6 दिसंबर, 1956 को बाबासाहेब आंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद आंबेडकरवादी आंदोलन को जीत और हार दोनों का सामना करना पड़ा। जीत इस अर्थ में कि समय के साथ वह सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक दृष्टि से परिपक्व होता गया। साहित्य और कला के क्षेत्र में यह आंदोलन कई बार शीर्ष पर पहुंचा। विशेषकर आंबेडकरवादी साहित्य के संदर्भ में, जिसने यथार्थ पर आधारित होने के चलते, आज ऐसे साहित्य के रूप में सम्मान और स्वीकार्यता हासिल कर ली है, जिसका अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है। यहां तक कि जिसे पहले दलित साहित्य कहा जाता था, अब उसे आंबेडकरवादी साहित्य कहा जाता है। आज की सामाजिक स्थिति और आंबेडकर के समय की सामाजिक स्थिति में ज़मीन-आसमान का अंतर है। इसका कारण है, आंबेडकर का शिक्षा प्राप्त करने, संगठित होने और आंदोलन चलाने का आह्वान।
मैंने और मेरे कवि-मित्र नामदेव ढसाळ ने सन् 1972 में दलित पैंथर की स्थापना की। हालांकि अमेरिका के ब्लैक पैंथर आंदोलन की तरह यह आंदोलन भी लम्बा नहीं चल सका, परंतु आंबेडकर के बाद के सभी आंबेडकरवादी आंदोलनों में से इसने सबसे अधिक सराहना और प्रशंसा अर्जित की।
मुझे ऐसा लगता है कि केवल तीन ही लोग दलित पैंथर आंदोलन का इतिहास लिख सकते हैं– राजा ढाले, नामदेव ढसाळ और ज. वि. पवार (मैं)। मैं दलित पैंथर का संगठनकर्ता और बाद में उसका महासचिव था। इसलिए मेरे पास इससे संबंधित संपूर्ण दस्तावेज और पत्राचार हैं। उन दिनों फोटोकॉपी मशीन नहीं हुआ करती थी। मुझे पत्रों और वक्तव्यों की कार्बन प्रतियां बनानी पड़ती थीं। ये सभी प्रतियां मेरे पास सुरक्षित हैं। स्पष्ट है कि जो कुछ भी मैं कह रहा हूं वह प्रामाणिक है और उसे साबित करने के लिए मेरे पास दस्तावेज हैं। इसके अलावा महाराष्ट्र सरकार ने मुझे शासकीय अभिलेखागारों में संरक्षित दस्तावेजों तक पहुंच दी। इनमें पुलिस और गुप्तचर विभाग के दस्तावेज शामिल हैं। इस कारण मेरी जानकारी और बढ़ी।
मैं आंबेडकर के काल का कार्यकर्ता या लेखक नहीं हूँ। उनके समय में कई व्यक्ति आंबेडकर द्वारा सम्पादित पत्रिकाओं -मूक नायक और प्रबुद्ध भारत में लिखते थे। परंतु वे समकालीन इतिहास के लेखक से अधिक कुछ नहीं थे। इस संदर्भ में सी.बी. खैरमोड़े का दस्तावेजीकरण अत्यंत उपयोगी और मूल्यवान है। आंबेडकर के बाद के आंबेडकरवादी आंदोलन का खाका खींचना ही मेरा उद्देश्य नहीं था। मैं उसका विश्लेषण भी करना चाहता था। मैं इस आंदोलन में स्वयं शामिल था। चूंकि मैं केवल दर्शक नहीं था, इसलिए मैं इस आंदोलन का विश्लेषण करने के अधिकार पर अपना दावा कर सकता हूं। सन् 1972 के बाद से इस आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने के अलावा मैं दादासाहेब गायकवाड़ द्वारा शुरू किए गए लोकप्रिय भू-आन्दोलन की विद्यार्थी शाखा का नेता भी था। यह भू-आन्दोलन सन् 1964 में शुरू किया गया था।
दलित पैंथर के कार्यकर्ताओं ने जो कठिनाइयां भोगीं और जो संघर्ष किए, उसके चलते समाज में उन्हें विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा मिली। बाबासाहेब आंबेडकर ने जिस उद्देश्य से रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) की स्थापना की थी, वह पूरा न हो सका। ऐसा आरपीआई के नेताओं के कुत्सित कारनामों के कारण हुआ। सन् 1960 के दशक में आंबेडकरवादी आंदोलन कमज़ोर पड़ने लगा और आज तो यह पार्टी मजाक की पात्र बन गयी है। आरपीआई को आगे बढ़ाने की जगह इसके नेताओं ने कांग्रेस को मजबूती प्रदान करने का काम किया। कांग्रेस अधिक अहंकारी और शोषक पार्टी बन गयी। ग्रामीण इलाकों में दलितों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों के खिलाफ दलित पैंथर खड़ा हुआ। आम दलितों को यह महसूस हुआ कि उनकी रक्षा के लिए एक संगठन या समूह मौजूद है। आज भी जब गांवों में दलितों पर अत्याचार होते हैं, तो लोग सोचते हैं कि काश दलित पैंथर जैसा कोई आंदोलन फिर से खड़ा हो जाए।
दलित पैंथर की सबसे बड़ी पूंजी लोगों की यह इच्छा है। जब यह आंदोलन महाराष्ट्र की सीमाओं से बाहर निकलकर देश के अन्य राज्यों में फैला, तब भी वह कहीं भी कमज़ोर नहीं पड़ा। समाज विज्ञानियों को दलित पैंथर के महत्व का अहसास है। आज भी भारतीय और विदेशी अध्येता, दलित पैंथर के इतिहास को समझना और उसका विश्लेषण करना चाहते हैं। शोधार्थियों और विद्यार्थियों को आज भी उसका इतिहास सम्मोहित करता है। दलित पैंथर के जुझारू चरित्र को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत है और इसलिए इस पुस्तक का हिंदी और अंग्रेजी में प्रकाशन होना चाहिए। मैंने दलित पैंथर के इतिहास का मराठी में 6 दिसंबर, 2010 को दलित पैंथर्स शीर्षक से प्रकाशन किया था। इसे पाठकों और कार्यकर्ताओं ने काफी पसंद किया था। फारवर्ड प्रेस, दिल्ली ने इसका अंग्रेजी व हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया है।
(फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक “दलित पैंथर : एक आधिकारिक इतिहास” में संकलित)