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असिस्टेंट प्रोफेसरों की नियुक्ति : बिहार में बाहरी अभ्यथियों को पहुंचाया जा रहा लाभ!

यूजीसी के नियम सभी राज्यों में समान तिथि से लागू नहीं हुए। फिर यूजीसी की गाइडलाइन्स को लागू करना उन्नत प्रदेशों के विद्यार्थियों को तरजीह देना और बिहार जैसे शिक्षा में पिछड़े प्रदेश को और पीछे ले जाने की तरह है। बिहार में बड़ी आबादी पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों की है। बता रहे हैं प्रणय प्रियंवद

कोरोना के कारण जब प्रवासी मजदूर वापस बिहार लौटने लगे तब बिहार में पलायन की त्रासदी पर खूब बहसें हुईं। बिहार सरकार के दावों की पोल भी खुली। सवाल गूंजा कि 15 वर्षों में पलायन रोकने के लिए कौन से कदम उठाए गए। अब जब कि सूबे के विश्वविद्यालयों में असिस्टेंट प्रोफेसर की बहाली होने वाली है तब फिर से बाहरी अभ्यर्थियों को तरजीह दी जा रही है। उल्लेखनीय है कि सूबे के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में असिस्टेंट प्रोफेसर के 11 हजार पद खाली पड़े हुए हैं जो कि कुल पदों के 58 फीसदी के करीब हैं। इनमें आरक्षित वर्गों के बैकलॉग पद भी शामिल हैं। पटना यूनिवर्सिटी की ही बात करें तो यहां 925 की जगह 300 शिक्षक काम कर रहे हैं। नियम के तहत कॉलेजों में 30 विद्यार्थियों  पर एक शिक्षक होना चाहिए।

अभी जो चर्चा है उसके मुताबिक बिहार में 4,500 से ज्यादा असिस्टेंट प्रोफेसर की बहाली होनी है। इसके लिए कुलाधिपति-सह-राज्यपाल ने परिनियम -2020 को स्वीकृति दी है। 10 अगस्त को  इसकी अधिसूचना जारी होने के साथ ही कई सवाल भी उठने शुरू हो गए हैं। सवाल क्यों उठ रहे इसे समझने के लिए परिनियम को समझना होगा। परिनियम को समझने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि बहाली में राज्य की जगह बाहर के लोग ही ज्यादा चयनित होंगे। इससे पहले बिहार लोक सेवा आयोग (बीपीएससी) के जरिये हुई असिस्टेंट प्रोफेसरों की बहाली में भी ऐसे ही आरोप लगे थे। इसके बावजूद सुधार नहीं हुआ। 

नये नियमों से अथ्यर्थियों को हो रही परेशानी

ध्यातव्य है कि असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति के लिए मेधा सूची कुल 115 अंकों में से प्राप्त अंकों के आधार पर होगी। शैक्षणिक योग्यता के लिए 100 अंक और इंटरव्यू के लिए कुल 15 अंक तय किए गए हैं । कहा गया है कि परिनियम में तय योग्यताओं में वे ही अभ्यर्थी मान्य होंगे, जो यूजीसी की तरफ से आयोजित नेट या यूजीसी समतुल्य परीक्षा जैसे एसएलइटी व एसइटी पास हों। इसके अलावा वे अभ्यर्थी पात्र होंगे, जिन्होंने विश्वविद्यालय सेवा आयोग विनिमय 2009, 2016 व समय-समय पर संशोधनों के आधार पर पीएचडी की डिग्री हासिल की हो। ऐसे पीएचडी धारकों को नेट, एसएलइटी, एसइटी से छूट दी जाएगी। एसएलइटी, एसइटी की मान्यता के संदर्भ में यूजीसी रेगुलेशन 2018 के वर्णित नियम मान्य होंगे।

क्यों उठ रहे हैं इस पर सवाल?

बीए, एमए के सिलेबस का देश के सभी राज्यों के विश्वविद्यालयों में मानकीकरण नहीं है। साथ ही यूजीसी के नियम सभी राज्यों में समान तिथि से लागू नहीं हुए हैं तब फिर यूजीसी की गाइडलाइन्स को लागू करना उन्नत प्रदेशों के विद्यार्थियों को तरजीह देना और बिहार जैसे शिक्षा में पिछड़े प्रदेश को और पीछे ले जाने की तरह है। बिहार में बड़ी आबादी पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों की है। इसलिए मायने में इसे उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ों को पीछे ढकेलने का कुत्सित प्रयास ही माना जाना चाहिए। 

