“जिस प्रकार कार्ल मार्क्स और साम्यवाद एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं, उसी प्रकार त्यागमूर्ति आरएल चंदापुरी और पिछड़ा वर्ग आंदोलन एक-दूसरे के पर्याय हैं। इस महापुरुष ने एक नए भारत की नई खोज की और शूद्रों की प्रबल रचनात्मक शक्तियों का पुनराविष्कार कर भारतीय इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया। इन पर कई बार जानलेवा हमले हुए परंतु गंभीर रूप से जख्मी होने पर भी वे मौत को पराजित करते रहे और मानव समाज में सामाजिक न्याय को स्थापित करने के लिए ऊंच-नीच की भावना को खत्म कर मानव-मानव में प्रेम और भाईचारा स्थापित करने की कोशिश करते रहे।”
-प्रो. डॉ. स्टीफेन हेन्निघंम, आस्ट्रेलिया।
राम लखन चंदापुरी भारतीय समाज के सभी दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों को पिछड़ा मानते थे। उन्होंने देश की आजादी के साथ ही ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ राष्ट्रव्यापी पिछड़ा वर्ग आंदोलन छेड़ा था। यह पिछड़ों का मुक्ति संग्राम था, जो अनेक घात-प्रतिघातों के बावजूद तब से लेकर आजतक देश के सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन की दिशा का निर्धारण कर रहा है। आरएल चंदापुरी का जन्म 20 नवंबर, 1923 को पटना जिले के बसुहार गांव में हुआ था। उनके माता-पिता कुर्मी जाति के किसान परिवार से आते थे। पिता का नाम महावीर सिंह एवं माता का नाम हीरामणि कुंवर था। चंदापुरी जी जब नौवीं कक्षा में थे तभी उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के छात्र आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया था। 1946 में नौआखाली दंगे के दौरान मुस्लिम समुदाय को बचाने में चंदापुरी ने साहस का परिचय दिया था। इसलिए 1947 में ‘शांति मिशन’ के सिलसिले में जब महात्मा गांधी मसौढ़ी आए, तो उन्होंने युवक चंदापुरी की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
उच्च जातियों के लोग केवल अछूतों को ही नीच और पतित नहीं कहते थे, बल्कि अन्य पिछड़ी जातियां भी उनकी नजर में शूद्र और पतित ही थीं। वे उन्हें ‘नान्ह जाति’ या ‘सोलकंद’ कहकर उनसे घृणा करते थे। पिछड़े वर्ग के लोगों को उच्च जातियों के यहां खाट आदि पर बैठना मना था। अपने घर या चौपालों पर रहते हुए भी उन्हें जब-तब उच्च जातियों के लोगों को देखकर उनके आतंकपूर्ण सम्मान में उठ खड़ा होना पड़ता था। पिछड़े वर्गों के प्रति उच्च जातियों के ऐसे अपमानपूर्ण व्यवहारों ने शिक्षित युवक चंदापुरी को अंदर से विचलित कर दिया। इसलिए उन्होंने पिछड़े वर्ग के कुछ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ मिलकर 10 सितम्बर 1947 को ‘बिहार प्रांतीय पिछड़ी जाति संघ’ की स्थापना की, जो बाद में ‘अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग संघ’ के रूप में एक राष्ट्रव्यापी संगठन बन गया और इसकी शाखाएं प्राय: हर प्रांत में फैल गई।
प्रो. फ्रेंकाइन आर फ्रेंकेल की पुस्तक डोमीनेंस एंड स्टेट पॉवर इन माडर्न इंडिया : डिक्लाइन ऑफ ए सोशल आर्डरश् के अनुसार ‘बिहार राज्य पिछड़ा वर्ग संघ’ के कार्यकारी अध्यक्ष आरएल चंदापुरी ने संघ के उद्देश्यों और कार्यक्रमों की वृहत् रूप से व्याख्या की। उन्होंने 1949 में ‘पिछड़ा वर्ग’ नामक हिन्दी साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन किया। उसमें प्रकाशित उनके भाषणों एवं लेखों से गांवों में बसनेवाली पिछड़ी जातियां जागृत होने लगीं। चंदापुरी ने 1949 में लिखा, ‘जब कभी भारत में क्रांति का उद्रेक होगा तो उसका नेतृत्व पिछड़ी जाति के लोग और पददलित ही करेंगे।’
