कोरोना के खतरे के मद्देनजर बीते 14 अप्रैल, 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मेादी ने पूरे देश में लॉकडाउन की अवधि को 3 मई, 2020 तक बढाने की घोषणा की। उनकी इस घोषणा से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वालों में हैं पहले से बेरोजगार हो चुके गरीब मजदूर। वे यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि लॉकडाउन के पहले चरण की समाप्ति के बाद भारत सरकार कुछ रियायतों की घोषणा करेगी। उन्हें इस बात की भी उम्मीद थी कि यदि सामान्य तरीके से कामकाज न भी शुरू हो तब भी कम से कम उन्हें अपने गृह प्रदेशों में वापस जाने का मौका जरूर मिलेगा। मुंबई में प्रवासी मजदूरों के सब्र का बांध उस समय टूट गया जब कथित तौर पर विनय दुबे नामक एक व्यक्ति ने अफवाह फैला दी कि सरकार प्रवासी मजदूरों के लिए विशेष रेलगाड़ी शुरू करने वाली है। देखते ही देखते बांद्रा स्टेशन पर हजारों की संख्या में मजदूर जुट गए।
इस घटना ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि सरकारी तंत्र इन प्रवासी मजदूरों के हितों की रक्षा करने में नाकामयाब रहा है। इसके पहले 24 मार्च, 2020 को जब प्रधानमंत्री ने पहली बार क्ंप्लीट लॉकडाउन की घोषणा बिना किसी तैयारी के की थी तब भी सबसे अधिक परेशान गरीब-मजदूर ही हुए थे। हालत यह हो गयी कि हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूर सैकड़ों किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर अपने-अपने घर पहुंचे। कईयों की राह में मौत की सूचनाएं भी प्रकाश में आयीं। परंतु सरकारी तंत्र उनके साथ सहृदयता दिखाने की बजाय निस्पृह बना रहा।
दरअसल, भारत सरकार ने कोरोना के प्रसार को सीमित करने को लेकर चीन द्वारा अपनायी गयी रणनीति का अनुसरण किया। लेकिन उसने बिना किसी तैयारी के यह किया। जबकि चीन ने तीन महीने के लॉकडाउन के दौरान अपने देश के मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए पहले से ही कदम उठा लिए थे। भारत में जनता एवं उद्योग जगत को बिना पूर्व सूचना दिए महज चार घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन लागू कर दिया गया। भारत में पूर्व में सूचना दिये जाने की आवश्यकता इसलिए और अधिक थी क्योंकि देश की बड़ी आबादी कमजोर और गरीब है और रोज के श्रम से ही उसके घर का चूल्हा जलता है।
भारत के 47 करोड़ श्रमिकों में से लगभग 80 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। सरकार के किसी बही-खाते में उनका जिक्र नहीं है क्योंकि वे कहीं भी पंजीकृत नहीं हैं। इस कारण उन्हें श्रम कानूनों का कोई लाभ नहीं मिलता। एक रिपोर्ट के अनुसार, 2011 और 2016 के बीच भारत में रोज़गार की तलाश में एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने वालों की संख्या 90 लाख प्रति वर्ष तक थी। स्वयं भारत सरकार इससे पूरी तरह वाकिफ है। वर्ष 2017 में भारत सरकार द्वारा जारी आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान के ज्यादातर मजदूर रोजगार की तलाश में दिल्ली, केरल, महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु जैसे राज्यों में जाते हैं। उन्हें कम वेतन में लंबे समय तक काम करना पड़ता है। वे शहरों से दूर झुग्गी-झोपड़पट्टी के इलाकों व करीबी गांवों में किराए पर रहते हैं। इनमें खेतिहर मजदूर, कुली, स्ट्रीट वेंडर, घरेलू नौकर, कचरा बीनने वाले, साइकिल रिक्शा, ऑटो-रिक्शा और टैक्सी चालक, ईंट भट्ठा मजदूर, निर्माण श्रमिक, रेस्तरां में काम करने वाले, चौकीदार, लिफ्ट ऑपरेटर, डिलीवरी बॉय आदि शामिल हैं।
हालांकि लॉकडाउन के दौरान प्रधानमंत्री द्वारा गरीब कल्याण पैकेज के तहत भोजन और आजीविका की सुरक्षा सुनिश्चित करने घोषणा की गयी। इसके तहत 1.7 लाख करोड़ रुपये की प्रोत्साहन राशि की घोषणा भी उन्होंने की, जिसमें तीन महीने तक गरीबों को मुफ्त खाद्यान्न और रसोई गैस, महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों को नकद राशि देने की बात कही गयी। परन्तु इस पैकेज को प्रभावी ढंग से कैसे लागू किया जाएगा और इसका सही वितरण होगा या नहीं यह किसी को पता नहीं है!
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पूर्व के अनुभव कई सवाल खड़ा करते हैं। क्या वे प्रवासी श्रमिक भी इसके लाभार्थी होंगे जो कहीं भी पंजीकृत नहीं हैं। बड़ी संख्या में ऐसे श्रमिकों के पास न तो बैंक खाते हैं और ना ही राशन कार्ड। ऐसे लोगों के लिए क्या कोई विशेष नीति बनायी जाएगी? गरीबों के जनधन खातों में पांच सौ रुपए भेजे जाने के संबंध में एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि मजदूर पांच सौ रुपए में अपना और अपने परिवार का पेट कैसे पालेंगे। सनद रहे कि श्रमिक परिवारों में औसतन पांच से अधिक सदस्य होते हैं। महंगाई को देखते हुए क्या पांच सौ रुपए प्रति महीना पर्याप्त है?
श्रम और रोजगार मंत्रालय, भारत सरकार ने सभी राज्यो के मुख्यमंत्रियों और केंद्र-शासित प्रदेशों के उप राज्यपालों से 27 और 29 मार्च के बीच निर्माण श्रमिकों के खातों में धनराशि जारी करने के लिए कहा। लेकिन पाया गया कि 94 प्रतिशत मजदूरों के पास आधुनिक बैंक खाते नहीं हैं और न ही उनके पास चिप वाले एटीएम कार्ड हैं। इस कारण वे किसी भी वित्तीय हस्तांतरण के लिए स्वयमेव आयोग्य हो गए। इसके अलावा 14 प्रतिशत के पास राशन कार्ड नहीं थे और 17 प्रतिशत के पास बैंक खाते नहीं।
इसे सरकारी तंत्र की निष्क्रियता ही कहिए कि कल्याणकारी उपायों की जानकारी श्रमिकों तक सफलतापूर्वक पहुंचाने में सरकार विफल रही है। 62 प्रतिशत प्रवासी मजदूरों को सरकार द्वारा प्रदान किए गए आपातकालीन कल्याण उपायों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और 37 प्रतिशत श्रमिकों को पता ही नहीं है कि मौजूदा योजनाओं का उपयोग कैसे किया जाता है। भारत में मूलत: इन प्रवासियों में अधिकांश प्रवासी अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से संबंधित होते है।
मुंबई स्थित सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनामी (सीएमआईई) द्वारा 6 अप्रैल को जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में लॉकडाउन के कारण बेरोजगारी की दर 23.4 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। शहरों में यह दर 30 प्रतिशत तक जा सकती है। ये आंकड़े भारत के लिए चिंता का सबब हैं। दूसरी ओर कोरोना की वजह से देश के प्रवासी मजदूरों के समक्ष रोजगार का संकट और भयावह हो सकता है।
(संपादन : नवल/अमरीश)