बहस-तलब
भारत में बहुजन शब्द एक समुच्चय है, जिसमें आदिवासी, दलित, ओबीसी, पसमांदा मुसलमान और महिलाएं शामिल हैं। प्रस्तुत लेख में रामजी यादव यह प्रस्ताव कर रहे हैं कि पसमांदा मुसलमानों के सवालों को पृथक रूप में जाना-समझा जाय। उनके सवालों और संस्कृतियों को विमर्श के केंद्र में लाया जाय। जबतक उनका साहित्य नहीं होगा, वे अनचिन्ह बने रहेंगे
साहित्य के हाशिए पर पसमांदा मुसलमान
- रामजी यादव
मुझे लगता है कि अखलाक, जुनैद, पहलू खान और अफराजुल जैसे लोगों की हत्याओं से इतना तो आसानी पता चल जाता है कि इस देश से किस प्रकार के मुसलमानों को खत्म करने का अभियान चल रहा है। ठीक इसी प्रकार नजमा हेपतुल्ला, सिकंदर बख़्त, मुख्तार अब्बास नक़वी, शाहनवाज़ हुसैन, मोहसिन रज़ा आदि के इतिहास-भूगोल के संदर्भ से यह अच्छी तरह समझ में आ जाना चाहिए कि इस देश में किस प्रकार के मुसलमान सुरक्षित हैं। सुरक्षित ही नहीं, बल्कि सत्ता में भागीदार और मजे से जिंदगी गुजारते हुए वे रह सकते हैं। इस प्रकार हम क्या देखते हैं? जो भी देखते हैं वह बहुत भयानक देखते हैं। हम देखते हैं कि बहुजन समाज का एक विशाल हिस्सा केवल धार्मिक आधार पर लगातार शक और अविश्वास की खराद पर ही नहीं रहता आ रहा है बल्कि वह लगातार अपने संवैधानिक तथा मौलिक अधिकारों से वंचित रहा है। हमारे ऐन पड़ोस में और ऐन सामने रहते हुये भी उसकी जिंदगी के पेंचो-खम ने उसको एक रहस्य बनाकर छोड़ दिया है। आज की सारी राजनीति इस रहस्य के पर्दे में सिमट आई है जो अगर खुल जाए तो सिर्फ यही निकलेगा कि भारतीय मुसलमानों का श्रमजीवी हिस्सा तो सिर्फ अभावों, पीड़ा और धार्मिक-राजनीतिक झांसे में जी रहा है।
सुप्रसिद्ध कथाकार नासिरा शर्मा लिखती हैं – “देश के बंटवारे के बाद मुसलमानों की भूमिका राष्ट्र में एक सहज प्रवाह जैसी नहीं रह गई थी। पूरा मुस्लिम समाज बंटवारे और जमींदारी उन्मूलन से बुरी तरह टूटकर बिखर चुका था। मध्यवर्ग और उच्चवर्ग पाकिस्तान जा चुका था। अस्सी प्रतिशत कारखानेदार बचे थे, जो आए दिन फ़साद की चपेट में आकार कम से कम मजदूरी पर काम करने के लिए मजबूर हो जाते थे। उपर से ये फ़साद बंटवारे के आक्रोश का परिणाम माने जाते, मगर वास्तव में यह छोटे स्तर के पूंजीवादी मानसिकता रखने वाले व्यापारियों का एक हिंसक खेल होता, जिसमें राजनेता भी अपनी सफल भूमिका पेश करते और उनके आंसू पोंछने निकल जाते थे। इन टूटे दिल वालों के लिए यही राजनेता, जो हिन्दू और मुसलमान दोनों में से होते थे, आशा की किरण बनते और इस तरह मुस्लिम वोट बैंक की परंपरा जड़ें जमाने लगीं, जबकि 1947 से पहले हिन्दू-मुसलमान वोट तो दूर, कुछ भी बंटा हुआ नहीं था।” (नासिरा शर्मा : राष्ट्र और मुसलमान , 2006)
वास्तविकता की अनेक परतें यहां बहुत शिद्दत से व्यक्त होती दिखती है। जिस बात की ओर मैं खासतौर से ध्यान दिलाना चाहता हूं वह है भारत का मेहनतकश पसमांदा मुसलमान जिसको नासिरा जी ने ‘अस्सी प्रतिशत कारखानेदार’ के रूप में चिन्हित किया है। यह अस्सी फीसदी वास्तव में भारतीय अर्थव्यवस्था में लगा वह बुनियादी हिस्सा है जो न केवल बेशुमार उत्पादन करता है बल्कि भारत की सम्पूर्ण आबादी के अस्सी फीसदी हिस्से की तरह जिसका जीवन संकटों अभावों और चुनौतियों से घिरा हुआ है। ऐसे ही लोगों के बारे में एक बार मेरे मित्र अंग्रेजी साहित्य के अध्येता, प्राध्यापक और वरिष्ठ आलोचक आनंद