डॉ. मोतीरावण कंगाली[1] (2 फरवरी 1949 – 30 अक्टूबर 2015) पर विशेष
भारत की जनजातियों का इतिहास भी बहुत प्राचीन रहा है। जितनी प्राचीन ये जनजातियाँ रही हैं उतनी ही प्राचीन उनकी भाषा और संस्कृति भी रही है। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन भारत (कोयामुरी[2] द्वीप) में रहने वालों के समूह को कोइतूर[3] और उनकी भाषा समूहों को कोइयाँ भाषा तथा उनकी सांस्कृति और जीवन जीने की प्रकृति आधारित सामाजिक व्यवस्था को कोया पुनेम कहा जाता था।
जैसे-जैसे ये कोइतूर समूह विदेशी आततायियों और आक्रमणकारियों के संपर्क में आते गए, वैसे-वैसे उनकी भाषा संस्कृति बाहर से आए लोगों की भाषा और संस्कृति से प्रभावित होने लगी। कालांतर में वही कोइतूर विभिन्न जातियों और धर्मों में बाँट गए और आज कई जातियों के रूप में बिखरे हुए मिलते हैं। लेकिन अभी भी कुछ जनजातियाँ इस भारत देश के घने जंगलों और पहाड़ों में अपनी प्राचीनतम संस्कृति और भाषा को बचाए हुए हैं। वहीं अनेक जनजातियां भौगोलिक अलगावों के कारण अलग-अलग क्षेत्रों में सीमित हो गयीं और अपनी ही शाखा के कोइतूरों से अलग भाषा और संस्कृति अपना कर जीवनयापन करने लगीं। परंतु, हजारों सालों के अलगाव और बिखराव के बाद आज भी इन विभिन्न कोइतूर संस्कृतियों में एकरूपता देखी जा सकती है।
मध्य भारत में एक ऐसी ही जनजाति गोंड है, जो आज तक की सबसे विकसित जनजाति के रूप में जानी और पहचानी जाती है। इस जनजाति ने कोइयाँ भाषा और अपनी कोइतूरी संस्कृति को सहेज कर रखा है। लिखित रूप में न सही, प्रचलन और व्यवहार, रहन-सहन, भाषा-बोली और तीज-त्योहार, इत्यादि के रूप में आज भी कोया पुनेम[4] को संभाल कर रखा हुआ है। लेकिन पिछले 500 सालों में इस देश में उनकी भाषा, संस्कृति और धर्म पर गहरा आघात पहुंचा और धीरे-धीरे इन जनजातियों के लोग विभिन्न कारणों से हिन्दू, इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने लगे और अपने मूल धर्म कोयापुनेम से दूर होने लगे। बची-खुची जनजातीय आबादी अपने सीमित साधनों में जीवन-यापन तक ही सीमित रह गयीं और शिक्षा के अभाव में अपने सांस्कृतिक और भाषाई धरोहर को लिखित रूप में नहीं संजो सकीं।
यही कारण था कि जनजातियों की आबादी कम होती गयी और इनके अधिकार सीमित कर दिये गए। आजादी के बाद गोंडी भाषा और धर्म ही कोयामुरी, कोइतूर, कोइयाँ और कोया पुनेम के प्रतीक रूप में बचा हुआ रह गया। गोंडों की विद्वता, वीरता, सम्पन्नता और विकसित होने के कारण। लेकिन आजादी के बाद सरकार की उपेक्षा के कारण गोंड, गोंडी और गोंडी धर्म सभी खतरे में आ गए और इनके अस्तित्व पर ही संकट आन पड़ी। क्योंकि गोंडवाना राज्य को विभिन्न भाषायी राज्यों में बांटकर खत्म कर दिया गया[5] और गोंडी भाषा को किसी भी तरह कि मान्यता न देकर स्वतः मरने पर छोड़ दिया गया।
पूरा गोंडवाना अन्य धर्मों की संस्कृतियों की चपेट में आ गया और इसी समय जन्म होता है एक ऐसे महान विद्वान और लेखक का जिसने लगभग मृतप्राय भाषा, संस्कृति और धर्म में जान फूंकी। ऐसे महान व्यक्तित्व का नाम है तिरुमाल[6] मोतीरावण कंगाली। जिनके योगदान के लिए आज सम्पूर्ण गोंडवाना उन्हें अपना आचार्य और लिंगो मानता है। लेकिन दुख की बात यह है कि ऐसे महान लेखक, इतिहासकार, विद्वान, भाषाविद से गोंडी भाषी के बाहर के बुद्धिजीवी लगभग अपरिचित हैं। इस लेख में आचार्य मोतीरावण कंगाली के जीवन और उनके योगदान के बारे में आम जनमानस को बताने का प्रयास किया गया है।
