‘मूकनायक’ के प्रकाशन की सौवीं वर्षगांठ के मौके पर हम याद कर रहे हैं डॉ. आंबेडकर के पत्रकार व्यक्तित्व को। उनकी पत्रकारिता का काल 1920 से 1956 तक विस्तारित है। मसलन, ‘मूकनायक’ का पहला अंक उन्होंने 31 जनवरी, 1920 को निकाला, जबकि अंतिम अखबार ‘प्रबुद्ध भारत’ का पहला अंक 4 फरवरी, 1956 को प्रकाशित हुआ।
इस अवसर पर हम डॉ. आंबेडकर के पत्रकार व्यक्तित्व पर विशेष श्रृंखला के तहत उन लेखों का प्रकाशन करेंगे, जो उनकी पत्रकारिता पर केंद्रित होंगे। साथ ही, जो उनके पत्रकारिता के मानदंडों, मूल्यों और उसकी वैचारिकी से अवगत कराएंगे। इसकी दूसरी कड़ी के रूप में आज पढ़ें, डॉ. सिद्धार्थ का लेख, जिसमें वे मूकनायक में प्रकाशित डॉ. आंबेडकर के संपादकीय लेखों की विवेचना प्रस्तुत कर रहे हैं
मूकनायक में प्रकाशित डॉ. आंबेडकर के संपादकीय लेखों की विवेचना
- सिद्धार्थ
वर्ष 2020 ‘मूकनायक’ समाचार–पत्र का शताब्दी वर्ष है। ठीक सौ वर्ष पहले 31 जनवरी, 1920 को ‘मूकनायक’ का पहला अंक प्रकाशित हुआ था। अमेरिका में अध्ययन कर 21 अगस्त 1917 को डॉ. आंबेडकर के बम्बई वापस आने के बाद उनका यह प्रथम सामाजिक उद्यम था, जिसका उद्देश्य समाज के शोषितों, उत्पीड़ितों और वंचितों को जगाना था, विशेषकर बहिष्कृत अछूतों को।
1917 से 1920 के बीच तीन वर्ष उनकी जिंदगी के उथल–पुथल से भरे थे।सच तो यह है कि उनकी पूरी जिंदगी ही उथल–पुथल से भरी रही। इसी बीच वे इकरारनामे के अनुसार बड़ौदा नरेश के यहां नौकरी करने गए थे। उन्हें किन–किन अपमानों का सामना करना पड़ा, इसका दिल दहला देने वाला वर्णन उन्होंने अपनी संक्षिप्त आत्मकथा ‘वेटिंग फॉर वीजा’ में किया है। इसी बीच वे सिंड़हम कॉलेज में प्रोफेसर नियुक्त हुए। नवंबर, 1918 में उन्होंने यह पद संभाला। प्रोफेसर होना न तो उनकी जिंदगी का ध्येय था और न ही यह उनको संतुष्टि दे सकता था। हर समय उनकी चिंता का विषय अस्पृश्यों का अपमान और इससे मुक्ति बनी रही। इसी बीच वे ‘साउथबरो कमेटी’ के सामने प्रस्तुत हुए, जो ‘मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार’ कार्यक्रम के तहत भारत की विभिन्न जातियों से मताधिकार के बारे में पूछताछ कर रही थी। अस्पृश्य वर्ग की ओर से कर्मवीर शिंदे (23 अप्रैल, 1873 – 2 अप्रैल, 1944) और डॉ. आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956) उस कमेटी के सामने उपस्थित हुए और अपनी गवाही दी। इस संदर्भ में ‘बम्बई टाइम्स’ को लिखे अपने एक पत्र में डॉ. आंबेडकर ने लिखा– “स्वराज जैसा ब्राह्मणों का जन्मसिद्ध अधिकार है, वैसा ही वह महारों का भी है…।” (धनंजय कीर, पृ. 40)
