महान समाज सुधारक, राजनीतिज्ञ और धार्मिक नेता डॉ. भीमराव आंबेडकर को इस धरती पर जितना भी समय मिला, उसमें उन्होंने उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल कीं। आंबेडकर ने अपनी पुस्तक द बुद्धा एंड हिज धम्म में बौद्ध धर्म को एक नए नज़रिए से देखा। 6 दिसंबर, 1956 को उनकी मृत्यु तक यह पुस्तक प्रकाशित नहीं हो सकी थी और यह 1957 में पाठकों को उपलब्ध हो सकी। उनकी एक अन्य पुस्तक, जो इससे भी कहीं अधिक विवादस्पद है, का हाल इससे भी बुरा हुआ। नानक चंद रत्तू के अनुसार, आंबेडकर ने जनवरी, 1954 में इस पुस्तक का लेखन शुरू किया और नवंबर, 1955 में वह प्रकाशन के लिए तैयार थी। इस पुस्तक का शीर्षक था रिडिल्स इन हिंदूइज्म और यह हिन्दू धर्म के प्रिय और सम्मानित ग्रंथों, नायक-नायिकाओं और सिद्धांतों पर तीखा हमला थी। रत्तू कहते हैं कि आंबेडकर ने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि चार प्रतियों में टाइप करवाई थी। आंबेडकर का कहना था कि “मेरी अपनी कोई प्रेस तो है नहीं और इस पुस्तक को मुझे किसी हिन्दू प्रेस से छपवाना पड़ेगा। वहां यह पाण्डुलिपि गुम हो सकती है या जल कर अथवा अन्यथा नष्ट हो सकती है। अगर ऐसा हुआ तो मेरी सालों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा। इसलिए, चाहे जितने भी पैसे खर्च हो जाएं मैं चाहूंगा कि मेरे पास इसकी एक अतिरिक्त प्रति रहे।”[i] आंबेडकर इस पुस्तक को तुरंत प्रकाशित नहीं करवा सके क्योंकि उन्हें दो फोटोग्राफ, जिन्हें वे पुस्तक में शामिल करना चाहते थे, नहीं मिल सके थे। आर्थिक परेशानियां तो थीं हीं। वैसे अर्थ की कमी उनकी हर पुस्तक प्रकाशन परियोजना की हमजोली रही। आंबेडकर के लेखों और भाषणों के संकलन के संपादकों और अन्य अध्येताओं ने इन समस्याओं का विस्तार से विवरण किया है।[ii] अंततः पुस्तक की पांडुलिपियों की चारों प्रतियां गायब हो गईं और आंबेडकर वांग्मय के संपादकों को उनकी मृत्यु के बाद उनके कागजातों में मिलीं। अलग-अलग लेखों की पांडुलिपियों को जोड़ कर यह पुस्तक प्रकाशित करनी पड़ी।
रिडिल्स इन हिंदूइज्म पर जितना ध्यान अध्येताओं को देना था, उतना उन्होंने नहीं दिया। परन्तु मेरा यह लेख इस कमी को पूरा करने का प्रयास नहीं है। मेरा उद्देश्य बहुत सीमित है। एक छोटा सा परन्तु महत्वपूर्ण रहस्य इस गूढ़ ग्रन्थ से जुड़ा हुआ है और मेरा मानना है कि अपने बौद्धिक पथप्रदर्शकों से आंबेडकर के रिश्तों से जुड़े दस्तावेजों के मेरे हालिया अध्ययन के आधार पर मैं इस रहस्य को सुलझा सकता हूं। इनमें सबसे अग्रणी थे अमरीकी प्रयोजनवादी दार्शनिक जॉन डेवी। जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूं, आंबेडकर पर प्रजातंत्र, संवाद और राजनैतिक सुधार सम्बन्धी डेवी के विचारों का गहरा प्रभाव था।[iii] आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय में 1913 से लेकर 1916 तक अपने अध्ययन के दौरान जो कोर्स चुने थे, उनमें से तीन डेवी पढ़ाते थे। कोलंबिया और अमरीका छोड़ देने के बाद भी आंबेडकर डेवी की पुस्तकें खरीदते और पढ़ते रहे। वे पुस्तकों की सामग्री पर विस्तृत टिप्पणियां भी करते थे। इन पुस्तकों में शामिल थीं – जॉन डेवी और जेम्स हेडेन टफ्ट की 1906 में प्रकाशित एथिक्स। अरुण मुख़र्जी, मीरा नंदा, एलेनर जेलिअट, क्रिस्टोफर क्वीन और मैंने अपने अध्ययनों के आधार पर पाया है कि डेवी का प्रभाव आंबेडकर के राजनैतिक विचारों पर तो था ही, आंबेडकर के सुधार लाने और अन्यों को अपने विचारों से सहमत करवाने के तरीके पर भी डेवी का असर देखा जा सकता है।[iv] आंबेडकर ने जिस तरीके से अतीत के स्रोतों और परम्पराओं (जिनमें उनके ‘अपने’ प्रोफेसर डेवी शामिल थे) से तथ्य जुटाए और उनका उपयोग अपने अनूठे तर्कों को गढ़ने में किया; उस पर भी प्रयोजनवाद का प्रभाव साफ़ दिखलाई पड़ता है। सन् 1936 में प्रकाशित उनकी पुस्तक एनिहीलेशन ऑफ़ कास्ट इसका उदाहरण है।[v]
डेवी जैसे प्रयोजनवादी चिंतकों ने उच्च शिक्षित आंबेडकर को किस तरह प्रभावित किया और दूसरी ओर, आंबेडकर ने उस दार्शनिक धारा, जिसे प्रयोजनवाद कहा जाता है, में किस तरह के अनूठे और महत्वपूर्ण परिवर्तन किये, इस पर अभी बहुत कुछ कहा जाना बाकी है। आंबेडकर की शिक्षा और इस महान चिन्तक पर उसको मिली शिक्षा के प्रभाव के बारे में कुछ नया और उपयोगी खोजने के प्रयास में मैंने भारत और अमेरिका में उपलब्ध पुराने अभिलेखों का विस्तृत अध्ययन किया। इसी अध्ययन के दौरान मेरा साबका आंबेडकर की रिडिल्स इन हिंदूइज्म में एक छोटी सी पहेली से पड़ा जिसे मैं अब हल कर सकता हूं। और मेरे विचार से यह हल आंबेडकर की वैचारिक प्रतिबद्धता के मर्म को उद्घाटित करता है। मेरी दृष्टि में यह मर्म इस धारणा में अंतर्निहित है कि सामाजिक प्रजातंत्र सबसे महत्वपूर्ण और सर्वकालिक नैतिक और राजनैतिक आदर्श है और सुधार लाने के हमारे सभी प्रयासों का उद्देश्य सामाजिक प्रजातंत्र की स्थापना होनी चाहिए।
