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बहुजन नायकों को चिढ़ाते शब्दों का द्विजवादी तमाशा

गौतम बुद्ध के अनुयायियों को द्विजवादी शक्तियों ने घटिया अर्थ-छाया देकर "बुद्धू"; मूर्ख और "डाकू" लुटेरा बनाया है। "डाक"; बौद्ध तांत्रिक साधक का स्त्रीवाची शब्द "डाकिन अथवा डाकिनी" है। हिंदी में "डाकिनी" भूत या प्रेत योनि की स्त्री को कहा जाता है

गौतम बुद्ध बहुजनों के नायक हैं। उन्होंने भारत में समतामूलक समाज स्थापित करने का अथक प्रयास किया। परंतु द्विजवादियों को समतामूलक समाज पसंद नहीं है। वे जातिमूलक समाज के पक्षधर हैं। इसलिए वे गौतम बुद्ध और उनकी संस्कृति से जुड़े शब्दों को निम्न तथा अश्लील अर्थ दे दिए हैं। इतिहास गवाह है कि गौतम बुद्ध के अनुयायियों को बुद्धू कहा जाता रहा है। कालांतर में द्विजवादी शक्तियों ने उसका अर्थ “मूर्ख अथवा नासमझ व्यक्ति” के लिए किया। आज सभी हिंदी शब्दकोशों में ”बुद्धू का पहला अर्थ विलोपित है। परंतु बुद्धू के “मूर्ख” वाले अर्थ को सभी कोशकारों ने गर्व के साथ दर्ज किया है। यह बहुजन नायकों को चिढ़ाते शब्दों का द्विजवादी तमाशा है।

आशुतोष भट्टाचार्य ने अपनी पुस्तक ”बांग्ला और लोक साहित्य” में लिखा है कि ”डाक” के वचन प्रधानत: नीतिमूलक हैं। ”डाक” कोई व्यक्ति विशेष नहीं हैं। बौद्ध तांत्रिक, साधकों के एक वर्ग को डाक कहा जाता है। यह ”डाक” शब्द मूलत: तिब्बती भाषा से आया है जिसका अर्थ ”प्रज्ञा अथवा ज्ञान” होता है। जिस प्रकार बुद्ध का अर्थ ”ज्ञानी” होता है, वैसे ही ”डाक” से व्युत्पन्न ”डाकू” का अर्थ भी ”ज्ञानी” होता है। तिब्बती भाषा में इसका मूल रूप ”ग्डाग” है जिसका अर्थ ”प्रज्ञा अथवा ज्ञान” है। ”डग्गापन करना” इसी से निष्पन्न हिंदी मुहावरा है। आज किस अर्थ में ”डग्गापन करना और डाकू” का इस्तेमाल होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। जाहिर है कि गौतम बुद्ध के अनुयायियों को द्विजवादी शक्तियों ने घटिया अर्थ-छाया देकर ”बुद्धू”; मूर्ख और ”डाकू” लुटेरा बनाया है। ”डाक”; बौद्ध तांत्रिक साधक का स्त्रीवाची शब्द ”डाकिन अथवा डाकिनी” है। हिंदी में ”डाकिनी” भूत या प्रेत योनि की स्त्री को कहा जाता है। पालि-हिंदी कोश के सहवास, समागम जैसे शब्दों पर विचार करें। पालि भाषा में ”सहवास” का सिर्फ एक अर्थ होता है, वह है-साथ रहना। इसका प्रयोग बौद्ध भिक्षु प्राय: एक ही कमरे में दो विद्यार्थियों का मिलकर रहने के अर्थ में किया करते थे। पर हिंदी शब्दकोशों में इसका एक अन्य अर्थ भी विकसित हो गया, वह है-संभोग अथवा मैथुन। ऐसे ही पालि भाषा में ”समागम” का सिर्फ एक अर्थ होता है, वह है-परिषद् अथवा सभा। पर हिंदी शब्दकोशों में इसका एक अन्य अश्लील अर्थ भी विकसित हो गया, वह है स्त्री-प्रसंग अथवा मैथुन। ऐसा नहीं है कि सभी कुछ भाषा वैज्ञानिक प्रक्रिया से हुआ बल्कि बहुत कुछ द्विजवादियों के बौद्ध धर्म के प्रति दुर्भावनाओं से हुआ।