इसी वर्ष दत्तोबा पवार नाम के एक व्यक्ति की मध्यस्थता से डॉ. आंबेडकर को राजर्षि शाहू महराज (26 जून, 1874 – 6 मई, 1922) के साथ प्रत्यक्ष परिचय का संयोग प्राप्त हुआ। शाहू जी महाराज ने डॉ. आंबेडकर को आर्थिक सहायता देकर एक पाक्षिक निकालने को कहा। (वही, पृ. 40)। धनजंय कीर के विपरीत अन्य अध्येताओं का कहना है कि शाहू जी से मुलाकात के समय डॉ. आंबेडकर ने एक पत्र प्रकाशित करने की रचनात्मक रूपरेखा शाहू जी महाराज के सामने प्रकट की और शाहू जी महाराज आर्थिक सहायता देने को तैयार हो गए। इस संदर्भ में डॉ. आंबेडकर के गहन अध्येता वसंत मून लिखते हैं कि “सन् 1919 के करीब डॉ. आंबेडकर कोल्हापुर के महराज के निकट संपर्क में आए। यह संपर्क उन्होंने कोल्हापुर निवासी दत्तोबा पवार के मार्फत स्थापित किया था। उन्होंने ‘मूकनायक’ नामक पाक्षिक पत्र प्रारंभ करने की इच्छा से महाराजा साहब से आर्थिक मदद देने का अनुरोध किया।” (वसंत मून, पृ. 20)
इस तथ्य की पुष्टि श्यौराज सिंह बेचैन ‘मूकनायक’ के संपादकीय लेखों के संकलन में ‘दो शब्द’ में करते हैं। (‘मूकनायक’, संपादन, श्यौराज सिंह बेचैन, पृ.8-9)। यह पाक्षिक ‘मूकनायक’ दलित आंदोलन के मुखपत्र के रूप में आरंभ हुआ था।
चूंकि डॉ. आंबेडकर सिंड़हम कॉलेज में प्रोफेसर के रूप में शासकीय सेवा में थे, इस कारण वे आधिकारिक रूप से संपादक नहीं बन सके। किंतु व्यवस्थापन, मंत्रणा, अग्रलेख, स्फुट लेख लिखने का कार्य उन्होंने ही किया था। (डॉ. म.ला. शहारे, डॉ. नलिनी अनिल, पृ. 54)
पांडुरंग नंदराम भटकर को डॉ. आंबेडकर ने संपादक नियुक्त किया था। वे महार समाज के थे।… यद्यपि उस पाक्षिक पर डॉ. आंबेडकर का संपादक के रूप में नाम नहीं था, फिर भी बहुत से लोग जानते थे कि वह डॉ. आंबेडकर द्वारा जारी किए गए आंदोलन का मुखपत्र था। (धनंजय कीर, पृ. 40)
‘मूकनायक’ के प्रकाशन के साथ ही आंबेडकर मूक समाज के घोषित नायक बन गए। मई, 1920 के अंत में नागपुर में, सामाजिक क्रांति के महान नेता छत्रपति शाहू जी महाराज के आह्वान पर एक अखिल भारतीय बहिष्कृत परिषद कांफ्रेंस का आयोजन हुआ। कुछ प्रतिनिधियों के साथ डॉ. आंबेडकर भी नागपुर गए।… उपर्युक्त परिषद में डॉ. आंबेडकर में नेतृत्व के लिए आवश्यक सभी गुण दिखाई पड़े। सार्वजनिक जीवन में डॉ. आंबेडकर की यह पहली कामयाबी थी। ‘मूकनायक’ (डॉ. आंबेडकर) ने अपने भावी महान कार्य की झलक दी थी। (धनंजय कीर, पृ. 42)।