उन्होंने स्नातक और कानून की डिग्रियां हासिल की थीं। चंदापुरी को अमेरिका के न्यूयार्क विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन में एमए और पीएचडी करने का आमंत्रण और सरकारी सुविधा संबंधी पत्र मिला। 1949 में उन्हें अमेरिका जाना था। उन्होंने सारी तैयारी पूरी कर ली और अपनी जगह ‘पिछड़ी जाति संघ’ का एक नया अध्यक्ष बना दिया। इसी बीच एक दुखद घटना घट गई। देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के गांव जीरादेई, छपरा जिला के निकट एकमा थाने के माने गांव में रहनेवाले संघ के सक्रिय नेता चुल्हाई साहू पर हिंसक हमले हुए। वे तेली जाति के स्वाभिमानी व्यक्ति थे और खाते-पीते परिवार के किसान और व्यवसायी थे। उच्च जातियों के लोगों के सामाजिक भोज में दलित-पिछड़े लोगों को न केवल अलग बैठना पड़ता था, बल्कि अपना जूठा पत्तल भी उन्हें खुद ही उठाना पड़ता था। दलित-पिछड़ों के स्वाभिमान की रक्षा के लिए एक दिन उन्होंने अपने यहां एक सहभोज का आयोजन किया, जिसमें इलाके के पिछड़ों के साथ-साथ अछूत समुदाय के लोग भी थे। दलित-पिछड़ों से छुआछूत की भावना मिटाने के लिए सबको एक ही पांत में प्रेमपूर्वक खिलाया गया। भोजन करके वे सभी उत्साह से गले मिले और दूसरे गांवों में भी ऐसा ही आयोजन करने का निर्णय लिया।
ऊंची जाति के लोगों ने इसे अपना अपमान समझा। चुल्हाई साहू को सबक सिखाने के लिए अगले दिन कुछ सवर्ण युवकों ने उन्हें पकड़कर तेज हथियार से उनके दोनों कान काट डाले। उन्हें धमकी भी दी कि भविष्य में यदि ऐसे भोज हुए तो तुम्हारा घर फूंक दिया जाएगा। घटना की खबर मिलते ही आसपास के गांवों से पिछड़े वर्ग के लोग चुल्हाई साहू के दरवाजे पर इकट्ठे हो गए। ‘छपरा जिला पिछड़ी जाति संघ’ के नेताओं ने लोगों को धैर्य से काम लेने का आह्वान किया। किन्तु पिछड़े युवकों ने इस घटना को चुनौती के रूप में लिया और कान काटनेवाले के यहां पहुंच गए। वह घर पर नहीं था। युवकों ने प्रतिहिंसा में उसके पिता के ही दोनों कान काट लिए। घटना की खबर इलाके में बिजली की तरह फैल गई। जिस पुलिस ने चुल्हाई साहू के कान काटने की घटना पर कोई ध्यान नहीं दिया था, इस घटना की खबर मिलते ही कार्यवार्ही शुरू कर दी। आनन-फानन में उन्हें पकड़कर जेल में बंद कर दिया गया। उन पर मुकदमा चला। सुनवाई के लिए चंदापुरी तथा ‘उत्तर प्रदेश पिछड़ी जाति संघ’ के प्रसिद्ध नेता शिवदयाल सिंह चौरसिया भी आए, किन्तु उनकी एक न सुनी गई। चुल्हाई साहू को चार वर्ष की सजा हो गई और जेल से निकलते ही वे मर गए। इस घटना से चंदापुरीजी काफी मर्माहत हुए और अमेरिका जाना छोड़कर ‘संघ-संगठन’ के कार्य में लग गए।
चंदापुरीजी अपने ‘पिछड़ा वर्ग संघ’ के बैनर तले संविधान निर्माण के समय से ही संविधान में पिछड़ों के लिए विशेष अवसर और आरक्षण संबंधी धारा 340 जुड़वाने, देश में ‘पिछड़ा वर्ग आयोग’ के गठन, उसकी सिफारिशों को देश में लागू करवाने एवं बिहार में पिछड़े वर्ग को आरक्षण दिलवाने के लिए आंदोलनात्मक प्रयास करते रहे। इसके लिए वे संविधान सभा और डा. भीमराव आम्बेडकर के सम्पर्क में बराबर रहे। बिहार में पिछड़ों के आरक्षण के लिए वे 1952 से ही प्रयत्नशील थे। 1977 में उनके उग्र आंदोलन के कारण ही बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने ओबीसी आरक्षण लागू किया। चंदापुरी ने जीवनभर समाज के लिए काम किया। वे जनता के बीच जाकर चुनाव द्वारा विधायिका और सरकार में जाना चाहते थे, किन्तु इस कार्य में उन्हें सफलता नहीं मिली।
ऐसे समर्पित समाजसेवी और क्रांतिकारी मसीहा का निधन 81 वर्ष की उम्र में 2004 में हो गया। वे डा. आम्बेडकर और डा. लोहिया के आंदोलन और मिशन से अत्यंत प्रभावित थे और मानते थे कि दलित व ओबीसी यदि एक मंच पर आ जाएं, तो देश में सत्ता परिवर्तन हंसी-खेल में हो जाएगा। इसके लिए उन्होंने प्रयास भी किया और 1951 में आम्बेडकर को पटना के गांधी मैदान में बुलाकर एक विशाल जनसभा को संबोधित भी करवाया।
(फारवर्ड प्रेस के जुलाई 2013 अंक में प्रकाशित)