प्रारम्भिक जीवन
आचार्य तिरुमाल मोतीरावण कंगाली का जन्म 2 फरवरी 1949 को महाराष्ट्र के नागपुर जिले के रामटेक तहसील के दुलारा नामक गाँव में हुआ था। उनका जन्म स्थान नागपुर सिवनी राज्य मार्ग पर नागपुर से लगभग 75 किलोमीटर दूर देवलापार के निकट भांडेर के जंगलों में स्थित है और उनका जन्म एक गोंड समुदाय के तिरकाजी कंगाली (दादा) के परिवार में हुआ था। आपकी माता का नाम दाई रायतार कंगाली और पिता का नाम दाऊ छतीराम कंगाली था। इनके पिता जी ने प्यार से इनका नाम मोतीराम रखा था। पाँच भाई-बहनों में से मोतीराम सबसे बड़े थे। आपके दो छोटे भाई और दो बहनें भी थीं। दोनों भाई अभी भी गाँव में रहते हैं और खेती-बारी का काम करते हैं।
गोंडी गोत्र व्यवस्था के अनुसार कंगाली परिवार सात देव (यरवेन[7]) वाला है। इनके घर में बचपन से ही गोंडी बोलचाल की भाषा थी, इसलिए आपकी मातृभाषा भी गोंडी ही थी।
बालक मोतीराम की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के निकट ही प्राथमिक पाठशाला करवाही में हुई, जहां पर उन्होंने चौथी कक्षा तक पढ़ाई की। आपकी माध्यमिक शिक्षा (5वीं से 8वीं तक) आंग्ल पूर्व माध्यमिक विद्यालय बोथिया पालोरा से हुई जो आपके गाँव दुलारा से लगभग 18 किलोमीटर दूर था, इसलिए वहीं से हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करना शुरू की। आपने आठवीं की बोर्ड परीक्षा 1966 में उत्तीर्ण की तथा इसके बाद 9वीं की पढ़ाई करने वे रामटेक तहसील गए।उसके बाद नागपुर के हड्स हाई स्कूल में दाखिला लिया और वहीं से वर्ष 1968 में आपने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। वर्ष 1972 में धरमपेठ महाविद्यालय, नागपुर से स्नातक की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। अगले कुछ वर्षों में आपने पोस्ट ग्रेजुएट टीचिंग डिपार्टमेंट नागपुर से अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और भाषाशास्त्र में परास्नातक (एमए) परीक्षा उत्तीर्ण की। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से सन 2000 में आपको पीएचडी की उपाधि मिली। जिसका विषय था “द फ़िलासाफिकल बेस ऑफ ट्राइबल कल्चरल वैल्यूज पर्टिकुलरली इन रेस्पेक्ट ऑफ गोंड ट्राइब ऑफ सेंट्रल इंडिया”।
वर्ष 1976 में 27 वर्ष की उम्र में आपका चयन रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के नागपुर टकसाल में ‘नोट एंड करेंसी’ एक्ज़ामिनर के पद पर हुआ। सरकारी नौकरी में आने के बाद आपका विवाह रायताड़ (कुमारी) चंद्रलेखा रूपसिंह पुसाम से सम्पन्न हुआ। आपकी तीन बेटियाँ हैं जिनके नाम श्रृंखला कंगाली, वेरूंजली कंगाली, विनंती कंगाली हैं। श्रृंखला आईआरएस अधिकारी हैं और विनंती नेत्र विशेषज्ञ चिकित्सक हैं। इन दोनों का विवाह हो चुका है। मंझली बेटी वेरूंजली ने भी मराठी साहित्य में एमफिल किया है और वर्तमान में ये नागपुर में रहकर जॉब कर रही है और माँ के कार्यों में हाथ बटाती हैं।
बचपन से आप पढ़ने लिखने में मेधावी और हमेशा अध्ययन करते रहने का शौक था। एक शोधार्थी के रूप में आपने भाषा-विज्ञान का अध्ययन करते हुए गोंडी भाषा को पुनर्जीवित करने का कार्य किया और बहुत सारी पुस्तकें गोंडी भाषा को सीखने और पढ़ने-पढ़ाने के लिए आम जनमानस को उपलब्ध करवाईं। गोंडी भाषा के पुनर्जीवन, संरक्षण, संवर्धन और विकास के लिए उनके योगदान को कोइतूर समाज वर्षों तक याद रखेगा। आपने गोंडी भाषा को देवनागरी में लिख कर आम लोगों तक पहुंचा दिया और यही कारण है कि आज के युवाओं में गोंडी भाषा के प्रति रुचि बरकरार है और वे गोंडी भाषा का अध्ययन कर रहे हैं।
