हाल ही में रिलीज़ फ़िल्म ‘थप्पड़’ को उसके शीर्षक से प्रभावित होकर ही देखने का मन हुआ। इसके निर्देशक अनुभव सिन्हा हैं जिन्होंने ‘मुल्क’ और ‘आर्टिकल 15’ का निर्देशन किया है। उनकी नई फिल्म को देखने की प्रेरणा भी उनकी पूर्व की फिल्मों से मिली। मेरी दिलचस्पी इस वजह से भी रही कि कुछ लोगों के मुताबिक फिल्म की कहानी में घरेलू हिंसा है और पति द्वारा पत्नी को थप्पड़ मारे जाने को ही केंद्रीय विषय बनाया गया है। दरअसल, लेखक रूणवन लागु और निर्देशक अनुभव सिन्हा की इसी संवेदनशीलता ने मुझे प्रेरित किया कि जब एक महिला को थप्पड़ पड़ता है तो उसके लिए क्या मायने होते हैं। वरना यही बॉलीवुड है जो महिलाओं को चित्रित ही इस रूप में करता है कि वह अत्याचार सहने के लिए ही जिंदा हैं। आपको “दबंग” फिल्म तो याद ही होगी जिसमें कुंभकार समाज की नायिका को एक सवर्ण नायक को यह कहते हुए दिखाया जाता है कि “साहब थप्प्ड़ से डर नहीं लगता, प्यार से लगता है”।
मैं बेहद हैरान थी, जब मेरे पीछे फिल्म देख कर बाहर आ रही दो युवतियों में से एक ने कहा कि “कुछ भी हो एक थप्पड़ ही तो मारा था, उसपर तलाक लेना तो गलत है। औरतें इससे कही ज्यादा पिटती हैं रोज़, फिर भी ऐसा नहीं करतीं”। फ़िल्म में नायिका को भी बार-बार यही कहा जाता है कि “सिर्फ एक थप्पड़ ही तो मारा है उसे इतना बड़ा मुद्दा नहीं बनाना चाहिए था”। किन्तु यहां प्रश्न यह है कि ‘क्या वह सिर्फ एक थप्पड़ था, जो किसी पति द्वारा उसकी पत्नी को सरेआम मारा गया या कुछ और भी? फ़िल्म की कहानी में कई स्त्री पात्रों की कहानी समानांतर चलती है। ये सभी स्त्रियां अलग-अलग वर्ग से आती हैं। आश्चर्यजनक रूप से फिल्म में जाति को छिपाकर रखा गया है।
अभिनेत्री तापसी पन्नू फ़िल्म की मुख्य पात्र ‘अमृता’ की भूमिका में हैं, जो एक आम मध्यमवर्गीय स्त्री की तरह अपनी तमाम इच्छाओं, आकांक्षाओं को अपने पति और परिवार की खुशियों पर न्यौच्छावर करके, उनकी हर छोटी-बड़ी ख्वाहिशों और ज़रूरतों को पूरा करना ही अपना फर्ज समझती है। जबकि वह स्वयं एक पढ़ी लिखी स्त्री और निपुण नृत्यांगना है। अमृता अपने पति विक्रम तथा अपनी सास के साथ रहती है। यही उसका संसार है, जिसमें वह संतुष्ट भी है।
वहीं दूसरी ओर अमृता के घर में काम करने वाली सुनीता है जो निम्नवर्गीय स्त्री की भूमिका में है, जो ज्यादा पढ़ी लिखी भी नही है और अपने पति से रोज़ बात-बेबात मार खाती है। वह इसे ही अपनी नियति मान बैठी है। तीसरी कहानी तथाकथित उच्च वर्ग से संबंध रखने वाली स्त्री की है, जो पेशे से आला दर्ज़े की वकील है, फिर भी अपने पति द्वारा शारीरिक एवं मानसिक उत्पीड़न झेलती है। एक अन्य स्त्री के रूप में अभिनेत्री दीया मिर्ज़ा भी इस फिल्म में हैं; जो कि अमृता की पड़ोसन है और सिंगल पेरेंट होने के साथ-साथ एक पढ़ी-लिखी आत्मनिर्भर स्त्री भी है।
