मई दिवस (1 मई, 1886) पर विशेष
मशीनीकरण के आरंभ में आदमी को भी मशीन मान लिया गया था। “कार्य-दिवस” का अर्थ था, सूरज निकलने से दिन ढलने तक काम करना। मौसम के अनुसार दिन घटता-बढ़ता तो काम के घंटे भी बदल जाते थे। कामगार को प्रतिदिन 14 से 16 घंटे तक काम करना ही पड़ता था। कभी-कभी तो एक कार्य-दिवस 18 घंटे तक पहुंच जाता था। अगस्त, 1866 में अमेरिका के नेशनल लेबर यूनियन ने 8 घंटे कार्य अवधि की मांग का समर्थन किया।[1] इसे लेकर आंदोलन होने लगे। परंतु न तो सरकारें चेतीं और न कारखाना मालिकों ने ही कोई ध्यान दिया। आखिरकार अमेरिकी मजदूरों ने 1 मई, 1886 से देशव्यापी हड़ताल की घोषणा कर दी। 3 व 4 मई, 1886 को प्रदर्शन के दौरान पुलिस और मजदूर संगठनों की भिड़ंत हुई। 4 मई को शिकागो के हेमार्किट चौक पर हुई घटना तो नरसंहार जैसी थी। उसी की स्मृति में दुनिया भर में मई दिवस मनाया जाता है। मई की पहली तारीख का संबंध 8 घंटों के कार्य-दिवस की मांग तथा उसके लिए श्रमिकों द्वारा दी गई कुर्बानियों से है।
भारत में पहली बार मई दिवस 1 मई, 1923 को मद्रास में मनाया गया था। उसी दिन देश में पहले मजदूर संगठन का जन्म हुआ था, नाम था – “हिंदुस्तान लेबर एंड किसान पार्टी”।[2] उसी दिन लाल झंडा पहली बार फहराया गया था।[3] आगे चलकर यह झंडा मजदूर आंदोलनों की पहचान बन गया। इन सबका श्रेय जाता है – मलयपुरम सिंगारवेलु को। इतना ही नहीं, भारत में “कामरेड” (साथी/सहकर्मी) शब्द का पहली बार इस्तेमाल उन्होंने ही दिसंबर, 1922 में गया (बिहार) में संपन्न हुए कांग्रेस के 38वें अधिवेशन में किया था।[4] यह जादुई शब्द आगे चलकर साम्यवादी चेतना की पहचान बन गया। गया सम्मेलन में सिंगारवेलु ने ही पहली बार भारत के लिए “संपूर्ण स्वराज” की मांग रखी थी।[5]
जीवन परिचय
सिंगारवेलु का जन्म 18 फरवरी, 1860 को एक मछुआरा परिवार में हुआ था। समुद्र किनारे जिस बस्ती में वे रहते थे, उसे वे “कप्पम” कहते थे। बस्ती के प्रायः सभी पुरुष मछली पकड़ते। यह काम बहुत जोखिम भरा था। बांस और तख्तों से बनी डोंगी उनकी आजीविका का साधन होता था, जिसके सहारे वे उसी समुद्र की लहरों पर सवार हो अपने लिए मछलियां पकड़ते, जिसकी उन्मत्त लहरें किनारों पर बसी उनकी झोपड़ियां बहा ले जाती थीं। परंतु, वे हार नहीं मानते थे। अपनी झोपड़ियां फिर उसी जगह बना लेते।
सिंगारवेलु के पिता का नाम था – वेंकटचलम चेट्टियार। मां थीं – वाल्लमई। बताया जाता है कि उनके दादा मामूली डोंगी के सहारे बर्मा के तटवर्ती क्षेत्रों तक चले जाते थे। वहां से चावल और इमारती लकड़ी लादकर मद्रास तक ले आते।[6] अत: कह सकते हैं कि धैर्य और साहस सिंगारवेलु को विरासत में प्राप्त हुए थे।
