एक श्रेष्ठ उपन्यास से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने युग के नाभिकीय यथार्थ को सृजनात्मक तरीके से अभिव्यक्त करे। मार्क्स और एंगेल्स अपने मित्रों को सलाह दिया करते थे कि वे फ्रांस में पूंजीवाद के उदय को जानने–समझने के लिए आर्थिक इतिहासकारों के उबाऊ ब्योरों के बजाय बाल्जाक के उपन्यास पढ़ें। मार्क्स ने यह भी लिखा है कि फ्रांस के इतिहास को उन्होंने, जितना बाल्जाक के उपन्यासों से समझा, उतना फ्रांसीसी इतिहासकारों की किताबों से नहीं समझ पाए।
समाज के नाभिकीय यथार्थ को अभिव्यक्त करने वाले विश्व साहित्य के उपन्यासों में से एक प्रेमचंद (31 जुलाई 1880– 8 अक्टूबर, 1936) का ‘गोदान’ भी है। इस उपन्यास ने इस तथ्य को सशक्त तरीके से रेखांकित किया कि भारतीय समाज के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंधों की धुरी वर्ण-जाति व्यवस्था है और उच्च जातियों के हाथ में ही सामाजिक, धार्मिक और स्थानीय स्तर पर आर्थिक सत्ता है, भले ही राजनीतिक सत्ता अंग्रेजों के हाथ में हो। स्वराज के नाम पर उच्च जातियों का गठजोड़ ब्रिटिश शासन से राजनीतिक सत्ता भी हासिल करने की कोशिश कर रहा है। हां, यह सच है कि जिस सामाजिक यथार्थ को प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में 1936 में अभिव्यक्ति दी, उसे डॉ. आंबेडकर ने अपने वैचारिक लेखन में 1917 से ही रेखांकित करना शुरू दिया था। यह संयोग है कि वर्ण-जाति व्यवस्था ही भारतीय समाज की धुरी है, इसे रेखांकित करने वाली दो अलग-अलग विधाओं की कृतियां- ‘जाति का विनाश’ और ‘गोदान’- एक ही वर्ष 1936 में ही प्रकाशित होती हैं।
प्रेमचंद ‘गोदान’ में पुरजोर तरीके से यह रेखांकित कर रहे हैं कि उच्च जातियां जहां पिछड़ी एवं दलित जातियों के श्रम पर पलने वाली अनुत्पादक एवं परजीवी जातियां हैं, वहीं पिछड़ी एवं दलित जातियां ही उत्पादक एवं मेहनतकश जातियां हैं, जिसका प्रमाण वे ‘गोदान’ के प्रतिनिधि चरित्र होरी महतो और उनके परिवार के हाड़तोड परिश्रम के माध्यम से देते हैं। ‘गोदान’ उपन्यास की शुरूआत इन वाक्यों से होती है- “होरी महतो ने दोनों बैलों को सानी-पानी दे कर अपनी स्त्री धनिया से कहा – गोबर को ऊख गोड़ने भेज देना। मैं न जाने कब लौटूं। जरा मेरी लाठी दे दे। धनिया के दोनों हाथ गोबर से भरे थे। उपले पाथ कर आई थी।” कुछ पृष्ठों बाद प्रेमचंद होरी के बेटे गोबर एवं बेटियों के कठिन श्रम की चर्चा इन शब्दों में करते हैं- “होरी अपने गांव के समीप पहुंचा, तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियां भी उसके साथ काम कर रही हैं। लू चल रही थी, बगुले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था। जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दी हो। यह सब अभी तक खेत में क्यों हैं? क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए हैं? वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्ला कर बोला – आता क्यों नहीं गोबर, क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गई, कुछ सूझता है कि नहीं?”
