‘मूकनायक’ के प्रकाशन की सौवीं वर्षगांठ के मौके पर हम याद कर रहे हैं डॉ. आंबेडकर के पत्रकार व्यक्तित्व को। उनकी पत्रकारिता का काल 1920 से 1956 तक विस्तारित है। मसलन, ‘मूकनायक’ का पहला अंक उन्होंने 31 जनवरी, 1920 को निकाला, जबकि अंतिम अखबार ‘प्रबुद्ध भारत’ का पहला अंक 4 फरवरी, 1956 को प्रकाशित हुआ।
इस अवसर पर हम डॉ. आंबेडकर के पत्रकार व्यक्तित्व पर विशेष श्रृंखला के तहत उन लेखों का प्रकाशन करेंगे, जो उनकी पत्रकारिता पर केंद्रित होंगे। साथ ही, जो उनके पत्रकारिता के मानदंडों, मूल्यों और उसकी वैचारिकी से अवगत कराएंगे। इसकी शुरुआत हम 71वें गणतंत्र दिवस के मौके पर कर रहे हैं। आज पढ़ें, डॉ. सिद्धार्थ का लेख, जिसमें वे डॉ. आंबेडकर की पत्रकारिता के प्रतिमानों के बारे में बता रहे हैं
डॉ. आंबेडकर की पत्रकारिता के प्रतिमान
- सिद्धार्थ
डॉ. आंबेडकर ने 27 सितंबर, 1951 को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। अपने त्यागपत्र देने के कारणों के संबंध में उन्होंने एक वक्तव्य 10 अक्टूबर 1951 को नई दिल्ली में जारी किया था। संसद के बाहर इस वक्तव्य को जारी करने का कारण यह था कि संसद में उन्हें यह वक्तव्य देने से रोका गया था, क्योंकि वे वक्तव्य की प्रति अध्यक्ष को भाषण से पहले नहीं सौंपना चाहते थे।
यह वक्तव्य उनके त्यागपत्र देने के कारणों के संबंध में था। इस वक्तव्य में संसद को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें तीन वजहों से त्यागपत्र के संबंध में वक्तव्य देना पड़ रहा है। तीसरी वजह पत्रकारिता से संबंधित है। उन्होंने कहा कि “तीसरे, हमारे यहां के अखबार भी हैं, जो कुछ लोगों के लिए सदियों पुराने पक्षपात और अन्य के खिलाफ पूर्वाग्रह रखते आए हैं। उनकी धारणाएं तथ्यों पर कम ही आधारित होती हैं। जब उन्हें कोई रिक्त स्थान दिखाई देता है, वे उसे भरने के लिए ऐसी बातों का सहारा लेते हैं, जिसमें उनके प्रिय लोग बेहतर नजर आएं और जिनका वे पक्ष नहीं लेते, वे गलत नजर आएं। ऐसा ही कुछ मेरे मामले में हुआ है, ऐसा मुझे लगता है।” (शर्मिला रेगे, पृ .258)।
कल्पना कीजिए, डॉ. आंबेडकर जैसे व्यक्तित्व को अखबारों के सदियों पुराने पक्षपात और पूर्वाग्रह ने इस कदर व्यथित किया कि उन्हें सार्वजनिक तौर पर उनके पक्षपातपूर्ण, पूर्वाग्रह ग्रसित और तथ्यहीन रवैये की हकीकत को लोगों के सामने उजागर करने के लिए वक्तव्य जारी करना पड़ा। अखबारों के चरित्र के बारे में डॉ. आंबेडकर के वक्तव्य पर गौर करें तो चार बातें सामने आती हैं। पहली बात यह कि 1951 में भी पक्षपात और पूर्वाग्रहयुक्त नजरिया भारतीय अखबारों का पहला लक्षण था। दूसरी बात यह कि अखबारों की रिपोर्टें तथ्यों पर आधारित नहीं होती थीं और तीसरी बात यह कि वे सच को ऐसे प्रस्तुत करते हैं जिससे उनके पसंदीदा लोग सही नजर आएं और जिन्हें वे नापसंद करते हैं, उनकी गलत तस्वीर प्रस्तुत हो। चौथी बात यह कि अखबारों के इस तरह के बर्ताव का शिकार डॉ. आंबेडकर जैसा व्यक्तित्व भी उस समय हुआ, जब वे भारत के संविधान के मुख्य वास्तुकार के रूप में स्थापित हो चुके थे और केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य थे तथा उस समय संसद के सदस्य और भारत के चंद शीर्ष नेताओं एवं शख्सियतों में एक थे।
