बी. पी. मंडल (25 अगस्त, 1918 – 13 अप्रैल, 1982) पर विशेष
बी.पी. मंडल के नाम से प्रसिद्ध बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल स्वतंत्र भारत के उन चुनिंदा राजनेताओं में शुमार हैं, जिनके कार्यों ने विशाल आबादी के जीवन में उत्साह का संचार किया, उन्हें राष्ट्र निर्माण की मुख्यधारा से जोड़ा तथा उनके अदृश्य पथप्रदर्शक की भूमिका का निर्वहन आज भी कर रहे हैं। वे सामाजिक न्याय के स्वप्नद्रष्टा तथा पिछड़ा वर्ग के मसीहा रहे। उनके अंदर बहुसंख्यकों के शोषण और उपेक्षा के खिलाफ आक्रोश की चिंगारी थी। मंडल कमीशन की रिपोर्ट उसी चिंगारी का प्रस्फुटन था, जो पिछड़े वर्ग के जीवन में उजाले के रूप में स्थापित हो गया।
बी.पी. मंडल का जन्म बिहार के मधेपुरा जिलान्तर्गत मुरहो एस्टेट के प्रसिद्ध यादव जमींदार रासबिहारी मंडल के पुत्र के रूप में सीतावती देवी के कोख से 25 अगस्त 1918 ई. को बनारस में हुआ। स्वतंत्रता सेनानी रासबिहारी मंडल उन दिनों अपनी बीमारी के इलाज के लिए परिवार सहित बनारस प्रवास पर थे। बी.पी. मंडल के जन्म के अगले ही दिन उनके बीमार पिताजी की मृत्यु हो गई थी। रासबिहारी मंडल कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। दिसम्बर 1885 ई. में बम्बई में हुए कांग्रेस की स्थापना समारोह में वे दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह के साथ शामिल हुए थे। बी.पी. मंडल के पिताजी आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी के पदार्पण के बहुत पहले से बिहार प्रांतीय कांग्रेस कमिटी और अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के निर्वाचित सदस्य रह चुके थे। बी.पी. मंडल को देशप्रेम का जज्बा, स्वाभिमानी चेतना और समाजसेवा का संस्कार अपने पिताजी से विरासत में मिला था। बालक बिंदेश्वरी की परवरिश मां सीतावती और बड़े भाई कमलेश्वरी मंडल के संरक्षण में चलता रहा।
स्कूल में उठाया जातिगत भेदभाव का सवाल
बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की औपचारिक शिक्षा उनके गांव मुरहो स्थित विद्यालय में प्रारंभ हुई जो अब कमलेश्वरी मध्य विद्यालय के नाम से जाना जाता है। कुछ वर्षों के लिए वे सीरिज़ इंस्टीट्यूट, मधेपुरा में नामांकित हुए। सीरिज़ इंस्टीट्यूट अब शिवनंदन प्रसाद मंडल उच्च विद्यालय के नाम से प्रसिद्ध है। माध्यमिक स्तरीय शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हें राज हाई स्कूल, दरभंगा भेजा गया। एक जमींदार परिवार के नजाकत भरे परिवेश में पले-बढ़े बालक बिंदेश्वरी को जब इस हाईस्कूल में जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ा तो उनके स्वाभिमान की तपिश से विद्यालय परिसर में कोलाहल मच गया था। दरअसल हुआ यह था कि इस हाईस्कूल के वर्ग-व्यवस्थापन में वर्णवादी दृष्टिकोण हावी था। विद्यालय में नामांकित छात्रों में सवर्ण समाज के बच्चे ज्यादा थे। सवर्ण बच्चों के बैठने के बाद ही पीछे की शेष बची बेंचों पर वंचित समाज के बच्चों को बैठने की जगह मिलती थी। कभी-कभी तो वंचित समाज के बच्चों को फर्श पर बैठने के लिए मजबूर किया जाता था। छात्रावास में भी वंचित समाज के बच्चे भेदभाव के शिकार होते थे। वहां सवर्ण समाज के बच्चों को भोजन खिलाने के बाद ही तथाकथित शूद्र जाति के छात्रों को भोजन देने का रिवाज था। सब कुछ सहजता से चल रहा था, किसी को इस व्यवस्था में कोई बुराई नजर नहीं आ रही थी। परंतु एक बालक ऐसा भी था जिसे यह सब नागवार गुजर रहा था। बालक बिंदेश्वरी ने जात-पात पर आधारित विभेदकारी व्यवस्था से व्यथित होकर आंदोलन छेड़ने का निर्णय किया। हालांकि वंचित समाज के बच्चे कम संख्या में थे फिर भी उनकी बात सुनी गई तथा विद्यालय में भेदभाव वाली व्यवस्था का अंत हुआ। समाजिक न्याय के सफर में यह घटना उनके लिए मील का पत्थर साबित हुई तथा उसने उनके चिंतन की दिशा बदल दी।