‘ब्रह्म इज नॉट धर्म’ में प्रयोजनवादी पहेली
आइए, अब हम इस गूढ़ पुस्तक के उस अध्याय पर चर्चा करें जिसका शीर्षक है ‘ब्रह्म इज नॉट धर्म, व्हाट गुड इज ब्रह्म’। मुंबई में महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार में इस अध्याय का जो एकमात्र मूल मसविदा बचा है, उसे देखने से पता चलता है कि आंबेडकर अपने लेखन में निरंतर सुधार और परिवर्द्धन करते रहते थे। इस दस्तावेज में ढ़ेरों परिवर्तन और संशोधन हैं और कई चीज़ें हटाईं गयीं हैं। दस्तावेज के मुखपृष्ठ पर (आंबेडकर की विशिष्ट हस्तलिपि में) इस अध्याय का जो शीर्षक दिया गया है, वह अंतिम मसविदे से भिन्न है। शायद उस समय आंबेडकर का इरादा इस शीर्षक का उपयोग करने का रहा होगा। यह शीर्षक है, “ब्रह्म एंड धर्म. व्हाई ब्रह्म वाज नॉट अलाउड टू बिकम द बेसिस ऑफ़ धर्म”। इससे हमें यह भी पता चलता है कि आंबेडकर अपनी पुस्तक में जिस क्रम में विभिन्न अध्याय रखना चाहते थे, उसमें भी उन्होंने कई परिवर्तन किये। हस्तलिखित मुखपृष्ठ में ऊपर की ओर आंबेडकर ने इस अध्याय के प्रस्तावित क्रमांक लिखे हैं। उन्होंने ‘15’, ‘23’, ‘22’ और ‘23’ लिखा है और फिर इन सबको काट कर, पुनः ‘22’ लिखकर उस पर गोला बनाया है। पुस्तक के सरकार द्वारा प्रकाशित संस्करण में इस पहेली का क्रमांक ‘22’ है।
इस पहेली में आंबेडकर प्रजातंत्र के संभावित आध्यात्मिक आधारों पर विचार करते हैं, जिनमें ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ (सर्वत्र ब्रह्म ही है) का प्रसिद्ध सूत्र शामिल है।[vi] हिन्दू धर्म और प्रजातान्त्रिक सरकार के परस्पर रिश्तों की इस पड़ताल (जिसे आंबेडकर ब्राह्मणवाद और ब्रह्मवाद में विभाजित करते हैं) में सबसे पहले वे यह स्पष्ट कर देते हैं कि प्रजातंत्र केवल एक शासन प्रणाली नहीं हैं। वे लिखते हैं, “प्रजातंत्र, शासन की एक प्रणाली से कहीं ज्यादा है। वह समाज के संगठन की एक प्रणाली है।”[vii] प्रजातंत्र के बारे में उनके इस कथन से उनकी पुस्तक एनीहीलेशन ऑफ़ कास्ट के पाठक परिचित होंगे। उस पुस्तक में वे अपने शिक्षक जॉन डेवी की पुस्तक डेमोक्रेसी एंड एजुकेशन का हवाला दिया है। इस पुस्तक में कहा गया है, “प्रजातंत्र, शासन की एक प्रणाली से कहीं ज्यादा है। मूलतः वह संयुक्त जीवन जीने का एक तरीका है, वह एक सम्मिलित, साझा अनुभव है।”
शोध के सिलसिले में मुंबई के सिद्धार्थ कॉलेज – जो उन स्थानों में से एक है जहां पुस्तकों के आंबेडकर के व्यक्तिगत संकलन को संरक्षित रखा गया है – की मेरी यात्राओं से मुझे पता चला कि आंबेडकर के पास प्रयोजनवाद पर इस महत्वपूर्ण पुस्तक की कम से कम तीन प्रतियां थीं, जिनमें से दो में उन्होंने अपने विशिष्ट अंदाज़ में ढेर सारी टिप्पणियां लिखीं हैं। आंबेडकर ने डेवी के इस विचार को आत्मसात कर लिया था कि अपने समुदाय के सदस्यों के साथ विचार-विनिमय, प्रजातंत्र का हिस्सा है और इस भारतीय सुधारक ने जातिगत दमन के विभिन्न स्वरूपों, जिनके बारे में वे अच्छी तरह से जानते थे, से अपने संघर्ष में उन्होंने इसका ध्यान रखा।
परन्तु प्रजातंत्र के बारे में डेवी के विचारों से प्रेरित इस चर्चा तुरंत बाद हमें आंबेडकर की रिडिल्स ऑफ़ हिंदूइज्म में एक बड़ी खामी के दर्शन होते हैं। आंबेडकर प्रजातंत्र में ‘समाज का वर्गों में स्तरीकरण’ न होने की व्याख्या करते हुए डेवी के वैचारिक ढांचे की चर्चा करते हैं। वे लिखते हैं, “जैसा कि प्रोफेसर डेवी कहते हैं।” इसके बाद वे यह नहीं लिखते कि प्रो. डेवी क्या कहते हैं। पेज के नीचे आंबेडकर फुटनोट में लिखते हैं “डेमोक्रेसी एंड एजुकेशन, पेज 98”
आंबेडकर वांग्मय के संपादकों ने ठीक ही लिखा है कि “लेखक ने जिस उद्धरण का हवाला दिया है वह डेवी की डेमोक्रेसी एंड एजुकेशन की मूल पाण्डुलिपि के पृष्ठ संख्या 98 पर नहीं है।”[viii] ठीक ऐसी ही गलती, प्रकाशित संस्करण के अगले पृष्ठ पर है, जिसमें प्रो. डेवी के एक और उद्धरण का हवाला दिया गया है और जिसके बारे में अस्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि वह ‘डेमोक्रेसी एंड एजुकेशन’ के पृष्ठ संख्या 99 पर है। यह उद्धरण भी पुस्तक में बताए गए स्थान पर नहीं है। अगर हम पुराने दस्तावेजों को ठीक से खंगालें तो क्या हम इन खाली स्थानों को भर सकेंगे और यह जान सकेंगे कि आंबेडकर ने भारत में सामाजिक प्रजातंत्र की अपनी अवधारणा को विकसित करने में डेवी से क्या लिया था?