गोंडों के अस्तित्व और उनकी पहचान के साथ साथ उनके सम्मान को वापस लाने के लिए भी आचार्य मोतीरावण कंगाली ने बहुत कार्य किए हैं। जिस तरह से गोंडों को हिन्दू में शामिल करके, उनकी अपनी स्वतंत्र पहचान खत्म की गयी थी, यह बात आचार्य मोतीरावण कंगाली को बहुत परेशान करती थी। लोगों को अपने को गोंड बताने में शर्म आती थी और लोग अपने बात व्यवहार, रहन-सहन, गोंगों[8], अभिवादन, तीज-त्योहार में हिन्दू समाज की नकल करने लगे थे। गोंडवाना सगा और गोंडवाना दर्शन पत्रिका में उनके लेखों को पढ़कर नागपुर और आसपास के लोगों में अपनी जाति और अस्मिता के प्रति सम्मान और गर्व का अनुभव होने लगा। लोग अभिवादन में राम-राम, जय राम की जगह जय-सेवा जय गोंडवाना कहना शुरू कर दिये। यह बात 1980 के बाद की है। अमरावती के तिरुमाल व्यंकटेश अत्राम जंगों रायतार नाम की एक पाक्षिक पत्रिका निकलते थे, जिसमें तिरुमाल मोतीरावण कंगाली के लेख नियमित रूप से छपते रहते थे। धीरे-धीरे उनके लेखों के माध्यम से उनकी पहचान नागपुर के मराठी भाषी क्षेत्रों से निकल पूरे गोंडवाना में होने लगी।
विगत 40 वर्षों में गोंडवाना का गोंड समाज अपनी हिन्दू वाली पहचान से बाहर आ रहा है और फिर से स्वयं को कोइतूर कहने लगा है और अपनी भाषा संस्कृति को आत्मसात करके विकास की राह पर चल पड़ा है। इसी समय दादा हीरा सिंह मरकाम भी आचार्य मोतीरावण कंगाली से जुड़ गए। फिर क्या था, हीरा-मोती के नाम से मशहूर जोड़ी ने एक आंदोलन खड़ा कर दिया जिसका राजनैतिक नेतृत्व दादा हीरा सिंह मरकाम ने किया। इस गोंडवाना आंदोलन के तहत बहुत सारे धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनैतिक सभाएं होने लगीं, जिसमें आचार्य मोतीरावण कंगाली बढ़-चढ़ कर भाग लेने लगे और महाराष्ट्र सहित मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश में गोंड जनजातियों के चहेते बनते गए। इस दौरान उन्होने अपनी नौकरी के साथ-साथ लेखन का कार्य भी जारी रखा और बहुत सारा साहित्य तैयार करना शुरू कर दिया।
आचार्य मोतीरावण कंगाली को बखूबी पता था कि बिना सांस्कृतिक चेतना के गोंड परंपरा को बचाए रखने का आंदोलन आगे बढ़ नहीं पाएगा, इसलिए उन्होने राजनीतिक आंदोलनों से अपने आपको अलग करके सांस्कृतिक जागरण पर सोचना शुरू किया और वर्षों से मृतप्राय कोया पुनेम को फिर से खड़ा करने का संकल्प लिया। अपने शोधों के आधार पर उन्होंने पारी कुपार लिंगो[9] कोया पुनेम दर्शन पुस्तक का स्वयं प्रकाशन किया और लोगों तक पहुंचाया। उनकी धर्मपत्नी तिरुमाय चन्द्रलेखा कंगाली बताती हैं कि आचार्य मोतीरावण कंगाली ने कोया पुनेम दर्शन पुस्तक की बहुत सारी प्रतियाँ छपवा ली थी और लोगों को मात्र कुछ पैसों में या फ्री ही बाँट देते थे। एक समय तो ऐसा भी आया कि लोग मुफ्त में मिली हुई पुस्तक का महत्त्व नहीं समझे और रद्दी वालों के हाथ बेच दिया करते थे। कई बार तो कंगाली साहब स्वयं अपनी किताबों को रद्दी वालों के पास देखते थे, लेकिन उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी और न तो दुखी हुए। वे कहा करते थे कि एक न एक दिन लोग कोया पुनेम और उसके महत्त्व को जरूर समझेंगे।
