किसी भी मुल्क का विकास तभी मुमकिन है जब जन स्वास्थ्य और जन शिक्षा को वहां की सरकार अपनी प्राथमिकताओं में शामिल करे व मुकम्मल तरीके से इन से सम्बंधित योजनाओं को लागू करे। आज 21वीं सदी के मानव की बुनियादी जरूरत रोटी, कपड़ा, मकान के साथ सेहत व शिक्षा भी है। अभी हाल ही में भारत सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति की घोषणा की गयी है। सवाल यह है कि इसमें जो बदलाव किए जा रहे हैं, वे क्या हैं और दलित-बहुजनों के लिए कितने हितकारी होंगे? सामाजिक न्याय के सापेक्ष इन नीतियों को देखा जाना जरूरी है।
सरकार के द्वारा घोषित नई शिक्षा नीति में एक नई शिक्षा पद्धति की बात सामने आ रही है। इसमें विषयों के चयन में लचीलेपन को बढ़ावा दिया जा रहा है। विद्यार्थियों को अपना विषय चुनने की स्वतंत्रता प्रदान की जा रही है। पहले ऐसा नहीं था। दसवीं कक्षा के बाद छात्रों को किसी विशेष क्षेत्र के अध्ययन तक सीमित कर दिया जाता था।
नई शिक्षा पद्धति में प्रवेश और बाहर निकलने की कई व्यवस्थाएं हैं। इसके अलावा 3 से 4 वर्ष के स्नातक पाठ्यक्रम, 1 से 2 वर्ष के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम व 5 वर्ष के स्नातक-स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम की व्यवस्था की जा रही है। इसके मायने यह हुए कि अगर आप 3 वर्ष के स्नातक पाठ्यक्रम का चुनाव करते हैं तो आपको 2 वर्ष का स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम करना पड़ेगा। अगर 4 वर्ष के स्नातक पाठ्यक्रम का चुनाव करते हैं तो 1 वर्ष का स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम का चुनाव आपको करना पड़ेगा। कुल मिलाकर यह पुरानी पद्धति के जैसा ही है, जिसमें 12वीं के बाद 5 वर्ष में स्नातक व स्नातकोत्तर पूर्ण हुआ करता था।
नई शिक्षा नीति में क्रेडिट ट्रांसफर एंड एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट की बात कही जा रही है। अभी तक चली आ रही शिक्षण व्यवस्था में छात्रों को एक खास विषय के चुनाव के बाद उस तक सीमित कर दिया जाता था। अगर 4 वर्षों का पाठ्यक्रम का आपने चुनाव किया तो 4 वर्ष पूर्ण होने के बाद डिग्री प्रदान की जाती थी लेकिन अब इस नई व्यवस्था में अगर किसी छात्र ने किसी भी पाठ्यक्रम में दाख़िला लिया और वह एक वर्ष के बाद पाठ्यक्रम से निकलना चाहता है तो उसे सर्टिफ़िकेट देने की व्यवस्था की गई है। वहीं 2 वर्ष बाद अगर कोई पढ़ाई छोड़ता है तो उसे डिप्लोमा देने की व्यवस्था की गई है। इसी प्रकार 3-4 वर्ष के अध्ययन के बाद ही डिग्री देने की व्यवस्था की गई हैं। इसमें छात्रों को जो पहले की व्यवस्था में घाटा होता था, उसे यहां सुधारने का प्रयास किया गया है। यहां छात्रों के पिछले अकादमिक सफर को जोड़कर आगे की पाठ्यक्रम चुनाव करने की स्वतंत्रता दी जा रही है।
इन सबके अलावा कुछ नए प्रावधान व नीतिगत बदलाव संशय पैदा कर रहे हैं। इनमें शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण और शैक्षणिक संस्थानों को स्वायत्तता प्रदान करना शामिल है। गौर से देखें तो शिक्षा का बाजारीकरण किया जा रहा है और शिक्षा के क्षेत्र में प्राइवेट संस्थानों के लिए दरवाजे खोले जा रहे हैं। शैक्षणिक संस्थानों को स्वायत्तता प्रदान करने की जो बात कही जा रही है, उसके भी कई मायने हैं। मसलन, निजी क्षेत्र अब यह भी तय करेगा कि वह छात्रों को क्या पढ़ाएगा, पाठ्यक्रम कैसा होगा, शोध के विषय क्या होंगे और यह भी कि वह कितनी फीस लेगा।
यह आशंका गैरवाजिब नहीं है कि नई शिक्षा नीति से शिक्षा केवल पैसे वालों के लिए रह जाएगी। गरीब-गुरबे, जिनमें अधिकांश हिस्सेदारी दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों की है, शिक्षा से वंचित हो जाएंगे। गरीब बहुसंख्यक दलित-बहुजन शायद ही महंगे संस्थानों में अध्ययन कर पाएंगे।
जाहिर तौर पर जब प्रशासनिक व्यवस्थाओं के संचालन में स्वायत्तता प्रदान की जाएंगी तो शैक्षणिक व शिक्षकेत्तर कर्मचारियों की नियुक्तियां संस्थानों के संचालाकों की मनमर्जी से होंगीं। एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या सामाजिक न्याय की मूल अवधारणाओं के अनुरूप संविधान प्रदत्त आरक्षण का अनुपालन किया जाएगा?