इस पहेली की महाराष्ट्र सरकार द्वारा संरक्षित पाण्डुलिपि को देखते हुए मुझे लगा कि इसमें कई ऐसे संकेत छिपे हुए हैं जो इन खाली स्थानों को भरने में हमारी मदद कर सकते हैं। पाण्डुलिपि में टाइप किये हुए वाक्य “एज प्रोफेसर डेवी हैज ओबसर्व्ड” और हस्तलिखित फुटनोट के बीच, उद्धरण के लिए निर्धारित स्थान पर, आंबेडकर के हस्तलिपि में लिखा था, “डेमोक्रेसी एंड एजुकेशन के पृष्ठ संख्या 98 में कोष्ठकों के बीच की सामग्री को यहां लिखें।” इसी तरह का हस्तलिखित नोट पृष्ठ संख्या 99 से लिए जाने वाले उद्धरण के सम्बन्ध में भी लिखा है।
ये दोनों नोट इस रहस्य को सुलझाने में एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। ऐसा लगता है कि आंबेडकर वांग्मय के संपादकों ने इन पर समुचित ध्यान नहीं दिया। आंबेडकर ने यह साफ़-साफ़ शब्दों में लिखा था कि उद्धरण “कोष्ठकों के अन्दर” हैं। क्या हम उनकी विशाल व्यक्तिगत लाइब्रेरी के बचे हुए हिस्से को खंगाल कर यह पता लग सकते हैं कि वे किन उद्धरणों की बात कर रहे थे? मैं इस प्रश्न का उत्तर खोजने सिद्धार्थ कॉलेज पंहुचा, जिसकी स्थापना आंबेडकर ने 1946 में की थी और जहां उनकी व्यक्तिगत लाइब्रेरी का एक हिस्सा संरक्षित है। मैं जानना चाहता था कि पहेली के अन्दर की इस पहेली का हल मैं खोज सकता हूं या नहीं। इस संकलन में डेमोक्रेसी एंड एजुकेशन की दो प्रतियां हैं और दोनों में ही आंबेडकर की विस्तृत टिप्पणियां लिखीं हैं। एक सन् 1916 का संस्करण है, जिसके मुखपृष्ठ पर एक हस्तलिखित नोट से साफ़ है कि आंबेडकर ने उसे 1917 में लन्दन में तब खरीदा था जब वे वहां पढ़ रहे थे। दूसरी प्रति पुस्तक के सन् 1925 जे पुनर्मुद्रित संस्करण की है।
सन् 1916 के संस्करण, जिसे आंबेडकर ने विद्यार्थी के रूप में डेवी के व्याख्यान सुनने के बाद लन्दन में खरीदा था, की प्रति में हमारे इस प्रश्न का उत्तर छिपा है कि आखिर वे कौनसे उद्धरण थे, जिन्हें आंबेडकर 22वीं पहेली में शामिल करना चाहते थे। पुस्तक के पृष्ठ संख्या 98 पर आंबेडकर ने लाल और नीली रंग के पेंसिलों, जिनका वे सामान्यतः इस्तेमाल करते थे, से निम्न उद्धरण के दोनों ओर कोष्ठक के निशान लगाये हैं :
“जो विचार कुछ लोगों को मालिक बनाते हैं वे ही अन्यों को गुलाम बनाते हैं। और दोनों ही पक्षों के अनुभव किसी काम के नहीं रह जाते यदि उनके बीच अंतर्संबंध न हों। समाज के विशेषाधिकार प्राप्त और पराधीन वर्गों में विभाजन से सामाजिक अन्तराभिसरण नहीं हो पता। नतीजे में, उच्च वर्ग जिन बुराईयों से ग्रस्त होता है वे कम महत्वपूर्ण और कम दृष्टिगोचर भले ही हों, परन्तु वे होती तो हैं ही। उच्च वर्ग की संस्कृति बंजर होती है और अंतर्सीमित भी; उसकी कला प्रदर्शनप्रिय होती है; उसकी संपत्ति सिर्फ ऐश्वर्य का साधन होती है; उसका ज्ञान अति-विशेषीकृत होता है और उसका व्यवहार मानवीय न होकर दुराराध्य होता है।”[ix]
आंबेडकर द्वारा इस अंश का चुनाव इस धारणा के प्रति उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता दर्शाता है कि राजनैतिक प्रजातंत्र के किसी भी स्वरुप को बनाए रखने के लिए सामाजिक प्रजातंत्र बहुत महत्वपूर्ण है। सदियों पुरानी वर्ण और जाति व्यवस्था में वर्चस्व और दासता का जो रुप उन्होंने देखा था वह केवल भारत तक सीमित था, परन्तु डेवी की अवधारणाओं ने उन्हें वे उपकरण दिए जिनकी मदद से वे यह समझा सकते थे कि इस श्रेणीबद्ध पदक्रम में क्या गलत है। जातिगत विभाजन के कारण विभिन्न समूहों में विचारों, मूल्यों, हितों और महत्वाकांक्षाओं का मुक्त विनिमय नहीं हो आता था। इन विभाजनों से केवल दमितों का नुकसान नहीं होता वरन इससे दमनकर्ता समूहों में भी कई बुराईयों का जन्म होता है।
जाति उन समूहों को विभाजित कर देती है जिन्हें एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करना चाहिए। इससे इन समूहों में से एक या अधिक के हितों को क्षति पहुंचती है और उसका कारण होता है समाज के शक्तिशाली तबके द्वारा कुछ समूहों की उपेक्षा और अवहेलना या कुछ समूहों द्वारा केवल अपनी भलाई पर ध्यान देना। जबकि एक समृद्ध और मानवीय समुदाय के निर्माण के लिए यह ज़रूरी है कि ये सभी समूह मुक्तभाव से और सार्थक ढंग से एक साथ रहें, आपस में संव्यवहार करें और मिलकर काम करें।
