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कांशीराम, जिन्हें उनके समर्थक स्नेह से महाराष्ट्र में साहेब, उत्तर भारत में साहब या मान्यवर के नाम से बुलाते और याद करते हैं, बहुजन समाज के उन नायकों में से हैं जिन्हें वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे अधिकारी थे। सन् 1980 और 90 के दशक में, जब उन्होंने स्वतंत्र भारत की राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, उस दौर में वे एक रहस्यपूर्ण व्यक्तित्व थे। कई लोगों की यह मान्यता है कि उन्होंने यह साबित किया कि समाज के हाशिए पर रहने वाले गरीब लोगों की राजनीति, शिक्षितों, बुद्धिजीवियों, शहरी कुलीन वर्ग व उद्योग समूहों की मदद के बगैर सफल हो सकती है। उन्होंने केवल अपने दम पर भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की मुख्यधारा की राजनीति को बदल डाला और इसके साथ ही, भारतीय राजनीति भी बदल गई।
ढांचागत सहारे के बिना खड़ा एक खरा नेता
कांशीराम एक विशुद्ध नेता थे, जिन्होंने समाज के दमित वर्ग के दिलों में अपनी जगह बना ली थी। वे बहुत सरल व्यक्ति थे और शोर-शराबे व दिखावटीपन से दूर रहते थे। वे जनता पर ऊपर से लादे गए ऐसा नेता नहीं थे, जिसकी एकमात्र योग्यता यह हो कि वह राजनीतिज्ञों के परिवार में पैदा हुआ हो या उसके अभिभावक ऊंची जाति या वर्ग के हों। वे गांधी, नेहरू, टैगोर, सर्वपल्ली राधाकृष्णन आदि की तरह किसी द्विज जाति से नहीं थे और न ही उन्हें ब्राह्मणवादी सामाजिक ढांचे का समर्थन प्राप्त था। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि अत्यंत साधारण थी। वे पंजाब के रोपड़ के एक रामदसिया (चमार, जिन्होंने सिख धर्म अपना लिया है) परिवार में जन्मे थे। उन्होंने ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था की कटु निंदा की व उस पर जोरदार हल्ला बोला और वे इस व्यवस्था के पूरी तरह खिलाफ थे। वे भारतीय समाज को दो मुख्य वर्गों में बांटते थे-मनुवादी (मनु के धर्मशास्त्र में विश्वास रखने वाले), जो कि भारत की आबादी का 15 प्रतिशत है, और बहुजन, जो बहुसंख्यक 85 प्रतिशत होते हुए भी, मनु के धर्मशास्त्र के शिकार और पीडि़त हैं। इसलिए उन्होंने यह नारा दिया था ‘ठाकुर बामन बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस 4’। वे न तो विदेश में पढ़े थे और न ही वे कोई महान बुद्धिजीवी थे। वे बहुत अच्छे वक्ता भी नहीं थे। परंतु उनमें अदभुत संगठन क्षमता थी। वे अपने श्रोताओं को अच्छी तरह समझते थे और इसलिए वे अत्यंत सरल भाषा का इस्तेमाल करते थे और वाक्यों को दोहराते भी थे। आमजनों में उनकी कितनी गहरी पैठ थी, यह उनकी रैलियों में उमडऩे वाली भारी भीड़ से जाहिर होती है। जो लोग उनकी रैलियों में भाग लेते थे वे पैसे या उपहार के लालच में वहां नहीं आते थे। वे ऐसे लोग थे जो कांशीराम में अटूट विश्वास रखते थे और यह मानते थे कि जिस भविष्य का सपना कांशीराम देख रहे थे, वह एक न एक दिन साकार होगा। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि एक व्यक्ति के तौर पर उनकी उपलब्धियों को मान्यता दी जाएं। ये उपलब्धियां अनेक तथाकथित उच्च जाति के नेताओं की उपलब्धियों से कहीं खरी और बड़ी थीं।
अपने इतिहास और नेताओं का निर्माण
