एक तरफ भारत में राम मंदिर को लेकर चर्चा है कि आगामी 5 अगस्त को इसके निर्माण की विधिवत शुरूआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे और यह भी कि कैसे भारत में नया इतिहास गढ़ा जा रहा है। दूसरी ओर दुनिया में भी एक नए विषय पर चर्चा हो रही है। यह विषय है ‘हागिया सोफिया’। यह एक कॅथेड्रल (चर्च) का नाम है जो यह तुर्की के पूर्वी शहर कॉन्स्टेंटिनोपल शहर के मध्य में सन् 532 से 537 ई. के बीच बीजान्टिन सम्राट जस्टिनियन प्रथम के आदेश से बनाया गया था। यह गिरजाघर (चर्च) दुनिया के सबसे पुराने और भव्य गिरिजाघरों में से एक था। हागिया सोफिया का अर्थ है “पवित्र विवेक”। इस गिरजाघर से जुड़ा इतिहास रोमांचक है। पहला, उसका निर्माण गिरजाघर स्वरूप में था, बाद में उसे मस्जिद में रूपांतरीत किया गया। फिर, उसी मस्जिद को संग्रहालय में बदल दिया गया था। अब एर्दोगन की तुर्की सरकार ने उसे फिर मस्जिद में परिवर्तित करने की घोषणा की है।
तुर्की यानी तुर्कस्थान का यह वाकया भारत के अयोध्या विवाद के समतुल्य दिखाई देता है। मंदिर के लिए आंदोलन द्वारा पहले 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस और 2019 में शीर्ष् अदालत का फैसला। इस दृष्टि से, तुर्की के हागिया सोफिया का मामला और अयोध्या विवाद के बीच अधिक समानताएं दिखती हैं।
जब भव्य हागिया सोफिया कैथेड्रल बनाया गया था, तब कॉन्स्टेंटिनोपल बीजान्टिन रोमन साम्राज्य की राजधानी थी। यह शहर पूर्वी रोमन साम्राज्य के लिए महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था। कॉन्स्टेंटिनोपल को भारतीय पाठ्यक्रम में भी पढ़ाया जाता है। यह गिरजाघर लगभग 900 वर्षों तक पूर्वी रूढ़िवादी चर्च का मुख्यालय था।
1453 में तुर्क सुल्तान मेहमेद द्वितीय द्वारा कांस्टेंटिनोपल की विजय के बाद, उन्होंने कांस्टेंटिनोपल का नाम बदलकर इस्तांबूल रखा और गिरजाघर को मस्जिद में बदल दिया गया। यह लगभग 500 वर्षों तक ओटोमन साम्राज्य का केंद्र बना रहा। प्रथम विश्व युद्ध मे विजय के बाद, मित्र राष्टों (ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका)( ने 1923 में ऑटोमन साम्राज्य के कुछ हिस्सों को विभाजित कर दिया। मुस्तफा कमाल पाशा अतातुर्क, एक युवा तुर्क, मित्र राष्ट्रों की सेनाओं के खिलाफ लड़े। 29 अक्टूबर 1923 की संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद, मुस्तफा कमाल पाशा ने एक स्वतंत्र तुर्की गणराज्य की स्थापना की। और वह स्वतंत्र तुर्की के पहले राष्ट्रपति बने।
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हालांकि कमाल पाशा (19 मई, 1881 – 10 नवंबर, 1938) एक तानाशाह थे, लेकिन उनकी नीतियां लोकतंत्र, मानवतावाद और धर्मनिरपेक्षता पर आधारित थीं। उन्होंने तुर्की का आधुनिकीकरण किया। देश का औद्योगीकरण करते हुए, उन्होंने देश भर में सरकार के स्वामित्व वाले कारखानों और रेलवे नेटवर्क की स्थापना की। नए कानूनों ने पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता स्थापित की। तुर्की के लोग उन्हें प्यार से ‘अतातुर्क‘ कहते है, जिसका अर्थ है ‘तुर्की के पिता‘। पाशा ने तुर्की को दुनिया का एकमात्र ऐसा राज्य बनाया जिसने मुस्लिम-बहुल होने के बावजूद सरकारी कार्यक्रम में किसी भी मुस्लिम प्रतीक को कोई स्थान नहीं दिया। यद्यपि दुनिया में अन्य लोकतंत्र, जैसे कि अमेरिका और भारत, खुद को धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक कहते हैं, लेकिन वे देश के मुख्य धर्म और उसके