युवावस्था में बने डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सदस्य और मजिस्ट्रेट
बी.पी. मंडल सन् 1936 में मैट्रिक उत्तीर्ण कर पटना आ गए। पटना प्रवास के दौरान भी वे पिछड़े वर्गों के छात्रों के साथ हो रहे जातिगत भेदभाव का प्रतिकार करने में हमेशा साकांक्ष रहे। पटना काॅलेज से उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उनके भतीजे प्रभाष मंडल कहते हैं- “1940 ई. में बी.पी. मंडल के बड़े भाई कमलेश्वरी प्रसाद मंडल की मृत्यु हो गई, जो बिहार विधान परिषद के सदस्य रह चुके थे। बी.पी. मंडल पर परिवार की सामाजिक और राजनीतिक विरासत संभालने की जिम्मेदारी आ गई तो वे मधेपुरा आ गए। शीघ्र ही वे भागलपुर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सदस्य चुन लिए गए थे। सन् 1945 में आनेनरी मजिस्ट्रेट(अवैतनिक) के रूप में उनकी तैनाती मधेपुरा में हुई तो उनके समक्ष आने वाली जनता की समस्याओं को वे प्राथमिकता से हल करने में रूचि लेने लगे। जनता से जुड़े हुए ऐसे ही एक मुद्दे पर उनका भागलपुर के कलेक्टर से विवाद हुआ तो उन्होंने सन् 1951 में इस पद से इस्तीफ़ा दे दिया।”
विधानसभा में जातिसूचक शब्दों पर लगवाया प्रतिबंध
26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ तथा मार्च 1950 में सुकुमार सेन भारत के प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त हुए। इस नियुक्ति के बाद लोकसभा और प्रांतीय विधानसभाओं के लिए चुनाव की सुगबुगाहट तेज होने लगी थी। सन् 1952 के शुरुआती महीनों में लोकसभा और विधानसभा दोनों के चुनाव संपन्न हुए। कांग्रेस पार्टी के सदस्य के रूप में बी.पी. मंडल ने मधेपुरा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने का निर्णय किया और जीतकर बिहार की प्रथम विधानसभा के सदस्य बने। श्रीकृष्ण सिंह के मंत्रिमंडल में उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाए जाने की उम्मीद थी परंतु जूनियर मंत्री के ऑफर को उन्होंने दृढ़तापूर्वक ठुकरा दिया। उन्होंने सदन में सत्ता पक्ष के विधायक होते हुए भी जनपक्षीय मुद्दे उठाने से कभी परहेज नहीं किया। एक बार सदन में गोवार (ग्वाला) शब्द का उपयोग बार-बार किया जा रहा था जिस पर उन्होंने कड़ी आपत्ति दर्ज की थी। उन दिनों सदन के द्विज सदस्य धड़ल्ले से जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करते थे। बी.पी. मंडल ने जातिसूचक शब्दों को असंसदीय करार देते हुए इन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की तो जवाब आया कि जो शब्द हमारे शब्दकोश में हैं वो असंसदीय कैसे हो सकता है! बी.पी. मंडल ने प्रत्युत्तर में कहा, “गालियां भी तो हमारे शब्दकोश में हैं, तो क्या हम सदन में गालियों का भी प्रयोग करेंगे!” सभी निरूत्तर हो गये तथा सदन के भीतर जातिसूचक शब्दों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
कांग्रेस से मोहभंग