आंबेडकर डेवी के अब तक चिन्हित न किये गए इस उद्धरण के हवाले से आगे कहते हैं, “विभिन्न समूहों और व्यक्तियों के बीच हितों की पारस्परिकता के अभाव के प्रजातंत्र का निषेध करने वाले परिणाम होते हैं।”[x] ये परिणाम क्या होते हैं इनका वर्णन डेवी अपने दूसरे उद्धरण में करते हैं, जो रिडिल्स इन हिंदूइज्म के प्रकाशित संस्करण में चिन्हित नहीं किया गया गया। डेवी की पुस्तक के 1916 के संस्करण की आंबेडकर की प्रति में उस हिस्से के दोनों छोरों पर कोष्ठक बनाए गए जिसे आंबेडकर पृष्ठ संख्या 99 से लेना चाहते थे।
“कोई भी गिरोह या गुट जब अलग-थलग रहता है और स्वयं को विशिष्ट समझता है तब उसकी समाज-विरोधी मानसिकता उभर आती है। यह तब भी होता है जब किसी समूह के अपने हित होते हैं जिनके चलते वह अन्य समूहों से अंतर्व्यव्हार नहीं करता और उसका एकमात्र लक्ष्य जो उसे प्राप्त है, उसकी रक्षा करना होता है। उसे व्यापक रिश्ते बनाकर समाज को पुनर्गठित करने या उसकी प्रगति के लिए काम करने में कोई रूचि नहीं होती। ऐसे में राष्ट्र एक दूसरे से दूर हो जाते हैं, परिवार अपने घरेलू मसलों को ऐसे छिपाते हैं मानों व्यापक समाज से उनका कोई रिश्ता ही न हो, स्कूलों को परिवारों और समुदायों के हितों से कोई मतलब नहीं रहता, गरीबों और अमीरों के बीच और ज्ञानी और अज्ञानी के बीच दीवारें बन जातीं हैं। मूल बात यह है कि विभिन्न समूहों के अलग-थलग रहने से कठोरता उत्पन्न होती है, ज़िन्दगी औपचारिक संस्थागत स्वरुप ग्रहण कर लेती है और समूहों के आदर्श स्वार्थ पर आधारित और अपरिवर्तनीय बन जाते हैं।”[xi]
ये दोनों उद्धरण, जिन्हें, जहां तक मुझे पता है, पहली बार पक्के तौर पर चिन्हित किया गया है, आंबेडकर के इस विचार की पुष्टि करते हैं कि “कोई भी सरकार प्रजातान्त्रिक नहीं हो सकती यदि जिस समाज में वह काम कर रही है उस समाज का ढांचा और स्वरुप प्रजातान्त्रिक न हो।”[xii] इस अध्ययन के प्रकाश में रिडिल्स इन हिंदूइज्म के भावी संस्करणों में दोनों खाली स्थानों को भरा जा सकता है। रिडिल्स इन हिंदूइज्म के इस हिस्से में दबी पड़ी इस छोटी से प्रयोजनवादी पहेली का हल अब मिल गया है।
आंबेडकर और प्रयोजनवाद की बड़ी पहेली
इससे भी बड़ी पहली यह है कि आंबेडकर के लिए सामाजिक प्रजातंत्र के क्या मायने थे, उनके अनुसार वह कैसे हासिल किया जा सकता है और किस प्रकार दक्षिण एशिया के सन्दर्भ में इन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए वे डेवी के प्रयोजनवाद से आगे गए। इस पहेली का हल खोजने में कहीं अधिक समय लगेगा परन्तु मैं इतना ज़रूर कह सकता हूं कि इस दिशा में कई महत्वपूर्ण संकेत उभर रहे हैं। डेवी के विचारों का आंबेडकर पर प्रभाव कई अर्थों में अनूठा था। डेवी के दर्शन की अपनी समझ के चलते वे ज्ञान शास्त्र, विज्ञान, प्रजातंत्र और शिक्षा जैसे विविध विषयों पर काम कर सके और इन सभी को प्रयोजनवादी दृष्टिकोण से देख सके। प्रयोजनवाद मानव को ऐसे जंतु के रूप में देखता है जो अपनी आदतों का निर्माण कर सकता है और जो बुद्धिमत्ता से प्राकृतिक व सामाजिक वातावरण से सामंजस्य स्थापित कर सकता है। आंबेडकर, डेवी की इस अवधारणा से सहमत थे कि प्रजातंत्र, दरअसल, एक आदत है, अपना जीवन जीने का एक तरीका है। वह केवल निर्णय लेने की आधिकारिक प्रक्रिया का नाम नहीं है। यही बात वे रिडिल्स इन हिंदूइज्म के इस भाग में दूसरे शब्दों में कहते हैं. “शासन के प्रजातान्त्रिक स्वरुप से कुछ भला होगा या नहीं, यह समाज के सदस्यों की प्रकृति पर निर्भर करेगा। अगर लोगों की मानसिकता प्रजातान्त्रिक है तो हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था से सुशासन स्थापित होगा।”[xiii]
