भारत विविधताओं का देश है। देश में सबसे अधिक विविधताओं वाले प्रांतों में से झारखंड एक है। राज्य में कई आदिम जनजातियां निवासरत हैं। सरकारी दस्तावेजों में इनका उल्लेख भी है लेकिन सरकार उनकी सुध नहीं ले रही है। विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी इन जनजातियों को बचाने के लिए सरकारी योजनाएं तो हैं लेकिन उनका कार्यान्वयन ठीक से नहीं हो रहा है। ऐसी ही एक आदिम जनजाति है सबर[1]। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार इनकी आबादी केवल 9,898 रह गई थी।[2].
सबर जनजाति का एक परिवार ऐसा भी
झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले में राज्य की ओडिशा से लगी सीमा पर लखाईडीह पहाड़ पर एक ऐसी तस्वीर देखने को मिलती है जिसे देख कर विश्वास नहीं होता है कि आज भी आदि मानव की जिंदगी जीने वाला ऐसा परिवार भी हो सकता है जो पत्थर की गुफा में रहता हो। लेकिन, यह सच है। लखाईडीह में जंगलों और पहाड़ों के बीच गुफा में दो सबर परिवार रहते हैं। इनमें से एक लखाईडीह गांव का है और दूसरा दस साल पहले ओडिशा से झारखंड आया था। कोई सुविधा न मिलने की वजह से इसके मुखिया ने भी गुफा को ही अपना घर बना लिया और अपनी पत्नी, बच्चे और मां के साथ वहीं रहने लगा।
इनकी जीवनशैली आदि मानव की तरह है। पहाड़ी नाले का पानी पीना, भूख लगने पर जंगल के फल या कंद-मूल खाना और प्रकृति के अनुरूप रहना। शरीर पर कपड़े हैं भी या नहीं इसकी इन्हें कोई चिंता नहीं होती। बस जंगल में जहां इच्छा हुई बैठ गए और आराम कर लिया। दिन में भोजन का इंतजाम करने के लिए इन्हें जंगल में जाना पड़ता है और रात होते ही गुफा की शरण लेनी होती है। रात के समय जंगली जानवरों से रक्षा के लिए वे आग जलाकर रखते हैं।
पिछले दस सालों से गुफा में रहने वाले इन दो सबर परिवारों में एक के मुखिया का नाम सुरू सबर और दूसरे का कोचाबुधू सबर है। सुरू सबर अपनी पत्नी सुकमति सबर के साथ रहते हैं और कोचाबुधू सबर अपनी पत्नी सुनमणी सबर, बेटों शंभू सबर और मंगडू सबर, बेटी चंपा सबर और मां सनीबारी सबर के साथ रहते हैं। दोनों परिवारों के बच्चे चट्टानों पर ऐसे खेलते हैं, मानों गांव के खेत खलिहान में खेल रहे हों।
स्थानीय प्रशासनिक पदाधिकारी को नहीं है कोई जानकारी
डुमरिया प्रखंड के बीडीओ मुरली यादव कहते हैं कि लखाईडीह पहाड़ में सबर परिवारों के रहने की जानकारी उन्हें नहीं है। अगर ऐसी है तो वे इस बारे में कुछ पहल करेंगे। साथ ही वे एक समस्या भी सामने रखते हुए कहते हैं कि लकाईडीह गांव ओडिशा और झारखंड की सीमा पर है। गुफा में बसे सबर परिवार झारखंड में है या ओडिशा में, यह भी पता लगाना होगा।
जीना चाहते हैं सबर जनजाति के लोग
आदिम जनजातियों के बारे में एक सामान्य धारणा है कि वे हमेशा नशे में रहते हैं और समाज की मुख्यधारा से जुड़ना ही नहीं चाहते। लेकिन इस धारणा को जमशेदपुर के गुड़ाबांदा प्रखंड के सुड़ंगी गांव निवासी नारायण सबर के परिवार ने तोड़ दिया है। यह परिवार अन्य सबर-बिरहोरों से काफी अलग है। उनमें आगे बढ़ने की ललक साफ दिखलाई पड़ती है। नारायण सबर के परिवार में उनकी पत्नी एवं चार संतानें हैं। पढ़ाई के प्रति चारों बच्चों में गजब की ललक है। बड़ी बेटी लक्ष्मी बीएड कर रही है तो बड़ा बेटा प्रसाद सबर घाटशिला कालेज में पढ़ाई कर रहा है। छोटे बेटा-बेटी अभी गांव के स्कूल में हैं।
नारायण सबर को हर महीने कुछ दिनों का रोजगार आसपास के गांवों में मिल जाता है। जो कुछ आमदनी होती है उससे घर-परिवार का गुजारा चलता है। बड़ी बेटी और बेटा अपनी पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए गांव के कुछ बच्चों को अपनी झोपड़ी में ट्यूशन पढ़ाते हैं। इन्हें कक्षा एक से 8वीं तक के बच्चों को पढ़ाने के बदले प्रति छात्र 50 से 70 रुपये महीना तक मिल जाता है। प्रसाद सबर बताता है कि वह जिन बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता है उन्हें नशे से दूर रहने की नसीहत देना नहीं भूलता। स्वयं शिक्षक बनकर वह न सिर्फ अपने परिवार की दशा सुधारना चाहता है, बल्कि गरीब बच्चों को शिक्षित करना भी उसका सपना है। नारायण सबर का परिवार इस बात से दुखी है कि अभी तक उन्हें किसी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल पाया है।
पहचान पत्र नहीं तो आदिम जनजाति पेंशन भी नहीं