जिस मछुआरा जाति में सिंगारवेलु का जन्म हुआ था, उसमें पढ़ने-पढ़ाने की कोई परंपरा न थी। परंतु उनके पिता ने सिंगारवेलु को पढ़ाने का फैसला किया। खुद को प्रखर बुद्धिमान साबित करते हुए सिंगारवेलु ने 1881 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। 1884 में क्रिश्चन कॉलेज से एफए पास करने के पश्चात उन्होंने बीए के लिए प्रेसीडेंसी कॉलेज, मद्रास में दाखिला ले लिया। आगे की पढ़ाई के लिए वे मद्रास लॉ कॉलेज से जुड़े। 1907 में कानून की डिग्री मिली। उसके बाद मद्रास उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करने लगे। प्रतिभाशाली थे ही, वकालत जमने में देर न लगी।[7]
सन् 1889 में उनका विवाह आंगम्मल से हुआ। वह अंतररजातीय विवाह था। दोनों की एकमात्र संतान, बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम उन्होंने कमला रखा था। 1932 में अपने धेवते (नाती), कमला के पुत्र सत्यकुमार को उन्होंने कानूनी तरीके से गोद ले लिया।
समाजसेवा के प्रति झुकाव
उन्नीसवीं सदी के अंत के वर्षों में एक बड़ी चुनौती सामने आ गई। मुंबई सहित पूरे महाराष्ट्र में तबाही मचाने वाली प्लेग 1898 में मद्रास तक आ पहुंची। वहां उसने “कुप्पम” को भी अपनी चपेट में लिया। सिंगारवेलु सब कुछ छोड़ जनसेवा में जुट गए। लोगों को भुखमरी से बचाने के लिए उन्होंने “सामुदायिक रसोई” का संचालन किया। 1910 के बाद प्लेग से छुटकारा मिला तो मलेरिया ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। सिंगारवेलु जूझते रहे। इससे उन्हें गरीबी तथा उसके कारणों को समझने की दृष्टि मिली। उससे साम्यवाद के प्रति भरोसा बढ़ने लगा।
आरंभ में सिंगारवेलु व्यापार में हाथ आजमाना चाहते थे। इसलिए 1902 में वे चावल के व्यापार की संभावना तलाशने ब्रिटेन चले गए। सिंगारवेलु के लिए वह यात्रा परिवर्तनकारी सिद्ध हुई। वहां उन्हें नई-नई पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिला। लंदन में उन्होंने बौद्ध अधिवेशन में हिस्सा लिया। उससे बौद्ध धर्म-दर्शन के प्रति ऐसा अनुराग हुआ कि मद्रास लौटने पर अपने घर पर ही “महाबोधि सोसाइटी” की बैठकें आयोजित करने लगे।[8] बाद में उन्हें मद्रास महाबोधि सोसाइटी का अध्यक्ष मनोनीत कर दिया गया। उन्हीं दिनों वे समाज सेवा में जुट गए। वे चाहते थे कि बस्ती के बच्चे पढ़-लिखकर आगे बढ़ें। इसके लिए वे बच्चों तथा उनके माता-पिता को प्रोत्साहित करने लगे। आवश्यकता पड़ने पर गरीब बच्चों को पुस्तकें, स्टेशनरी, भोजन वगैरह देकर मदद भी करते। पढ़ने का शौक था सो धर्म, दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि विषयों की नई-नई पुस्तकें अपने लिए जुटाते, पढ़ते। अपने पढ़े हुए पर दूसरों से बातचीत करते। सुब्रह्मयम भारती, वी. चक्करई चेट्टियार जैसे नेताओं के संपर्क में आने के बाद वे राजनीति की ओर मुड़ गए।
राजनीति में दस्तक
वर्ष 1905 में रूसी क्रांति की खबरें मिलीं। वहीं से कम्युनिज्म के प्रति आकर्षण की शुरुआत हुई। इस बीच उनके कांग्रेस से अच्छे संबंध बन चुके थे। वे मानते थे कि देश को आजाद कराने के लिए बल प्रयोग अपरिहार्य है। बिना उसके साम्राज्यवादी अंग्रेजों से मुक्ति असंभव होगी। 1914 में पहला विश्व युद्ध छिड़ा तो सिंगारवेलु का ध्यान युद्ध की खबरों से ज्यादा जनसाधारण की बढ़ती समस्याओं की ओर गया। खासकर उन समस्याओं की ओर जो युद्ध की, पूंजीवादी लिप्साओं की देन थीं।