हम सभी जानते हैं कि बौद्ध साहित्य में शील का अत्यंत महत्व है। शील का महिमागान गौतम बुद्ध ने अनेक स्थानों पर किया है। बौद्ध दर्शन में अष्टशील ग्रहण कर व्रत रखने को ”उपोसथ कर्म” कहा गया है। चरियापिटक में शील की अनेक पारमिताएं हैं। भिक्षुओं के लिए दस प्रकार के शीलों में ”पंचशील” का अत्यंत महत्व है। पर आज का मीडिया ”शील भंग” का इस्तेमाल किस अर्थ में करता है, यह किसी से छिपा नहीं है।

बौद्ध सिद्धों पर व्याभिचार करने और फैलाने के अनेक आरोप लगाए जाते हैं। कई इतिहासकारों ने उनकी कविताओं को अश्लील घोषित कर दिया है। वह इसलिए कि सिद्धों की रचनाएं ब्राह्मण विरोधी हैं। वास्तविकता यह है कि प्राय: सिद्ध निम्न जाति के हुए हैं। इसीलिए उनकी उपासना में डाकिनी, कपाली, डोमिनी और रजकी जैसी निम्न वर्ग की नायिकाएं साधना के अवलंबन के रूप में गृहीत होती थीं। सभी नायिकाएं प्रतीकात्मक हैं। पर आलोचकों सिद्धों को उनके साथ काम मुद्राओं में प्रस्तुत कर दिया है।

नाथ पंथ को सिद्धों की परंपरा की अगली कड़ी माना गया है। नाथपंथियों में सबसे अधिक प्रभावशाली गोरखनाथ हैं। गोरखनाथ के नाम पर हिंदी में एक शब्द प्रचलित है-गोरखधंधा। ”गोरखधंधा” प्राय: ऐसे गलत कार्यों को कहा जाता है, जिसके माध्यम से अवैध कमाई होती है। गौतम बुद्ध की भांति क्या यह एक अन्य बहुजन नायक गोरखनाथ; ग्वाल का अपमान नहीं है ? ऐसे शब्दों के प्रचलन से आगे के दिनों में यह माना जाएगा कि गोरखनाथ साधक नहीं बल्कि कोई तिकड़मबाज थे। ऐसा तिकड़मबाज जो अवैध साधना के बलबूते अवैध कमाई किया करते थे। गोरखनाथ योगी थे। योगी से ही ”जोगड़ा” शब्द निष्पन्न है। हिंदी में उपेक्षासूचक ”जोगड़ा” शब्द नकली अथवा बनावटी योगी के लिए प्रयुक्त होता है-घर का जोगी जोगड़ा। पूरब में तो ”जोग” का अर्थ जादू/टोना होता है, ऐसे मानो नाथपंथी योगी जादू-टोना किया करते थे। इसी ”जोग”  शब्द से ”जोगाड़” शब्द भी बना है। अब तो ”जोगाड़” का प्रयोग गलत युक्ति के अर्थ में ही किया जाने लगा है। होली के दिनों में जो ”जोगीड़ा” गाया जाता है, वह प्राय: अश्लील और गंवारू होता है। पता नहीं कब नाथपंथी योगियों को ”जोगीड़ा” से जोड़ दिया गया।

कबीर बहुजनों के सर्वमान्य नायक हैं। वह भी शब्दों के द्विजवादी तमाशे से बच नहीं पाए। कबीर के नाम पर होली में कबीर अथवा कबीरा गाया जाता है। कबीर अथवा कबीरा भी “जोगीड़ा” की भांति होली के अवसर पर गाया जानेवाला एक प्रकार का अश्लील गीत है। भारत का पूरा जनमानस कबीर के नाम पर मन में दमित काम-वासनाओं को बाहर निकाल लेता है। ऐसे गीत तो बाद के दिनों में साबित करेंगे कि कबीर संत नहीं बल्कि फूहड़ और अश्लील गीतों के गायक थे। होली के अवसर पर हिंदू लोग अबीर और गुलाल का प्रयोग करते हैं। “अबीर” अरबी का शब्द है। “गुलाल” फारसी का शब्द है। पता नहीं, अरबी-फारसी के शब्दों; अबीर, गुलाल को हिंदी में आने से पहले किस लाल बुकनी या चूर्ण से हिंदू लोग होली खेला करते थे?

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

राजेन्द्र प्रसाद सिंह

डॉ. राजेन्द्रप्रसाद सिंह ख्यात भाषावैज्ञानिक एवं आलोचक हैं। वे हिंदी साहित्य में ओबीसी साहित्य के सिद्धांतकार एवं सबाल्टर्न अध्ययन के प्रणेता भी हैं। संप्रति वे सासाराम के एसपी जैन कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं

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