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कोरोना काल में मजदूर : बाकी जो बचा था हुक्मरान ले गए!

अनुराग मोदी विस्तार से बता रहे हैं कि ऐसे समय में जब देश के मजदूर सरकार से मदद की उम्मीद लगाए बैठे थे, सरकार ने उन्हें उनके हाल पर तो छोड़ ही दिया और कुछ देने के बजाय उनके अधिकार भी छीन लिये। ना तो मजदूर अपने वेतन को लेकर, ना बोनस को लेकर और ना ही अपनी सुरक्षा व अन्य मांगों को लेकर कुछ कह पाएंगे और ना ही हड़ताल कर सकेंगे

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते 24 मार्च, 2020 को  आठ बजे अचानक टीवी पर आकर लोगों को घर के बाहर ‘लक्ष्मण रेखा’ खींच दी और लोगों को उसके भीतर रहने के फरमान जारी कर दिया। उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा कि शहर में जितने लोग घरों में रहते हैं, उतने ही लोग बेघर होते हैं। ऐसे लोग कहां जाएंगे? इस तुगलकी लॉकडाउन की कीमत पिछले दो माह से इस देश के मजदूर चुका रहे हैं। देश की सभी सडकों पर पैदल, ट्रकों के अंदर  ठुंसे हुए, उनके उपर बैठे हुए, साइकिल या अन्य दो-पहिया वाहनों पर, बैलगाड़ी में अथवा जुगाड़ वाहनों से वे लम्बी दूरियां तय कर रहे हैं।  आजादी के बाद यह देश का सबसे पड़ा पलायन है। कमाल यह है कि वे  सड़कों पर तो हैं परन्तु व्यवस्था के लिए मानों अदृश्य हो गए हैं। 

अप्रैल माह की तनख्वाह तो शायद ही किसी मजदूर को मिली होगी।  बल्कि लॉकडाउन 24 मार्च को घोषित होने के कारण इनमें से एक बड़ी संख्या को मार्च की तनख्वाह भी नहीं मिली है। मजदूरों के पास जो बचा-खुचा था, वो शहरों में रहकर खाने-पीने में खर्च हो गया। अपने घर वापस जाने के लिए ट्रक, ऑटो आदि वाहन के किराए के लिए घर वालों ने कर्ज लेकर पैसा भेजा है।

सरकार ने लॉकडाउन के दौरान मजदूरों को उनकी  मजदूरी का भुगतान किए जाने का आदेश निकालने की रस्म अदायगी की थी।  उस आदेश पर भी सुप्रीम कोर्ट ने अस्थायी रोक लगा दी है। अधिकांश प्रवासी मजदूर सितम्बर से मई माह के बीच उनकी कमाई से जो बचता है, उससे गांव लौटकर अपना कर्जा चुकाते हैं, कुछ शादी-ब्याह आदि में खर्च करते हैं और  कुछ खेती-बाड़ी में लगाने के बाद शेष से गांव में  बारिश के चार महीनों में अपना खर्चा चलाते हैं।

उम्मीद थी मदद की, छीन गए अधिकार; एक प्रवासी महिला मजदूर अपने बच्चे के साथ (तस्वीर साभार ‘हफिंगटन पोस्ट’)

ऐसे समय में, सरकार  को एक विशेष अध्यादेश के जरिए श्रम कानूनों में इस तरह के बदलाव करने चाहिए थे जिनसे ना सिर्फ मजदूरों की बकाया तनख्वाह का भुगतान सुनिश्चित होता बल्कि भविष्य में वे इस तरह से सड़क पर ना फेंक दिए जाते। वे सिर्फ एक मशीन बनकर ना रह जाते बल्कि उन्हें एक मानवीय जिन्दगी मिलती। 

लेकिन, ऐसा नहीं हुआ! उल्टा, प्रधानमंत्री के चुनौती को अवसर में बदलने  के निर्देश के बाद राज्य सरकारों ने बचे-खुचे श्रम कानूनों को एक झटके में निष्प्रभावी कर दिया। यूं तो छह राज्यों ने अपने श्रम कानूनों में परिवर्तन किए हैं; या यूं कहें तो बेहतर होगा कि उन्हें पंगु बना दिया। मगर इसमें सबसे आगे हैं भाजपा-शासित गुजरात, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश। ऐसा लग रहा है जैसे राज्यों के बीच होड़ लगी है कि कौन मजदूरों का ज्यादा से ज्यादा नुकसान करता है।  मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश ने आगामी तीन साल के लिए (लगभग 1,000 दिन) श्रम कानूनों को शिथिल किया है तो गुजरात ने 1200 दिन के लिये। गोवा, महाराष्ट्र और ओडिशा सरकारों ने काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 कर दिए हैं। 

यह भी पढ़ें : “असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों में बहुलांश दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के, इनकी समस्याओं को अलग कर नहीं देखा जाना चाहिए”

मध्यप्रदेश सरकार ने 5 मई को एक गजट नोटिफिकेशन के जरिए श्रम कानूनों को आगामी एक हजार दिनों के लिए शिथिल कर दिया। श्रम आयुक्त ने 6 मई को सभी श्रम कार्यालयों को इस बारे में सूचना भी जारी कर दी। राज्य सरकार ने दुकानों के खुलने का समय सुबह 6 बजे से लेकर रात 12 बजे तक कर दिया। मतलब यह कि अब दुकानों पर काम के घंटे 18 तक हो सकते हैं। 