प्रकाश ने बहुत मार्मिक बात कही थी कि “मुसलमान का जैसे हम ज़िक्र करते हैं तो हमारे सामने हठात ऐसी आबादी का चित्र उभरता है जो सर से पांव तक मशक्कत में डूबी हुई है लेकिन जिसके पास जिंदगी की बुनियादी चीजों का भी अभाव है। वह न केवल असुरक्षित समाज है, बल्कि वह भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान करने के बावजूद वह रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य के मौलिक प्रश्नों से जूझ रहा है।” यह बात प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ के संदर्भ में हो रही थी। अमीना की गरीबी और हामिद की संवेदना और समझदारी को आनंद प्रकाश साधारण मुस्लिम परिवार के बहुत बड़े सच के रूप में देखते हैं और यह सच आज़ादी के बाद भी झूठा साबित नहीं हो रहा है। आज उसे हम पसमांदा मुसलमान के रूप में जानते हैं, लेकिन आज तक उनका अपना साहित्य उनके बीच से बहुत ही कम है। जाहिर सी बात है कि जब साहित्य नहीं है, तो सवाल कहां से उठेंगे। संसद और विधानसभाओं में तो छोड़ ही दीजिये। साधारण आंदोलनों में भी उनके सवाल शायद ही कभी उठते हों।
असल में सामाजिक ताने-बाने, जाति-व्यवस्था और दूसरे मामलों में मुसलमान समाजों की वास्तविकता अभी तक स्पष्ट नहीं थी और सम्पूर्ण मुसलमान समाजों का बौद्धिक और सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व यहां के अशराफ (अगड़े) मुसलमान करते रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे लंबे समय तक पिछड़ों का नेतृत्व भारत के सवर्ण करते रहे हैं, लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि वे इसके सर्वथा अयोग्य ही नहीं थे, बल्कि अपने स्वार्थों के लिए उन्होंने पिछड़ों को गहरे अंधेरे में धकेला। अशराफ मुस्लिम नेतृत्व इससे एक इंच भिन्न नहीं रहा है। राजनीति से लेकर संस्कृति तक उन्होंने कहीं भी अजलाफ़ या पसमांदा अथवा पिछड़े मुसलमानों को रिकोग्नाइज़ तक नहीं किया।
जैसा कि नासिरा शर्मा की ही किताब के एक अध्याय में आया है कि “भारतीय मुसलमानों को मोटे रूप से चार भागों में बांटा जा सकता है – सैयद, शेख, मुगल, पठान और दो फ़िरकों में सुन्नी और शिया, जो इतने बड़े फर्क को नहीं बताते हैं कि उनका ज़िक्र अलग से किया जाय, सिवाय इस मसले के कि कुछ सियासी बातें हैं, जो गैर जरूरी तरीके से तनाव पैदा करने में मददगार साबित होती हैं और राजनेताओं को वक्ती लाभ पहुंचता है और ये राजनेता बनते हैं अपने धर्म और कौम के प्रतिनिधि, परंतु उनके पथ-प्रदर्शक नहीं बन पाते हैं और अनेक प्रकार से अपनी ही कौम का शोषण करते हैं। अपने भाषणों से ऐसा वातावरण रचते हैं, जिससे आम मुसलमान हमेशा तनाव और असुरक्षा की भावना से पीड़ित रहता है। उसको भविष्य की चिंता खाये जाती है कि यदि कल को वह हिन्दू आतंकवादियों द्वारा मारा जाता है तो उसके परिवार का क्या होगा ?” (वही, पृष्ठ 83)
जिन चिंताओं को नासिरा जी व्यक्त कर रही हैं, वह बेशक एक महत्वपूर्ण पक्ष है लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इस किताब में कहीं भी मुसलमानों की जिंदगी और अर्थव्यवस्था से जुड़े सवाल पर एक वाक्य नहीं कहा गया है। जिन कारखानेदारों को विभाजन के बाद भारत में रह जाने की बात वे करती हैं, उसका बहुसंख्यक हिस्सा किस हाल में जी रहा है और उसकी क्या चुनौतियां हैं, इस बात को उन्होंने गौर करने लायक नहीं समझा।