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‘गोदान’ में बिना अपवाद के सभी उच्च जातीय पात्र अनुत्पादक एवं परजीवी हैं और पिछड़ी एवं दलित जातियों के पात्र उत्पादक एवं मेहनतकश हैं, लेकिन परजीवी जातियों के लोग सुख-सुविधा एवं अय्याशी के साथ जीवन जी रहे हैं, तो मेहनतकश जातियों के लोग गरीबी एवं तंगी में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इसका कारण भी रेखांकित करने से प्रेमचंद नहीं चूकते। पूरे कथा विन्यास के माध्यम से वह यह बता देते हैं कि मेहनतकश पिछड़ी एवं दलित जातियों के श्रम के फल को येन-केन प्रकारेण उच्च जातियां हड़प लेती हैं, जिसका एक हिस्सा ब्रिटिश साम्राज्य को भी जाता है।
‘गोदान’ का लेखक अपने पात्रों के व्यवहार एवं आचरण के माध्यम से यह भी बता देता है कि अनुत्पादक एवं परजीवी जातियां क्रूर, निर्मम एवं ह्रदयहीन हैं। ढोंग-पाखंड एवं षडयंत्र उनका बुनियादी चरित्र है। यह सब कुछ हमें उच्च जातियों के प्रतिनिधि पात्रों पंडित दातादीन, झिंगुरी सिंह, पटेश्वरी लाल, राय साहब, ओंकारनाथ शुक्ल, तंखा के चरित्र में देखने को मिलता है। इसके विपरीत मेहनतकश जातियों के प्रतिनिधि पात्र होरी, धनिया, भोला, सिलिया सभी में करूणा एवं मानवीयता कूट-कूट कर भरी है।
‘गोदान’ की सारी कथा बेलारी और सेमरी गांव के इर्द-गिर्द घूमती है। भले ही 1936 में जब ‘गोदान’ लिखा गया, उस समय भारत में ब्रिटिश सत्ता थी, लेकिन प्रेमचंद अपनी खुली आंखों से देख रहे हैं और ‘गोदान’ के पाठकों को दिखा रहे हैं कि बेलारी और सेमरी गांवों पर उच्च जातियों के लोगों का ही नियंत्रण है, उन्हीं के हाथों में सारी सत्ता है और जिनके रहमों-करम पर पिछड़ी एवं दलित जातियों के लोग हैं। होरी के गांव बेलारी के माई-बाप पंडित दातादीन, झिंगुरी सिंह, पटेश्वरी लाल और सहुआईन हैं। पंडित दातादीन के हाथ में धार्मिक सत्ता तो है ही, खेतों के मालिक हैं और सूदखोरी भी करते हैं । झिंगुरी सिंह बड़े खेतिहर हैं। पटेश्वरी लाल पटवारी हैं। सहुआईन दुकान चलाने के साथ सूद पर पैसे भी बांटती हैं। ब्राह्मण दातादीन, ठाकुर झिंगुरी सिंह और सरकारी कारकुन (पटवारी) कायस्थ पटेश्वरीलाल के शोषण-उत्पीड़न और षडयंत्रों का शिकार होरी, उसका परिवार और पूरा गांव है। पटेश्वरीलाल के चरित्र का वर्णन प्रेमचंद इन शब्दों में करते है- “पटवारी होने के नाते बेगार में खेत जुतवाते थे, सिंचाई बेगार में करवाते थे और असामियों को एक-दूसरे से लड़वाकर रकमें मारते थे। सारा गांव उनसे कांपता था।” कमोवेश यही चरित्र पंडित दातादीन और झिंगुरी सिंह का भी है।
बेलारी से पांच मील दूर सेमरी गांव में जमीदार राय साहब रहते हैं, एक तरफ वे जमींदार है, लगान वसूलते हैं, बेगार कराते हैं और अन्य कई तरह से असामियों से पैसे ऐंठेते है तो, दूसरी तरफ गांधी जी के स्वराज के संघर्ष में भी शामिल हैं, एकाध बार जेल भी हो आए हैं। उनके संगी-साथी पत्रकार ओंकारनाथ शुक्ल, वकील श्याम बिहारी तंखा, और प्रोफेसर मेहता है। इनके नामों से ही पता चल जाता है कि ये उच्च जातियों के लोग हैं। इनका चरित्र-चित्रण प्रेमचंद इन व्यंग्यात्मक शब्दों में करते हैँ- “मोटर सिंह-द्वार के सामने आ कर रूकी और उसमें से तीन महानुभाव उतरे। वह जो खद्दर का कुरता और चप्पल पहने हुए हैं, उनका नाम पंडित ओंकारनाथ है। आप दैनिक-पत्र ‘बिजली’ के यशस्वी संपादक हैं, जिन्हें देश-चिंता ने घुला डाला है। दूसरे महाशय जो कोट-पैंट में हैं, वह हैं तो वकील, पर वकालत न चलने के कारण एक बीमा-कंपनी की दलाली करते हैं और ताल्लुकेदारों को महाजनों और बैंकों से कर्ज दिलाने में वकालत से कहीं ज्यादा कमाई करते हैं। इनका नाम है श्यामबिहारी तंखा और तीसरे सज्जन जो रेशमी अचकन और तंग पाजामा पहने हुए हैं, मिस्टर बी. मेहता, यूनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के अध्यापक हैं।” प्रेमचंद संकेत दे रहे हैं कि राय साहब और यही तीनों भविष्य (आजादी के बाद के) के भारत के कर्ता-धर्ता बनने वाले हैं। यह सब भी दूसरों के श्रम पर जीने वाले अनुत्पादक परजीवी हैं।
‘गोदान’ में प्रेमचंद यह बताना भी नहीं भूलते हैं कि गांव के शोषक-उत्पीड़क पंडित दातादीन, झिंगुरी सिंह और पटेश्वरी लाल सीधे राय साहब, ओंकारनाथ शुक्ल और तंखा से जुड़े हुए हैं। यहां प्रेमचंद संकेत दे रहे हैं कि इनका गठजोड़ ही आजाद भारत में देश का शासक वर्ग बनने वाला है। प्रेमचंद यह भी कहना नहीं भूलते कि इस गठजोड़ के तहत होरी, धनिया, हीरा, भोला, सिलिया आदि पिछड़े-दलित मेहनतकश वर्गो का कोई भला नहीं होने वाला है।
वर्ण-जाति व्यवस्था ही भारतीय समाज की धुरी है और वही भारतीयों के आपसी सामुदायिक, जातीय वर्गीय एवं व्यक्तिगत संबंधों को संचालित करती है। इसकी सशक्त अभिव्यक्ति ही ‘गोदान’ को हिंदी पट्टी (काउ बेल्ट) का एक प्रतिनिधि उपन्यास बना देता है।
(संपादन : नवल)
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