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‘मूकनायक’ निकालने के दौरान प्रोफेसर होते हुए भी डॉ. आंबेडकर कितनी कठिन जिंदगी जी रहे थे, इसका उनके विभिन्न जीवनी लेखकों ने विस्तार से वर्णन किया है। इस संदर्भ में धनंजय कीर लिखते हैं– “यद्यपि प्रोफेसर आंबेडकर को पर्याप्त मासिक वेतन मिलता था, फिर भी वे मजदूर–विभाग में इम्प्रूवमेंट चालक के दो कमरों में ही रहते थे। पैसे का व्यय वे हाथ समेटकर ही करते थे। वे सादगी और मितव्ययिता से रहते थे। (धनंजय कीर, पृ. 42)
‘मूकनायक’ समाचार–पत्र के कुल 19 अंक निकले थे। अंक 12 तक ‘मूकनायक’ समाचार–पत्र का लेखन पूर्ण रूप से बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर द्वारा किया गया। (‘मूकनायक’, वासनिक पृ.15) उसके बाद डॉ. आंबेडकर सन् 1920 के जुलाई महीने के अंतिम सप्ताह में अपने अध्ययन को आगे बढ़ाने के लिए लंदन चले गए। इस प्रकार उन्होंने करीब 7 महीने ‘मूकनायक’ का प्रकाशन सीधे अपनी देख–रेख में की। 13वें से 19वें अंक तक का संपादन ज्ञानदेव ध्रुवनाथ घोलप ने किया। उनके संपादन में 7 अंक निकले। (मूकनायक, वासनिक,पृ. 15)।
कुछ विवादों और अप्रिय प्रसंगों के साथ डॉ. आंबेडकर के अध्ययन के लिए लंदन जाने के बाद भी यह पाक्षिक समाचार–पत्र चलता रहा और अन्तत: अप्रैल, 1923 में बंद हो गया। इस तरह यह करीब 3 वर्ष तक जीवित रहा।
मैं ‘मूकनायक’ समाचार–पत्र की भूमिका का विश्लेषण करने के लिए डॉ. आंबेडकर द्वारा लिखी गई 12 संपादकीय और उनके द्वारा विविध अवसरों पर लिखे गए 10 लेखों को ही अपने विवेचन के लिए चुन रहा हूं।
‘मूकनायक’ के प्रवेशांक की शुरुआत डॉ. आंबेडकर ने संत तुकाराम की इन पंक्तियों से की है–
अभी मैं इच्छाएं धारण करके क्या करूं
व्यर्थ तोमड़ी बजाकर क्या करूं
संसार में खामोश लोगों की कोई नहीं सुनता।
अभी कोई लाज, हित सार्थक नहीं ( मूकनायक, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ पृ. 23)
तुकाराम कह रहे हैं कि ‘संसार में खामोश लोगों की कोई नहीं सुनता’। ‘मूकनायक’ समाचार–पत्र दलितों की सदियों की खामोशी को तोड़ने के लिए डॉ. आंबेडकर ने शुरू किया था और करीब 7 महीने के भीतर ही उन्होंने दलितों की आवाज ‘मूकनायक’ के माध्यम से देश के साथ–साथ बल्कि विश्व पटल पर पहुंचा दिया। ‘मूकनायक’ के निकलने के समय गांधी कांग्रेस की न केवल बागडोर संभाल चुके थे, बल्कि सर्वेसर्वा बन गए थे। ब्रिटिश शासन से भारत के स्वराज की मांग जोर पकड़ रही थी।
‘मूकनायक’ के माध्यम से मूकनायकों के नेता डॉ. आंबेडकर ने यह तीखा सवाल पुरजोर तरीके से प्रस्तुत किया कि यह स्वराज किसके लिए? क्या यह स्वराज बहिष्कृतों–अछूतों (दलितों) के लिए भी होगा? क्या इसमें उनकी भी बराबरी के आधार पर सहभागिता होगी? या यह स्वराज सदियों से अछूत कहे जाने वाले लोगों पर अत्याचार कर रहे उच्च जातियों का स्वराज होगा?