मान्यवर कांशीराम अपने कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण शिविरों में कहा करते थे कि ‘जिन लोगों की गैर-राजनीतिक जड़ें मजबूत नहीं हैं वे राजनीति में सफल नहीं हो सकते’। इसी संदर्भ में मान्यवर ने दलित समाज के इतिहास का निर्माण शुरू किया। जो भी इतिहास उन्हें मिला, वह दलितों के शोषण और उसके खिलाफ उनके संघर्ष का इतिहास था। उन्होंने लिखा है कि ब्राह्मणवादी संस्कृति के शिकार बतौर शूद्र और अतिशूद्र, जिन्हें अब पिछड़ा वर्ग (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग) कहा जाता है, सदियों तक अंधकार में जीते रहे। सन् 1848 के आसपास, जोतिराव फुले ने ब्राह्मणवादी संस्कृति के खिलाफ विद्रोह की शुरुआत की। वे आगे लिखते हैं, ‘बीसवीं सदी की शुरुआत से पूरे देश के दमित और शोषित समुदाय, उस व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह में उठ खड़े हुए जिसके वे सदियों से शिकार बन रहे थे। यदि भारत के नक्शे को देखा जाए तो उन दिनों उत्तर-पश्चिम से लेकर उत्तर-पूर्व तक और दक्षिण भारत में भी, लगभग हर जगह विद्रोह के लक्षण दिखलाई दे रहे थे। दलितों व पिछड़ों के इतिहास के साथ-साथ, मान्यवर ने इतिहास के गर्भ से ऐसे बहुजन नेताओं को ढूंढ निकाला, जिन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया था। पांच समाज सुधारक जो बहुजन परिवारों में पैदा हुए थे और जिन्होंने ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया था, वे थे महात्मा जोतिबा फुले (महाराष्ट्र) नारायण गुरु (केरल) राजश्री शाहूजी महाराज (महाराष्ट्र), बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर (महाराष्ट्र) व ईवी रामासामी नायकर ‘पेरियार’ (तमिलनाडु)। इन पांच महान नेताओं को लोकप्रिय बनाने के लिए कांशीराम उनके लिए स्थानीय और आसानी से समझ में आनेे वाले शब्दों का प्रयोग करते थे। जैसे फुले के लिए पगड़ी वाला बाबा, शाहूजी महाराज के लिए फेटे वाला या अचकन वाला बाबा, आम्बेडकर के लिए टाई वाला बाबा और पेरियार के लिए दाढ़ी वाला बाबा। इस प्रकार, मान्यवर कांशीराम ने बहुजनों के संघर्ष का श्रृखंलाबद्ध इतिहास तैयार किया। जब उनका आंदोलन देश के अन्य हिस्सों में फैल गया तब उन्होंने झारखंड की मुण्डा जनजाति के बिरसा मुण्डा और मध्यप्रदेश के गुरु घासीदास को भी इस सूची में जोड़ लिया।
बहुजन मीडिया के शून्य को भरना
बहुजनों के संघर्ष के 158 साल के अविरल इतिहास, जो 1848 में जोतिबा फुले से शुरू होता है, के निर्माण और बहुजन नेताओं को सामने लाने के अतिरिक्त, कांशीराम ने आमजनों को जोडऩे के लिए एक समानांतर बहुजन मीडिया स्थापित करने का प्रयास भी किया। वे मुख्यधारा के मीडिया को मनुवादी कहते थे। इसलिए उन्होंने अपनी स्वयं की पत्रिकाओं और अखबारों का प्रकाशन शुरू किया। उनकी पहली पत्रिका थी ‘द अनटचेबल इण्डिया’ (अछूत भारत)। इस पाक्षिक का प्रकाशन 1 जून, 1972 से शुरू हुआ। सन् 1979 के बाद से उन्होंने बामसेफ के साथ मिलकर ‘द आपरेस्ड इण्डियन’ नामक मासिक का प्रकाशन शुरू किया। इस पत्रिका में संपादकीय लेख कांशीराम स्वयं लिखा करते थे। ‘बहुजन टाइम्स’ नामक दैनिक अखबार का प्रकाशन 31 मार्च, 1984 से मराठी, 14 अगस्त, 1984 से अंग्रेजी और 6 दिसम्बर, 1984 से हिन्दी में शुरू हुआ। ये समाचारपत्र नई दिल्ली और महाराष्ट्र से एक साथ प्रकाशित होते थे। मान्यवर ने कई अन्य मासिकों का भी प्रकाशन शुरू किया जिनके शीर्षक थे ‘बहुजन साहित्य’, ‘श्रमिक साहित्य’, ‘इकोनोमिक अपसर्ज’, ‘आर्थिक उत्थान’ व ‘बीआरसी बुलेटिन’। ये पत्रिकाएं और अखबार धीरे-धीरे पैसे की कमी और पाठक वर्ग के अभाव के कारण बंद हो गए। कांशीराम ने ‘बहुजन संगठक’ व ‘बहुजन नायक’ नाम से क्रमश: हिन्दी और मराठी में नई दिल्ली व महाराष्ट्र से दो साप्ताहिकों का प्रकाशन शुरू किया। बहुजन संगठक तो कांशीराम की मृत्यु के बाद भी कई सालों तक निकलता रहा। इन बहुजन पत्र-पत्रिकाओंं ने बहुजनों को जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सच्चे प्रजातांत्रिक