डेवी की तरह आंबेडकर का भी यह मानना था कि इस बिंदु पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया है। वे बाईसवीं पहेली में शुरुआत में ही लिखते हैं- “दुर्भाग्यवश इस बात का अहसास लोगों को बहुत कम है कि सुशासन किस हद तक नागरिकों की मानसिक और नैतिक मनोवृत्ति पर निर्भर करता है।”[xiv] आगे चलकर, 1950 के दशक में आंबेडकर ने अपनी पुस्तक एनीहीलेशन ऑफ़ कास्ट में मौजूद इसी मुद्दे को विस्तार देते हुए लिखा कि एक आदर्श सामाजिक प्रजातंत्र को समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्यों की बीच संतुलन स्थापित करना होगा। इन तीनों मूल्यों की चर्चा वे 1936 में प्रकाशित अपनी इस मौलिक रचना में करते हैं। इसी के साथ वे ‘सामाजिक अन्तराभिसरण’ का आह्वान भी करते हैं और डेवी के विचारों का समर्थन करते हुए कहते हैं, “एक आदर्श समाज को गतिशील होना चाहिए और उसमें ऐसे माध्यम होने चाहिए जिनसे एक हिस्से में हो रहे परिवर्तनों को दूसरे हिस्सों में संप्रेषित किया जा सके।”[xv] समुदाय का लचीलापन और साझेदारी सामाजिक प्रजातंत्र के आदर्श के अनुरूप है और यह सभी पक्षों के बीच मुक्त संवाद और अंतर व्यवहार पर आधारित है। यहां तक कि एनीहीलेशन ऑफ़ कास्ट में वे ‘सामाजिक अन्तराभिसरण’ की तुलना बंधुत्व के मूल्य से करते हैं- “यही बंधुत्व है, जो प्रजातंत्र का दूसरा नाम है।”[xvi]
यह आंबेडकर की प्रतिभा ही थी कि उन्होंने अमरीकी सन्दर्भ में प्रतिपादित इस सिद्धांत को, दक्षिण एशिया की परिस्थितियों के अनुकूल आकर दिया था। दक्षिण एशिया में ऐसा बहुत कुछ था जो अमेरिका में नहीं था जैसे अनेक धर्म, औपनिवेशिक शासन और जातिगत दमन। रिडिल्स इन हिंदूइज्म प्रजातंत्र के सम्बन्ध में डेवी के विचारों को एक नए कलेवर में प्रस्तुत करती है। आंबेडकर ने 1936 में लिखी अपनी पुस्तक एनीहीलेशन ऑफ़ कास्ट की तरह रिडिल्स में भी बंधुत्व को, समानता और स्वतंत्रता से बहुत ऊपर, सर्वोच्च स्थान दिया। ऐसा करने के लिए उन्होंने धर्म को एक महत्वपूर्ण उपकरण के तौर पर इस्तेमाल करने की वकालत की। वे चाहते थे कि धर्म का उपयोग परस्पर प्रेमभाव को बढ़ावा देने के लिए किया जाय। बाईसवीं पहेली में एक महत्वपूर्ण अनुच्छेद है :
“कुछ लोगों के लिए प्रजातंत्र का अर्थ समानता और स्वतंत्रता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि समानता और स्वतंत्रता, प्रजातंत्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। परन्तु इससे भी महत्वपूर्ण प्रश्न यह कि स्वतंत्रता और समानता कैसे सुरक्षित रह सकती है। कुछ लोग कहेंगे कि राज्य का कानून स्वतंत्रता और समानता की रक्षा करेगा। यह सही उत्तर नहीं है। स्वतंत्रता और समानता का रक्षक है भातृ भाव, जिसे फ़्रांसीसी राज्यक्रांति के कर्ताधर्ता बंधुत्व कहते हैं। बंधुत्व शब्द से इस भाव का संपूर्ण अर्थ संप्रेषित नहीं होता। सही शब्द है, बुद्ध के शब्दों में मैत्री। बंधुत्व के बिना, समानता को स्वतंत्रता नष्ट कर देगी और स्वतंत्रता, समानता को। अगर प्रजातंत्र में समानता स्वतंत्रता को नष्ट नहीं करती और स्वतंत्रता, समानता को नष्ट नहीं करती तो इसका कारण यह है कि दोनों का आधार बंधुत्व है। अतः बंधुत्व ही प्रजातंत्र का मूल है।”[xvii]
सन 1950 के दशक में आंबेडकर के लेखन की तरह, यहां भी वे बौद्ध धर्म के प्रति अपना अनुराग प्रदर्शित करते हैं। उनके लिए बौद्ध धर्म एक ऐसा वैश्विक धर्म है जो सामाजिक न्याय का संरक्षक और प्रजातंत्र और विज्ञान के मूल्यों का पैरोकार है। परन्तु डेवी की भावनाओं और समझ से आगे बढ़ते हुए आंबेडकर रिडिल्स इन हिंदूइज्म में लिखते हैं कि “मुख्य प्रश्न” यह है कि “वह बंधुत्व, जिसके बिना प्रजातंत्र का अस्तित्व ही नहीं हो सकता, उसकी जडें कहां हैं?” इस प्रश्न का आंबेडकर का उत्तर उनकी सुधारवादी प्रवृति को इंगित करता है। वे लिखते हैं, “निस्संदेह उसका उद्गम धर्म में है।”[xviii] डेवी के अनुसार, प्रजातंत्र का संबंध लोगों के व्यक्तिगत दृष्टिकोण और मानसिकता से है। ऐसे में, अगर डेवी को आंबेडकर का यह उत्तर पता चलता तो निश्चित ही वे स्तब्ध रह जाते। आंबेडकर के लिए राजनीति महत्वपूर्ण थी, परन्तु उनकी यह भी मान्यता थी कि सामाजिक प्रजातंत्र को स्थापित करने का माध्यम और उसका लक्ष्य, उचित धार्मिक साधनों का उपयोग करते हुए बंधुत्व के भाव का विकास करना था।