डॉ. आंबेडकर द्वारा लिखे गए 12 संपादकीय में से 4 तो सीधे तौर पर स्वराज के प्रश्न से जुड़े हुए हैं और अन्य संपादकीय एवं लेखों में भारत में स्वराज का प्रश्न और उसमें बहिष्कृतों की हिस्सेदारी का प्रश्न केंद्रीय चिंता का प्रश्न है। जैसा कि मैं ऊपर जिक्र कर चुका हूं कि इस संदर्भ में ‘बम्बई टाइम्स’ को लिखे अपने एक पत्र में आंबेडकर ने लिखा, “स्वराज जैसा ब्राह्मणों का जन्मसिद्ध अधिकार है, वैसा ही वह महारों का भी है..।” (धनंजय कीर, पृ. 40)
‘स्वराज्य का महत्व सुराज्य में नहीं है’, ‘स्वराज के माता–पिता’, ‘वह स्वराज्य नहीं है, हमारे ऊपर राज्य करना है’, और स्वराज में हमारा आरोहण, उसका प्रमाण तथा उसकी प्रणाली– ये चार सीधे स्वराज्य के प्रश्न से जुड़ी संपादकीय हैं। इसके अलावा ‘घबराएंगे इसलिए’, ‘मुसलमान ब्राह्मण न बन गए’ और ‘क्या भैंसा कभी दूध देगा’ शीर्षक संपादकीय भी स्वराज में बहिष्कृत समाज की हिस्सेदारी का प्रश्न ही मुख्य प्रश्न है। ‘मूकनायक’ के संपादकीय में बहिष्कृत समाज के लिए स्वतंत्र प्रतिनिधित्व की मांग की जरूरत को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैं– “जाति-भेद और जातिद्वेष से ग्रसित भारत जैसे समाज में सच्चे स्वराज की स्थापना करने के लिए बहिष्कृत वर्ग को स्वतंत्र प्रतिनिधित्व की मांग करनी होगी। स्वतंत्र प्रतिनिधित्व के द्वारा राजनीतिक सत्ता में समुचित भागीदारी की मांग करनी होगी। स्वतंत्र प्रतिनिधित्व की मांग का उच्चवर्णीय अधिकारियों ने झूठा विरोध किया है। इस बदसलूकी की शिकायत बहिष्कृत वर्ग ने की है। राजनीतिक सत्ता के बल पर समाजिक भेदभाव को जबरदस्ती थोप कर उसे स्थायी बनाने की धोखाधड़ी को बहिष्कृत वर्ग अब पहचान चुका है, यही अछूतों में पनप रही जागरूकता की पहचान है। (मूकनायक, सं. वासनिक, पृ. 34)
‘स्वराज का महत्व सुराज में नहीं है’ शीर्षक संपादकीय में कांग्रेस की स्वराज्य की मांग के संदर्भ में सवाल उठाते हैं कि “स्वराज किसका और किससे लिए, हम इसे समझे बगैर स्वराज्य की महत्ता का बखान नहीं कर सकते हैं। कोई अगर करता है तो उस बेचारे का क्या करें?” (‘मूकनायक’, सं. वासनिक, पृ.45)
वे स्वराज्य के लिए संघर्ष करने वालों द्वारा दिए जाने वाले तर्कों की विवेचना करते हुए कहते हैं कि यदि व्यक्ति के स्वाभिमान के लिए स्वराज्य यानी ब्रिटिश शासन से मुक्ति की आवश्यकता है तो यह बात सबसे अधिक 6 करोड़ बहिष्कृतों पर लागू होती है। क्या इन बहिष्कृतों के स्वाभिमान के विकास के लिए ब्राह्मणी राज्य से मुक्ति जरूरी नहीं है। वे स्वराजियों से प्रश्न पूछते हैं कि उन्होंने “छह करोड़ बहिष्कृत लोगों के व्यक्तित्व के विकास का मार्ग खोलने के लिए क्या किया है? ऐसा उनसे पुन: पूछने के लिए हमें मजबूर होना पड़ता है। जैसे परकीयों (विदेशी लोगों) के वर्चस्व एवं क्रिया–कलापों की वजह से हिंदी लोगों ( भारतीय) में हो रही हीनता है वैसे ही इस राष्ट्रीय सभा (कांग्रेस) को दिखाई देती है, वैसी ही स्वकीयों (देशी लोगों–उच्च जातियों) के वर्चस्व और क्रिया–कलापों की वजह से इन बहिष्कृत लोगों में उत्पन्न हुई हीनता इन्हें क्यों नहीं दिखाई देती। (‘मूकनायक’, सं. वासनिक, पृ.57)