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फिल्म का एक टैग लाइन है – “इट इज जस्ट अ स्लैप”। यानी यह एक थप्पड़ है, परंतु नहीं मार सकता ! यही इस फिल्म का केंद्रीय विषय भी है, क्योंकि अमृता के गाल पर पड़ा थप्पड़ मात्र थप्पड़ नहीं है। वह एक पति का पत्नी पर अनायास गुस्सा भी नहीं है। बल्कि यह ‘थप्पड़’ पुरुषों में जड़ जमाए बैठा वह श्रेष्ठता बोध है, जो स्त्री को सदैव अपने से कमजोर और स्वयं को मालिक समझता आया है। दरअसल, वह लैंगिक असमानता की ग्रंथि है, जिसे पैदा होते ही परंपरा और संस्कारों के रूप में उसके भीतर रोप दिया जाता है। उस थप्पड़ की चोट अमृता के गाल पर नहीं, बल्कि उसके समूचे व्यक्तित्व पर पड़ती है। उसकी आत्मा पर पड़ती है। यह पति के साथ बंधे रिश्ते और अटूट विश्वास पर पड़ती है।
फिल्म में अमृता को कहीं भी अपने रिश्तों का अपमान करते नहीं दिखाया गया, किन्तु वह हैरान है कि कोई भी उसे यह नहीं कह रहा कि पार्टी में जो हुआ वह बहुत गलत हुआ। बल्कि सब उसे यही कह रहे हैं कि ऐसा हो जाता है कभी-कभी पति-पत्नी में, भूल जाओ। उसकी सास भी कहती है कि यह तो घर की बात है। उसकी अपनी मां, सहेली, रिश्तेदार और उसकी वकील भी उसे यही सलाह देती है कि थप्पड़ को भूल जाओ और वापस चली जाओ। इससे तुम्हारा केस मजबूत नहीं होता क्योंकि यह सिर्फ एक थप्पड़ है। किन्तु अमृता को यह थप्पड़ उसके वजूद पर महसूस होता है। वह जान जाती है कि पुरुष की नज़र में स्त्री कितनी ही कुशल गृहणी, पढ़ी-लिखी, हुनरमंद और प्यार करने वाली क्यों न हो, वह होती केवल स्त्री ही है। पुरुष के समान इंसान नहीं। दूसरी ओर अमृता का पति अपने दुर्व्यवहार के लिए उससे माफ़ी तक नहीं मांगता और सास को भी यह मामूली बात लगती है और फिर अमृता को अपने साथ होने वाली छोटी-छोटी नाइंसाफियां याद आने लगती हैं। अमृता रिश्तों का महत्व समझती है, लेकिन समझौता नहीं करती। वह तलाक के बदले कोई मुआवज़ा भी नहीं चाहती है। वह अपने आत्मसम्मान के लिए कोर्ट तक जाने का निर्णय करती है। अपने पक्ष में मजबूती से खडी रहती है।
अमृता के रुप में तापसी पन्नू का अभिनय बेहद सराहनीय है। ‘विक्रम’ के रूप में पावेल गुलाटी ने भी अच्छा अभिनय किया है। उन्होंने एक आम पढ़े लिखे मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षी युवक और अमृता के पति की भूमिका को बखूबी निभाया है। जहाँ विक्रम अमृता से अपने किये पर शर्मिंदा भी नहीं होता और ऐसे दिखता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं, बल्कि वह अमृता को ही दोष देता है कि वह बात को बढ़ा रही है। वह वकील के प्रभाव में अमृता पर तमाम आरोप भी मढ़ता है, जैसा कि आम पति करते हैं। विक्रम एक बार अपनी पड़ोसन (दीया मिर्ज़ा) को कार ड्राइव करके ऑफिस जाते हुए देख कर हैरत से कहता है कि “ये आखिर करती क्या है”? यह वही पुरुषवादी मानसिकता है जिसके कारण वह एक पढ़ी-लिखी आत्मनिर्भर स्त्री को कभी अपने बराबर नहीं देखता, बल्कि संदेह के दृष्टि से देखता है। महिलाओं के चरित्र पर सवाल उठाना तो जैसे उसका जन्मसिद्ध अधिकार हो।
फिल्म ‘थप्पड़’ बड़े ही सधे हुए अंदाज़ में एक साथ समाज में औरत के लिए जबरन गढ़ दिए खांचों को तोड़ती है। उन पर सवाल खड़ा करती है। जैसे “औरत का आदमी के द्वारा पीटा जाना आम बात है” यह जुमला जब आप किसी स्त्री के मुंह से सुनेंगे तो आप अंदाज़ा लगा पाएंगे कि किस कदर कंडीशनिंग की जाती है हमारे समाज में स्त्रियों की। “स्त्रियां पुरुषों के सहारे बिना अधूरी हैं,असुरक्षित हैं” क्योंकि वे भलीभांति जानते हैं कि ये असुरक्षा बोध ही पुरुषों के द्वारा स्त्री पर