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13 अप्रैल, 1919 भारतीय इतिहास का रक्त-रंजित दिन था। उस दिन जलियांवाला हत्याकांड 379 लोग मारे गए थे। लगभग 1500 घायल हुए थे। क्षुब्ध जनता अंग्रेजों के विरुद्ध प्रदर्शन करने लगी। दक्षिण में सिंगारवेलु पीछे नहीं रहे। उन्होंने युवाओं को संगठित कर अनेक शांतिपूर्ण प्रदर्शन किए। गांधी ने असहयोग आंदोलन का आह्वान किया। उससे प्रेरित होकर सिंगारवेलु ने भी एक जनसभा में अपने गाउन को आग में जलाकर अदालत से नाता तोड़ने की घोषणा कर दी।[9] इसी दौरान वे कांग्रेस के संपर्क में आए। जनमानस में अपनी पैठ, प्रतिभा और सरोकारों के चलते बहुत जल्दी प्रदेश कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में उनकी गिनती होने लगी।
हैलो कामरेड्स
दिसंबर 1922 में उन्हें कांग्रेस के गया अधिवेशन में शामिल होने का अवसर मिला। उस समय वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य भी थे। अधिवेशन में दिए गए भाषण में सिंगारवेलु का रंग एकदम निराला था। भाषण की शुरुआत में ही उन्होंने दर्शा दिया था कि वे खद्दर, टोपी वाले नेताजी नहीं हैं – “अध्यक्ष, हॉल में मौजूद कामरेड्स, साथी मजदूरों, प्रजाजनों, हिंदुस्तान के किसानों और हलवाहों….मैं आपके बीच आपके मजदूर साथी के रूप में बोलने आया हूं। मैं यहां पूरी दुनिया के लिए महा-कल्याणकारी, कम्युनिस्टों की दुनिया के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचा हूं। मैं यहां उस महान संदेश को दोहराऊंगा, जिसे साम्यवाद दुनिया-भर के मजदूरों को देता आया है।”[10] उन दिनों अंग्रेज “कम्युनिज्म” शब्द से ही खार खाते थे। ऐसे में किसी प्रतिनिधि के मुंह से “कामरेड्स” संबोधन सुनना, खुद को साम्यवादी जगत का प्रतिनिधि बताना, कामगारों, मजदूरों और किसानों की बात करना, वहां मौजूद सदस्यों के लिए यह एकदम अप्रत्याशित था। सो सिंगारवेलु की पहली पंक्ति के साथ ही सभागार तालियों से गूंजने लगा।
भाषण में सिंगारवेलु ने कहा था – “हम स्वराज के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह लड़ाई हम अहिंसा और असहयोग जैसे हथियारों की मदद से लड़ रहे हैं। मेरा उनमें विश्वास है। मगर इन हथियारों से वर्गहीन समाज की रचना संभव नहीं है।” उन्होंने कहा था – “धनाढ्य संभल जाएं। ताकतवर ध्यान दें…. दुनिया में जितनी भी अच्छी चीजें हैं, सब मेहनतकश लोगों ने ही तुम्हें दी हैं। तुमने उन्हीं को हाशिए पर ढकेल दिया। वे हमेशा तुम्हारी इच्छाओं के लिए खटते रहते हैं। फिर भी तुम उनकी उपेक्षा करते हो…. याद रखो, भारतीय मजदूर अब जाग चुके हैं। वे अपने अधिकारों को धीरे-धीरे समझने लगे हैं।”[11] कांग्रेस के इतिहास में वह पहला अवसर था, जब उसके सम्मेलन में किसान और मजदूर वर्ग पर चर्चा हो रही थी। लोग कांग्रेस के कायाकल्प का श्रेय गांधी को देते हैं। लेकिन उस समय की परिस्थितियां ऐसी थीं कि उनसे समझौता किए बगैर कांग्रेस की राष्ट्रव्यापी स्वीकार्यता संभव ही नहीं थी। डॉ. आंबेडकर, रामासामी पेरियार और सिंगारवेलु जैसे नेताओं का दबाव कांग्रेस और गांधी दोनों को बदलने को विवश कर रहा था।