‘मूकनायक’ की स्वराज संबंधी संपादकीय लेखों में कहीं भी डॉ. आंबेडकर ब्रिटिश शासन की जगह स्वराज्य की कांग्रेस की मांग का विरोध नहीं करते हैं। वे तीन प्रश्न उठाते हैं– पहला, जो लोग अपने लिए स्वराज्य की मांग कर रहे हैं, वे बहिष्कृतों को अपनी गुलामी से मुक्त कर स्वराज्य देने को तैयार हैं या नहीं? बहिष्कृत अपने लिए स्वराज्य हासिल कर सके इसके लिए जरूरी है कि उनका पृथक राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाए, क्या इसके लिए स्वराजी (कांग्रेस) तैयार है या नहीं? तीसरा स्वराज्य में बहिष्कृतों को समान अधिकार प्राप्त होंगे या नहीं? यह सब कुछ वे भारत में ब्रिटिश सत्ता की समाप्ति से पहले हल कर लेना चाहते हैं, इस मामले में वे स्वराजियों पर विश्वास करने को तैयार नहीं है क्योंकि स्वराजियों का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में है जो बहिष्कृतों को अपनी आधीनता में रखना चाहते हैं। ‘मूकनायक’ में डॉ. आंबेडकर का स्वराज संबंधी विमर्श इस बात का संकेत देता है कि वे भी स्वाधीनता के लिए ही संघर्ष कर रहे थे, लेकिन उनके स्वाधीनता संघर्ष का दायरा स्वराजियों (कांग्रेसियों) की तरह केवल ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति तक सीमित नहीं था। उनके स्वाधीनता संघर्ष का दायरा स्वराजियों के दायरे से गहरा और व्यापक था। इसे ही रेखांकित करते हुए गेल ओमवेट लिखती हैं कि– “डॉ. आंबेडकर का जीवनकाल बीसवीं सदी के प्रथम भाग में पड़ता है। यही वह अवधि थी जब भारतीय स्वाधीनता संग्राम अपने निर्णायक चरण में था। आंबेडकर की बुनियादी लड़ाई एक अलग स्वाधीनता की लड़ाई थी। यह लड़ाई भारतीय समाज के सर्वाधिक संतप्त वर्ग की मुक्ति की लड़ाई थी। उनका स्वाधीनता संग्राम उपनिवेशवाद के विरुद्ध चलाए जा रहे स्वाधीनता संग्राम से वृहत और गहरा था। उनकी नजर नवराष्ट्र के निर्माण पर थी।” (गेल ओमवेट, पृ.149)
डॉ. आंबेडकर को यह अच्छी तरह अहसास था कि बहिष्कृतों (दलितों) को उनका हक दिलाने के लिए कई स्तर पर संघर्ष करना होगा। एक तरफ ब्रिटिश सत्ता से अपने हक–हकूक की मांग करनी होगी, दूसरी तरफ स्वराजियों से अपने हकों के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। लेकिन यह सब तभी संभव है, जब बहिष्कृत समाज शिक्षित बने और आपस में संगठित हो। ‘मूकनायक’ की हर संपादकीय और उसमें प्रकाशित लेखों में इसे स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। विशेषकर 21-22 मार्च 1920 को दक्षिण महाराष्ट्र बहिष्कृत वर्ग