सन् 1957 में हुए विधानसभा चुनाव में हार जाने के कारण उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाये जाने का तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के आश्वासन का लाभ नहीं मिल पाया। सन् 1962 के विधानसभा चुनाव में वे दोबारा चुनकर आए तब तक श्रीकृष्ण सिंह की मृत्यु हो चुकी थी तथा कांग्रेस के अंदरूनी सत्ता संघर्ष में शह-मात का खेल चल रहा था। बी.पी. मंडल जनता की समस्याओं को प्रखरता से सदन के पटल पर रख रहे थे। उन्हीं दिनों पामा गांव में दलितों पर सवर्णों के अत्याचार और पुलिसिया दमन के विरोध में सरकार से अलग स्टैंड लेने के कारण कांग्रेस नेतृत्व से उनके मतभेद हो गए. फलस्वरूप सन् 1965 में वे कांग्रेस से बाहर आ गए तथा संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) की सदस्यता ले ली। संसोपा उन दिनों डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में पिछड़े वर्ग को संगठित कर पूरे देश में गैर-कांग्रेसवाद का अभियान चला रही थी। संसोपा का नारा था, “संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ”। बी.पी. मंडल के आने के बाद संसोपा को बिहार में नई उम्मीदों का बड़ा आधार मिल गया था।
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सन् 1967 के आम चुनाव में बी.पी. मंडल मधेपुरा लोकसभा क्षेत्र से पहली बार लोकसभा सदस्य चुने गए। वहीं विधानसभा चुनाव में संसोपा के सदस्यों की संख्या 7 से बढ़कर 69 तक पहुँच गई थी। संसोपा की इस उल्लेखनीय सफलता में बी.पी. मंडल के चुनाव कैम्पेन का उल्लेखनीय योगदान था। चुनाव परिणाम आने के बाद लोहिया के निर्देशन में राज्यों में संविद सरकारों के गठन का दौर शुरू हुआ। बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में गठन हो रही सरकार में उन्हें कैबिनेट मंत्री बनने का ऑफर दिया गया तो वे इंकार न कर सके। बी.पी. मंडल सांसद रहते हुए भी राज्य सरकार में स्वास्थ्य मंत्री बन गए। संसोपा के पार्टी संविधान के अनुसार एक व्यक्ति सांसद रहते हुए राज्य मंत्रिपरिषद् का सदस्य नहीं हो सकता था। इस बात को लेकर संसोपा में बहस और मतभेद बढ़ते गया। फलस्वरूप उन्होंने पार्टी छोड़ने का निर्णय किया। महामाया प्रसाद सिंह की सरकार गिर गई।
मिला जगदेव प्रसाद का साथ और तीस दिनों के लिए बने सीएम
संसोपा से अलग होने के बाद बी.पी. मंडल ने जगदेव प्रसाद के साथ मिलकर “शोषित दल” का गठन किया तथा विधायकों की सहमति से सरकार बनाने का दावा ठोंक दिया। परंतु बी.पी. मंडल को मुख्यमंत्री स्वीकार करने में एक नया पेंच फंस गया था। वे किसी सदन के सदस्य रहे बगैर छ: महीने तक मंत्री रह चुके थे। राज्यपाल बिना किसी सदन के सदस्य बने बगैर उन्हें शपथ दिलाने के लिए तैयार नहीं थे। इस प्रकार वे पिछड़ा वर्ग से आने वाले बिहार के पहले मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए। लेकिन उनके मुख्यमंत्री बनने का रास्ता अभी बंद नहीं हुआ था। सरकार बनाने में आ रही बाधा को दूर करने के लिए समाधान निकाला गया कि विधायक सतीश प्रसाद सिंह को एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बनाया जाय। मुख्यमंत्री बनने के बाद सतीश प्रसाद सिंह बी.पी. मंडल को विधान परिषद में नामित करेंगे तथा उसके बाद इस्तीफा देकर उनके मुख्यमंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त करेंगे। बिलकुल ऐसा ही हुआ। 1 फरवरी, 1968 को बी.पी. मंडल पिछड़ा वर्ग से आने वाले बिहार राज्य के दूसरे मुख्यमंत्री बने। पिछड़ा वर्ग से आने वाले बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में सतीश प्रसाद सिंह का नाम इतिहास में दर्ज हो चुका था। सतीश बाबू का कार्यकाल केवल तीन दिन का रहा जबकि बी.पी. मंडल मात्र तीस दिनों तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहे, परंतु इन सरकारों ने पिछड़े वर्गों में सत्ता में हिस्सेदारी की भूख और आत्मविश्वास को इतना बढ़ा दिया था कि बाद के वर्षों में उनका स्वर लगातार मुखरित होता रहा। बिहार राज्य में पिछले तीस वर्षों से लगातार पिछड़े वर्ग की हाथ में जो सत्ता कायम है, उसकी नींव में बी.पी. मंडल की सोशल इंजीनियरिंग की ईंटें लगी हुई हैं।