कांग्रेस का गया अधिवेशन सिंगारवेलु की राजनीति की दिशा तय कर चुका था। उनके भाषण ने देश-विदेश के लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। देश-भर से पहुंचे प्रतिनिधियों ने मांग की कि सिंगारवेलु को कांग्रेस की श्रमिक मामलों की प्रस्तावित उपसमिति में स्थान दिया जाए। मानवेंद्रनाथ राय ने मजदूरों तथा आम जनता की समस्या की ओर कांग्रेस तथा सरकार का ध्यान आकर्षित कराने के लिए सिंगारवेलु की प्रशंसा की थी। अपनी उग्र कार्यशैली और साम्यवादी रुझान के कारण वे पहले ही अंग्रेजों की नजर में आ चुके थे। 1921 में पुलिस ने उनके घर पर दबिश दी थी। वह कथित रूप से “चुनौती” शीर्षक से प्रकाशित पंफलेट्स की तलाशी लेने गई थी। लेकिन पुलिस को वहां से खाली हाथ लौटना पड़ा था।[12]
सिंगारवेलु और गांधी
अपने आरंभिक राजनीतिक जीवन में सिंगारवेलु गांधी से प्रभावित थे। परंतु उनकी कार्यशैली गांधी से अलग थी। प्रिंस ऑफ़ वेल्स भारत दौरे पर आए। शेष भारत की तरह दक्षिण में भी उनकी यात्रा का बहिष्कार किया गया। मद्रास में सिंगारवेलु के नेतृत्व में हड़ताल का आह्वान किया गया था। हड़ताल पूरी तरह कामयाब थी। बाद में पता चला कि हड़ताल में शामिल होने के लिए कुछ दुकानदारों पर दबाव बनाया गया था। कुछ कार्यकर्ताओं की शिकायत पर गांधी ने 9 फरवरी, 1922 के “यंग इंडिया” में “सत्याग्रह की मूल भावना का पालन न करने पर” सिंगारवेलु की आलोचना की थी।[13]
भारत में पहले कम्युनिज्म दल के निर्माता
गया सम्मेलन में ही उनकी भेंट श्रीपाद अमृत डांगे से हुई। मानवेंद्रनाथ राय से उनका संपर्क पहले से ही था। अबनीनाथ मुखर्जी, जो अपने साथियों में अबनी मुखर्जी के नाम से पहचाने जाते थे, सिंगारवेलु से मिलने दो बार मद्रास पहुंचे थे। इस तरह सिंगारवेलु कांग्रेस में रहकर भी अपनी स्वतंत्र राजनीति कर रहे थे। पेरियार की तरह वे भी कांग्रेसी नेताओं की कथनी और करनी के अंतर को समझते थे। जानते थे कि कांग्रेस कभी भी मजदूरों और किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए सरकार से सीधे टकराव का खतरा मोल नहीं लेगी। इसलिए मद्रास लौटते ही उन्होंने अपने विचारों को कार्यरूप देने के लिए काम शुरू कर दिया था। उसके फलस्वरूप 1 मई, 1923 में “हिंदुस्तान लेबर किसान पार्टी” का गठन हुआ।
पार्टी गठन के दिन ही सिंगारवेलु के नेतृत्व में पहली बार, 1 मई 1923 को भारत में मई दिवस का आयोजन किया गया। उसी दिन “हिंदुस्तान लेबर किसान पार्टी” के उद्देश्यों के बारे में लोगों को बताया गया था। मई दिवस का आयोजन सिंगारवेलु ने मद्रास में दो स्थानों पर किया था। पहला उच्च न्यायालय के आगे समुद्र तट पर। दूसरा ट्रिप्लिकेन तट पर। पहली बैठक की अध्यक्षता स्वयं सिंगारवेलु ने की थी। दूसरे कार्यक्रम की अध्यक्षता एस. कृष्णास्वामी सरमा ने। उस अवसर पर सिंगारवेलु ने कहा था कि मई दिवस का आयोजन स्वयं मजदूरों द्वारा किया गया है। उन्होंने उम्मीद जाहिर की थी कि देश में शीघ्र ही मजदूरों की सत्ता स्थापित होगी, जो लोगों के विकास को गति देगी। उस अवसर पर लाल-क्रांति का प्रतीक ‘लाल-झंडा’ भी फहराया गया था। सार्वजनिक कार्यक्रम में लाल झंडा फहराने की वह घटना, न केवल भारत, अपितु एशिया में भी पहली घटना थी। उस अवसर पर 2 मई, 1923 के “दि हिंदू” में छपा –
