वर्चस्ववाद की बुनियाद के मौलिक तत्वों में से एक है श्रेष्ठतावाद, जो यह दावा करता है कि वही श्रेष्ठ है क्योंकि दुनिया को सभ्य बनाने की जवाबदेही उसकी है। इसके बदले वह विश्व पर अपनी हुकूमत करता है। इसी श्रेष्ठतावाद का एक तत्व नस्लवाद है। जाहिर तौर पर यह भारतीय सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में भी प्रासंगिक है। ईश मिश्र इस विशेष आलेख शृंखला में इसका ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं। पढ़ें इस शृंखला का पहला आलेख
नस्लवाद और दासता के विचारधाराओं का समाजशास्त्रीय विश्लेषण
- ईश मिश्र
बीते 29 मई, 2020 को अमेरिका के मिनेसोटा राज्य के मिनियापोलिस शहर में श्वेत पुलिसकर्मियों द्वारा, हिरासत में, नकली बिल का इस्तेमाल करने के आरोप में एक अश्वेत नागरिक, जॉर्ज फ्लॉयड की बर्बर हत्या के विरुद्ध भड़की नस्लवाद विरोधी आग की लपटें दुनिया भर में फैल गयीं। यह आंदोलन औपनिवेशिक दौर में इंसानों को गुलाम बनाने के चरित्र को ही नहीं बल्कि उनके प्रतीकों को भी तोड़ रहा है तथा साथ ही कोलंबस की विरासत को चुनौती दे रहा है। बोस्टन शहर में कोलंबस की मूर्ति उखाड़कर झील में फेंक दी गयी। इंगलैंड के ब्रिस्टल शहर में, 17वीं शताब्दी के दास व्यापारी, एडवर्ड कोल्स्टन की मूर्ति को तोड़ कर नदी में डाल दिया गया। ब्रिटेन में रानी विक्टोरिया की मूर्ति को विरूपित कर दिया गया। कई शहरों के मेयर इस पर विचार-विमर्श कर रहे हैं कि औपनिवेशिक काल के प्रतीकों, मूर्तियों को बने रहने दें कि नहीं। पूरी दुनिया को सभ्य बनाने का दंभ भरने वाली श्वेत श्रेष्ठतावादी दुनिया के लिए यह बहुत बड़ी परिघटना है। अमेरिका के कई शहरों में कोलंबस तथा दासत्व के समर्थकों की मूर्तियां क्षतिग्रस्त कर दी गयीं। उपनिवेशवादियों, दासता के पैरोकारों तथा दास-व्यापारियों की मूर्तियां तोड़ने से इतिहास नहीं बदल जाएगा, लेकिन सभ्यता के बोझ के तर्क से व्याख्यायित इतिहास की पुनर्व्याख्या के जरिए भविष्य के लिए इतिहास से सीख ली जा सकती है। अमेरिका के कई राज्यों और नगरपालिकाओं ने पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के कानूनों पर विचार शुरू कर दिया है।