प्रतीकों को सरकारी कार्यक्रमों और प्रशासन में हस्तक्षेप करने से रोकने में अक्षम ही रहे। इसी अवधि के दौरान, कमाल पाशा ने महिलाओं पर से धार्मिक प्रतिबंधों को हटा दिया और उन्हें वोट देने का अधिकार दिया। तुर्की में मुस्लिम महिलाओं को पश्चिमी कपड़े पहनने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इसके विपरीत, अमेरिका और भारत में महिलाओं पर अलग-अलग धार्मिक प्रतिबंध थे। उनकी शिक्षा के विरोध के साथ, बाल विवाह, सतीप्रथा और विधवा विवाह प्रतिबंध जैसे धार्मिक शोषण चल रहे थे।
1934 में मुस्तफा कमाल पाशा ने धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक के तौर पर चर्च-परिवर्तित मस्जिद, हागिया सोफिया को “म्यूजियम” में बदलने का निर्णय लिया। नए कानून के तहत, हागिया सोफिया में नमाज़ पढ़ने पर प्रतिबंध लगा दिया और इसे सभी धर्मों के लोगों के लिए खोल दिया। यह म्यूजियम दुनिया भर के पर्यटकों के लिए एक प्रमुख आकर्षण बन गया था।
हाल तक, तुर्की सरकार, जो कमाल पाशा के धर्मनिरपेक्ष और मानवतावादी सिद्धांतों पर चल रही थी, ने अचानक म्यूजियम को मस्जिद में बदलने का फैसला किया। तुर्की उच्च न्यायालय ने छठी शताब्दी के बीजान्टिन हागिया सोफिया के “म्यूजियम” की स्थिति को रद्द कर दिया है। यह केवल सरकार के निर्णय के लिए अदालत की सहमति थी। तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोगन ने घोषणा की है कि मुसलमानों को हागिया सोफिया में नमाज़ अदा करने की अनुमति दी जाएगी। तुर्की के इस फैसले की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कड़ी आलोचना हो रही है।
दुनिया भर के ईसाई भी हागिया सोफिया की स्थिति को बदलने के विचार पर एर्दोगन से नाराज हैं। रूसी रूढ़िवादी चर्च सहित दुनिया भर के चर्चों ने इसका विरोध किया और इसे “पूरी ईसाई सभ्यता के लिए खतरा” बताया है। यूनेस्को ने इस घटना को “अफसोसजनक” बताया है और कहा है कि इसकी समीक्षा अगले सत्र में विश्व धरोहर समिति द्वारा की जाएगी। यूरोपीय संघ, अमेरिका और रूस ने भी तुर्की सरकार द्वारा “हागिया सोफिया की स्थिति बदलने” के फैसले पर खेद जताया है। वही अरब के कुछ समूह ने फैसले का स्वागत किया है। मसलन,फिलिस्तीन के हमास ने इसे दुनिया के मुसलमानों के लिए गर्व का क्षण कहा।
दुनिया के लिए वर्तमान समय “आतंकवादी राष्ट्रवाद” से घिरा हुआ है। कुछ सरकारें बेरोजगारी, महंगाई और असंतोष को दबाने के लिए राजनीति में धर्म और उसकी मान्यताओं का अफीम की तरह इस्तेमाल कर रही हैं, ताकि सत्ता हर हाल में बची रहे। दूसरों के पवित्र स्थलों को अपना बताकर धार्मिक उन्माद पैदा किया जा रहा है। तुर्की में, राष्ट्रपति एर्दोगन ने बेरोजगारी, मुद्रास्फीति और असंतोष के कारण सत्ता खोने के डर से देश में इस्लामी कट्टरवाद को हवा दी है। कहना गैरवाजिब नहीं कि डर के इस भावना से उसने हागिया सोफिया को वापस मस्जिद में बदलने का फैसला किया है। सत्ता खोने के डर से ऐसे फैसले देश को गृहयुद्ध की ओर धकेल देते हैं। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि, आज दुनिया के सामने तुर्की का जो उदाहरण आया है, वह “नए आतंक का राष्ट्रवाद और कट्टरवाद” का मॉडल है। अतातुर्क मुस्तफा कमाल पाशा के मानवतावाद और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को उसके ही देश में नष्ट किया जा रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
(संपादन : गोल्डी/नवल)
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