भारतीय समाज में जो लोग पिछड़े-दलित सामाजिक समूहों के उत्थान की बात करते हैं, दरअसल वे समानतामूलक समाज की बात करते हैं। हम समाज में किसी एक खास वर्ग या समूह का वर्चस्व अथवा तानाशाही नहीं चाहते। ब्राह्मणवादी सामाजिक चिंतन वस्तुत: वर्चस्ववादी चिंतन है और यह जनतांत्रिक संस्कृति के विरुद्ध है।
इस कार्यक्रम में बुद्धिजीवियों का एक समूह उपस्थित है। हम सब लोकतंत्र और आधुनिकता के उन सिद्धांतों से प्रेरित हैं, जिनका जन्म फ्रांसीसी राज्य क्रांति के फलस्वरूप हुआ था। हम समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता के हिमायती हैं और इसके बूते एक नए समाज का निर्माण करना चाहते हैं। भारत में हम उस ब्राह्मणवादी समाज का निषेध करते हैं जो मनु के विचारों पर आधारित है।
लेकिन हमें अपने विचारों और कुछ अंधबिंदुओं पर नए सिरे से विमर्श करना चाहिए। उदाहरण के लिए मनु को ही लें। प्राय: समझा जाता है कि मनु ब्राह्मण थे लेकिन सच्चाई यह है कि वे क्षत्रिय थे। वे राजा थे और राजा क्षत्रिय होते थे। उन्होंने ब्राह्मणवादी सामाजिक दर्शन के सिद्धांत दिए अथवा उसे लागू करने की संहिता बनाई अथवा बनवाई। क्षत्रियों को जब सत्ता चाहिए होती थी तब वे ब्राह्मणों का समर्थन लेने के लिए उनकी महत्ता का समर्थन करते थे। ब्राह्मण सीधे सत्ता में नहीं होते थे, जैसे आज पूंजीपति सीधे सत्ता में नहीं होते। ब्राह्मणों की मनोकामना और विचार क्षत्रिय राजा पूरा करते थे। उनके स्वार्थों की रक्षा क्षत्रिय राजा करते थे। ऐसे राजाओं को ब्राह्मण मर्यादा पुरुषोत्तम कहते थे। राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे लेकिन ब्राह्मण नहीं थे। इक्ष्वाकु वंश के थे। इक्ष का संस्कृत में अर्थ होता है गन्ना। संभवत: गन्ना उत्पादकों को इक्ष्वाकु कहा गया होगा। आज गन्ना उत्पादक जाट हैं। तो राम संभवत: जाटों के समाज से आए होंगे, जाट होंगे और इस जाट राजा ने दलित शूद्र शंबूक का सिर कलम कर दिया, क्योंकि वह ज्ञान हासिल कर रहा था। ब्राह्मण नहीं चाहते थे कि ज्ञानसत्ता पर किसी का कब्जा हो। राजपाट ले लो, कोई बात नहीं, लेकिन ज्ञान की तरफ कदम बढाओगे तो यह विद्रोह माना जाएगा। ज्ञान की इच्छा करने वाले क्षत्रियों को भी ब्राह्मणों ने कभी माफ नहीं किया। विश्वामित्र ने कहा-हम ज्ञान हासिल करना चाहेंगे, हमें सत्ता नहीं चाहिए। विश्वामित्र के खिलाफ ब्राह्मण वशिष्ठ टूट पड़े। दोनों की लंबी लड़ाई के दिलचस्प किस्से हमारी पौराणिकता के हिस्से हैं।
और इस तरह पुराने भारत में दो तरह के संघर्ष थे। एक संघर्ष ब्राह्मणों व क्षत्रियों के बीच था और दूसरा ज्ञान और सत्ता के बीच। ज्ञान और सत्ता का संघर्ष आत्मसंघर्ष था। इसने क्षत्रियों को दो हिस्सों में बांट दिया था। ज्ञानाश्रयी क्षत्रिय और सत्ताश्रयी क्षत्रिय। ज्ञानाश्रयी क्षत्रिय ब्राह्मणों से संघर्ष करते थे और दलित-शूद्रों के हितों के प्रवक्ता थे। सत्ताश्रयी क्षत्रिय ब्राह्मणों से मेलजोल कर उनके सामाजिक स्वार्थों के प्रवक्ता बनते थे। दरअसल उनके लठैत बनते थे।
