जननायक कर्पूरी ठाकुर (24 जनवरी, 1924 – 17 फरवरी, 1988) पर विशेष
क्या आप जानते हैं कि जिस दिन जननायक कर्पूरी ठाकुर पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने, उसी दिन उनके पिता को एक सामंत ने छड़ी से पीटा था। वह भी इसलिए कि वे सामंत की हजामत नहीं बना पाए थे। शायद पाठकों को जानकर आर्श्चय हो, लेकिन सच है कि सीएम और लंबे समय तक नेता प्रतिपक्ष रहने के बावजूद उनके खाते में पांच सौ से भी कम रुपए थे। विचारों के प्रति उनकी दृढता तब भी बनी रही जब उन्होंने मुंगेरीलाल कमीशन की अनुशंसाओं को लागू करते हुए पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण लागू किया था और तब उनके घर की महिला सदस्यों को गालियां दी गईं।
आखिर किस मिट्टी के बने थे जननायक, जिन पर विरोधियों के तीखे हमलों का भी असर नहीं होता था? वे अपने विचारों और फैसलों से डिगते नहीं थे। उनका जीवन कैसा था और किस माहौल से निकलकर वे बिहार की सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे? यही जानने की इच्छा लिए मैं वर्ष 2016 में उनके गांव पितौंझिया (अब कर्पूरी ग्राम) पहुंचा। उनके गांव में ब्राह्मण-राजपूत जाति के लोग भी रहते हैं। कुछ तो उनके पड़ोसी भी हैं। गांव में घुसने के बाद जब जननायक के घर के बारे में पूछा तो मालूम चला कि गांव के आखिरी छोर पर उनका घर है जो कागजी तौर पर तो संग्रहालय है लेकिन वहां उनके परिजन रहते हैं। उनका घर पक्का का बन गया है। यह देख मुझे आश्चर्य हुआ। उनके पड़ोसियों ने बताया कि जबतक जननायक थे, तब तक उनका यह घर कच्चा ही था। खपड़ैल का था।
यह संयोग ही था कि उस दिन जननायक के पुत्र व राज्यसभा सांसद रामनाथ ठाकुर गांव में मौजूद थे। यह जानकारी तब मिली जब मैंने उन्हें फोन किया। उन्होंने कहा कि गांव में ही अपने घर में हूं। आ जाइए। पड़ोसियों से पूछा तो जानकारी मिली कि रामनाथ ठाकुर ने एक बड़ा मकान बनवाया है। वह गांव की दूसरी ओर है मुख्य सड़क पर। सचमुच वह एक बड़ा मकान था। अंदर बैठकी लगी थी। कई लोग थे। रामनाथ ठाकुर ने बताया कि वे भी अभी थोड़ी ही देर पहले आए हैं। मैंने कहा कि आपका पुराना घर देखा मैंने। कुछेक यादों को साझा करें। उनका कहना था कि उसी घर में हम सब भाई-बहनों का जन्म हुआ। उन्होंने बताया कि वे अपनी बहन की शादी का जिक्र करना चाहते हैं। उनके मुताबिक, उनके पिता यानी जननायक तब मुख्यमंत्री थे। बहन की शादी डा. रमेश चंद शर्मा से रांची में तय हुई थी। पहले यह तय हुआ था कि शादी देवघर मंदिर में होगी। लेकिन बाद में परिजनों का फैसला हुआ कि शादी गांव से ही हो। पहले तो पिताजी (जननायक) ने इनकार किया, लेकिन बाद में मान गए।
शादी के पांच दिन पहले वह पितौंझिया आए। सरकारी गाड़ी उन्होंने गांव की बाहरी सीमा पर ही छोड़ दिया। अफसरों को भी खास निर्देश दे दिया कि जब तक शादी खत्म नहीं हो जाती है, तब तक कोई सरकारी अधिकारी गांव में नजर नहीं आएंगे। उन्होंने बिहार सरकार के सरकारी हेलीकॉप्टर के उपयोग पर भी पाबंदी लगा दी थी। उन्हें अहसास था कि उनके कबीना सहयोगी शादी में आ सकते हैं। यह सोचकर उन्होंने किसी को भी आमंत्रित नहीं किया था।