‘लेबर किसान पार्टी ने मद्रास में मई दिवस उत्सव आरंभ किया है। कामरेड सिंगारवेलु ने उस बैठक की अध्यक्षता की थी। प्रदर्शन कामयाब था। मीटिंग में मई दिवस को सार्वजनिक अवकाश घोषित करने की मांग भी की गई। पार्टी अध्यक्ष ने पार्टी के अहिंसक सिद्धांतों के बारे में लोगों को बताया था। उसमें लोगों से आर्थिक मदद की अपील भी की गई। इस बात पर जोर दिया गया था कि भारतीय मजदूरों को दुनिया-भर के मजदूरों के साथ संगठित हो जाना चाहिए।’[14]
दिसंबर 1923 में उन्होंने “दि लेबर किसान गजट” शीर्षक से पाक्षिक की शुरुआत की। इसके साथ-साथ तमिल भाषा में “तोझीलालान” (कामगार) शीर्षक से साप्ताहिक भी निकाला था जिसका एक अंक का मूल्य ‘आधा आना’ था। अंग्रेजों की सिंगारवेलु पर नजर थी। उनकी दृष्टि में “हिंदुस्तान लेबर किसान पार्टी”, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से कहीं अधिक खतरनाक थी। 1924 में “कानपुर बोल्शेविक षड्यंत्र” मामले में सिंगारवेलु को उनके घर पर नजरबंद कर लिया गया। तब उनकी उम्र 64 वर्ष थी। बाद में उन्हें जमानत मिल गई।
1925 में कानपुर में पहले कम्युनिस्ट सम्मेलन का आयोजन किया गया था। उसकी अध्यक्षता सिंगारवेलु ने की। उस बैठक में “कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया” के गठन को स्वीकृति मिली थी। अपने अध्यक्षीय भाषण में सिंगारवेलु ने छूआछूत की समस्या की चर्चा भी की थी। उनका दृष्टिकोण साम्यवादी दृष्टिकोण से मेल खाता था–
“हमें साफ तौर पर समझ लेना चाहिए कि साम्यवाद की नजर में छूआछूत पूरी तरह आर्थिक समस्या है। अछूतों को मंदिर प्रवेश, सार्वजनिक तालाबों और मार्गों पर चलने का अधिकार प्राप्त है अथवा नहीं, इन प्रश्नों का ‘स्वराज’ के संघर्ष से कोई संबंध नहीं है…. कम्युनिस्टों की न तो कोई जाति होती है, न धर्म। व्यक्ति का हिंदू, मुसलमान या ईसाई होना उसका निजी मामला है…. जैसे ही उन(अस्पृश्यों) की आर्थिक पराश्रितता खत्म होगी, छूआछूत की समस्या भी अपने आप समाप्त हो जाएगी।”[15]
उन दिनों पेरियार ने “आत्मसम्मान आंदोलन” की स्थापना की थी। सिंगारवेलु की ख्याति उन दिनों शिखर पर थी। उसी दौरान दोनों नेता एक-दूसरे के करीब आए। सिंगारवेलु ने ही पेरियार को कांग्रेस छोड़ने के लिए प्रोत्साहित किया था। पेरियार के मनस् में साम्यवाद का बीजारोपण करने वाले भी वही थे। सिंगारवेलु की सलाह पर ही पेरियार ने सोवियत संघ की यात्रा पर गए थे। लौटने के बाद पेरियार ने सोवियत संघ के अनुभवों के आधार पर “आत्मसम्मान आंदोलन” की कार्यनीति में बदलाव करने का निर्णय लिया। पेरियार के आग्रह पर सिंगारवेलु ने “इरोद कार्यक्रम” का ड्राफ्ट तैयार किया। 4 मार्च 1934 को मन्नारगुडी, तमिलनाडु में हुए “आत्मसम्मान आंदोलन” में सिंगारवेलु ने उसकी अध्यक्षता की थी। अपने भाषण में सिंगारवेलु ने भारतीय समाज के आर्थिक वैषम्य पर चिंता व्यक्त की थी–