इसका जवाब नकारात्मक है क्योंकि निजी संस्थानों में आरक्षण व्यवस्था को अब तक भारत सरकार द्वारा लागू नहीं किया गया है। आरक्षण व्यवस्था, जिनके तहत सामाजिक खाई को काफी हद तक कम करने का प्रयास किया जा रहा है, वह अभी अपेक्षा के अनुरूप प्रभावी साबित नहीं हो पा रही है। इसमें पिछड़े वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण भी शामिल है जिसे 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल कमीशन की अनुशंसाओं के अनुरूप लागू किया गया। इसमें शरद यादव, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, जॉर्ज फर्नांडिस, कांशीराम आदि द्वारा सड़क से लेकर संसद तक किये गए संघर्ष की अहम भूमिका रही।
पहले पिछड़े वर्गों के लिए 27 फीसदी का आरक्षण केवल सरकारी नौकरियों में किया गया। बाद में 5 अप्रैल, 2006 को तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग के बच्चों के लिए उच्च शिक्षण संस्थाओं में दाखिले में संविधान प्रदत्त 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया गया। इसके बाद अभिजात वर्ग के लोगों ने आसमान सिर पर उठा लिया और इसे न्यायालय में चुनौती दी। 10 अप्रैल, 2008 को उच्चतम न्यायालय द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग के छात्रों को दाखिले में आरक्षण प्रदान करने के लिए किये गए संविधान संशोधन को मान्य करार दिया गया। इस प्रकार जिन अभिजात वर्गों के लिए आजादी के पश्चात अब तक विश्वविद्यालय की दीवारें सुरक्षित पनाहगाह साबित हो रही थीं, वहां सर्वहारा, सामाजिक रूप से पिछड़े व शोषित वंचितों के प्रवेश से खलबली मच गई। साथ ही अभिजात वर्ग ने पूंजीवादियों के साथ गठजोड़ करके सर्वहारा वर्ग को संवैधानिक प्रदत्त आरक्षण व्यवस्था को निष्क्रिय करने का हथकंडा अपनाया जाने लगा। मुख्य रूप से मंदिर आंदोलन व संस्थानों को पूंजीपतियों के हाथों सोंपा जाना व स्वायत्तता प्रदान करना। कहना अतिश्योक्ति नहीं कि ये सभी सामाजिक न्याय विरोधी हथकंडे आदिवासी, दलित और पिछड़ा वर्ग के संवैधानिक लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व अधिकार का मकड़जाल फैला कर दीमक की तरह नष्ट कर रहे हैं।
इसके साथ ही एक नई व्यवस्था में विश्वविद्यालयों का ग्रेड वाइज रैंकिंग शामिल किया जा रहा है – मसलन, ‘ए-प्लस’, ‘ए’ और ‘बी’। यहां ए-प्लस विश्वविद्यालयों में बमुश्किल 35 विश्वविद्यालय रहने की संभावना है। अमूमन 15 सरकारी विश्वविद्यालय केंद्रीय-राजकीय मिला करके शेष 20 प्राइवेट विश्वविद्यालय। यहां शोध कार्य करवाये जाएंगे व उच्चतम मानक तकनीक की व्यवस्था रहेगी। स्वायत्तता प्रदान करने पर सरकारी नियंत्रण ख़त्म हो जाएगा। ‘ए’ ग्रेड विश्वविद्यालय स्नातक-स्नातकोत्तर डिग्रीयां प्रदान करने तक सीमित रहेगें। छोटे शहरों के इन विश्वविद्यालयों में शोध कार्य नहीं करवाये जाएंगे।
जबकि ‘बी’ ग्रेड के विश्वविद्यालय काॅलेज शिक्षा तक सीमित कर दिये जाएंगे। ‘ए प्लस’ विश्वविद्यालयों तक बहुसंख्यक समुदाय की पहुंच संभव नहीं होगी। मतलब साफ है कि ज्ञान के खजाने पर केवल सवर्णों और पूंजीपतियों का अधिकार होगा और दलित-बहुजनों को केवल मजदूरी के लायक शिक्षा मिलेगी।
(संपादन : नवल/अमरीश)
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