अखबारों के चरित्र संबंधी डॉ. आंबेडकर के उपरोक्त वक्तव्य में ध्यान देने की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे सदियों पुराने पक्षपात और पूर्वाग्रह की बात कर रहे हैं। कोई भी सहज निष्कर्ष निकाल सकता है कि यहां सीधा इशारा सदियों पुराने जातिगत पक्षपात और पूर्वाग्रह की तरफ है। इस वक्तव्य में वे परोक्ष तौर पर यह भी रेखांकित कर रहे हैं कि किसी भी अखबार को किन बुनियादी शर्तों का पालन करना चाहिए। पहला यह कि किसी भी अखबार को पक्षपातहीन और पूर्वाग्रह मुक्त रिपोर्टिंग करनी चाहिए। दूसरी बात, यह रिपोर्टिंग तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए न कि मनोगत धारणाओं पर। तीसरी बात यह कि किसी भी व्यक्तित्व को नायक या खलनायक अपनी पसंद–नापसंद के आधार पर नहीं, बल्कि तथ्यों के आधार पर बनाना चाहिए।
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अधिकांश भारतीय अखबार सदियों पुराने जातिगत पक्षपात और जाति आधिरत पूर्वाग्रह और पक्षपात से ग्रस्त हैं, जिसका अहसास बाबासाहेब को वर्षों पहले ही हो गया था। इसकी सबसे पहली मुखर अभिव्यक्ति 31 जनवरी, 1920 को ‘मूकनायक’ पाक्षिक के प्रथम संपादकीय/अग्रलेख में इस रूप में हुई– “मुंबई से निकलने वाले समाचार पत्रों को बारीकी से देखा जाए तो पता चलता है कि उनमें अधिकतर पत्र किसी विशिष्ट जाति के हित को संरक्षित करते हैं। दूसरी जातियों की उन्हें परवाह नहीं। इतना ही नहीं, कभी–कभी उन्हें नुकसान पहुंचाने वाली बातें भी उन पत्रों में दिखाई देती हैं” (‘मूकनायक’, पृ. 34)।
चूंकि अधिकांश अखबार जातीय पक्षपात और पूर्वाग्रह से भरे होने के साथ अन्य जातियों (बहिष्कृतों) के हितों को नुकसान भी पहुंचा रहे थे। इस स्थिति में डॉ. आंबेडकर को बहिष्कृतों के हितों की रक्षा करने के लिए अखबार की सख्त जरूरत महसूस हुई। उन्होंने लिखा– “बहिष्कृत लोगों पर आज हो रहे और भविष्य में होने वाले अन्याय पर योजनाबद्ध तरीके से विचार करना होगा। उसी के साथ भावी प्रगति तथा उसे प्राप्त करने के रास्ते की सच्ची जानकारी के संबंध में भी चर्चा करनी होगी। चर्चा करने के लिए समाचार–पत्र जैसी दूसरी जगह नहीं है” (मूकनायक, पृ.34)
