फणीश्वरनाथ रेणु ने “मैला आंचल” के प्रथम संस्करण की भूमिका में लिखा है- “कथा की सारी अच्छाईयों और बुराइयों के साथ साहित्य की दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूं, पता नहीं अच्छा किया या बुरा। जो भी हो अपनी निष्ठा में कमी महसूस नहीं करता।”
बिहार की राजधानी पटना स्थित फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी भवन की बदहाली के बारे में शायद उसके निर्माणकर्ता व हिंदी लेखक प्रो. जाबिर हुसेन भी यही कह रहे होंगे। सच तो यह है कि हिंदी भवन की लड़ाई के मर्म को संस्कृतिकर्मियों और साहित्यकारों ने भी गहराई से नहीं समझा है। सरकार इस भवन को किसी दिन ढहा दे और वहां मॉल खड़ा कर दे तब भी पटना के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों की आत्मा नहीं जागेगी। और यह कोई आज की बात नहीं है। पिछले 12-13 वर्षों से इस भवन की सुध नहीं ली जा रही है। इस हिंदी भवन का उपयोग वर्ष 2017 से पटना जिला समाहरणालय के भूअर्जन कार्यालय, जिला सांख्यिकी कार्यालय, राष्ट्रीय बचत एवं जिला लेखा सहित अनेक कार्यालयों के संचालन के लिए किया जा रहा है।
जाबिर हुसेन बिहार के वरिष्ठ साहित्यकार हैं। उनके संपादन में प्रकाशित पत्रिका “दोआबा” की साहित्य जगत में अपनी प्रतिष्ठा है। मगध विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे जाबिर हुसेन के हिंदी प्रेम का गवाह है फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी भवन। बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद स्थापत्य कला के प्रेमी हैं। उन्होंने अपने शासनकाल में विधानमंडल का नया भवन, बिहार म्यूजियम का भव्य भवन, बुद्ध स्मृति पार्क, नियोजन भवन आदि बनवाए लेकिन सफेद गुंबज वाला फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी भवन उन्हें याद नहीं आया। इस भवन को आज तक हिंदी को नहीं सौंपा गया है।
फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी भवन का राजनीति से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। लेकिन जिस व्यक्ति ने इसका निर्माण करवाया है वह एक सफल लेखक और उसी विचारधारा का राजनेता रहा है, जिस विचारधारा का वारिस स्वयं को बताने से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार गुरेज नहीं करते। जाबिर हुसेन 1977 में सत्ता में आई कर्पूरी ठाकुर सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे। वे कई बार मुंगेर से विधायक चुने गए। वे विधान परिषद के सभापति और राज्यसभा सदस्य भी रहे। इस बीच साहित्य के क्षेत्र में उनका अवदान जारी रहा। उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला।
पटना में रेणु की स्मृति में हिंदी भवन का निर्माण हो, यह सपना जाबिर हुसेन ने देखा। वे इसके निर्माण को लेकर हमेशा सजग रहते थे। एक दिन भवन का निर्माण करवाते समय वे सीढ़ियों से फिसल पड़े। खैरियत रही कि उनकी जान बच गई। जिन दिनों इस भवन का निर्माण हो रहा था तब इसके पश्चिमी हिस्से (छज्जूबाग) में एक मंदिर को लेकर विवाद था। सरकार की यह मंशा थी कि किसी भी तरह से इस भवन का निर्माण बाधित हो। भ्रम फैलाया जा रहा था कि मुसलमान होने के कारण जाबिर हुसेन मंदिर तुड़वाना चाहते हैं।
लेकिन जाबिर हुसेन दृढ़ थे और हर हाल में हिंदी भवन का निर्माण चाहते थे। उन्होंने वहां एक शिव मंदिर का निर्माण भी करवाया। ऐसा करते समय उन्होंने हिंदू धर्मावलंबियों की आस्था का ख्याल भी रखा। लेकिन राजनीति ऐसी होती है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी भवन को हिंदी के लोगों को सौपने ही नहीं दे रहे हैं।
बताते चले कि हिंदी भवन का निर्माण 2004-05 से शुरु हुआ और 2007 में पूरा हुआ। लेकिन जाबिर हुसेन का सपना धरा का धरा रहा गया। उन्हें उम्मीद थी कि इस भवन में साहित्यिक गतिविधियां होंगी और पटना में एक बार फिर उसी तरह की फिजा बनेगी जैसी तब थी जब रेणु और उनके समकालीन साहित्यकारों के ठहाके पटना के डाकबंगला के पास कॉफी हाऊस में गूंजते थे। 11 जून, 2008 को हिंदी भवन में चंद्रगुप्त प्रबंधन संस्थान शुरू किया गया।
अगले सात साल तक यानी 10 जुलाई 2015 तक यह भवन चंद्रगुप्त प्रबंधन संस्थान के कब्जे में रहा। इसे इस संस्थान से मुक्ति तब मिली जब यह मीठापुर स्थित अपने नवनिर्मित भव्य भवन में चला गया। जाते-जाते संस्थान यहां की एसी, कुर्सियां, सोफा, पलंग जैसी कई चीजें लेता गया। उस समय हिंदी भवन कैसे उजड़ा हुआ लग रहा था मत पूछिए। हिंदी की रोटी खाने वाले ज्यादातर व्यक्तियों और मीडिया हाउसों ने इस पर आवाज नहीं उठाई। मैं आई नेक्स्ट अखबार में था। मैंने खबर लिखी चंद्रगुप्त प्रबंधन संस्थान ने हिंदी भवन को बेरहमी से लूटा। खबर छपने के बाद प्रबंधन ने यह तर्क देते हुए कुछ सामान लौटाया कि वह ‘गलती से चला गया था’। आप सोचिए कि क्या कोई किराएदार अपने नए घर में शिफ्ट होते समय मकान मालिक का सामान लेकर जा सकता है?