की परिषद माणगांव, कोल्हापुर रियासत और 30 मई 1920 को हुए अखिल भारतीय बहिष्कृत समाज परिषद, नागपुर की रिपोर्टों में देखा जा सकता है। बहिष्कृत समाज की इन दोनों परिषदों की बहसों और कार्यवाहियों का विस्तृत ब्यौरा ‘मूकनायक’ में प्रकाशित है। बहिष्कृत समाज के इन दोनों सम्मेलनों में विस्तार से इस समाज की अवनति के कारणों और इससे बाहर निकलने के उपायों पर विस्तृत चर्चा हुई। शाहू जी की उपस्थिति में हुई इस सभा की अध्यक्षता डॉ. आंबेडकर ने की थी। इस सभा में शाहू जी ने डॉ. आंबेडकर को अपना मित्र कहते हुए उनका अभिनंदन किया और ‘मूकनायक’ समाचार–पत्र की चर्चा की। उन्होंने कहा कि “मेरे मित्र डॉ. आंबेडकर ने आज इस सभा का अध्यक्ष पद स्वीकार किया है। मुझे भी उनके भाषण का लाभ मिलना चाहिए, इसलिए शिकार छोड़कर यहां आया हूं। मिस्टर आंबेडकर ‘मूकनायक’ समाचार–पत्र निकालते हैं तथा सभी पिछड़ी जातियों का परामर्श लेते हैं। इसके लिए मैं उनका सम्मानपूर्वक अभिनंदन करता हूं।” (‘मूकनायक’, सं, वासनिक पृ.91)
सभा ने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि “हमारे बहिष्कृत वर्ग की स्थिति जन्मसिद्ध अयोग्यता और अपवित्रता के कारण बहुत चिंताजनक हो गई है। सदियों से उन्हें अयोग्य और अपवित्र मान लेने के कारण आज उनका नैतिक दृष्टि से स्वबल और स्वाभिमान नष्ट हो गया है। मनुष्य की उन्नति के लिए स्वाभिमान और स्वबल का होना आवश्यक है।” (मूकनायक,सं.वासनिक पृ. 90)
इसका कारण प्रतिकूल परिस्थितियों को मानते हुए परिषद ने एक स्वर से डॉ. आंबेडकर का समर्थन करते हुए कहा कि “प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के उपाय सुझाए जाते हैं, परंतु इसके लिए हम लोगों को राजनीतिक बल प्राप्त करना चाहिए और हमें जातिवार प्रतिनिधित्व प्राप्त करना चाहिए। जातिवार प्रतिनिधित्व के बगैर राजनीतिक शक्ति प्राप्त नहीं होगी। ‘सत्यमेव जयते’ खोखला सिद्धांत है। सत्य पर विजय प्राप्त करने के लिए हमें अपना आंदोलन जारी रखना चाहिए।” (मूकनायक,सं. वासनिक पृ.91)
डॉ. आंबेडकर दुनिया के उन व्यक्तित्वों में शामिल थे, जो अपनी प्रतिबद्धताओं और प्रयोजनों को छिपाते नहीं थे। उन्होंने साफ शब्दों में बार–बार यह घोषित किया था कि उनकी पहली प्रतिबद्धता अस्पृश्य कहे जाने वाले लोगों के प्रति थी। न केवल ‘मूकनायक’ के संपादक के तौर पर बल्कि 1939 में भी उन्होंने अपनी इस प्रतिबद्धता को पुरजोर शब्दों में इस रूप में प्रकट किया– “जब मेरे निजी हितों और देश के हितों के बीच कोई टकराव रहा है, मैंने हमेशा अपने निजी दावों के मुकाबले देश के दावों को ऊंचा दर्जा दिया है…। मगर मैं इस देश के लोगों के जेहन में इस विषय में कोई संदेह शेष नहीं छोड़ना चाहता कि मेरी एक और निष्ठा भी है जिसको मैं कभी त्याग नहीं सकता। यह निष्ठा अस्पृश्यों के समुदाय के प्रति है, जिसमें मैं खुद पैदा हुआ हूं, जहां से मैं आता हूं और आशा करता हूं कि इसे मैं कभी भी छोड़ नहीं पाऊंगा।” (डॉ. आंबेडकर, वाल्यूम-2, पृ.258)