उपर्युक्त पंक्तियों में सबसे अंतिम पंक्ति पर ध्यान देना अत्यन्त जरूरी है, जिसमें उन्होंने रेखांकित किया है कि बहिष्कृतों के हितों के लिए समाचार–पत्र कितना महत्वपूर्ण हैं । यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि आंबेडकर के लिए यहां बहिष्कृत का अर्थ अछूत कहे जाने वाले समुदाय से है। ‘मूकनायक’ के पहले संपादकीय में उन्होंने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है– “ सत्ता और ज्ञान के अभाव में ब्राह्मणेत्तर (मुख्य रूप से वर्त्तमान के ओबीसी) पिछड़े रह गए। यही कारण है कि उनकी प्रगति नहीं हो सकी, यह बात स्पष्ट है। परंतु उनके दुख में दरिद्रता शामिल नहीं थी क्योंकि उनके लिए खेती, व्यापार–उद्योग अथवा नौकरी करके जीवन–यापन करना कठिन नहीं था। लेकिन सामाजिक भेद–भाव के कारण अछूत, बहिष्कृत समाज पर जो प्रभाव पड़ा, वह बड़ा ही भयानक है। दुर्बलता, द्ररिद्रता और अज्ञान की त्रिवेणी (तीन नदियों का मिलन स्थल) में इतना बड़ा बहिष्कृत, अछूत समाज पूर्णत: बह गया है” (मूकनायक पृ. 33)।
उपर्युक्त पंक्तियों से स्पष्ट है कि डॉ. आंबेडकर बहिष्कृत और अछूत शब्द का प्रयोग एक दूसरे के पर्याय के रूप में कर रहे हैं और इसी बहिष्कृत समाज पर होने वाले अत्याचारों से दुनिया को परिचित कराने और इससे मुक्ति के उपायों पर विचार करने के लिए उन्होंने अपना पहला अखबार ‘मूकनायक’ निकाला था। लेकिन यहां भी स्पष्ट कर लेना जरूरी है कि उन्होंने अपने इस अखबार और उनके द्वारा बाद में निकाले गए अन्य चार अखबारों (बहिष्कृत भारत, समता, जनता और प्रबुद्ध भारत) को कभी भी उन्होंने सदियों के जातीय पक्षपात और पूर्वाग्रह से ग्रसित होने नहीं दिया। उनका मानना था कि यदि कोई अखबार किसी जाति विशेष को नुकसान पहुंचाता है तो वह पूरे समाज का अहित करता है जिसमें सभी जातियां शामिल हैं। इस तथ्य को उन्होंने ‘मूकनायक’ के पहले ही संपादकीय में एक ही नांव (पानी वाली जहाज) में सवार लोगों के उदाहरण से समझाया। जातिवादी समाचार–पत्रों को चेताते और समझाते हुए उन्होंने लिखा– “ऐसे समाचार–पत्रों से हमारा कहना है कि समाज में यदि कोई एक जाति पतन की ओर जाती है तब उसकी अवनति का कलंक दूसरी जातियों पर लगने से रोका नहीं जा सकता है। समाज एक नाव की तरह ही है। जिस तरह किसी बोट (पानी वाली जहाज) में बैठकर सफर कर रहे होते हैं। यदि उसी समय किसी यात्री के मन में जान–बूझकर दूसरे यात्रियों को हानि पहुंचाने की इच्छा उठती है तो इस तरह हानि पहुंचाने की नीयत से उठी गड़बड़ी देखने लायक होती है। किसी यात्री ने अपने दुष्ट स्वभाव के कारण यदि दूसरे के कमरे ( पानी की जहाजों में अलग-अलग कमरे होते हैं) में छेद कर दिया तो बोट में दूसरों के साथ देर से ही सही स्वयं उसे भी डूब कर जल समाधि लेनी पड़ेगी यानी मरना पड़ेगा। उसी तरह एक जाति का नुकसान करने से, प्रत्यक्ष न सही पर अप्रत्यक्ष रूप से दूसरी जाति को हानि पहुंचाने वाली जाति की भी हानि निश्चित है। यहां संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए स्वयं का हित साधने वाले समाचार–पत्रों द्वारा दूसरों का नुकसान करके, अपना हित साधने की मूर्खता से हम लोगों को सीखने की आवश्यकता नहीं है” ( मूकनायक, पृ.34)।