विनोदानंद झा की जातिसूचक टिप्पणी का दिया जवाब
बी.पी. मंडल के संक्षिप्त मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल के दौरान बरौनी रिफाइनरी में तेल का रिसाव होने से गंगा की सतह पर आग लग गई थी। इस घटना पर विधानसभा में विनोदानंद झा ने कटाक्ष करते हुए कहा था- “शूद्र मुख्यमंत्री होगा तो पानी में आग लगेगा ही।” बी.पी. मंडल ने इसका जवाब देते हुए कहा था- “गंगा में आग तो तेल के रिसाव से लगी है, परंतु एक पिछड़े वर्ग के बेटे के मुख्यमंत्री बनने से आपके दिल में जो आग लगी है, उसे हर कोई महसूस कर सकता है।” कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व के दबाव में काम न करने के कारण उनकी सरकार गिरा दी गई थी।
बी.पी. मंडल मुख्यमंत्री बनने के लिए लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे चुके थे। सीट रिक्त होने के कारण 1968 में मधेपुरा संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव हुआ तो वे फिर से चुन लिए गए। सन् 1972 में वे मधेपुरा विधानसभा क्षेत्र से तीसरी बार विधायक चुने गए। सन् 1974 आते-आते राज्य सरकार में बढ़ते भ्रष्टाचार के खिलाफ बिहार और गुजरात समेत कई राज्यों में छात्र आंदोलन शुरू हो चुका था। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हो रहे छात्र आंदोलन की आंच दिल्ली तक पहुंच रही थी। सरकार आंदोलन को दबाने का निरंतर प्रयास कर रही थी। बिहार के विपक्षी दलों के विधायकों ने विधानसभा से इस्तीफा देने का निर्णय किया। इस निर्णय में बी.पी. मंडल भी सहभागी थे। विधानसभा से त्यागपत्र देकर अब सारे विधायक छात्र आंदोलन के समर्थन में सरकार के विरुद्ध सड़क पर थे। छात्र आंदोलन से त्रस्त इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को देश में जब आपातकाल लागू कर दिया तब सरकार और आंदोलनकारी नेताओं के बीच लुकाछिपी का खेल चलता रहा। आंदोलन के छोटे-बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, जो बाहर रहे, वे आंदोलन को हवा देते रहे।
दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष के रूप में बी. पी. मंडल
आपातकाल के दौरान सोशलिस्ट धारा के विभिन्न दलों और जनसंघ ने मिलकर ‘जनता पार्टी’ नामक नया दल बनाया। सन् 1977 के आम चुनाव में जनता लहर पर सवार जनता पार्टी को जबरदस्त सफलता मिली। बी.पी. मंडल मधेपुरा संसदीय क्षेत्र से तीसरी बार लोकसभा के सदस्य चुने गए। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में दिल्ली में केंद्रीय सरकार का गठन हुआ। जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में सरकारी सेवा और शिक्षण संस्थानों में पिछड़ा वर्ग को प्रतिनिधित्व देने के लिए प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग की अनुशंसाओं के अनुरूप आरक्षण लागू करने की घोषणा की थी। सरकार के अंदर की सामाजिक न्याय की शक्तियांं पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण लागू करने के लिए निरंतर प्रयासरत थीं। लेकिन प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर की पिछड़ों के आरक्षण के संबंध में की गई प्रतिकूल टिप्पणियांं इसे लागू करने में बाधक बन रही थीं। इस समस्या के निदान के लिए केंद्रीय सरकार ने दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन का निर्णय लिया। 