आज भी स्थिति यही है। वर्तमान राजनीतिक स्थिति को देख लीजिए। ज्यादातर राज्यों के मुख्यमंत्री गैर ब्राह्मण हैं। लेकिन वे ब्राह्मणवादी राजनीति का हिस्सा बने हुए हैं। अपने समाज का नहीं, दूसरों के समाज के स्वार्थों की पूर्ति कर रहे हैं। यह राजनीति में नया उपनिवेशवाद है। ब्राह्मणवादी राजनीति प्रक्षण्ण रूप से उपनिवेशवादी-साम्राज्यवादी राजनीति है। दलितों-पिछड़ों को इससे सावधान रहने की जरूरत है। ज्ञान सत्ता हासिल किए बिना यदि राजसत्ता आती है तो उसके खतरनाक नतीजे आते हैं।
एक दूसरा स्वांग धर्मनिरपेक्षता का है, जिससे दलित-पिछड़ों को सुरक्षित दूरी बनाए रखना चाहिए। इस पर व्यापक रूप से विमर्श होना चाहिए। सेक्युलर चिंतन जनतंत्र का आधार होता है, लेकिन वह चितंन नहीं जो सेक्युलरवाद के नाम पर हमारे समाज में चल रहा है। दरअसल, यह वोट बैंक बढाने का एक फूहड़ फंडा बनकर रह गया है। यह कुलीन सेक्युलरवाद है। इसकी रूपरेखा बीसवीं सदी के आरंभ में हिन्दू-मुस्लिम कुलीनों ने बनायी थी। तुम हमारे मुल्लावाद पर मत बोलो, हम तुम्हारे पंडावाद पर नहीं बोलेंगे। हम एक दूसरे की टोपी और तिलक की रक्षा करेंगे। इस सेक्युलरवाद के तहत मुसलमानों की व्यापक शिक्षा पर नहीं, अरबी-फारसी के विकास पर जोर दिया जाता है। हज यात्रियों की सुविधाएं बढाई जाती हैं। दूसरी तरफ संस्कृत और गंगा की चिंता की जाती है। यह कैसी धर्मनिरपेक्षता है जिसके एजेंडे में समाज निर्माण नहीं है। धर्मनिरपेक्षता की इस कुलीन व्याख्या पर पिछड़े तबकों को सोचना चाहिए। कबीर और फुले ज्यादा धार्मिक थे, लेकिन वे हमारे लिए ज्यादा काम के हैं। मध्ययुग के संत कवियों ने ईश्वर का नाम लेकर ब्राह्मणवाद पर हमला बोल दिया था। ‘जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’। वे हमारे लिए ज्यादा काम के हैं।
बाबा साहेब आम्बेडकर ने अंतिम समय में स्वयं को एक धार्मिक आंदोलन में झोंक दिया, वे हमारे लिए ज्यादा उपयोगी हैं लेकिन इन सेक्युलर ताकतों को देखिए। मैं केवल बंगाल का उदाहरण रखूंगा। पिछले दिनों आशीष नंदी जब दलितों-पिछड़ों पर हमला कर रहे थे, तो उन्होंने बंगाल की चादर ही ओढी हुई थी। वहां पैंतीस वर्षों तक सेक्युलर लेफ्ट राज करता रहा। उस राज्य में कोई दलित-बहुजन कैबिनेट मंत्री नहीं था। यह है सेक्युलरों का सामाजिक दर्शन। सन् 1930 के दशक में सेक्युलर ताकतें आम्बेडकर का मजाक उड़ाने में लगी थीं। उन्होंने गांधी को भी सावधान किया था कि वे क्यों एक गैर-जरूरी कार्यसूची को अपने हाथ में ले रहे हैं।
हमें इतिहास और राजनीति की पुनर्व्याख्या करनी चाहिए और यह देखना चाहिए कि क्या सही और क्या गलत है। हम अनजाने में किसी पाखंड को मजबूत करने में तो नहीं लगे हैं। हमारा लक्ष्य एक आधुनिक समाज का निर्माण होना चाहिए, जिसका मतलब है समाज में समानता, भाईचारा और स्वतंत्रता की स्थापना।
(फारवर्ड प्रेस के जून 2013 अंक में प्रकाशित)