बताते चलें कि कोइतूर लोग श्रमण परंपरा के प्राचीन जनजातीय कबीले हैं जो अपनी कोया पुनेम को कभी लिखित रूप में नहीं लाये बल्कि उनका कोया पुनेम उनके नृत्य, पाटा[10], गायन, कला और नेंग-सेंग[11] द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता रहा है और कभी भी उसे लिखने कि जरूरत ही नहीं पड़ी। लेकिन आधुनिक समय में लोग अपनी परम्पराओं को पहले की तरह पालन नहीं करते और पहले की तरह गोटुल[12] भी नहीं रहे। इसलिए आज बिना लिखे हुए इतने बड़े समाज में कोया पुनेम फिर से स्थापित नहीं किया जा सकता। इसलिए उन्होंने वर्ष 1989 में कोया पुनेम दर्शन को लेकर बहुत खोज-बीन की। गहन शोध और अध्ययन के बाद उन्होंने इसे लिपिबद्ध और प्रकाशित किया। आज यह पुस्तक इतनी लोकप्रिय हो चुकी है कि इसके पाँच संस्करण आ चुके हैं ।
तिरुमाय[13] चंद्रलेखा कंगाली यह भी बताती हैं कि जब उनकी (डॉ. मोतीरावण कंगाली) पुस्तक कोया पुनेम दर्शन के नाम से प्रकाशित हुई तो लोगों ने बहुत विरोध किया और कहा कि हम लोग गोंड हैं, हमारा गोंडी पुनेम होना चाहिए। यह विरोध इसलिए था कि अभी तक लोग कोइतूर, और कोया पुनेम के विस्तार से नहीं परिचित थे। इसलिए वे गोंड और गोंडी पुनेम को ही चाहते थे। इसकी वजह यह कि पूरा आंदोलन गोंड बाहुल्य क्षेत्रों तक ही सीमित था। इस विरोध को ध्यान में रखते हुए उन्होंने इस पुस्तक का दूसरा संस्करण गोंडी पुनेम दर्शन के नाम से वर्ष 1994 में प्रकाशित किया, जिसमें केवल मुख पृष्ठ पर पुस्तक का नाम बदला था, लेकिन अंदर का सब कुछ कोया पुनेम का ही था। यह विधि काम आई और लोगों को पुस्तक स्वीकार्य हो गयी और सारी की सारी प्रतियाँ बिक गईं। उसके बाद से इस पुस्तक के सभी संस्करण कोया पुनेम दर्शन के नाम से ही प्रकाशित हो रहे हैं और लोग पसंद कर रहे हैं। आचार्य मोती रावण कंगाली का यह प्रयास रंग लाया। लोगों को अपने मूल धर्म और संस्कृति को जान कर उससे पुनः जुड़ने का मौका मिला। गोंड कोइतूरों में अपनी सांस्कृतिक परंपरा के समतामूलक जीवन दर्शन के प्रति जागरण लाने और उनमें कोया पुनेम को पुन: स्थापित करने का पूरा श्रेय आचार्य मोतीरावण कंगाली को जाता है।
उन्होंने सामाजिक, सांस्कृतिक विषयों पर बहुत सारी पुस्तकों का लेखन और प्रकाशन किया। ऐसे समय में जब कोइतूर संस्कृति, कोइयाँ भाषा और कोया पुनेम मृतप्राय हो चुका था, तब डॉ. मोतीरावण कंगाली ने गोंडी में इन विषयों को फिर से जीवित किया। वे हमेशा कहते थे कि उनका यह प्रयास पर्याप्त नहीं है। आने वाली पीढ़ियों को इस कार्य को बढ़ाना होगा और कोइतूर समूह की अन्य जातियों और जनजातियों को उनकी मूल धर्म संस्कृति से जोड़ना होगा। उनकी कुछ महत्वपूर्ण रचनाएं व पुस्तक कुछ इस त्तरह हैं:
आचार्य मोती रावण कंगाली का रचना संसार :
- कोराडीगढ़[14] की तिलका दाई (पारी कुपार लिंगो प्रकाशन, नागपुर, 1983)
- डोंगरगढ़[15] की बमलाई दाई , (पारी कुपार लिंगो प्रकाशन, नागपुर, 1983)
- गोंडों का मूल निवास स्थल (1983 में प्रथम संस्करण पारी कुपार लिंगो प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, दूसरा संस्करण 2011 में चंद्रलेखा कंगाली द्वारा प्रकाशित)
- कुँवारा भीमाल पेन[16] ता इतिहास (पारी कुपार लिंगो प्रकाशन, नागपुर] 1984)
- गोंडवाना का सांस्कृतिक इतिहास (पारी कुमार लिंगो प्रकाशन, नागपुर, 1984 )
- गोंडी श्लोक, गोंडी लिपि परिचय (पारी कुपार लिंगो प्रकाशन, नागपुर] 1984)