जमशेदपुर लोकसभा क्षेत्र के घाटशिला प्रखंड अंतर्गत आदिम जनजाति वाले गांवो में विकास के दावों की पोल इसी से खुल जाती है कि प्रखंड के चार गावों बाससडोरा, होलुदबोनी, छोटोडांगा और रामचन्द्रपुर में 106 सबर परिवारों में से कम से कम 45 के पास आधारकार्ड और राशन कार्ड नहीं है, जिसकी वजह से उन्हें न तो राशन मिलता है और न ही आदिम जनजातियों को मिलने वाली पेंशन । राज्य सरकार की एक योजना के तहत सभी आदिम जनजाति परिवारों को प्रति माह एक हजार रुपए पेंशन दिये जाने की व्यवस्था है।
स्वयंसेवी संस्था पब्लिक हेल्थ रिसोर्स नेटवर्क (पीएचआरएन) द्वारा 2017 में किया गया एक शोध बताता है कि एक हजार सबर लोगों में से हर साल 10 की मौत हो जाती है। रिपोर्ट बताती है कि सबर समुदाय के शून्य से पांच वर्ष के बच्चों में से 68 प्रतिशत का वजन औसत से काफी कम है। पर्याप्त भोजन न मिल पाने की वजह से 56 प्रतिशत बच्चों में नाटेपन और 42 प्रतिशत बच्चों में दुबलेपन की समस्या है। प्रति एक हजार 131 लोग बीमार हैं। इनमें टीबी और मलेरिया जैसी बीमारियों का ज्यादा प्रकोप है। बता दें कि यह सर्वे वर्ष 2017 में पूर्वी सिंहभूम जिला अंतर्गत डुमरिया प्रखंड के 284 सबर परिवारों के बीच किया गया था।
विलुप्त होती जनजातियों को बचाने के लिए सरकार करे ठोस उपाय
जमशेदपुर में स्थानीय निवासी निर्मल चन्द्र सिंह बताते हैं कि “इनकी संख्या दिन पर दिन घटती जा रही है। आज से चार पांच साल पहले इस बस्ती में 25 परिवार रहते थे लेकिन अब गिनती के पांच घरों में ही लोग बचे हैं।” वे बताते हैं कि “ऐसा नहीं है कि ये सभी लोग कहीं पलायन कर गए हैं, कुछ लोग ने पलायन किया है लेकिन ज्यादातर लोगों की मौत हो गई है। यहां रहने वाले ज्यादातर लोगों को टीबी है और बच्चे कुपोषित हैं।” वहीं सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी संग्राम बेसरा बताते हैं कि जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ केवल शहरों तक सीमित रह जाता है। सुदूर इलाकों में सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच पाता। सबर आदिम जनजाति के लोगों को विलुप्त होने से बचाने के लिए जरूरी है कि एक समयसीमा के तहत योजनाबद्ध तरीके से सरकार उनकी बेहतरी के लिए कदम उठाए। उनके लिए सुदूर इलाकाें में इलाज की व्यवस्था हो। स्कूल स्थापित किये जायें और सबसे जरूरी तो यह है कि उनकी भाषा और संस्कृति को बचाने के लिए सरकार ठोस पहल करे। सरकार विलुप्त होती भाषा ओर बोलियों को पाठ्यक्रमों में शामिल करे।
झारखंड आर्गेनाइजेशन फॉर ह्यूमन राइट्स (जोहार) के रमेश जेरई बताते हैं, “जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तब वे एक बार घाटशिला आये थे। उस समय, सबर लोगों को ‘सभ्य’ बनाने के प्रयास में, प्रशासन ने इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत उनके लिए झोपड़ियां बनवाईं थीं। उन्हें जबरदस्ती वहां लाया गया और नहला-धुला कर खाना दिया गया। फिर उनसे कहा गया कि वे इन्हीं झोपड़ियों में रहें। एक-एक कर वे सभी काल के गाल में समा गए। एक परिवार जो बच गया था वह भी जंगलों में वापस चला गया।”
रमेश के मुताबिक, सबर लोग ‘विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी)’ हैं और उनका संरक्षण किया जाना आवश्यक है। उनकी ‘प्रगति’ कैसे हो, यह सरकारी अधिकारी तय नहीं कर सकते। उनके विकास की योजनायें उनकी इच्छा और उनकी जीवनशैली को ध्यान में रख कर बनाई जानी चाहिए। सरकार ‘विकास’ की अपनी परिभाषा उन पर नहीं लाद सकती। अगर सरकार ऐसा करेगी तो उसका नतीजा वही होगा जो राजीव गांधी की योजना का हुआ।”
(संपादन : नवल/गोल्डी/अमरीश)
—–
[1] झारखंड में कुल 32 जनजातियां हैं। झारखण्ड सरकार की राजकीय वेबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार इनमें मुण्डा, संताल (संथाल, सौतार), उरांव, खड़िया, गोंड, कोल, कनबार, सबर, असुर, बैगा, बंजारा, बथूड़ी, बेदिया, बिंझिया, बिरहोर, बिरजिया, चेरो, चिक बड़ाईक, गोराइत, हो, करमाली, खरवार, खोंड, किसान, कोरा, कोरबा, लोहरा, महली, माल पहाड़िया, पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया और भूमिज शामिल हैं।
[2] 2011 की जनगणना के अनुसार असुर की जनसंख्या 22,459, बिरहोर की 10,726, बिरजिया की 6,276, कोरबा की 35,606, माल पहाड़िया की 1,35,797, परहिया की 25,585, सौरिया पहाड़िया की 46,22 और सबर की 9,698 है।