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अब इस आकर्षक भवन के दरवाजे-खिड़कियां भी सड़ने लगे हैं। अल्पायु में ही खंडहर बनते इस भवन को लेकर किसी नहीं सोचा होगा कि उसे ये दिन देखने पड़ेंगे। अब सिर्फ औपचारिकता के लिए राजभाषा विभाग की ओर से 14 सितंबर को को हिंदी दिवस का सरकारी आयोजन यहां किया जाता है। हर साल हिंदी लेखक आवाज़ उठाते हैं कि हिंदी भवन को लेखकों-संस्कृति कर्मियों को सौंपा जाए और हर साल विभाग के मंत्री बयान देकर चुप हो जाते हैं। चुप हो जाना उनकी मजबूरी है क्योंकि मुख्यमंत्री कुछ और चाहते हैं।
लालू राज में आगे बढ़ी बात
उस दिन (14 सितंबर, 1995) बिहार विधानपरिषद् में हिंदी दिवस मनाया जा रहा था। लालू प्रसाद मुख्यमंत्री थे। जाबिर हुसेन ने लालू प्रसाद से आग्रह किया कि राजधानी में हिंदी भवन का निर्माण होना चाहिए। उर्दू भवन तो है ही। तभी लालू प्रसाद ने एलान किया कि हिंदी भवन के लिए स्थान चिन्हित किया जाएगा। फिर एक साल बाद 14 सितंबर, 1996 को हिंदी दिवस के अवसर पर लालू प्रसाद ने हिंदी भवन की आधारशिला रखी।
इस भवन के निर्माण को लेकर जाबिर हुसेन ने 14-17 अगस्त, 1996 को बिहार विधानपरिषद् में एक कार्यशाला बुलाई। इसमें लालू प्रसाद के अलावा ‘हंस’ के तत्कालीन संपादक राजेन्द्र यादव भी मौजूद थे। 14 अगस्त, 1996 को कार्यक्रम के दौरान ही भवन को लेकर राजभाषा समिति की रिपोर्ट विधान परिषद के सभापति जाबिर हुसेन ने लालू प्रसाद को सौंप दी। आयोजन में जाबिर हुसेन ने एक पत्र भी लालू प्रसाद को सौंपा जिसमें लिखा था कि “मैं पटना के छज्जूबाग स्थित अपना सरकारी हाउस नंबर 15 भवन को हिंदी भवन के लिए छोड़ता हूं। इसे बतौर हिंदी भवन उपलब्ध कराया जाए।”
उनके कहे को लालू प्रसाद ने स्वीकार किया और औपचारिक आदेश के बाद 15, छज्जूबाग को हिंदी भवन के रूप में नोटिफाई कर दिया गया। 20 अगस्त, 1996 को प्रो. जाबिर हुसैन ने इस मकान को छोड़ दिया।
इससे जुड़ा एक दिलचस्प वाक़या सुनें। हुआ यह कि 1998 में न्यायिक प्रशिक्षण संस्थान का दफ्तर फुलवारी शरीफ से शिफ्ट करके इस आवास में आ गया। तब तक हिंदी भवन की पहल कागज़ों में ही थी। उस समय मुख्यमंत्री थीं राबड़ी देवी। जाबिर हुसेन भड़क गए। विधानपरिषद के वर्षाकालीन सत्र में जाबिर हुसेन ने शून्य काल में यह घोषणा की कि अगर शाम तक भवन खाली नहीं कराया गया तो उनके लिए सदन का संचालन करना नामुमकिन होगा। यानी जाबिर हुसेन ने इस्तीफे की पेशकश कर दी। राजभाषा विभाग ने बिना कोई देर किए 18 जुलाई 1998 को 15 छज्जूबाग फिर से हिंदी भवन को हैंड ओवर कर दिया। लेकिन राज्य सरकार की ओर से आगे कोई ठोस पहल नहीं की गई। आखिरकार 2004-05 में जाबिर हुसेन ने अपनी विधायक विकास निधि से हिंदी भवन के निर्माण के लिए राशि उपलब्ध कराई। इसी निधि का उपयोग करते हुए पुनः वित्तीय वर्ष 2005-06 में उन्होंने हिंदी भवन के शेष खंडों के निर्माण के लिए वित्तीय व्यवस्था की।
रेणु स्मृति हिंदी भवन की चिंता जाबिर हुसेन को तब भी रही जब वे पटना से दिल्ली राज्यसभा चले गए। वित्तीय वर्ष 2006-07 में राज्यसभा सदस्य के रूप में उन्होंने अपने सांसद निधि से हिंदी भवन के शेष निर्माण व साज-सज्जा के लिए राशि उपलब्ध कराई। इसी वर्ष भवन का निर्माण व साज-सज्जा पूरी हुई।