उपर्युक्त पंक्तियों में डॉ. आंबेडकर यह इस बात की घोषणा कर दी थी कि उनका अखबार किसी जाति विशेष के हितों को नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं, बल्कि एक समाज के नवनिर्माण के लिए है, जिसमें कोई किसी का अहित न करे और सबके हितों की रक्षा हो।
भारतीय समाचार–पत्रों के जातिवादी चरित्र के साथ ही पत्रकारिता के व्यवसायिक स्वरूप और अनैतिक आचरण से आंबेडकर व्यथित और आक्रोशित थे। अपनी व्यथा को उन्होंने इन शब्दों में प्रकट किया– “भारत में पत्रकारिता पहले एक पेशा थी। अब वह एक व्यापार बन गई है। अखबार चलाने वालों को नैतिकता से उतना ही मतलब रहता है जितना कि किसी साबुन बनाने वाले को। पत्रकारिता स्वयं को जनता के जिम्मेदार सलाहकार के रूप में नहीं देखती। भारत में पत्रकार यह नहीं मानते कि बिना किसी प्रयोजन के समाचार देना, निर्भयतापूर्वक उन लोगों की निंदा करना जो गलत रास्ते पर जा रहे हों– फिर चाहे वे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हों, पूरे समुदाय के हितों की रक्षा करने वाली नीति को प्रतिपादित करना उनका पहला और प्राथमिक कर्तव्य है। व्यक्ति पूजा उनका मुख्य कर्तव्य बन गया है। भारतीय प्रेस में समाचार को सनसनीखेज बनाना, तार्किक विचारों के स्थान पर अतार्किक जुनूनी बातें लिखना और जिम्मेदार लोगों की बुद्धि को जाग्रत करने के बजाय गैर–जिम्मेदार लोगों की भावनाएं भड़काना आम बात हैं। … व्यक्ति पूजा की खातिर देश के हितों की इतनी विवेकहीन बलि इसके पहले कभी नहीं दी गई। व्यक्ति पूजा कभी इतनी अंधी नहीं थी जितनी कि वह आज के भारत में है। मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता होती है कि इसके कुछ सम्मानित अपवाद हैं, परंतु उनकी संख्या बहुत कम है और उनकी आवाज़ कभी सुनी नहीं जाती।’’ (बाबासाहेब, डॉ. आंबेडकर, संपूर्ण वांग्मय, खंड-1, पृ. 273)
भारतीय अखबारों के संदर्भ में डॉ. आंबेडकर के उपर्युक्त कथनों का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि इसमें उन्होंने भारतीय अखबारों (मीडिया) के लिए कुछ मानक प्रस्तुत किए हैं जो निम्न हैं–
- पत्रकारिता को पक्षपात और पूर्वाग्रह से मुक्त होना चाहिए। भारत में इसका विशेष संदर्भ जातीय पक्षपात और पूर्वाग्रह है।
- पत्रकारिता तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए, मनोगत धारणाओं पर नहीं।
- पत्रकारिता मिशन होना चाहिए, व्यवसाय नहीं।
- पत्रकारिता और पत्रकारों की अपनी नैतिकता होनी चाहिए।
- निर्भीकता पत्रकारिता और पत्रकार का अनिवार्य लक्षण है।
- सामाजिक हितों का पक्षपोषण करना पत्रकारिता और पत्रकार का कर्तव्य है।
- पत्रकारिता में व्यक्ति पूजा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
- सनसनीखेज खबरों की जगह पत्रकारिता का कार्य वस्तुगत रिपोर्टिंग है।
- जनता की भावनाओं को भड़काने की जगह, उसके तर्क एवं विवेक को जाग्रत करना पत्रकारिता और पत्रकार का दायित्व है।
