अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को मिलने वाले आरक्षण के संबंध में विचार करने हेतु गठित बी.पी. शर्मा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में केंद्र सरकार को सलाह दी है कि वह वार्षिक आय में वेतन से प्राप्त होने वाली आय को भी शामिल करे। यदि केंद्र सरकार इस कमिटी की अनुशंसा को मान लेती है तो बड़ी संख्या में ओबीसी के लोग क्रीमीलेयर में शामिल हो जाएंगे और आरक्षण से वंचित कर दिए जाएंगे।
क्या है मामला?
दरअसल, सार्वजनिक लोक उपक्रमों में कार्यरत ओबीसी कर्मियों के बच्चों की आरक्षण संबंधी पात्रता को लेकर केंद्र सरकार ने चार सदस्यीय कमिटी का गठन किया था। इसके अध्यक्ष केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय (डीओपीटी ) के पूर्व सचिव बी. पी. शर्मा बनाए गए। कमिटी के अन्य सदस्यों में केंद्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय की पूर्व सचिव जी. लता कृष्ण राव, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के निदेशक डॉ. जे. के. बजाज और अधिवक्ता श्रीमती अनिल कटियार शामिल रहे। इस कमिटी को यह ज़िम्मेदारी दी गई कि वह पदों की समतुल्यता के संबंध में अपनी राय दे। इसकी वजह यह रही कि सरकार के प्रत्यक्ष अधीन विभागों व संस्थाओं में कार्यरत ओबीसी कर्मियों के लिए प्रावधान है कि उनकी वार्षिक आय में वेतन व कृषि से प्राप्त आय शामिल नहीं होंगे। यह 1993 में केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय के द्वारा जारी ऑफिस मेमोरेंडम के आधार पर है। लेकिन यही प्रावधान सार्वजनिक लोक उपक्रमों में कार्यरत कर्मियों के लिए नहीं है। इस कारण से लोक उपक्रमों में चपरासी, लिपिक जैसे चतुर्थ श्रेणी के पदों पर कार्यरत ओबीसी कर्मियों के बच्चों को भी आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाता है।
बी. पी. शर्मा कमिटी ने कहा है कि ओबीसी के लिए आय के निर्धारण हेतु वार्षिक आय में वेतन से प्राप्त होने वाली आय को भी शामिल किया जाय। इतना ही नहीं, कमिटी ने यह भी कहा है कि समूह वार वर्गीकरण समाप्त कर सभी को एक समान कर दिया जाय तथा इसका आधार आय हो। यानी ग्रुप ए से लेकर ग्रुप डी तक के सभी एक समान हों। दूसरे शब्दों में कहें तो यदि केंद्र सरकार बी. पी. शर्मा कमिटी की इस सिफारिश को मान लेती है तो आईएएस अधिकारी और उसके मातहत काम करने वाले चपरासी आरक्षण के संदर्भ में सभी एक माने जाएंगे।
ओबीसी वर्ग के प्रतिनिधि कर रहे विरोध
ऑल इंडिया ओबीसी फेडरेशन के अध्यक्ष जी. करूणानिधि के अनुसार शर्मा कमिटी की ये अनुशंसाएं ओबीसी के हितों के लिए घातक हैं। अभी भी ग्रुप ए की सेवाओं में ओबीसी की हिस्सेदारी 13 फीसदी से कम है। यदि सिफारिशों को लागू किया गया तो ओबीसी कभी भी ग्रुप ए की सेवाओं में 27 प्रतिशत तक पहुंचेंगे ही नहीं। इसलिए हम केंद्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय व पिछड़े वर्गों के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग (एनसीबीसी) से मांग कर रहे हैं कि वह शर्मा कमिटी की अनुशंसाओं को खारिज करे।
जी. करूणानिधि शर्मा कमिटी के गठन को ही गलत करार देते हैं। उनके अनुसार जब एनसीबीसी को सरकार ने संवैधानिक अधिकार दिए हैं फिर अलग से चार सदस्यीय कमिटी का गठन ही क्यों किया गया। साथ ही यह भी सवाल उठाये जा रहे है कि ओबीसी के सवालों पर विचार करने हेतु गठित कमेटी का अध्यक्ष ऊंची जाति के के व्यक्ति क्यों बनाया गया।
करूणानिधि बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में फैसले के बाद एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया था। इसके सदस्यों में भारत सरकार के पूर्व सचिव रहे पी. एस. कृष्णन भी थे। इस विशेषज्ञ समिति की अनुशंसा के बाद ही 1993 में डीओपीटी द्वारा 8 सितंबर, 1993 को ऑफिस मेमोरेंडम जारी हुआ था कि वार्षिक आय में वेतन व कृषि से प्राप्त आय को शामिल नहीं किया जाएगा। लेकिन शर्मा कमिटी की अनुशंसा इसे खारिज करती है। वे यह भी मानते हैं कि शर्मा कमिटी ने एनसीबीसी और ओबीसी के लिए गठित संसदीय समिति, जिसके अध्यक्ष गणेश सिंह थे, को बाईपास किया। उनसे कोई परामर्श तक नहीं लिया गया।
ओबीसी के हक-हुकूक के लिए संघर्ष करने वाली संगठन जनहित अभियान के संयोजक राजनारायण का कहना है कि यह ओबीसी के साथ षडयंत्र है। यदि आप वेतन से प्राप्त आय को वार्षिक आय में शामिल कर देंगे तो फिर बहुसंख्यक ओबीसी आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएंगे। सरकार को शर्मा कमिटी की अनुशंसा को खारिज कर देना चाहिए। राजनारायण यह भी कहते हैं कि सरकार के स्तर पर केवल साजिशें ही रची जा रही हैं ताकि शोषित-वंचित तबके के लोगों को शासन-प्रशासन में हिस्सेदारी मिले ही नहीं और केवल द्विजों का वर्चस्व बना रहे। सरकार को सबसे पहले जातिगत जनगणना करानी चाहिए ताकि यह साफ हो कि किस जाति के लोगों की कितना आबादी है और शासन-प्रशासन में उनकी हिस्सेदारी कितनी समानुपातिक है। साथ ही, उनकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हैसियत भी सबके सामने आए। एक बार जब सारी सूचनाएं व आंकड़े हाें फिर कोई नीति बने।
(संपादन : गोल्डी)