दरअसल चाहे मुख्यधारा के मुस्लिम लेखकों की बात हो या किसी अन्य किसी की हो, प्रायः वह मुसलमानों को उनकी धार्मिक पहचान से ही चिन्हित करता है। यह उसकी सीमा और त्रासदी दोनों है। इसलिए बनारस, टांडा, मुबारकपुर और मऊ में बुनकर उजड़ रहे होते हैं। वे जिंदगी और मौत की कगार पर जीने को अभिशप्त कर दिये जाते हैं, लेकिन लोगों के बीच बजरंगी भाईजान की चर्चाएं होती हैं कि देखो कैसे भाईजान ने जान पर खेलकर एक पाकिस्तानी मुस्लिम बच्ची को उसके घर पहुंचा दिया। यह सदियों से चल रहा है कि जब हमारा पड़ोसी भूखों मर गया और हमारे भीतर एक फर्जी आदर्श भर दिया गया, जिसको हम आह्लाद और खुशी से देखते और तालियां बजाते रहे।
उपरोक्त उद्धरण में नासिरा जी ने एक बहुत जरूरी मुद्दे पर बात की है। राजनीतिक मसीहाई हासिल करके अपनी ही कौम का शोषण करने वाले राजनेता लगातार बने हुए हैं। यह सिर्फ मुस्लिम पिछड़ों की पीड़ा और त्रासदी भर नहीं है, बल्कि हिन्दू पिछड़ों की भी यही त्रासदी है। धर्म ने दोनों ही जगह पर पिछड़ों को नकेल पहनाई है और बेरहमी से उनका खून चूस रहा है, लेकिन जैसे ही धार्मिक पहचान से अलग उन्हें बहुजन के नजरिए से देखा जाने लगेगा वैसे ही प्रेम, भाईचारा, अधिकारबोध और इंसानियत का दृश्य सच होने लगेगा। ठीक तभी से इनके बीच के कई जाले टूटने लगेंगे। जिसे फ़ैज़ साहब ‘दर्द का खरा रिश्ता’ मानते हैं वह बहुत मजबूत और अटूट हो जाएगा। इसी को धर्म और सांप्रदायिक राजनीति मिलकर कमजोर कर रहे हैं। अगर सभी धर्मों के पिछड़े इस चाल को समझ जाएंगे तो एक नई दुनिया की नींव बनने लगेगी। नया साहित्य पैदा होगा और सदियों से सिर झुकाए रहनेवाली क़ौमें सिर उठाकर जीने का आनंद लेंगी।
साहित्य समाज का दर्पण होता है इस घिसे हुये वाक्य को भी हम सही परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं। खासतौर जब शिद्दत से यह समझने की ललक हो कि क्या वाकई ऐसा है? मुस्लिम समाज की आईनादारी के मामले में राही मासूम रज़ा, शानी और अब्दुल बिस्मिल्लाह का कोई जोड़ नहीं है। ये तीनों ही मुस्लिम जीवन के भीतर मौजूद विडंबनाओं की अनेक परतों को जितनी बेरहमी से उधेड़ते हैं वह इस मायने में बेमिसाल है कि तीनों का लेखनकाल पिछली शताब्दी रही है, इसके बावजूद उनका लेखन पीछा नहीं छोड़ता। राही मासूम रज़ा के यहां तो एक ऐसा हाशिया है, जहां बहुत तेजी से बदलाव हो रहा है और वह बदलाव शेखों-पठानों को आसानी से पच नहीं रहा है। सिफ़त यह है कि उनके पांवों के नीचे की ज़मीन खिसक चुकी है और वे सिवा हाथ मलने के कुछ और कर भी नहीं सकते। कुछ वर्ष और पीछे का मामला होता तो वे रुपए-पैसे से मजबूत होते जा रहे इन जुलाहों पर लट्ठ बजा देते लेकिन लाहौलबिलाकूवत। अब ज़माना दूसरा आ गया है। उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘आधा गांव’ के दो दृश्य इस बदलाव को बहुत मार्मिक तरीके से व्यक्त करते हैं। जुलाहे अपनी मेहनत से तरक्की कर गए हैं और कल तक उनको अपने अर्दब में रखनेवाले शियाओं की आर्थिक और सामाजिक हैसियत दो कौड़ी की हुई जाती है। उनमें जुलाहों की लड़कियों को अब छेड़ न सकने की कसक है तो दूसरी में एक शिया साहब जूते की दुकान खोले बैठे हैं। बड़ी मुश्किल से नए हीले का ठिकाना हुआ है इसलिए कुशलता से दुकान चलाने के सिद्धांत पर चल रहे हैं। एक दिन अपने ही कुनबे के एक सज्जन को जूते की ओर आता देख उनका खून सूखा जाता है कि कहीं