रामनाथ ठाकुर के साथ उनके गांव में घूमते हुए मुझे एक और बेचैन करने वाली जानकारी मिली। रामनाथ ठाकुर ने बताया कि जब पिताजी पहली बार सीएम बने थे तो उनके पिता को यानी मेरे दादाजी को इसी कोठी में (एक टूटे हुए बड़े मकान की ओर इशारा करते हुए) छड़ी से पीटा गया था। मैंने आश्चर्य व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि पिताजी के सीएम बनने की खुशी में बड़ी संख्या में आसपास के लोग उनके पैतृक घर आ गए थे। दादाजी सबकी आगवानी में लगे रह गए। इस कारण उन्हें एक स्थानीय सामंत के यहां जाने में देरी हो गई। वे तब दाढ़ी-बाल बनाते थे। स्थानीय सामंत ने उन्हें (जननायक के पिता) को छड़ियों से पीटा।
इस घटना की जानकारी पिताजी (जननायक) को मिली। वे गांव आए। उनके आने की सूचना मिलते ही पुलिस ने सामंत की कोठी को घेर लिया था। सभी को लग रहा था कि स्थानीय सामंत को गिरफ्तार कर लिया जाएगा। खूब भीड़ जुट चुकी थी। पिताजी (जननायक) आए तो उन्होंने स्थानीय सामंत से कहा कि मेरे पिताजी वृद्ध हो गए हैं। आप कहें तो मैं आपकी हजामत बना दूं।
इससे पहले जननायक को लेकर पहली बार रिपोर्टिंग करने का मौका 2009 में मिला। मुझे मेरे संपादक दीपक पांडे ने कहा कि 24 जनवरी को विशेष सामग्री प्रकाशित करनी है। एक पेज की सामग्री तैयार करो। मेरे लिए यह एक चुनौती भरा काम था। जननायक को जानने और समझने के अलावा लिखने के लिए केवल दो दिनों की मोहलत थी, मेरे पास।
काम तो करना ही था सो लग गया। मेरे संपादक महोदय ताड़ गए कि मुझे क्या परेशानी हो रही है। उन्होंने कहा कि जाओ जाकर बाबा से मिल लो। बाबा ने यदि तुम्हारी सहायता कर दी तो तुम्हारा काम बन जाएगा। बाबा से उनका अभिप्राय अब्दुल बारी सिद्दीकी से था। सिद्दीकी बिहार के बड़े नेताओं में एक हैं। उनसे मिलने उनके आवास पहुंचा। यह पहला अवसर था उनसे मिलने का। बरामदे में बैठने को कहा गया। उनके सहयोगी मिथिलेश यादव और संजय कुमार ने तब बहुत सहयोग किया। उनसे पहले ही मैंने आने का कारण बता दिया था। कुछेक अहम बातें तो उन दोनों ने ही बता दी थी। मसलन, यह कि साहब जननायक के सबसे विश्वस्त सहयोगियों में से एक थे।
कुछ देर के बाद बाबा आए। उन्हें संपादक महोदय का रेफरेंस दिया। उन्होंने कहा कि चलिए पहले आपको कुछ दिखाता हूं। वह एक कमरे में ले गए। वह उनका निजी पुस्तकालय था। वहां दो तस्वीरें थीं। एक बड़ी सी तस्वीर जननायक की और दूसरी स्वयं सिद्दीकी साहब की। कहने लगे कि जननायक की तस्वीर मैंने अपने कैमरे से ली थी। फिर उन्होंने अपने कई कैमरे भी दिखाए।
वे जननायक के बारे में बताते जा रहे थे। आवश्यक बातें मैं नोट भी कर रहा था। वे अचानक रूके। उनके चेहरे पर मुस्कराहट फैल गयी। कहने लगे – लिजीए,आपका काम इससे हो जाएगा। वह जननायक का पासबुक था। उसमें अंतिम इंट्री 1987 के अगस्त माह की थी। कुल जमा राशि पांच सौ रुपए से कम।
जननायक कितनी सादगी से अपना जीवन जीते थे, इसका एक उदाहरण बताते हुए सिद्दीकी साहब ने कहा कि एक बार वे एक कार्यवश दिल्ली गए। साथ में सिद्दीकी साहब भी थे। दिन भर कई मीटिंग के बाद वे (सिद्दीकी साहब) थक गए। बिहार निवास पहुंचने के बाद उन्हें लगा कि अब जननायक आराम करेंगे। रात भी अधिक हो चुकी थी। सिद्दीकी जननायक के बिछावन पर लेट गए। लेटते ही उन्हें नींद आ गयी।
जब यह बात सिद्दीकी साहब बता रहे थे, उनकी आंखें नम हो गईं। कहने लगे कि सुबह उठने पर देखा कि जननायक स्वयं फर्श पर सो रहे हैं।
सचमुच ऐसे ही थे जननायक कर्पूरी ठाकुर।
(संपादन : सिद्धार्थ)