- गोंडी वाणी का पूर्वोतिहास (पारी कुपार लिंगो प्रकाशन, नागपुर] 1984)
- गोंडी नृत्य का पूर्वेतिहास (पारी कुपार लिंगो प्रकाशन, नागपुर] 1984)
- कोया भिड़ी[17] ता गोंड सगा विडार[18] ना कोया पुनेम (पारी कुपार लिंगो प्रकाशन, नागपुर] 1984)
- गोंडी लम्क[19] पुंदान[20] (पारी कुमार लिंगो प्रकाशन, नागपुर, 1989 )
- गोंडी भाषा शब्द कोश भाग 1 (प्रकाशक – चंद्रलेखा कंगाली, 1989)
- गोंडी भाषा शब्द कोश भाग 2 (प्रकाशक – चंद्रलेखा कंगाली, 1989)
- गोंडी भाषा सीखिये (प्रकाशक – चंद्रलेखा कंगाली, 1989)
- कोया पुनेम ता सार (प्रथम संस्करण, 1938, लेखक – रंगेल सिंह भल्लावी, प्रकाशक मंगोल प्रिंटिंग प्रेस, सिवनी। इसका हिंदी अनुवाद 1989 में डॉ. मोतीरावण कंगाली द्वारा इसी शीर्षक से प्रकाशित किया गया। प्रकाशक – चंद्रलेखा कंगाली)
- पारी कुपार लिंगो कोया पुनेम दर्शन (पारी कुपार लिंगो प्रकाशन, नागपुर, 1989, वर्ष 1994 में दूसरा संस्करण चंद्रलेखा कंगाली द्वारा प्रकाशित)
- गोंडी लिपि परिचय (पारी कुपार लिंगो प्रकाशन, नागपुर, 1991)
- गोंडवाना गढ़ दर्शन (प्रकाशक – चंद्रलेखा कंगाली, 1992)
- गोंडी व्याकरण (प्रकाशक चंद्रलेखा कंगाली, 1994)
- गोंडवाना कोट[21] दर्शन (प्रकाशक चंद्रलेखा कंगाली, 2000)
- सैंधवी लिपि का गोंडी में उदवाचन (प्रकाशक चंद्रलेखा कंगाली, 2002)
- मुंडारा[22] हीरो गंगा[23] (प्रकाशक चंद्रलेखा कंगाली, 2005)
- तापी नदी की पौराणिक गाथा (प्रकाशक चंद्रलेखा कंगाली, 2005)
- वृहत हिन्दी–गोंडी शब्द कोश (प्रकाशक चंद्रलेखा कंगाली, 2011)
- चांदागढ़ की महाकाली काली कंकाली (प्रकाशक चंद्रलेखा कंगाली, 2011)
- बस्तर गढ़ की दांतेवाडीन वेनदाई दंतेश्वरी (प्रकाशक चंद्रलेखा कंगाली, 2011)
- मराठी –गोंडी शब्द कोश (प्रकाशक चंद्रलेखा कंगाली, 2012)
- गोंडी व्युत्पत्तिमूलक शब्दकोश (प्रकाशनाधीन)
डॉ. मोतीरावण कंगाली द्वारा लिखे साहित्य से समस्त कोइतूर समाज को एक सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक दिशा मिली है और आशा की जाती है कि अन्य जातियां और जन जातियाँ जो कोइतूर समाज से किसी कारण अन्य धर्मों के प्रभाव में चली गयी हैं पुनः अपनी मूल सांस्कृतिक विरासत और जीवन दर्शन को अपनाएँगी और कोइतूर भारत के सपने को हकीकत में स्थापित करने में सक्षम हो सकेंगी।
एक लेखक, समाजशास्त्री विद्वान, भाषाविद के साथ-साथ आचार्य मोती रावण कंगाली एक चित्रकार, हस्त शिल्पी और कलाकार भी थे। उनकी बनाई हुई बहुत सी काष्ठ शिल्प और हस्त शिल्प कलाकृतियाँ उनके ड्राइंग रूम में देखने को मिल जाती हैं। वे बहुत अच्छे और सुरीले गायक भी थे। गोंडी पाटा(गीत) के सुरों की उन्हे अच्छी पहचान और पकड़ थी। उन्होने अपने लेखन में इन गोंडी पाटाओं का अनेक जगहों पर प्रयोग किया है।
आचार्य मोतीरावण कंगाली शुरू से ही साहित्यिक मंचों और संगठनों के अहम हिस्सा हुआ करते थे। वर्ष 1975 में उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर आदिम भाषा साहित्य संशोधन मण्डल की नीव डाली। लेकिन इसके पहले ही वे आदिवासी विद्यार्थी संघ नागपुर से वर्ष 1967 में जुड़ गए थे। और जब 1976 में सरकारी नौकरी में आए तभी से आदिवासी कर्मचारी संगठन से जुड़ गए। वर्ष 1988 को वे अखिल गोंडवाना गोंडी साहित्य परिषद के महासचिव बने बाद में पारी कुपार लिंगो प्रकाशन नागपूर के केंदीय प्रबन्ध समिति के महासचिव भी रहे। बाद में वे अखिल गोंडवाना गोंडी साहित्य परिषद के अध्यक्ष भी रहे।