मियां उधर न मांग लें। न जाने कब तक चुकाएंगे या चुकाएंगे ही नहीं। यह दिन किन दिनों को रौंदते हुये आया है इसे इस तथ्य से जाना जा सकता है कि लठैत भोला अहीर भी उनके तख्त पर नहीं बैठता। वह उस मचिया पर बैठता जो उसी के नाम से बैठक के एक कोने में रहती है। इसके साथ ही एक शेख साहब एक दलित महिला को रखे हुए हैं। वह उनके कई बच्चों की मां हो चुकी है और एक दिन निकाह के लिए कहती है तो वे उसे जूते-जूते पीटते हैं कि साली तेरी यह हिम्मत। लेकिन अब दृश्य बदल गया है। अंसारी जुलाहे पत्थर पर दूब की तरह उग आए हैं। अब उन्हें दबाना असंभव है। लेकिन दो समुदायों के बीच के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक फर्क को बहुत बारीकी से बुननेवाले राही साहब भी अंसारियों के कथाकार नहीं हैं। वे वस्तुतः शियाओं और पठानों के पतन के किस्सागो हैं। लिहाजा उनकी कथाभूमि गाजीपुर में पाकिस्तान के अलीगढ़ में जाने का चर्चा तो है लेकिन एकदम पड़ोस के जुलाहों पर बंटवारे का क्या असर होनेवाला है, इसका रत्ती भर भी ज़िक्र नहीं है।
जिस प्रकार अपने समय के रूस को उसकी जटिल संरचना और पतनशील मूल्य-व्यवस्था के साथ लेव तोल्स्तोय ने अपने उपन्यासों में उकेरा और कुलीनों के तमाम ऐश्वर्या और वैभव के बीच एक लालच और सीलनभरी दुनिया के आसपास ही कहीं अपने झोंपड़ों की आड़ से झांकते निम्नवर्ग को चित्रित किया है, ठीक उसी तरह दो वर्गों की संधि पर खड़े होकर राही मासूम रज़ा भी अपने समय को शब्दों में बांधा है। उनका रचना संसार मुसलमानों की जड़ताओं के साथ ही उनके भीतर के बदलावों को बहुत व्यापक रूप से सामने रखता है। एक जगह वे कहते हैं – “बेगम नीच ज़ात की पहली औरत है जो बीबी कही गई … बेगम का बाप जान मोहम्मद गदह-लद था। बेगम के सिवा उसके घर में तीन बेटियां और थीं। बुतूल, आयशा और खदीजा। बुतूल बतुल्नी कही गई। आयशा ऐसय्या हो गई और खदीजा खातीजिया उर्फ कुदनीया हो गई। बात यह है कि यही नाम शरीफ़ घरानों में भी रखे जाते हैं। इसलिए नीच घरों में यदि यह नाम बिगाड़ न दिये जाएं तो शरीफ़ लोगों को रखने के लिए नाम ही न मिलें। इसीलिए अब्दुल हसन, अब्बुल हो जाता है और मोहम्म्द हुसैन, मसेन। मसेन पर याद आया कि खदीजा उर्फ खतीजा उर्फ कुदनीया के मियां का नाम मसेन ही था।” (हिम्मत जौनपुरी : राही मासूम रज़ा ,1995)
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मामला एकदम घुरहू, कतवारु, खंझाटी पताई जैसा ही है। नीच ज़ात का नाम बिगाड़ना ताकि उन्हें लगातार अपमानित किया जा सके। यहां तो आलम यह है कि मसेन बहुत कुशल दर्जी है। उसका फैशन चलता है और वह इतना पैसा कमाता है कि उसका पक्का मकान सबसे बढ़िया बन गया है। उसका काम इतना बढ़ गया है कि आठ दर्ज़ी दिन-रात काम करते हैं। ‘मसेन टेलर्ज़’ की शाखाएं बनारस, इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ और दिल्ली में खुल गई हैं। लेकिन मसेन का दामाद अपने ससुर को किसी रिश्ते से नहीं, बल्कि मसेन कहकर ही बुलाता है। जौनपुरी शेखों का कोई न कोई लड़का नीच ज़ात की लड़की से प्रेम कर बैठता है और निकाह करके उसके मायके को छुड़वा देता है ताकि नीच ज़ात के लोगों से कोई संबंध न रहे। शेखों की माली हालत चाहे जो हो लेकि जाति का गुरूर क्योंकर कम हो। वर्षों से दलित-पिछड़े सामाजिक सम्मान का सवाल उठा रहे हैं, लेकिन सवर्ण शेख कब उन्हें सम्मान देना चाहेंगे?