आंबेडकर के दृष्टि में बौद्ध धर्म एक ऐसा धर्म था जो तार्किकता और विवेक के प्रति द्वेष नहीं रखता और जो ऐसे समुदायों के निर्माण का हामी है जो परस्पर सम्मान और साझा हितों पर आधारित हों। यह दिलचस्प है कि 22वीं पहेली की पाण्डुलिपि से ऐसा लगता है कि आंबेडकर, काण्ट के हवाले से अपने इस दावे को औचित्यपूर्ण ठहराने की कोशिश करते दिखते हैं कि प्रजातंत्र “चित्त की अभिवृत्ति और जीवन का दर्शन है।[xix] पाण्डुलिपि में इस पंक्ति के तुरंत बाद, उनके द्वारा टाइप की गयी एक पंक्ति कटी हुई है। वह पंक्ति थी, “(‘प्रजातंत्र’, पेंसिल से जोड़ा गया यह शब्द भी कटा हुआ है) का पहला सिद्धांत यह है कि कोई भी व्यक्ति, किसी अन्य व्यक्ति को पूर्णतः या मुख्यतः साधन नहीं बल्कि साध्य मानेगा।” जैसा कि उस पांडुलिप में काण्ट का सन्दर्भ दिए जाने से साफ़ है, आंबेडकर को अनेक बौद्धिक धाराओं और वैचारिक अवधारणाओं की गहरी समझ थी। परन्तु अपनी अनेक रचनाओं में जिस बौद्धिक धारा पर वे बार-बार लौट कर आते हैं वह है डेवी का विस्तृत और लचीला प्रयोजनवाद। ऐसा भी प्रतीत होता है कि बुद्धा एंड हिज धम्म में जो सुधार उन्होंने बाद में किए, वे डेवी के सामाजिक दर्शन से प्रभावित थे।[xx] परन्तु रिडिल्स इन हिंदूइज्म में आंबेडकर अपने इस अनूठे विचार पर जोर देते दिखते हैं कि समाज की समस्यायों को चिन्हित करने और उसकी मुक्ति की कुंजी है धर्म। दक्षिण एशिया के सन्दर्भ में आंबेडकर का तर्क था कि, “यदि हिन्दू सामाजिक व्यवस्था अप्रजातांत्रिक तो यह एक दुर्घटना नहीं है। उसे जानते-बूझते अप्रजातांत्रिक बनाया गया है। समाज का वर्णों और जातियों और जातियों और बहिष्कृतों में विभाजन किसी सिद्धांत पर आधारित नहीं है. वह फरमान पर आधारित है। ये विभाजन प्रजातंत्र की राह में बैरिकेड हैं।”[xxi] परन्तु वे अपने पाठक को इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचने देते कि “बंधुत्व का सिद्धांत, हिन्दू धर्म और दर्शन के लिए अजनबी था।” वे फिर यह दिलचस्प दावा करते हैं कि “हिन्दू धार्मिक और तात्विक वैचारिकी ने एक ऐसे सिद्धांत को जन्म दिया है जो बंधुत्व की अवधारणा की तुलना में, सामाजिक प्रजातंत्र के स्थापना के लिए कहीं अधिक उपयोगी है। और यह है ब्रह्मवाद का सिद्धांत।”[xxii]
इस पहेली के शेष भाग में आंबेडकर एक ऐसी अवधारणा की प्रशंसा करते हैं, जिसकी जड़ें वैदिक परंपरा में हैं। और वह भी एक ऐसी पुस्तक में जो अधिकांश हिन्दुओं के धर्म और उसके दर्शन के प्रति घोर नकारात्मकता का भाव रखती है। आंबेडकर का यह तर्क कुछ दिलचस्प लगता है कि केवल ब्रह्म का विचार ही उस तरह के मनोभाव और दृष्टिकोण के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितयां उत्पन्न कर सकता है जो सामाजिक प्रजातंत्र की स्थापना में सहायक हो सकते हैं जबकि इसके पहले तक आंबेडकर सामाजिक प्रजातंत्र को केवल बंधुत्व, समानता और स्वतंत्रता के मूल्यों से जोड़ते आ रहे थे।
“अगर सभी व्यक्ति ब्रह्म के अंश हैं तो वे सभी बराबर हैं और उन सभी को समान स्वतंत्रता हासिल होनी चाहिए। और यही प्रजातंत्र का अर्थ है। ब्रह्म की अवधारणा अबूझ हो सकती है परन्तु इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि ब्रह्म का सिद्धांत, प्रजातंत्र के लिए जितनी मज़बूत नींव उपलब्ध करवा सकता है उतना कोई और सिद्धांत नहीं कर सकता…यह जानने और समझने के बाद कि आप और मैं उसी ब्रह्मांडीय स्रोत से निकले हैं, हमारे पास प्रजातंत्र के अतिरिक्त साथ रहने का कोई सिद्धांत नहीं बचता। ब्रह्मवाद केवल प्रजातंत्र की शिक्षा नहीं देता। वह प्रजातंत्र को सबके लिए अनिवार्य बनाता है।”[xxiii]
पूर्व में किये गए अपने इस दावे कि बौद्ध गणतंत्र भारत के सबसे प्राचीन प्रजातान्त्रिक समाजों में से एक थे, को आगे बढ़ाते हुए आंबेडकर लिखते है कि ब्रह्म की एकमात्र परम सत्य के रूप में परिकल्पना से हमें पता चलता है कि “प्रजातंत्र की सैद्धांतिक नींव रखने में भारत का भी योगदान था।”[xxiv] बहरहाल, आंबेडकर ने कभी वेदान्तिक हिन्दू धर्म के प्रजातान्त्रिक स्वरुप को पुनर्निर्मित करने में रूचि नहीं दिखलाई, परन्तु उनके लिए यह एक बड़ी पहेली थी कि ब्रह्म जैसे एकीकृत संकल्पना के होते हुए भी ब्राह्मणों ने जातिगत दमन द्वारा असमानता क्यों निर्मित की और क्यों वे “ब्रह्मवाद के अत्यंत प्रजातान्त्रिक सिद्धांत से प्रभावित और प्रेरित नहीं हुए।’[xxv]