“देश की 40 प्रतिशत जनता को भरपेट भोजन भी नहीं मिलता। मृत्यदर दूसरे देशों से कहीं ज्यादा है। यह 1000 में 30 है। 100 में से 30 बच्चे एक साल का होते-होते मर जाते हैं। भारत में औसत आयु मात्र 20 है, जबकि इंग्लेंड में 53 वर्ष है…. लोग घोर दारिद्रय में जीते हैं। बावजूद इसके मंदिरों की घंटियां टनटनाती रहती हैं। मस्जिदों में नमाज और चर्च में प्रार्थनाएं चलती रहती हैं। लोग जिसे ईश्वर समझकर पूजते हैं, उसके बारे में वे कुछ नहीं जानते। ईश्वर महज मनुष्य की रचना है।”[16]
उस भाषण में सिंगारवेलु ने अपने पूर्वजों को भी नहीं छोड़ा था—
“मेरे अपने पूर्वजों ने ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए 1 लाख रुपये अलग रख दिए थे। लेकिन जब उनकी बस्ती के मछुआरे बीमार पड़े, वे केवल देवता को पूजा-अर्चना, प्रार्थना और बलि तक सीमित रहे। मेरी जाति की तरह और भी जातियां हैं। वे भी धर्मादे के लिए रकम एक ओर रख देती हैं और मुश्किल समय में प्रार्थनाओं और बलि देकर मन को तसल्ली देती रहती हैं।”[17]
मजदूर नेता के रूप में
बकिंघम एंड करनाटिक मिल्स, मद्रास की सबसे बड़ी कपड़ा मिल थी। उसका महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि भारत की पहली लेबर यूनियन[18], “मद्रास लेबर यूनियन” का गठन अप्रैल,1918 में वहीं के मजदूरों ने मिलकर किया था। ब्रिटिश अधिकारी यूनियन के गठन का विरोध कर रहे थे। वर्ष 1920 में एक ब्रिटिश अधिकारी रिवाल्वर लिए मजदूरों को धमकाता फिर रहा था। एक मजदूर ने उसकी रिवाल्वर छीनकर पुलिस को सौंप दी। इस पर पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी। बाबूराव और मुरुगन नामक दो युवा मजदूर वहीं मारे गए। मद्रास में श्रमिक आंदोलन में मरने वाले ये दोनों पहले थे। घटना से नाराज 13 हजार मजदूर हड़ताल पर उतर आए। बाद में पुलिस और कामगारों के बीच कई भिड़ंत हुईं, जिनमें दर्जनों मजदूरों को प्राण गंवाने पड़े। सिंगारवेलु ने न केवल हड़ताल के नेतृत्व में हिस्सा लिया, बल्कि लगातार लेख लिखकर मजदूरों के उत्पीड़़न के विरुद्ध आवाज़ उठाते रहे।
उन्हीं दिनों उत्तरी मद्रास में मैसी कंपनी के कामगार भी हड़ताल पर चले गए। वी. चक्करई और ओदीकेसवेलु नायकर जैसे मजदूर नेताओं के साथ सिंगारवेलु एक बार फिर मजदूरों के समर्थन में उतर गए। अपने आग उगलते भाषणों से इन तीनों नेताओं ने सरकार को हिला दिया था। 1927-28 उत्तरी-पश्चिमी रेलवे, बंगाल-नागपुर रेलवे तथा ईस्ट इंडियन रेलवे के कर्मचारी अपनी मांगों को लेकर हड़ताल पर चले गए। रेलवे कर्मचारियों को समर्थन देने, उनका हौसला बढ़ाने के लिए सिंगारवेलु ने भोपाल, हावड़ा और बंगाल की यात्राएं की। हावड़ा और बंगाल में 30 हजार मजदूर-कामगार हड़ताल पर थे। सिंगारवेलु ने अपने साथियों के साथ हड़ताल में हिस्सा लिया था। उत्तरी भारत की यात्रा से लौटे ही थे कि दूसरी हड़ताल की सूचना मिली। 