वहीं उत्तरप्रदेश सरकार ने 6 मई को मंत्रीपरिषद की बैठक में “उत्तरप्रदेश श्रम विधियों से अस्थाई छूट अधिनियम, 2020” अनुमोदित कर दिया। इसके बाद राज्य में लागू 38 श्रम कानूनों में से सिर्फ तीन अस्तित्व में रहेंगे। इनमें  बंधुआ श्रम प्रथा (उत्सादन) अधिनियम, 1976; कर्मचारी प्रतिकार अधिनियम, 1923; भवन एवं अन्य सन्निर्माण कर्मकार (नियोजन एवं सेवा शर्ते विनियमन) अधिनियम, 1996  और महिलाओं और बच्चों के लिए जो कानून शामिल हैं। 

उत्तरप्रदेश सरकार ने काम के घंटे आठ से बारह करने के बारे में 8 मई को अलग से एक नोटिफिकेशन जारी किया था जिसे इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा कारण बताओ नोटिस जारी किए जाने के बाद वापस ले लिया। मगर उससे कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं है क्योंकि श्रम कानूनों को शिथिल किए जाने के बाद अब उद्योगों पर काम के घंटों को लेकर बंदिश नहीं रहेगी और ना ही मजदूरों के पास उसकी शिकायत लेकर जाने की कोई जगह बचेगी। 

औद्योगिक विवाद अधिनयम, 1947 और औद्योगिक सबंध अधिनियम, 1960 के शिथिल होने के बाद श्रम न्यायालय, ट्राइब्यूनल और ट्रेड यूनियन का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। ना तो मजदूर अपने वेतन को लेकर, ना बोनस को लेकर और ना ही अपनी सुरक्षा व अन्य मांगों को लेकर कुछ कह पाएंगे और ना ही हड़ताल कर पाएंगे। मजदूर बोर्ड का अस्तित्व भी खत्म हो जाएगा और लम्बे आन्दोलन के बाद मजदूरों ने जो थोड़े-बहुत अधिकार पाए थे, वो भी एक झटके में खत्म हो जाएंगे। एक तरह से मजदूर अंग्रेजों से पहले वाले हालात में पहुंच जाएंगे।

कानून के बदलाव से संभावित खतरे

  1. कानूनों के निष्प्रभावी होने से निरीक्षण से मुक्ति जिससे कर्मचारियों का शोषण बढ़ेगा।
  2. मजदूरों को मालिक की मर्जी से 8 से ज्यादा घंटे काम करना होगा और शिफ्ट की अवधि मनमानी होगी। ओवर टाइम का भी कोई ठिकाना नहीं होगा।
  3. श्रमिक यूनियनों को मान्यता न मिलने से कर्मचारियों के अधिकारों की आवाज़ कमजोर पड़ेगी।
  4. मजदूरों का पक्ष नहीं सुना जाएगा; यूनियनों का अस्तित्व खत्म होगा। 
  5. मजदूरों की बड़े पैमाने पर छंटनी होगी। 
  6. हायर एंड फायर के सिस्टम को बढ़ावा मिलेगा।
  7. मजदूरों को बोनस आदि सुविधा नहीं मिलेगी। 

ध्यातव्य है कि ये सब कानून मजदूरों के लम्बे आन्दोलन के बाद बने थे। 1850 के आसपास अंग्रेजों ने भारत में रेलवे लाइन बिछाना शुरू किया, बम्बई और मद्रास  बंदरगाह विकसित किये और कॉटन और जूट मिलें डालीं तथा कोयले का व्यावसायिक खनन शुरू किया, जिसके चलते भारत में औद्योगिकीकरण की शुरूआत हुई। उस समय मजदूरों के लिए कोई कानून नहीं थे; सब कुछ मालिकों की मर्जी पर था। लम्बे संघर्ष के बाद 1926 में ट्रेड यूनियन एक्ट बना और 1929 में पब्लिक सेफ्टी एक्ट और ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट अस्तिव में आया। आज़ादी के आन्दोलन में भी मजदूरों की बड़ी भूमिका थी। इसलिए आजादी के बाद मजदूरों के हित में कई कानून बने और तथा समय के साथ-साथ नए-नए कानून बनते रहे।

लेकिन, इन सब कानूनों के बावजूद इस देश की दो-तिहाई जनता, जो किसी न किसी रूप में मजदूर है, पिछले दो माह से भय, भूख और भ्रम का शिकार है और पिस रही है। उसके मानव अधिकारों का संरक्षण करने की बजाय, उसे श्रम कानूनों का जो थोड़ा सहारा था, सरकार ने उसे भी खत्म कर दिया है । 

कोविड-19 का हल्ला थोडा कम होने के बाद मजदूर यूनियन व श्रमिक संगठनें इसे लेकर क्या रूख अपनाती हैं, यह देखना होगा। वैसे भारतीय मजदूर संघ सहित अन्य श्रमिक संगठनों ने इन बदलावों का विरोध तो किया है। 

(संपादन : नवल/अमरीश)

लेखक के बारे में

अनुराग मोदी

समाजवादी जन परिषद् से सम्बद्ध अनुराग मोदी 27 वर्षों से आदिवासी ईलाके में काम करने वाला एक पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता हैं। 1989 में मुम्बई में सिविल इंजीनियर की नौकरी से त्याग पत्र देकर नर्मदा नदी पर बने पहले बड़े बाँध, बरगी बाँध के विस्थापितों के साथ काम किया। फिर बैतूल जिले के छोटे से गाँव पतौपुरा में आदिवासीयों के साथ श्रमिक आदिवासी संगठन शुरू किया। जनपक्षधर लेखन में सक्रिय।

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