किये गए हर अन्याय को जायज ठहराएगा। बचपन से बुढ़ापे तक वे स्वयं माँ या सास होकर भी अपनी बहू या बेटी के साथ हुए अन्याय को अन्याय नहीं मानती और उसी पितृसत्ता से प्रभावित होकर अमृता को समझौते के लिए मनाती है। ‘थप्पड़’ फिल्म समाज में पुरुषों की परिवरिश पर भी बड़ी ही सरलता से सवाल खड़ा करती है। अमृता की माँ की भूमिका में रत्ना पाठक शाह और सास के रूप में तन्वी आज़मी की भूमिका बेजोड़ है। इसके अलावा अमृता की वकील की भूमिका में माया सराव व अन्य कलाकारों में कुमुद मिश्रा व गीतिका विंधिया का अभिनय ओहल्याण फिल्म को मुकम्मल करती है।
फिल्म बीच में थोड़ी धीमी रफ़्तार से चलती है। फिल्म में केवल एक ही गीत है – “एक टुकड़ा धूप”। इसकी एक पंक्ति है “हम लिखे थे दीवारों पर … बारिश हुई और धूल गए।” ये पंक्तियां अमृता के मनोभावों को बयां करती हैं।
मुझे फिल्म का सबसे मार्मिक सीन वह लगा जब अमृता की हाउस मेड सुनीता अपने पति से बड़े ही भोलेपन से कहती है “मारते तो सभी हैं, मैं तो तन्ने बेकार में गाली देउँ थी।” और अपने इस भोलेपन पर भी वह मार खाती है। हालांकि फिल्म थप्पड़ की तमाम खूबियों के बावजूद मुझे जो एक चीज़ खली वह थी अमृता की मेड सुनीता को एक कॉमिक कैरेक्टर के रूप में दिखाया गया। क्या इसकी वजह तो नहीं कि वह दलित-बहुजन पृष्ठभूमि की रही हो? ऐसा इसलिए कि सुनीता को छोड़ कर अन्य सभी स्त्रियां पढ़ी लिखी हैं। उनके पास पति को छोड़ कर जाने के विकल्प मौजूद हैं। किन्तु सुनीता केवल अपने श्रम के बल पर अपने पति का विरोध करने का साहस करती है। न उसे परिवार का सपोर्ट है और न ही वह शिक्षित है। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि निर्देशक द्वारा सुनीता की भूमिका को और निखारा जा सकता था।
बहरहाल, जब मैं यह फिल्म देख रही थी मेरे जेहन में डॉ. आंबेडकर के विचार चल रहे थे। स्वतंत्र भारत के पहले विधि मंत्री के रूप में उन्होंने 9 अप्रैल 1948 को संविधान सभा के समक्ष हिन्दू कोड बिल का मसविदा प्रस्तुत किया। इसमें महिलाओं के सवाल महत्वपूर्ण थे। मसलन, हिन्दू कोड बिल दो प्रकार के विवाहों को मान्यता देता था – सांस्कारिक व सिविल। उसमें हिन्दू पुरूषों द्वारा एक से अधिक महिलाओं से शादी करने पर प्रतिबंध और विवाह के विघटन संबंधी प्रावधान भी थे।
लेकिन हिंदू कोड बिल का तब पुरजोर विरोध हुआ। यह इस वजह से कि तब सभी ब्राह्मणवादी पितृसत्ता बनाए रखना चाहते थे। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि आज भी यही मानसिकता हावी है।
कुल मिला कर रूणमय लागु (अभिनेत्री रीमा लागु की बेटी) की स्क्रिप्ट और निर्देशक अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘थप्पड़’ महज थप्पड़ नहीं, बल्कि समाज को दी गयी चेतावनी है। इसमें महिलाओं में जगी चेतना की अभिव्यक्ति होती है। थियेटर से घर वापसी के क्रम में मुझे अपनी ही कविता की पंक्तियां याद आ रही थीं, जिसका शीर्षक इश्क है।
मैं तुमसे जरूर इश्क करूंगी
अगर तुम करोगे इश्क अपने
स्वाभिमान से, आत्म सम्मान से।
मैं तुमसे इश्क करूंगी
अगर तुम्हें बर्दाश्त नहीं अन्याय।
हां मैं जरूर इश्क करूंगी तुम से
अगर खौलता है तुम्हारा लहू
अपने पर या दूसरों पर किये जुल्मों पर।
(संपादन : नवल)