका हिन्दी में अनुवाद अनिल यादव ‘जयहिंद’ और रतन लाल ने किया है। यह पुस्तक उस महत्त्वाकांक्षी परियोजना का परिणाम है जिसके तहत आंबेडकर के प्रसिद्ध लेख एनिहिलेशन ऑफ कास्ट को ‘नवयाना’ ने 2014 में पुनः प्रकाशित किया, जो पहली बार 1936 में डॉ. आंबेडकर ने खुद प्रकाशित किया था। ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में आंबेडकर के लेख के साथ अरुंधति राय की ‘दी डॉक्टर एण्ड संत’ शीर्षक से एक लंबी प्रस्तावना है और एस. आनंद का ‘पूना पैक्ट’ पर एक विस्तृत नोट भी है। अरुंधति राय की वही प्रस्तावना एक अलग पुस्तक की शक्ल में पेंग्विन रैंडम हाउस इंडिया से प्रकाशित हुई। जिसका हिंदी अनुवाद राजकमल ने प्रकाशित किया।
इस पुस्तक को लिखने का प्रमुख उद्देश्य ‘जाति का विनाश’ के प्रश्न को दोबारा मुख्यधारा के बहस में शामिल करना है। अब कोई ‘जाति के विनाश’ की बात नहीं करता, समानता की अवधारणा को आरक्षण तक सीमित कर दिया गया है। इन परिस्थितियों में यह पुस्तक ‘जाति के विनाश’ के मुद्दे को पुनः जीवित करने में एक अहम् भूमिका निभा सकती है। राॅय जाति के सवाल को हमेशा उठाती रही है। अपनी पुस्तक ‘गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’ में भी उन्होंने जाति के सवाल को उठाया था।
समीक्षित पुस्तक में गाँधी और आंबेडकर के जाति और नस्ल पर विचार बीच-बीच में आते रहते हैं। नस्ल के बारे में गाँधी जी के विचारों से बहुत कम पाठक परिचित हैं। उनके जीवन का ऐसा पहलू जिससे ज्यादातर भारतीय अनभिज्ञ हैं। नस्ल एवं जाति पर उनके विचार गाँधी जी के महात्मा/संत होने पर भी सवाल खड़ा करते हैं।
पुस्तक के प्रथम भाग में दलितों की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। जिसमें बताया गया है कि आजादी के बाद आज दलित कहाँ तक पहुँच पाए हैं। पुस्तक का दूसरा भाग गाँधी को समर्पित है जिसके पहले हिस्से में उनके जीवन के अफ्रीका के अनुभवों को रखा गया है। जहाँ उनका सामना नस्लवाद से होता है और जहां वे जाति अपने साथ लेकर जाते हैं। दूसरा भाग भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का वह काल जहाँ उनका सामना आंबेडकर से होता है। जिसके कारण गाँधी को विवश होकर अछूतोंद्धार का कार्य करने पर मजबूर होना पड़ा। पुस्तक का तीसरा भाग आंबेडकर के संघर्ष की कहानी कहता है। यद्यपि हमेशा की तरह आंबेडकर अंत में ही आते हैं और अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
आजादी के सात दशक बाद जब जाति संस्था विनाश के बजाय नित्य मजबूत होती दिखाई दे रही है। लेखिका का यह मानना है कि लोकतंत्र ने जाति का उन्मूलन नहीं किया है बल्कि इसने जाति को और ज्यादा मजबूत और आधुनिक बना दिया है।
गाँधी प्रारंभ से ही हिन्दू धर्म, वर्ण एवं जाति व्यवस्था का कट्टर समर्थन करते दिखाई देते हैं और उनका सामाजिक सुधार हिन्दू धर्म के दायरे में दिखाई देता है जबकि दूसरी तरफ प्रारंभ से ही आंबेडकर जाति व्यवस्था द्वारा अपमानित थे और उनका एकमात्र लक्ष्य ‘जाति का विनाश’ दिखाई देता है। इसके लिए वे ‘हिन्दू धर्म’ के विनाश के लिए भी तैयार हैं। आंबेडकर और गाँधी दोनों ने अपने-अपने तरीके से सुधार के प्रयास करते दिखाई देते हैं। परन्तु गाँधी का प्रयास केवल दलित तुष्टिकरण से ज्यादा नहीं दिखाई देता है।
इस पुस्तक को गाँधीवादी विचारधारा की एक आलोचना के रूप में विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा सकता है। परन्तु जिस तरह से विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम से जाति और नस्ल के सवाल को हटाया जा रहा है, मुझे शक है कि यह किताब पाठ्यक्रम के संदर्भ ग्रंथों में जगह न बना पाए। आंबेडकर को स्वयं ही पाठ्यव्रफम में शामिल कराने की लड़ाई जारी है।
बहरहाल, इस पुस्तक का अनुवाद इसका मजबूत पक्ष है। अनुवाद में मूल अंतर्वस्तु के खोने का खतरा बना रहता है। परन्तु अनिल यादव और रतन लाल ने बेहतरीन एवं सृजनात्मक अनुवाद किया है। छूत-अछूत की जगह सछूत-अछूत का प्रयोग किया है। सछूत की जगह अगर केवल ‘छूत’ का प्रयोग किया जाता तो बेहतर होता।
सबसे अन्त में ‘जाति के सवाल’ को उसी तरह प्रश्न के रूप में जिन्दा छोड़ देने की उम्मीद मैं अरुंधति रॉय जैसी बड़ी लेखिका से कतई नहीं कर रहा था। आंबेडकर को पढ़ लेने से अथवा पढ़ाने से दलितों/शूद्रों की जाति का विनाश हो सकता है। परन्तु द्विजों की जाति का विनाश किस पुस्तक से होगा यह कहना मुश्किल है। दूसरा जाति का विनाश केवल शूद्रों का सवाल कतई नहीं है। यह ब्राह्मणों, ठाकुरों और अन्य जातियों के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण सवाल है।
(संपादन : सिद्धार्थ/नवल)
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