कचारगढ़ की सांस्कृतिक जात्रा की शुरुआत
आचार्य मोतीरावण के गुरु केशव बानाजी मर्सकोले, जो कचारगढ़ के पास के ही गाँव महारू टोला के रहने वाले थे, ने सबसे पहले उन्हें (आचार्य मोतीरावण कंगाली को) इस गुफा के बारे में बताया। उस गुफा में पहले वहाँ के स्थानीय गोंड़ निवासी गोंगों (पूजा पाठ) करने उस गुफा तक जाया करते थे। तब आचार्य मोतीरावण कंगाली ने इसके बारे काफी अध्ययन किया और बहुत सारे प्रमाण जुटाये और इसके बारे में अपने सहयोगियों को बताया। इस गुफा के बारे में बहुत से अंग्रेज लेखकों ने भी काफी पहले वर्णन किया है और इसके धार्मिक महत्त्व को बताया है।
वर्ष 1980 में आचार्य मोती रावण कंगाली के नागपुर आवास पर गोंडवाना बैंक की अवधारणा देने वाले तिरुमाल केशव बानाजी (के बी) मर्सकोले और भोपाल से गोंडवाना दर्शन के संपादक सुन्हेर सिंह ताराम मिले और तीनों ने कचारगढ़ की पहली जात्रा की और अगले कुछ वर्षों में कचारगढ़ को कोइतूर गोंडों के धार्मिक स्थान के रूप में चिन्हित किया। इसी क्रम में वर्ष 1984 की माघ पूर्णिमा के दिन इन तीन लोगों के साथ दो अन्य लोग तिरुमाल भारत लाल कोराम और गोंडवाना मुक्ति सेना के सर सेनापति शीतल कवडू मरकाम, ने पहली बार गुफा की धार्मिक जात्रा शुरू की। इस वर्ष ये पहला कार्यक्रम हुआ और केवल यही पाँच लोग टेंट में रहे और पत्रिका गोंडवाना दर्शन में इस यात्रा और मेले का विस्तार में प्रचार किया गया और वर्ष 1986 में फिर दादा हीरा सिंह मरकाम भी इस जात्रा से जुड़े।
फिर धीरे-धीरे हर साल माघ पूर्णिमा के दिन कई प्रदेशों से कोइतूर लोग इस यात्रा (कचारगढ़ जात्रा) में भाग लेने लगे। इस प्रकार 1984 में केवल तीन लोगों द्वारा शुरू किया गये गये इस जात्रा में आज 40 वर्षों के बाद लाखों की संख्या में लोग जुटते हैं। आज यह सांस्कृतिक आंदोलन आसपास के कई राज्यों की कई राजनीतिक सीटों की दिशा और दशा तय करने लगा है। इस जात्रा का श्रेय ऊपर वर्णित चार अन्य लोगों के साथ आचार्य मोतीरावण कंगाली को जाता है और यह उनकी धार्मिक- सांस्कृतिक आंदोलन की दिशा में सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है जो हजारों वर्षों के खोये कोया पुनेमी इतिहास को फिर से स्थापित कर देती है।
इसी क्रम में आचार्य मोतीरावण कंगाली ने कोइतूरों के उत्पत्ति स्थान अमूरकूट (अमरकंटक) में भी तिरुमाल हीरा सिंह मरकाम के साथ मिलकर एक बड़े मेले का आयोजन प्रारम्भ किया था, जहां हर वर्ष 14 जनवरी को लाखों की संख्या में कोइतूर आते हैं और अपनी पारंपरिक मान्यताओं को पूर्ण करते हैं। इस मेले में कई प्रान्तों से आए गोंड़ कोइतूर अपने मूल पिता-माता के रूप में आंदी रावेन पेरियोल और आंदी सुकुमा पेरी की गोंगों (पूजा) नर्मदा के उद्गम स्थल पर करते हैं और अपने पुरखों के प्रति प्रेम और कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। लाखों कोइतूरों में अपने कोया पुनेम और अपने सांस्कृतिक धरोहरों के प्रति आस्था और विश्वास दिलाने के लिए आचार्य मोतीरावण कंगाली को हमेशा याद किया जाता रहेगा।