इस पहेली और आंबेडकर के प्रयोजनवाद की इससे भी बड़ी पहेली का मर्म आंबेडकर की ब्रह्मवाद और ब्राह्मणवाद (अर्थात जाति-आधारित हिन्दू धर्म) की चकित कर देने वाली विवेचना के अंत में है। वैदिक परंपरा, जिसके वे घोर निंदक थे, के प्रति कुछ झुकाव प्रदर्शित करते हुए वे इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि ‘ब्रह्मवाद का कोई सामाजिक प्रभाव क्यों नहीं पड़ा’ और यह संकेत देते हैं कि इसका कारण यह था कि उसे धर्म या नैतिकता का आधार नहीं बनाया गया। उसकी जगह वह केवल एक दर्शन या एक वैचारिक संकल्पना बन कर रह गया जिसका सामाजिक स्थितियों और समुदाय की बेहतरी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह व्यवहार में नहीं आया और उसका जुड़ाव कभी ऐसे मुद्दों से नहीं हुआ जो किसी ऐसे सामाजिक समुदाय के लिए महत्वपूर्ण होते जिसके सदस्यों में मुक्त अंतर्व्यव्हार था। ब्रह्म और धर्म की इस पहेली का एक प्रकार से निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए, आंबेडकर यह बताते हैं कि दर्शन क्या हो सकता है। “दर्शन केवल सैद्धांतिक नहीं होता। उसमें व्यावहारिक संभावनाएं भी होतीं हैं।” इस तरह, धर्मों के दर्शन का व्यावहारिक प्रभाव भी हो सकता है। आंबेडकर को सामाजिक सरोकारों वाले बौद्ध धर्म के उनके स्वरुप से यही उम्मीद थी। डेवी की तरह, आंबेडकर की भी यही मान्यता थी कि सबसे व्यावहारिक और अहम दार्शनिक पड़ताल वह है जो जीवन के अनुभव से उपजे और जिससे व्यक्तियों और समुदायों की ज़िन्दगी में बेहतरी आए। “दर्शन की जडें जीवन की समस्याओं में हैं और जो भी सिद्धांत, दर्शन प्रतिपादित करता है वे समाज के पुनर्निर्माण के उपकरण बनने चाहिए। केवल जानना पर्याप्त नहीं है। जो जानते हैं उन्हें करना भी चाहिए।” (26) परन्तु डेवी के विपरीत, आंबेडकर का मानना था कि धर्म लोगों के स्वयं और अन्यों के प्रति दृष्टिकोण को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है और वह समाज के निर्माण और सुधार में भूमिका अदा कर सकता है।
(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)
[i] नानक चंद रत्तू, ‘लास्ट फ्यू इयर्स ऑफ़ डॉ. आंबेडकर’, नयी दिल्ली: अमृत पब्लिशिंग हाउस, 63.
[ii] उदाहरण के लिए देखें, एस. आनंद, ‘द रिडिल ऑफ़ रिडिल्स इन हिंदूइज्म’, आउटलुक, 7 अप्रैल 2016: https://www.outlookindia.com/magazine/story/the-riddle-of-riddles-in-hinduism/296962.
[iii] स्कॉट आर. स्ट्राउड, ‘द लाइक-माइंडेडनेस ऑफ़ डेवी एंड आंबेडकर’, फॉरवर्ड प्रेस, 19 मई 2017 https://www.forwardpress.in/2017/05/john-dewey-pragmatism-communication-and-bhimrao-ambedkar.
[iv] डेवी और आंबेडकर के संबंधों पर व्यापक व विस्तृत लेखन के लिए देखें: अरुण पी. मुख़र्जी, ‘बी.आर. आंबेडकर, जॉन डेवी, एंड द मीनिंग ऑफ़ डेमोक्रेसी’, न्यू लिटररी हिस्ट्री, 40 (2), 2009, 347-348; क्रिस्टोफर एस. क्वीन, ‘ए पीडेगोगी ऑफ़ द धम्म: बी.आर. आंबेडकर एंड जॉन डेवी ऑन एजुकेशन’, इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ बुद्धिस्ट थॉट एंड कल्चर, 24, 2015; स्कॉट आर. स्ट्राउड, ‘प्रेगमेटिज्म, परसुएशन, एंड फ़ोर्स इन भीमराव आंबेडकर्स रिकंस्ट्रक्शन ऑफ़ बुद्धिज़्म’, जर्नल ऑफ़ रिलिजन, 97 (2), 2017, 214-243; मीरा नंदा, ‘प्रोफेट्स फेसिंग बैकवर्ड: पोस्टमॉडर्न क्रिटिक्स ऑफ़ साइंस एंड हिन्दू नेशनालिज्म इन इंडिया’, न्यू ब्रंसवाईज़रविक; रूटजर्स, 2003. निसंदेह आंबेडकर पर अन्य विद्वानों का प्रभाव भी था. आंबेडकर के जाति संबंधी विचारों पर मानवशास्त्र के उनके शिक्षक अलेक्जेंडर गोल्डनवाईज़र के प्रभाव के लिए देखें: जीसस फ्रांसिस्को चैरेज़-गर्जा, ‘बी.आर. आंबेडकर, फ्रान्ज़ बोआज एंड द रिजेक्शन ऑफ़ रेशिअल थ्योरीस ऑफ़ अनटचेबिलिटी’, साउथ एशिया, 41 (2), 281-296. यहाँ जो कहा जा रहा है, ये विवरण उसके पूरक हैं. इनसे डेवी के विचारों के आंबेडकर के जीवन और कार्यों पर प्रभाव का महत्व कम नहीं होता.
