बिहार में दलित जातियां जिस तरह से अपनी जात बताने में आगे आ रही हैं वह एक नए परिवर्तन का संकेत है। कुछ दिन पहले एक पोस्टर पटना में दिखा। उस पर लिखा था “सन ऑफ डोम” । “सन ऑफ डोम” ने अपना नाम सुनील कुमार राम भी पोस्टर पर लिखा और अपना फोटो भी लगाया। मांग यह रखी कि डोम जाति के व्यक्ति को भी मंत्रिमंडल में शामिल किया जाए।
हालांकि यह केवल एक डोम जाति के प्रतिनिधित्व का सवाल नहीं है। बिहार में अभी भी दलित व पिछड़े वर्ग की अनेक जातियां हैं, जिन्हें प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है।
खैर, आप सोच रहे होंगे कि सीधे मंत्रिमंडल में शामिल करने की मांग क्यों की गई? क्यों नही चुनाव में टिकट देने की मांग या विधानपरिषद में भेजने की मांग की गई? यह राजनीति की पाठशाला का उनका ज्ञान ही है कि वे सीधे मंत्रिमंडल में शामिल करने की मांग कर रहे हैं। उनको पता है कि मंत्री बनने के लिए चुनाव जीतना ही एक मात्र शर्त नहीं है। उन्हें मालूम है कि वे अगर राज्यपाल के कोटे से एमएलसी बन जाते हैं तो भी मंत्री बन सकते हैं। बिहार में 2005 से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी विधानपरिषद् के ही सदस्य हैं और सत्ता में हैं।
एक बड़ी बात यह कि जिस तरह से बिहार में “सन ऑफ डोम” या “सन ऑफ मल्लाह” लिखा जा रहा है, उस तरह से अतिपिछड़ी जातियां “सन ऑफ तेली”, “सन ऑफ सूढ़ी” या “सन ऑफ हलवाई” लिखते नहीं दिख रहीं हैं।
“सन ऑफ डोम” सुनील कुमार राम से जब बात हुई तो उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि डोम का बेटा भी
लोकसभा, राज्यसभा, विधानभा या विधान[परिषद में जाए। उन्होंने बताया कि आज तक किसी डोम को यह अवसर नहीं दिया गया है।
बिहार में एक मंत्री हुआ करते थे भोला राम तूफानी। वे चारा घोटाले में भी फंसे थे। उनके बारे में राजनीति में यह स्थापित है कि वे डोम जाति से आते थे। सुनील बताते हैं कि वे मेहतर जाति से थे। अब समझिए कि डोम और मेहतर में क्या फर्क है। मेहतर जाति का काम साफ-सफाई करना है। डोम जाति का काम बांस के कारोबार से जुड़ा हुआ है। यह वह जाति है जो समाज के लिए इकोफ्रेंडली सामान बनाती है। जैसे बांस से टोकरी, सूप, दऊरा, खोंमचा, या घर के सजावट से जुड़ी चीजें भी। यही वह जाति है जो बांस से कुर्सी, बुकशेल्फ, सोफा आदि भी बनाती है। बिहार में काफी उत्साह के साथ मनाए जाने वाले महापर्व छठ के लिए यही डोम सूप डलिया बनाते हैं। डोम के सूप के बिना इस पर्व की पवित्रता पूरी नहीं होती।
डोम जाति का दूसरा बड़ा है श्मशानघाट में पार्थिव शरीर को आग देना। हिन्दू समाज में माना जाता है कि डोम ही जीवन- मृत्यु के चक्र से मुक्ति का द्वार दिखाते हैं। जो सवर्ण या पिछड़ी जाति के लोग डोम का पानी पीने से नफरत करते हैं वही डोम श्मशान में उनके लिए राजा डोम हो जाता है। आजकल विद्युत् शवदाह गृह भी बड़ी संख्या में बनाए गए हैं। लेकिन विद्युत शवदाह गृह में दाह संस्कार से पहले भी हिंदू परिवार डोम राजा से चिता के लिए आग लेते हैं। कई बार संपन्न लोग काफी रुपए इन्हें आग देने के बदले में देते हैं तो कई बार गरीब परिवार के द्वारा दिए गए काफी कम रुपए से भी इन्हें संतोष करना पड़ता है।
आप यह भी समझिए की चिता की आग के आसपास अपनी जिंदगी बिताने, चिता से उड़ने वाले डस्ट को हमेशा अपनी नाक और फेफड़े में भरने की वजह से ये फेफड़े की बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं। श्मशान का जीवन और मंदिर के पंडा के जीवन के बीच के फर्क को सोच कर देखिए। दोनों में कितना बड़ा अंतर है।