20 दिसम्बर, 1978 को आयोग के गठन की घोषणा की गई। घोषणा के अनुसार बी.पी. मंडल चार सदस्यों और एक सचिव वाले इस आयोग के अध्यक्ष बनाए गए। आखिरकार 1 जनवरी, 1979 को अधिसूचना भी जारी कर दी गई। तत्कालीन बिहार के सासंद और उस समय जनता पार्टी की केंद्रीय सरकार में गृह राज्य मंत्री रहे धनिक लाल मंडल कहते हैं “इस आयोग के अध्यक्ष के लिए एक बड़े नाम की जरूरत थी, जो अपनी प्रभामंडल का उपयोग कर राज्यों से सही आंकड़े लेने में समन्वय स्थापित कर सके तथा कम समय में बेहतर रिपोर्ट तैयार कर सके। बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल इस काम के लिए सर्वथा उपयुक्त थे।”
पहली जनवरी 1979 से दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग का विधिवत कार्यकाल शुरू तो हुआ परंतु कार्यालय इत्यादि मिलने में देरी हुई। 21, मार्च 1979 को प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई के उद्घाटन भाषण के साथ इस आयोग ने वास्तविक रूप से अपना कार्य प्रारंभ किया। दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग के सामने पहले पिछड़ा वर्ग आयोग की असफलता की छाया से बाहर निकलने की बड़ी चुनौती थी। प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग ने आंकड़ों के इकठ्ठा करने और उसके निष्कर्ष निकालने में भयंकर भूलें की थी, जिसका खामियाजा पिछड़ा वर्ग के होनहारों को लंबे समय तक उठाना पड़ा था। अध्यक्ष होने के नाते बी.पी. मंडल के समक्ष उन चुनौतियों को पारकर ऐसा फुलप्रूफ रिपोर्ट तैयार करना था जिसे संसदीय बहसों और अदालती कारवाईयों में खारिज नहीं किया जा सके। आयोग के समक्ष संविधान की अनुच्छेद 15(4),16(4) तथा 340 के अधीन निम्नलिखित कार्य सौंपे गए थे-
- सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की परिभाषा और पहचान के लिए कसौटी तय करना।
- पहचाने गए समूह के विकास के लिए कारगर उपाय सुझाना।
- केंद्र और राज्य की नौकरियों में समुचित प्रतिनिधित्व से वंचित पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की आवश्यकता की जांंच करना।
- आयोग द्वारा खोजे गए तथ्यों को उचित संस्तुतियों के साथ भारत के राष्ट्रपति को एक प्रतिवेदन सौंपना।
मंडल आयोग के समक्ष पहली चुनौती सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए मानक निर्धारण करना तथा दूसरी बड़ी चुनौती पूरे देश का भ्रमण कर आंकड़ों को इकट्ठा करना था। आयोग ने देश के 406 जिलों में से 405 जिलों का दौरा किया, सर्वेक्षण किए, तथा समाज विज्ञानियों और विशेषज्ञों से मुलाकातें की, लोगों से सुझाव मांगे। इन आंकड़ों और सुझावों का अध्ययन करना और उसे उपयोग में लाना अत्यंत दुरूह कार्य था, जिसे आयोग ने सफलता पूर्वक अंजाम दिया। इतनी मुश्किलों से भरे कार्य को कम समय में अंजाम देना बी.पी. मंडल जैसे जुझारू सामाजिक योद्धा के ही वश की बात थी। मंडल आयोग ने 12 दिसम्बर, 1980 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समापन भाषण के साथ अपना कार्य पूर्ण किया तथा 31 दिसम्बर, 1980 को आयोग की रिपोर्ट प्रतिवेदन के साथ राष्ट्रपति को सौंप दिया।
मंडल आयोग ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए जो सिफारिशें की उनमें से प्रमुख हैं-