[v] स्कॉट आर. स्ट्राउड. ‘प्रेगमेटिज्म एंड द परसूट ऑफ़ सोशल जस्टिस इन इंडिया: भीमराव आंबेडकर एंड द रेटोरिक ऑफ़ रिलीजियस रीओरिएंटेशन’, रेटोरिक सोसाइटी क्वार्टरली 46(1), 2016, 5-27
[vi] वही, 281
[vii] वही, 281
[viii] जॉन डेवी, डेमोक्रेसी एंड एजुकेशन, न्यूयॉर्क: मैकमिलन, 1916, 98. इस अनुच्छेद के वाक्यों और वाक्यांशों का प्रयोग आंबेडकर ने ‘एनिहीलेशन ऑफ़ कास्ट’, राइटिंग्स एंड स्पीचेस, खंड 1 (बॉम्बे: महाराष्ट्र शासन, 1989), 57 में किया है. ‘डेमोक्रेसी एंड एजुकेशन’ और डेवी की अन्य रचनाओं के ‘एनिहीलेशन ऑफ़ कास्ट’ पर प्रभाव की समग्र जानकारी के लिए अरुण मुख़र्जी के लेख और स्कॉट आर. स्ट्राउड के ‘ईकोज ऑफ़ प्रेगमेटिज्म इन इंडिया: भीमराव आंबेडकर एंड रीकन्सट्रटिव रेटोरिक’, रिकवरिंग ओवरलुक्ड प्रेगमेटिस्टस’ कम्युनिकेशन: एक्सटेंडिंग द लिविंग कन्वर्सेशन अबाउट प्रेगमेटिज्म एंड रेटोरिक, रोबर्ट दानिस्च (सम्पादित), पालग्रेव मैकमिलन, 2019. 79-103 में.
[ix] भीमराव आर. आंबेडकर, ‘रिडल्स इन हिंदूइज्म’, राईटिंग्स एंड स्पीचेस, खंड 4, 281-282
[x] जॉन डेवी, ‘डेमोक्रेसी एंड एजुकेशन;, न्यूयॉर्क: मैकमिलन, 1916, 99. इस अनुच्छेद के वाक्यों और वाक्यांशों का प्रयोग आंबेडकर ने ‘एनिहीलेशन ऑफ़ कास्ट’, राइटिंग्स एंड स्पीचेस, खंड 1 (बॉम्बे: महाराष्ट्र शासन, 1989), 51 में किया है.
[xi] भीमराव आर. आंबेडकर, ‘रिडल्स इन हिंदूइज्म’, राईटिंग्स एंड स्पीचेस, खंड 4, 282. हाल में नवायन द्वारा ‘रिडल्स इन हिंदूइज्म’ की चुनिन्दा पहेलियों का अत्यंत उपयोगी संस्करण प्रकाशित किया गया है, जिसमें ‘अनुमान’ के आधार पर इन उद्धरणों का उल्लेख किया गया है. संपादकों ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि उनमें ‘अनुमानों’ का आधार क्या है. परन्तु ऐसा लगता है कि ‘एनिहीलेशन ऑफ़ कास्ट’ के कुछ हिस्से, अरुण मुख़र्जी का ऊपर उल्लेखित लेख और 22वीं पहेली में प्रासंगिक संकेत उनके अनुमानों का आधार रहे होंगें. बहरहाल, उनके अनुमान काफी सटीक हैं. परन्तु उनके अनुमान पर आधारित पहले उद्धरण, जिसे आंबेडकर ने ‘डेमोक्रेसी एंड एजुकेशन’ की अपनी प्रति के पृष्ठ 98 में कोष्ठक के भीतर रखा था, में दो शुरूआती वाक्य नहीं हैं. अनुमान पर आधारित दूसरा उद्धरण, आंबेडकर द्वारा कोष्ठक के भीतर रखे गए अनुच्छेद से मिलता है. नवायन के अनुमानों और सम्बंधित सामग्री को पढ़ने के लिए देखें, एस. आनंद और शोभना अय्यर (सम्पादित) ‘रिडल्स इन हिंदूइज्म: द ऐनोटेटिड क्रिटिकल सिलेक्शन’, नयी दिल्ली, नवायन, 2016, 167-168.
[xii] भीमराव आर. आंबेडकर, ‘रिडल्स इन हिंदूइज्म’, राईटिंग्स एंड स्पीचेस’, खंड 4, 282-283
[xiii] वही, 283
[xiv] भीमराव आर. आंबेडकर, ‘एनिहीलेशन ऑफ़ कास्ट’, राईटिंग्स एंड स्पीचेस, खंड 1, 57. जिन ‘स्टूडेंट नोट्स’ की पहचान मैंने की है उनके अनुसार आंबेडकर ने इन तीन मूल्यों के बारे में सबसे पहले 1919 के वसंत में डेवी के फिलोसोफी 132 पाठ्यक्रम की कक्षा में सुना था. विस्तृत जानकारी के लिए देखिये, ‘प्रेगमेटिज्म, परसुएशन, एंड फ़ोर्स इन भीमराव आंबेडकर्स रिकंस्ट्रक्शन ऑफ़ बुद्धिज़्म’, जर्नल ऑफ़ रिलिजन, 97 (2), 2017, 214-243
[xv] भीमराव आर. आंबेडकर, ‘एनिहीलेशन ऑफ़ कास्ट’, राईटिंग्स एंड स्पीचेस, खंड 1, 57
[xvi] भीमराव आर. आंबेडकर, ‘रिडल्स इन हिंदूइज्म’, राईटिंग्स एंड स्पीचेस, खंड 4, 283
[xvii] वही, 284
[xviii] वही 283
[xix] इस संभावना के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए देखें स्कॉट आर. स्ट्राउड. ‘क्रिएटिव डेमोक्रेसी, कम्युनिकेशन एंड द अनचार्टेड सोर्सेज ऑफ़ भीमराव आंबेडकर’स डेवीयन प्रेगमेटिज्म’, एजुकेशन एंड कल्चर: द जर्नल ऑफ़ द जॉन डेवी सोसाइटी, 34 (1), 2018, 61-80
[xx] भीमराव आर. आंबेडकर, ‘रिडल्स इन हिंदूइज्म’, राईटिंग्स एंड स्पीचेस, खंड 4, 284
[xxi] वही, 284. इसी पृष्ठ पर एक फुटनोट में आंबेडकर यह संकेत देते हैं कि ‘उन्होंने यह शब्द प्रो. होपकिंस की द एपिक्स ऑफ़ इंडिया
[xxii] वही, 286
[xxiii] वही, 286
[xxiv] वही, 286
[xxv] वही, 286