डोम शब्द का असली शब्द डोम्ब बताया जाता है। यह जाति अनुसूचित जाति में है फिर भी आरक्षण का बहुत फायदा इन्हें नहीं मिल पाया। इनकी मानें तो अनुसूचित जाति में पासवान, चमार जैसी जातियों का शैक्षणिक स्तर काफी ऊंचा है इस कारण ये पिछड़ते जा रहे हैं। बिहार के हसन इमाम ने अपनी किताब ‘बिहार में डोम’ में लिखा है कि प्रसिद्ध शोधकर्ता लूखवीन्द्र कुमार कटेल का मानना है कि डोम भारत में आर्यों के आगमन से पहले से ही हैं। वे इनके पूर्वजों के नाम को लेकर किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं परंतु उनकी यह स्थापना है कि सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान मोहनजोदड़ो में इनके पूर्वजों का निवास था जिन्होंने वहां नहरों के निर्माण में महती भूमिका निभाई होगी। चूंकि सिंधु घाटी सभ्यता की लिपि की आज तक पढ़ा नहीं जा सका है इसलिए इस तरह की सैद्धांतिक प्रतिस्थापनों पर पूरी तौर पर भरोसा करने का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। हसन इमान ने यह भी उल्लेख किया है कि जर्मनी के हेनरी मोर्टिंज गोठलीव गेलमैन प्रथम नृवैज्ञानिक हैं जिन्होंने यह कहा है कि आधुनिक जिप्सी भारत की डोम जाति के वंशज हैं।
सन 2011 में हुई जनगणना के अनुसार पटना में डोम जाति के लोगों की संख्या 16, 478 है। जबकि पटना में अनुसूचित जाति की कुल आबादी 9,20,918 है। बिहार में सामाजिक न्याय की खूब बात होती है फिर क्या वजह है कि डोम जाति को विधानमंडल में उसका हिस्सा आज तक नहीं मिला? डोम जाति के युवाओं को काम के अवसर नहीं मिल पा रहे हैं इसलिए ये अपने पुश्तैनी बांस से जुड़े कामकाज को छोड़ साफ-सफाई के काम में भी लग गए हैं। यह पेट का सवाल है लेकिन अब इन्हें भी यह शिकायत है कि उन्हें विधानसभा में नहीं जाने दिया जाता और मंत्री नहीं बनाया जाता। यह बवाल सत्ता की उपेक्षा और पार्टियों की बेरुखी से भी जुड़ा है। इसी तरह की शिकायत हीरा डोम ने अपनी कविता में अभिव्यक्त की थी। यह कविता महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ (सितंबर 1914, भाग 15, खंड 2, पृष्ठ संख्या 512-513) में प्रकाशित हुई थी।
हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी
हमनी के साहेब से मिनती सुनाइबि।
हमनी के दुख भगवानओं न देखता ते,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधरम होके रंगरेज बानि जाइबिजां,
हाय राम! धसरम न छोड़त बनत बा जे,
बे-धरम होके कैसे मुंहवा दिखइबि॥१॥
खंभवा के फारी पहलाद के बंचवले।
ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले।
धोती जुरजोधना कै भइया छोरत रहै,
परगट होके तहां कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवाँ कै पलले भभिखना के,
कानी उँगुरी पै धैके पथरा उठले।
कहंवा सुतल बाटे सुनत न बाटे अब।
डोम तानि हमनी क छुए से डेराले॥२॥
हमनी के राति दिन मेहत करीजां,
दुइगो रूपयावा दरमहा में पाइबि।
ठाकुरे के सुखसेत घर में सुलत बानीं,
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।
हकिमे के लसकरि उतरल बानीं।
जेत उहओं बेगारीया में पकरल जाइबि।
मुँह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानीं,
ई कुल खबरी सरकार के सुनाइबि॥३॥
बभने के लेखे हम भिखिया न मांगबजां,
ठकुर क लेखे नहिं लउरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम जोरबजां,
अहिरा के लेखे न कबित्त हम जोरजां,
पबड़ी न बनि के कचहरी में जाइबि॥४॥
अपने पहसनवा कै पइसा कमादबजां,
घर भर मिलि जुलि बांटि-चोंटि खदबि।
हड़वा मसुदया कै देहियां बभनओं कै बानीं,
ओकरा कै घरे पुजवा होखत बाजे,
ओकरै इलकवा भदलैं जिजमानी।
सगरै इलकवा भइलैं जिजमानी।
हमनी क इनरा के निगिचे न जाइलेजां,
पांके से पिटि-पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमने के एतनी काही के हलकानी॥५॥
(संपादन : नवल/अमरीश)
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