कांशीराम गहरे तक प्रजातांत्रिक थे और प्रजातांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक प्रक्रियाओं में विश्वास रखते थे। वे राजनीतिक चुनावों और बहुजनों को संविधान द्वारा दिए गए मताधिकार के महत्व से परिचित थे। वे मानते थे कि मताधिकार के साथ-साथ ‘एक व्यक्ति-एक मत’ व ‘एक मत-एक मूल्य’ के सिद्धांत सभी नागरिकों की समानता के स्रोत हैं। परंतु इससे लाभ तभी उठाया जा सकता है जब ‘आप अपने मत का इस्तेमाल पूरी बारीकी और होशियारी से करना सीख जाएं।’ उन्होंने अपने समर्थकों को उनके वोट का उचित इस्तेमाल करना सिखाया। यहां तक कि वे यह वकालत भी करते थे कि बहुजन मतदान के दिन उपवास रखें। वे चाहते थे कि जातियों में बुरी तरह विभाजित भारतीय समाज की अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति को भी राजनीतिक शक्ति मिल सके। कांशीराम का तर्क था कि राजनीतिक सत्ता वह मास्टर की है जिसके इस्तेमाल से आप अपनी सभी समस्याएं हल कर सकते हैं। यही कारण है कि उन्होंने अपने समर्थकों को एक करने के लिए प्रजातांत्रिक संगठनों का निर्माण किया।
कांशीराम के आंदोलन की गतिशीलता
कांशीराम के आंदोलन की प्रकृति गतिशील थी। वे प्रयोगधर्मी थे और लोगों को अपने साथ जोडऩे और अपने आंदोलन के लक्ष्य को हासिल करने के लिए नए-नए तरीके ढूंढते रहते थे। उन्होंने अपने समर्थकों को राजनीतिक दृष्टि से जागरूक करने के लिए विभिन्न तरह के संगठन बनाए। इन संगठनों के कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर आयोजित करते थे जो कई दिनों तक चलते थे। उनके राजनीतिक कार्यक्रमों की अवधि कई महीनों की होती थी। जिस तरह उन्होंने संगठनों का निर्माण किया उससे भी उनकी गतिशीलता जाहिर होती है। उन्होंने शुरुआत की सन् 1971 में महाराष्ट्र के एक छोटे से जिले पूना (अब पुणे) के अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों के सरकारी कर्मचारियों को संगठित करने से। फिर उन्होंने अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) व ‘धर्मपरिवर्तित धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी अपने साथ लेकर’ ‘बैकवर्ड एण्ड माइनोरिटीज कम्युनिटीज एम्प्लाईज फेडरेशन’ (बामसेफ) का गठन सन् 1978 में राष्ट्रीय स्तर पर किया। सन् 1981 में कांशीराम ने एक नए संगठन की नींव रखी। जिसका नाम था ‘दलित, शोषित समाज संघर्ष समिति’ (डीएस 4)। इस संगठन के जरिए वे बहुजन समाज की राजनीतिक शक्ति का जायजा लेना चाहते थे। अंत में उन्होंने 14अप्रैल, 1984 को बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) नाम से एक राजनीतिक दल की शुरुआत की। इस तरह उन्होंने एक गैर-राजनीतिक, गैर-धार्मिक और आंदोलनों से दूर रहने वाले संगठन बामसेफ से शुरुआत की। उसके बाद उन्होंने डीएस 4 स्थापित किया जो आंदोलनों में भाग भी लेता था और जिसका चरित्र राजनीतिक था, परंतु केवल सीमित अर्थ में। अंत में उन्होंने बसपा की स्थापना की, जिसका खुला राजनीतिक एजेंडा था।