फागू चौहान, राज्यपाल व कुलाधिपति, बिहार

दूसरी बात यह कि इस नियमावली में यूजीसी के एमफिल और पीएचडी विनियम 2009 और 2016 में हुए संशोधन के तहत पीएचडी करने वाले अभ्यर्थियों को नेट, एसएलइटी, एसइटी से छूट देने की बात कही गई है। सच यह है कि इसका फायदा बिहार के अभ्यर्थी नहीं उठा पाएंगे। कारण यह कि बिहार में इस विनियम के तहत पीएचडी में विद्यार्थियों का रजिस्ट्रेशन जुलाई, 2012-2013 या इसके बाद किया गया। यूजीसी की उस नियमावली के तहत 2009-12 में नामांकन ही नहीं हुए। इस अवधि में बिहार के तमाम विश्वविद्यालयों में 2009 से पहले के परिनियम के आधार पर ही पीएचडी में नामांकन किए गए। इसमें उन विद्यार्थियों का क्या कसूर है जो 2009 से 2012-13 के दौर में पुराने परिनियम पर पीएचडी उपाधि लेने वाले अभ्यर्थियों के हितों की अनदेखी करते हुए इस परिनियम में उनके बारे में कुछ सोचा जाना मुनासिब नहीं समझा गया है? इसमें साफ है कि  2017 की बहाली का इतिहास फिर से दुहराया जाएगा। तब जुलाई 2009-12 तक के बिहार के अभ्यर्थी बहाल नहीं हो पाए थे। 

इसमें शिक्षण अनुभव में 10 नंबर देने की बात कही गई है। बिहार में ऐसे अनुभव काफी कम छात्र जुटा पाएंगे। ऐसी में बाहरी आएंगे और दस नंबर लेकर बिहारियों से आगे निकल जाएंगे। 

बिहार में डिग्री पर बिहार में ही सवाल

पटना विश्वविद्यालय के अवकाश प्राप्त कुलपति रासबिहारी सिंह कहते हैं कि अभी जो नियम बनाया गया है उसके अनुसार 2009 से 2013 के बीच जिसने पीएचडी की है उन्हें इंटरव्यू के लिए बुलाया नहीं जाएगा। वे कहते हैं कि बिहार में पुराने रेगुलेशन से साल 2012 तक पीएचडी होती रही। 2009 में आया नियम 2013 में जिस राज्य में लागू हुआ वहां तो यह होना चाहिए कि पीएचडी किसी भी नियम से की गई हो उसको मान्यता दी जाए। अगर ऐसा नहीं होगा तो बिहार की डिग्री पर बिहार से बाहर सवाल उठते ही हैं , खुद बिहार में ही सवाल उठ जाएगा। यह अच्छी स्थिति नहीं होगी। रासबिहारी सिंह यह भी कहते हैं कि जिस राज्य में एमफिल होता ही नहीं है वहां की बहाली के लिए एमफिल  की जरूरत  बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। कहते हैं कि गोवा जैसे कई राज्यों में अपने-अपने राज्य के विद्यार्थियों के लिए डोमिसाइल है तो बिहार में भी यहां के विद्यार्थियों के लिए कुछ खास जरूर होना चाहिए। 

स्थानीय छात्रों को मिले प्राथमिकता

पटना विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष रणधीर कुमार सिंह कहते हैं कि बिहार में एम.फिल. की पढ़ाई नहीं होती है इसके बावजूद इसके लिए मार्क्स देने की बात कही गई है। वे कहते हैं कि पटना यूनिवर्सिटी में एमए में एडमिशन के समय 80 फीसदी सीटें पीयू के विद्यार्थियों के लिए आरक्षित रहती हैं, बाकी बची 20 फीसदी सीटों पर ही अदर यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों का एडमिशन होता है। यह व्यवस्था पिछले 45 वर्षों से कायम है। ऐसे में बिहार सरकार को भी चाहिए कि वह असिस्टेंट प्रोफेसर की बहाली में बिहार के विद्यार्थियों को 80 फीसदी आरक्षण दे। बिहार के युवा जब बाहर के प्रदेशों में जाते हैं तो उन्हें वहां से भगाया जाता है और बिहार में तो बिहारी छात्रों के साथ अन्याय हो ही रहा है। 

बिहार टीचर्स एडुकेटर एसोसिएशन के पूर्व महासचिव ध्रुव कुमार कहते हैं कि जब झारखंड की बहाली में डोमिसाइल नीति है तो बिहार में क्यों नहीं होनी चाहिए। बिहार में होने वाली असिस्टेंट प्रोफेसर की बहाली में बिहार के लोगों को हर हाल में आरक्षण दिया जाना चाहिए। इस पर सरकार सहानुभूतिपूर्व विचार करे ।

(संपादन : नवल/अमरीश)


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प्रणय

लेखक बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं

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