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इसी क्रम में आचार्य मोतीरावण कंगाली ने गोंड़ कोइतूरों के धार्मिक स्थलों को हिंदुओं के कब्जे से मुक्त कराया। हिंदुओं ने गोंड पुरखों के बदले अपने देवी-देवताओं को स्थापित कर रखा था। डॉ. कंगाली ने इस विषय पर भी कार्य किया और आम जनमानस में कई किताबें लिख कर इन देवी स्थानों की सच्चाई को सबके सामने ले आए। जिनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण देवी स्थान जैसे डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी दाई, बस्तर की दंतेश्वरी दाई, कोरोडीगढ़ की तिलका दाई और चांदागढ़ की कली कंकाली दाई के बारे में उन्होने छोटी-छोटी पुस्तकें लिखी। गोंडी दर्शन संस्कृति के क्षेत्र में उनके कार्य को आगे बढ़ाने की बहुत ज्यादा जरूरत है अगर यह कार्य जल्दी नहीं किया गया तो शीघ्र ही गोंडवाना में आयी सांस्कृतिक जागृति फिर से सुप्तावस्था में चली जाएगी।
गोंडी दर्शन और धर्म (कोया पुनेम) को स्थापित और प्रचारित करने लिए उन्होने भुमका (पुरोहित) महासंघ की परिकल्पना की और उसका प्रचार प्रसार शुरू किया, जिसे बाद में तिरुमाल रावन शाह इनवाती को सौंप कर खुद लेखन में व्यस्त हो गए। आज भुमका महासंघ महाराष्ट्र,छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सहित अन्य राज्यों में अपने भुमकाओं को प्रशिक्षण देकर कोया पुनेम की स्थापना और प्रचार प्रसार के लिए सक्रिय है।
उनकी पत्नी तिरुमाय चंद्रलेखा कंगाली स्वयं एक समाजशास्त्री और विद्वान लेखिका हैं जिनके साथ मिलकर उन्होने गोंडवाना के सांस्कृतिक इतिहास को दुनिया के सामने ले आए और गोंडवाना के प्राचीन गौरव को कोइतूर जान-पहचान सके। गोंड़ी भाषा के क्षेत्र में उन्होंने अनेक कार्य किया और गोंडी को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलवाने में अपना पूरा समर्थन और सहयोग भी दिया था। लेकिन दुर्भाग्य देखिये इतनी प्राचीन भाषा, जिसे बोलने वाले करोड़ों की संख्या में हैं जिसका अपना सुंदर व्याकरण और लिपि है, उसे भारत सरकार की अनदेखी झेलनी पड़ रही है और इतने संघर्षों और आंदोलनों के बाद भी गोंडी भाषा को भारत की आठवीं अनुसूची में स्थान नहीं मिल पा रहा है।
गोंडी भाषा को लेकर आचार्य मोतीरावण कंगाली बहुत चिंतित रहते थे। वे कहते थे कि भाषा के बिना किसी भी संस्कृति के अंदर नहीं उतरा जा सकता है और अगर किसी संस्कृति को नष्ट करना हो तो उसकी भाषा को खत्म कर दो। इस देश में गोंडी भाषा के साथ यही हो रहा है। अगर गोंडी भाषा ही नहीं रहेगी तो गोंड, गोंडवाना की कल्पना ही बेमानी हो जाएगी और प्राचीन गौरवशाली संस्कृति और उसको मनाने वाले लोग भी एक दिन विलुप्त हो जाएंगे। यह एक चिंता का विषय है जिसे सरकारों को समझना चाहिए और गोंडी भाषा संस्कृति को सहेजने और सँवारने के प्रयास करना चाहिए।
कोइतूर अपनी सांस्कृतिक विरासत में गायन, वादन, नृत्य और कला को बहुत महत्व देते हैं और यही संस्कृति गोंड कोइतूरों की पहचान भी है। तरह-तरह के तीज-त्योहारों को मनाने के पीछे भी अपनी संस्कृति और सभ्यता को जीवित रखने का अर्थ छिपा होता है। आचार्य कंगाली हर एक उस सांस्कृतिक तीज त्योहार में शामिल होने का प्रयास करते थे जो कोइतूर परम्पराओं को आगे ले जाता है। इसी क्रम में वे कई राज्यों में अतिथि के रूप में आमंत्रित किए जाते रहते थे। ऐसे ही एक कार्यक्रम में 27 अक्टूबर 2015 को उनका भोपाल आना हुआ और वह कार्यक्रम उनकी जिंदगी का आखिरी कार्यक्रम साबित हुआ। उसके दूसरे दिन शाम को वे हमारे घर पर खाने पर आमंत्रित थे और कोइतूर धर्म-संस्कृति पर उनसे लंबी वार्ता हुई। 