राजनीति के क्षेत्र में उन्होंने एकला चलो रे से लेकर चुनावी समझौते व गठबंधन की राजनीति तक सब कुछ किया। बसपा के जरिए उन्होंने दलितों को कांग्रेस के शिविर से बाहर खींच लिया। उन्होंने ओबीसी, धार्मिक अल्पसंख्यकों और कुछ तथाकथित ऊंची जातियों के साथ स्वतंत्र गठबंधन बनाए। बसपा सबसे पहले 1993 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में सत्ता में आई। जून, 1995 में भाजपा के बाहर से समर्थन के जरिए उसकी सरकार बनी। सन् 1997 में उसने भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाई, जिसमें दोनों पार्टियों के नेता छह-छह महीने तक मुख्यमंत्री रहते थे। दो बार बसपा अपने बल पर सत्ता में आ चुकी है। सन् 2003 व सन् 2007 में। सन् 2007 में बनी सरकार ने अपने पूरा पांच साल का कार्यकाल पूरा किया।
बसपा किसी भी सरकार का अंग रही हो परंतु कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि राजनीतिक स्थिति उसके नियंत्रण में नहीं है या वह अपनी विचारधारा से समझौता कर रही है। बसपा शासनकाल में उत्तरप्रदेश सांप्रदायिक हिंसा से सर्वथा मुक्त रहा। यह उत्तरप्रदेश जैसे साम्प्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील राज्य के संदर्भ में कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है। उत्तरप्रदेश में मायावती राज के पहले दंगे हुए और उनके राज के बाद भी। आज से 25 साल पहले कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि अपनी सांगठनिक क्षमता व राजनीतिक चातुर्य के जरिए कांशीराम उत्तरप्रदेश में दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को पीछे ढकेल देंगे और बसपा को राष्ट्रीय राजनीतिक दल का दर्जा दिलवा देंगे।
बाबा साहब आम्बेडकर के सच्चे उत्तराधिकारी
कांशीराम के जीवन और उनके संघर्ष को दृष्टिगत रखते हुए हम निस्संदेह इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि वे बाबा साहब की विरासत के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। अपितु, मान्यवर हमेशा यह तर्क देते थे कि वे तो केवल ‘बाबा साहब के सिद्धांतों को व्यवहारिक शक्ल दे रहे हैं और इस प्रकार बाबा साहब के अधूरे आंदोलन को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं।’ उन्होंने जिस प्रकार अपने विचारों को लोकप्रिय बनाया, जिस तरह उन्होंने दलितों व अन्य दमित वर्गों के राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने पर जोर दिया, जिस तरह उन्होंने अपने कांग्रेस विरोध को शक्ल दी और जिस तरह उन्होंने सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र में स्वतंत्र आंदोलन चलाए और समानांतर मीडिया की स्थापना की, उसे देखते हुए इसमें कोई संदेह नहीं कि वे बाबा साहब के सच्चे उत्तराधिकारी थे। बसपा कार्यकर्ताओं द्वारा गढे गए निम्नलिखित नारे यह बताते हैं कि किस तरह दलितों को यह विश्वास था कि कांशीराम आम्बेडकर के सपनों को पूरा करेंगे:
बाबा तेरा मिशन अधूरा
कांशीराम करेगा पूरा
कांशी तेरी नेक कमाई
तूने सोती कौम जगाई
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मान्यवर कांशीराम ने प्रजातांत्रिक क्रांति के जरिए बहुजन समाज में सामाजिक परिवर्तन व उसकी आर्थिक मुक्ति के अपने एजेण्डे पर काम किया। भारत की आबादी के 85 प्रतिशत हिस्से को संगठित करने में उन्हें काफी हद तक सफलता मिली। उनकी उपलब्धियां कितनी व्यापक थीं यह इससे स्पष्ट है कि बहुजनों के संघर्ष का इतिहास और उनके राजनीतिक संगठन का निर्माण तो उन्होंने किया ही, उन्होंने ‘मनुवादी’ को परिभाषित कर उस ‘दूसरे’ की सृष्टि भी की, जिसके खिलाफ बहुजन संघर्ष कर सकते हैं। यह सब करके उन्होंने ऊंची जातियों के राजनीतिक एकाधिकार को चुनौती दी और भारतीय प्रजातंत्र को मजबूत बनाया। कांशीराम की राजनीतिक विरासत जिंदाबाद।
(फारवर्ड प्रेस के मार्च 2013 अंक में प्रकाशित)
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