बहिष्कृत समाज के लिए अखबार की कितनी अहमियत, आंबेडकर महसूस करते थे इसका अंदाजा उनके इस कथन से लगाया जा सकता है– “अछूतों के पास कोई अखबार नहीं है। कांग्रेसी अखबारों ने अपने दरवाजे हमारे लिए बंद कर रखे हैं और उन्होंने यह निश्चय कर रखा है कि वे हमें हमारी बात प्रचारित–प्रसारित करने के लिए थोड़ी भी जगह अपने अखबारों में नहीं देंगे” (डॉ.आंबेडकर, 1993)।
एक तरफ वे बहिष्कृत समाज के लिए अखबार की सख्त जरूरत महूसस कर रहे थे, दूसरी तरफ अखबार निकालने के लिए आवश्यक संसाधनों की कमी से चिंतित एवं निराश थे। अपनी चिंता और निराशा को उन्होंने इन शब्दों में प्रकट किया– “यह निराशाजनक है कि इस कार्य (समाचार–पत्र) के लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। हमारे पास पैसा नहीं है, हमारे पास समाचार–पत्र नहीं है। पूरे भारत में प्रतिदिन हमारे लोग अधिनायकवादी लोगों के बेहरहमी और भेदभाव का शिकार होते हैं लेकिन इन सारी बातों को कोई अखबार जगह नहीं देते हैं। एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत तमाम तरीकों से सामाजिक–राजनीतिक मसलों पर हमारे विचारों को रोकने में शामिल हैं।” (डॉ. आंबेडकर, 1993)।
इतना ही नहीं, उन्हें इस तथ्य का भी अहसास था कि समाचार–पत्रों के मालिक तो उच्च जातियों के हैं ही, उन समाचार एजेंसियों पर भी उच्च जातियों का नियंत्रण है जो समाचारों को वितरित करती हैं। इसका उदाहरण देते हुए डॉ. आंबेडकर लिखते हैं कि “एसोसिएटेड प्रेस ऑफ इंडिया के सभी कर्मचारी मद्रासी ब्राह्मण हैं। एसोसिएटेड प्रेस ही समाचारों की मुख्य प्रसारक एजेंसी है। सच्चाई यह है कि एसोसिएटेड प्रेस ऑफ इंडिया पूरी तरह से इन्हीं के हाथ में है। ये सभी कांग्रेस समर्थक हैं, वे कोई भी ऐसा समाचार नहीं प्रकाशित होने देते जो कांग्रेस के खिलाफ हो। ये ऐसी वजहें हैं जिनके संबंध में अछूत कुछ भी करने की स्थिति में नहीं हैं।” (डॉ. आंबेडकर, 1993)।
भारतीय अखबारों का स्वरूप और चरित्र का गहन अध्ययन एवं विश्लेषण करते हुए और बहिष्कृतों के हितों के लिए अखबार की सख्त आवश्यकता को महसूस करते हुए डॉ. आंबेडकर ने पत्रकारिता जगत में प्रवेश किया। उन्हें इसका गहरा अहसास था कि एक संसाधनहीन समाज के लिए अखबार निकालना कितना चुनौती–भरा और दुसाध्य कार्य है। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए करीब 29 वर्ष की उम्र में उन्होंने पहला अखबार ‘मूकनायक’ निकाला और आजीवन खुद को पत्रकारिता से अलग नहीं कर पाए। पत्रकारिता उनके संघर्षों का एक महत्वपूर्ण उपकरण हमेशा बनी रही।
डॉ. आंबेडकर ने 65 वर्ष 7 महीने 22 दिन के अपनी जिंदगी में करीब 36 वर्ष तक पत्रकारिता की। हां, बीच–बीच में कुछ अंतराल आते रहें। उनकी पत्रकारिता का काल 1920 से 1956 तक विस्तारित है। ‘मूकनायक’ का पहला अंक 31 जनवरी 1920 को निकला, जबकि अंतिम अखबार ‘प्रबुद्ध भारत’ का पहला अंक 4 फरवरी, 1956 को प्रकाशित हुआ। इसके बीच में ‘बहिष्कृत भारत’ का पहला अंक 3 अप्रैल 1927 को, ‘समता’ का पहला अंक 29 जून 1928 और ‘जनता’ का पहला 24 नवंबर 1930 को प्रकाशित हुआ।