‘मूकनायक’ में भी उनकी यह प्रतिबद्धता दिखाई देती है। लेकिन अछूतों की मुक्ति का रास्ता क्या हो, इस विषय में 1920 के आसपास दो संभावनाओं पर वे विचार कर रहे थे। इस संदर्भ में डॉ. आंबेडकर के अध्येता क्रिस्टॉफ जैफरलॉ लिखते हैं कि “ ‘मूकनायक’ के पहले संपादकीय में डॉ. आंबेडकर दो संभावनाओं के बीच झूल रहे हैं कि अस्पृश्य के पास खुद अपने मंदिर होने चाहिए या उसे हिंदुओं के मंदिर में प्रवेश के लिए दबाव बनाना चाहिए… लेकिन 1920 के आखिर तक डॉ. आंबेडकर सांस्कृतिककरण के तर्क से खुद को दृढ़तापूर्वक मुक्त कर चुके थे और उन्होंने जाति व्यवस्था को पूरी तरह नकार दिया था। इतना ही नहीं, वे इससे एक कदम और आगे गए और उन्होंने भक्ति परंपरा द्वारा सुझाए मार्ग को भी खारिज कर दिया।” (क्रिस्टॉफ जैफरलॉ, पृ.64)।
डॉ. आंबेडकर द्वारा ‘मूकनायक’ के संपादन के सात महीने बहिष्कृतों (अछूतों) की मुक्ति के रास्ते के तलाश के सात महीने हैं। इन सात महीनों के गंभीर चिंतन–मनन, लेखन और संघर्ष के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जाति के विनाश और सत्ता में हिस्सेदारी के बिना बहिष्कृतों की मुक्ति संभव नहीं है और इसके लिए आवश्यक है कि बहिष्कृत समाज खुद को शिक्षित करे और आपसी बंटवारों को तोड़कर खुद को संगठित करे।
संदर्भ :
- मनु की विक्षिप्तता के विरुद्ध, चयन एवं प्रस्तुति : शर्मिला रेगे, अनुवाद: डॉ. अनुपमा गुप्ता, दी मार्जिनालाइज्ड,2019
- ‘मूकनायक’, डॉ. बी. आर. आंबेडकर, अनुवाद, विनय कुमार वासनिक, सम्यक प्रकाशन, 2019,
- बाबासाहेब, डॉ. आंबेडकर, संपूर्ण वांग्मय, डॉ. आंबेडकर शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली
- डॉ. आंबेडकर प्रबुद्ध भारत की ओर, गेल ओमवेट, पेंगुइन बुक्स, नई दिल्ली, 2005
- डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर जीवन–चरित, धनंजय कीर, पापुलर प्रकाशन, मुबई, 2018
- डॉ. बाबा साहब, आंबेडकर, वसंत मून, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नई दिल्ली,1991
- बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की संघर्ष–यात्रा एवं संदेश, डॉ.म.ला. शहारे, डॉ. नलिनी अनिल, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014
- डॉ. बाबा साहब, आंबेडकर, वसंत मून, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नई दिल्ली,1991
- ‘मूकनायक’, डॉ. आंबेडकर, अनुवाद तथा संपादन, डॉ. श्यौराज सिंह बैचैन, गौतम बुक सेंटर, दिल्ली, 2019
- बहिष्कृत भारत में प्रकाशित, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के संपादकीय. अनुवादक, प्रभाकर गजभिये, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017
(संपादन : नवल)