- केन्द्र और राज्य सरकारों की सेवाओं में पिछड़ा वर्ग के 27% सीटें आरक्षित की जाए।
- जमींदारी प्रथा को खत्म करने के लिए भूमि सुधार कानून लागू किया जाए क्योंकि ज्यादा पिछड़े गरीब हैं। पिछड़े वर्गों का सबसे बड़ा दुश्मन जमींदारी प्रथा थी।
- सरकार द्वारा अनुबंधित जमीन को न केवल एससी व एसटी को दिया जाए बल्कि ओबीसी को भी इसमें शामिल किया जाए।
- केंद्र और राज्य सरकारों में ओबीसी के हितों की सुरक्षा के लिए अलग मंत्रालय/विभाग बनाए जायें।
- केंद्र और राज्य सरकारों के अधीन चलने वाली वैज्ञानिक, तकनीकी, प्रोफेशनल तथा उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए ओबीसी वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जाए।
- पिछड़े वर्ग की आबादी वाले क्षेत्रों में वयस्क शिक्षा केंद्र तथा पिछड़े वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए आवासीय विद्यालय खोले जाएं. पिछड़ा वर्ग के छात्रों को रोजगार परक शिक्षा दी जाए।
नये युग की शुरूआत
पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट युगांतकारी घटना साबित हुई है। हालांकि इस रिपोर्ट को एक दशक तक दबाकर रखा गया। फिर वह दिन भी आ ही गया जब विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने 13 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन के सबसे महत्वपूर्ण सिफारिशों में से एक को लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी। अब पिछड़ा वर्ग के लिए सरकारी सेवा में जाने के लिए बंद दरवाजे खुल चुके थे। विरोध प्रदर्शनों और थोड़ी अड़ंगेबाजी के बाद सुप्रीम कोर्ट की मुहर लगकर 8 सितम्बर, 1993 को फाइनल अधिसूचना भी जारी कर दी गई। मंडल आयोग की दूसरी महत्वपूर्ण सिफारिश के अनुसार केंद्रीय शिक्षण, तकनीकी एवं व्यावसायिक संस्थानों में पिछड़ा वर्ग के लिए प्रवेश के द्वार भी आखिरकार 20 अगस्त, 2008 को खोल दिए गए।
मंडल आयोग की सिफारिशों पर प्रकाश डालते हुए बी.पी. मंडल ने कहा था- “सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने की जंग को पिछड़ी जातियों के ज़ेहन में जीतना ज़रूरी है। भारत में सरकारी नौकरी पाना सम्मान की बात है। ओबीसी वर्ग की नौकरियों में भागीदारी बढ़ने से उन्हें यकीन होगा कि वे सरकार में भागीदार हैं। पिछड़ी जाति का व्यक्ति अगर कलेक्टर या पुलिस अधीक्षक बनता है तो ज़ाहिर तौर पर उसके परिवार के अलावा किसी और को लाभ नहीं होगा पर वह जिस समाज से आता है, उन लोगों में गर्व की भावना आएगी, उनका सिर ऊंचा होगा कि उन्हीं में से कोई व्यक्ति ‘सत्ता के गलियारों’ में है।” मंडल कमीशन ने पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार की है। उनमें राजनीतिक और शैक्षणिक चेतना का असीम संचार हुआ है। बी.पी. मंडल की एक सिफारिश ने तो सबको चौंका ही दिया था। जमींदार परिवार से रहते हुए भी वंचित वर्गों के पक्ष में जमींदारी उन्मूलन की सिफारिश करना उनके पिछड़ा वर्गों के प्रति अगाध लगाव तथा उनके हृदय की विशालता को प्रदर्शित करता है।
मूक क्रांति के नायक के रूप में मशहूर बी.पी. मंडल का 13 अप्रैल, 1982 को हृदय गति रुक जाने से पटना में निधन हो गया। वे जीते जी अपने सिफारिशों को लागू होते हुए नहीं देख पाए, परंतु जब भी पिछड़ा वर्ग के उन्नायकों की फ़ेहरिस्त बनेगी, उनका नाम हमेशा आगे रखा जायेगा।
(संपादन : नवल/गोल्डी/अमरीश)
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