1928 में दक्षिण भारतीय रेलवे के मजदूर उनकी नए सिरे से छंटनी का विरोध कर रहे थे। छंटनी के लिए प्रबंधकों ने कर्मचारियों की योग्यता के नए मानदंड तैयार किए थे, जो मजदूरों को स्वीकार्य नहीं थे। दूसरे रेलवे ने मजदूरों को अलग-अलग ठिकानों पर भेजने का निर्णय लिया था। मजदूर इनका विरोध कर रहे थे। मांगें न माने जाने पर मजदूर 19 जुलाई, 1928 से हड़ताल पर चले गए। उनके समर्थन में बाकी मजदूरों और कामगारों ने भी हड़ताल की घोषणा कर दी। परिणामस्वरूप 21 जुलाई से रेलवे का चक्का जाम हो गया। वह हड़ताल आखिरकार नाकाम सिद्ध हुई। इस आंदोलन के लिए सिंगारवेलु को दोषी माना गया और उन्हें दस वर्षों की सजा हुई। लेकिन बाद में अपील पर, उनकी बीमारी और उम्र को देखते हुए सजा की अवधि 18 महीने कर दी गई।
सिंगारवेलु का निधन 11 फरवरी, 1946 को हुआ। जब तक जीवित रहे तब तक उन्हें मजदूरों के हितों की चिंता सताती रही। जीवन के आखिरी दिनों में जब बढ़ी उम्र के कारण सक्रियता घट गई तो उन्होंने पेरियार की पत्रिकाओं, “कुदी अरासु”, “रिवोल्ट” तथा अंग्रेजी दैनिक हिंदू में लेख आदि लिखकर संघर्ष की लौ को जलाए रखा। उनकी आंखों में समानता पर आधारित, वर्गहीन समाज का सपना बसता था। उन्होंने गांधी के नाम एक पत्र में लिखा था कि प्रत्येक परिवार को उतनी जमीन मिलनी चाहिए, जिससे वह अपनी जरूरत के लायक अन्न उपजा सके। अपना घर होना चाहिए, ताकि किसी को भी किराया न चुकाना पड़े। इसके अलावा मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य की व्यवस्था भी सरकार की ओर से करनी चाहिए। जिस स्वराज में यह गारंटी न हो, उसका कोई मूल्य नहीं है। असली स्वराज केवल जनता द्वारा, और केवल जनता के लिए आएगा।
[1] अलेक्जेंडर ट्रेक्टनबर्ग, दि हिस्ट्री ऑफ़ मे डे, इंटरनेशनल पंपलेट, 14,799 ब्रोडवे न्यू यार्क, पृष्ठ 3
[2] के. मुरुगेशन एंड सी.एस. सुब्रमण्यम- सिंगारवेलु : फर्स्ट कम्युनिस्ट इन साउथ इंडिया, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृष्ठ-1
[3] पी. मनोहरन, जेनेसिस एंड ग्रोथ ऑफ़ कम्युनिस्ट पार्टी इन इंडिया, पृष्ठ 191।
[4] पी. मनोहरन, पृष्ठ-189
[5] पी. मनोहरन, पृष्ठ-190
[6] के. मुरुगेशन एंड सी.एस. सुब्रमण्यम, पृष्ठ-1
[7] पी. वसंतकुमारन, गॉडफादर ऑफ़ इंडियन लेबर, एम. सिंगारवेलु, पूर्णिमा प्रकाशन, चैन्नई।
[8] के. मुरुगेशन एंड सी.एस. सुब्रमण्यम, पृष्ठ-2
[9] पी. वसंतकुमारन, पूर्णिमा प्रकाशन, चैन्नई।
[10] के. मुरुगेशन एंड सी.एस. सुब्रमण्यम, पृष्ठ 164-165
[11] उपर्युक्त 165
[12] पी. मनोहरन, पृष्ठ 183
[13] दि कलैक्टिड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गांधी, खंड-26, पृष्ठ 132-134।
[14] के. मुरुगेशन एंड सी.एस. सुब्रमण्यम, पृष्ठ-169
[15] उपर्युक्त पृष्ठ 203
[16] उपर्युक्त पृष्ठ 221-22
[17] उपर्युक्त पृष्ठ 222
[18] पी. मनोहरन, पृष्ठ-11
(संपादन : गोल्डी/अनिल/नवल)