‘मूकनायक’ से ‘प्रबुद्ध भारत’ तक की उनकी यात्रा उनके जीवन–यात्रा, चिंतन–यात्रा और संघर्ष–यात्रा का भी प्रतीक है। ‘मूकनायक’ (डॉ. आंबेडकर) ‘प्रबुद्ध भारत’ में ही अपनी और पूरे भारतीय समाज की मुक्ति देखता है। डॉ. आंबेडकर की पत्रकारिता का संघर्ष ‘मूकनायक’ के माध्यम से मूक लोगों की आवाज बनने से शुरू होकर ‘प्रबुद्ध भारत’ के निर्माण के स्वप्न के साथ विराम लेती है। ‘प्रबुद्ध भारत’ अर्थात एक नए भारत का निर्माण। डॉ. आंबेडकर की गहन अध्येता गेल ओमवेट इसे नए राष्ट्र के निर्माण हेतु डॉ. आंबेडकर का स्वप्न कहती हैं – “डॉ. आंबेडकर का बुनियादी संघर्ष एक अलग स्वाधीनता का संघर्ष था। यह संघर्ष भारतीय समाज के सर्वाधिक संतप्त वर्ग की मुक्ति का संघर्ष था। उनका स्वाधीनता संग्राम उपनिवेशवाद के विरुध चलाए जा रहे स्वाधीनता संग्राम से वृहत और गहरा था। उनकी नजर नवराष्ट्र के निर्माण पर थी” (गेल ओमवेट, पृ.149)।
डॉ. आंबेडकर की पत्रकारिता और उनके सारे समाचार–पत्रों का यदि विश्लेषण किया जाए तो हम पायेंगे कि वे एक पत्रकार के रूप में भी बहिष्कृत समाज की मुक्ति के साथ नए राष्ट्र के निर्माण के लिए कार्य करते रहें क्योंकि उनको इस तथ्य का गहरा अहसास था कि बहिष्कृत भारत (दलित समाज) की पूर्ण मुक्ति और प्रबुद्ध भारत का निर्माण एक दूसरे के पर्याय हैं।
संदर्भ :
- मनु की विक्षिप्तता के विरुद्ध, चयन एवं प्रस्तुति : शर्मिला रेगे, अनुवाद: डॉ. अनुपमा गुप्ता, मार्जिनालाइज्ड,2019
- ‘मूकनायक’, डॉ. बी. आर. आंबेडकर, अनुवाद, विनय कुमार वासनिक, सम्यक प्रकाशन, 2019,
- बाबासाहेब, डॉ. आंबेडकर, संपूर्ण वांग्मय, डॉ. आंबेडकर शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली
- डॉ. आंबेडकर प्रबुद्ध भारत की ओर, गेल ओमवेट, पेंगुइन बुक्स, नई दिल्ली, 2005
- डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेज, महाराष्ट्र सरकार, 1993
- डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर जीवन–चरित, धनंजय कीर, पापुलर प्रकाशन, मुबई, 2018
- बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की संघर्ष–यात्रा एवं संदेश, डॉ.म.ला. शहारे, डॉ. नलिनी अनिल, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014
- डॉ. बाबा साहब, आंबेडकर, वसंत मून, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नई दिल्ली,1991
- ‘मूकनायक’, डॉ. आंबेडकर, अनुवाद तथा संपादन, डॉ. श्यौराज सिंह बैचैन, गौतम बुक सेंटर, दिल्ली, 2019
- बहिष्कृत भारत में प्रकाशित, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के संपादकीय. अनुवादक, प्रभाकर गजभिये, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017
(संपादन : गोल्डी / नवल)