28 अक्तूबर 2015 कि सुबह वे भोपाल के गोंड राजा निजाम शाह और रानी कमलापति के गिन्नौर गढ़ किले को देखने गए, जो कि विंध्याचल पहाड़ियों पर काफी ऊंचाई पर है। वहाँ से लौटने पर उन्होंने सीने में दर्द की शिकायत की और उस दर्द की स्थिति में ही कुछ दवाइयाँ खाकर ट्रेन से नागपूर निकल गए। 29 अक्तूबर को वे घर पर ही आराम किए और सबसे बातचीत करते रहे। लेकिन 30 अक्टूबर को सुबह 6 बजे उन्हे सीने मे फिर तकलीफ हुई और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। जहां 30 अक्तूबर 2015 को सुबह 9.30 बजे उनकी मृत्यु हो गयी और उसी दिन ही सभी को उनके असमय दुनिया छोडकर चले जाने का का दुखद समाचार मिला।
इस तरह एक महान लेखक, विद्वान, भाषाविद, समाज शास्त्री, शिल्पी, समाजसेवी हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह गया और अपने पीछे अपने चाहने वालों की असंख्य भीड़ छोड़ गया। उनके जाने के बाद गोंडवाना के साहित्य के क्षेत्र में जो निर्वात बना वो आज तक नहीं भरा जा सका है। उनके कार्यों को आगे ले जाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। वे अक्सर कहा करते थे – मैंने गोंडवाना के विशाल और भव्य सांस्कृतिक महल की केवल नींव भरी है इस पर दीवारें, मीनारें और छत खड़ा करने की ज़िम्मेदारी आने वाली पीढ़ियों की होगी। अगर जल्दी ही गोंडवाना की युवा पीढ़ी इस नींव पर अपनी सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई इमारत नहीं खड़ी सकी, तो अन्य धर्मों के लोग मेरी भरी हुई नीव से ईंट-पत्थर निकाल कर अपनी अलग इमारत खड़ी कर लेंगे।
पूरे विदर्भ और गोंडवाना में उनकी महापरिनिर्वाण दिवस को बड़े सम्मान और आदर के साथ मनाया जाता है और गोंडवाना आंदोलन में उनके योगदान को याद किया जाता है और उनके प्रति संवेदना श्रद्धांजलि के साथ कृतज्ञता भी व्यक्त की जाती है। इस अवसर पर जगह-जगह अनेक सांस्कृतिक आयोजन भी किए जाते हैं, जिसमें गोंडवाना के विविध नृत्य, गीत, संगीत कला का प्रदर्शन किया जाता है। नागपुर भोपाल, रायपुर आदि बड़े शहरों में आचार्य मोतीरावण कंगाली व्याख्यामाला का भी आयोजन होता है।
(संपादन : नवल/सिद्धार्थ)
[1] डॉ. मोतीरावण कंगाली का नाम मोतीराम छतीराम कंगाली था। 1985 में उन्होंने अपना नाम मोतीरावेन कंगाली रखा जो बाद के दिनों में अपभ्रंश होते-होते मोतीरावण कंगाली हो गया। डॉ. कंगाली ने इसी नाम से अपने पुस्तकों की रचना की है।
[2] प्रथम मानव पुरूष
[3] प्राचीन आदिम जनजाति – वर्तमान में भी गोंड जनजाति के लोग स्वयं के लिए कोइतूर शब्द का इस्तेमाल करते हैं
[4] सद्मार्ग
[5] उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक आदि
[6] पुरूषों के लिए सम्मानसूचक शब्द
[7] सामाजिक व्यवस्था
[8] पूजापाठ करना
[9] गोंडी सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक व्यवस्था के प्रतिपादक।
[10] गीत
[11] मौखिक तरीके से इतिहास को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करना
[12] शिक्षा संस्कार केंद्र
[13] विवाहित महिलाओं के लिए सम्मानसूचक शब्द
[14] नागपुर जिले में गोंडी धार्मिक स्थल
[15] गोंडी धार्मिक स्थल
[16] शक्ति (गोंडी परंपरा में पुरखों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द)
[17] समाज
[18] परिवार
[19] शब्द
[20] परिचय
[21] प्राचीन किला
[22] मध्य प्रदेश के सिवनी में एक गांव
[23] एक प्रेम कहानी जिसकी नायिका का नाम है – हीरो और नायक का नाम गंगा
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