हिंदी भवन के पीछे ये थे सरकारी उद्देश्य
राजभाषा समिति ने प्रस्तुत प्रतिवेदन में भवन के बारे में ये बातें कही गईं थीं-
- इसे हिंदी भाषा और साहित्य के सम्मुनत केन्द्र के रूप में विकसित किया जाए। बिहार की विभिन्न बोलियों और भाषाओं के अध्ययन एवं अनुसंधान की व्यवस्था के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं से संवाद की सुविधा भी यहां उपलब्ध रहे। इसे राष्ट्रीय स्तर का भाषा, संस्कृति, साहित्य और कला केन्द्र बनाया जाये।
- यहां समय-समय पर सेमिनार और विचार-गोष्ठियों का आयोजन किया जाएगा। कवि-सम्मेलन और मुशायरे होंगे। नाटकों और कला-प्रदर्शनियों का आयोजन होगा। भवन की एक प्रकाशन शाखा होगी जिससे महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन होगा। एक नियमित साहित्यिक पत्रिका निकाली जाएगी।
- हिंदी भवन का अपना समृद्ध पुस्तकालय और उससे जुड़ा वाचनालय होगा। भवन के एक भाग में दुर्लभ पांडुलिपियों और कलाकृतियों का संग्रह होगा।
- हिंदी भवन में अतिथिशाला और शोध छात्रों के लिए छात्रावास की व्यवस्था रहेगी। इसमें एक सुसज्जित सभागार होगा जिसे साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए निर्धारित किराए पर उपलब्ध कराया जाएगा। परिसर के एक कोने में मैगजीन स्टॉल और कैफेटेरिया की व्यवस्था होगी। भवन की अपनी वेबसाइट होगी।
लेखकों की आंखों में हिंदी भवन को लेकर था एक सपना, जो अब टूट चुका है
यह सपना तीन सितंबर 1996 को आयोजित विचार गोष्ठी में देखा गया था। हिंदी भवन के स्वरूप को लेकर विधानपरिषद सभागार में तीन सितंबर 1996 को एक विचार गोष्ठी आयोजित हुई थी। इसमें प्राख्यात समालोचक खगेन्द्र ठाकुर ने कहा था कि “गरीबों को अगर ऊपर उठना है तो हिंदी के माध्यम से उठना है, यह चेतना फैलाने की जरूरत है। हिंदी भवन यह काम करे।” वहीं पद्मश्री उषा किरण खान के कहा, “हिंदी भवन के लिए स्थान जाबिर साहब ने उपलब्ध कराया है अपना सरकारी आवास खाली कर। मैं इसकी प्रशंसा करती हूं। साथ ही आपसे कहना चाहती हूं कि जब भी आप चाहेंगे हम आपको अपनी सेवा देने को तैयार रहेंगे।”
इस मौके पर प्रेम कुमार मणि ने कहा था कि “यह हिंदी भवन राजनीतिक अखाड़ा तो नहीं ही बने, लेकिन साहित्य, कला, और संस्कृति की दुनिया में जो राजनीति होती है उससे भी यह अलग रहे। आशंका मेरे मन में है। आज जब मैं यहां बोल रहा हूं तो मैं एक सहमा हुआ आदमी हूं।”
बहरहाल, फणीश्वरनथ रेणु हिंदी भवन खंडहर बनने की दिशा में अग्रसर है। यह हालत तब है जबकि पटना रेणु का शहर है। फारबिगसंज के औराही हिंगना गांव में जन्मे रेणु ने पटना की धरती पर रहकर अपने तमाम उपन्यासों और कहानियों की रचना की। बाढ़ से संबंधित उनके रिपोर्ताज में उस समय के पटना की जीवंत तस्वीरें हमेशा पठनीय रहेंगी। लेकिन नीतीश कुमार और उनकी सरकार रेणु की स्मृति में बनाए गए इस भवन की उपेक्षा क्यों कर रही है, यह एक बड़ा सवाल है। सवाल यह भी है कि कहीं इसकी वजह यह तो नहीं कि भवन की बुनियाद के शिलालेख में लालू प्रसाद का नाम है?
(संपादन : नवल/अमरीश)
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