इसलिए राही साहब के उपन्यासों में एक खास बात दिखती है कि उनके यहां शेख मुस्लिम लीग की तरफ हैं और चाहते हैं कि पाकिस्तान बने। जीवनभर आर्थिक संपन्नता में रहने के बावजूद उन्हें पाकिस्तान का आकर्षण खींच रहा है। यह दीगर बात है कि कई बार बाजी उल्टी पड़ी। जो चाहता था पाकिस्तान बने वह यहां से टल न सका और जो इस देश के प्यार में था वह अपना सबकुछ छोड़कर पाकिस्तान चला गया। यह विडम्बना अनेक स्तरों पर घटित होती है। परित्यक्ताओं का भरण-पोषण कस्टोडियन के जिम्मे है और इस गरज से वे सब की सब मुसम्मात हैं। मुसम्मातों का अंतहीन शृंखला है। वजीर हसन अपनी जड़ों की तलाश में अपनी हिन्दू जड़ों की ओर जाते हैं। बहुत सी चीजें यहां इस बात की गवाही देती हैं कि असल में एक तरफ हिन्दू महासभा सवर्णों के हाथ में थी और वे चाहते थे कि पाकिस्तान बने। और मुस्लिम लीग अशराफों के हाथ में थी जो पाकिस्तान की हिमायत कर रहे थे। इस प्रकार बात यह निकलती दिखाई पड़ती है कि दोनों ही तरफ के सवर्णों का ज़ोर विभाजन पर था। घरों और ज़मीनों की अदला-बदली का मसौदा तक तय था। लेकिन यह भी साफ दिखता है कि पिछड़ों में ऐसी कोई ललक नहीं थी, क्योंकि लड़ाई में वे कहीं थे ही नहीं। वे अपने भारतीय और अभारतीय नियोक्ताओं के घुटने तले कराह रहे थे। लेकिन जो लोग सुनियोजित तरीके से भौगोलिक सीमाओं को बांट लेना चाहते थे, वे उस जलजले में अपने आपको संभाल नहीं पाए जो बंटवारे ने पैदा किया। एक जगह राही साहब ने बड़ा मजेदार वाकया लिखा है -“’इस मुहल्ले में शंख नहीं बज सकता। नमाजियों ने यह फैसला किया और तब यह मुसलमान निकले लीडरों की तलाश में।
मौलवी अशरफुल्ला वकील।
पाकिस्तान गए।
हाकिम मुहम्मद वलीउद्दी ‘वफा’।
पाकिस्तान गए।
समीउल्ला खाँ ठेकेदार।
पाकिस्तान गए।
पहलवान अब्दुल गफ़्फ़ार।
पाकिस्तान गए।
मीर बुलाकी ‘नाशाद’।
पाकिस्तान गए।
अब्दुर्रब अत्तार।
पाकिस्तान गए।
हयातुल्ला अंसारी।
मर गए।”
एक सवाल मेरे मन में बार बार उठता है कि गाजीपुर जैसे आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़े जिले में पाकिस्तान बनने का इतना हल्ला है जबकि बनारस जैसे सांप्रदायिक और बाज़ारू शहर में पाकिस्तान को लेकर कोई सुगबुगाहट क्यों नहीं दिखती। कोई एक उपन्यास नहीं है। कोई एक कहानी नहीं है। कविताएं भी नहीं हैं। अंसरियों के कुल खानदान में पैदा हुए डॉ. अलीम मसरूर जो कि राही साहब के बिलकुल समकालीन थे। उनकी किसी ग़ज़ल में विभाजन का कोई दर्द नहीं दिखता। हालांकि उनकी शायरी में मानवीय पीड़ा बहुत शिद्दत से अभिव्यक्त हुई है – “चले बज़्म-ए-दौराँ जब ज़हर पीके / बढ़े हौंसले और भी ज़िंदगी के। फसानों में मेरी ही आवारगी के /मुअय्यन हुये रास्ते ज़िंदगी के। ज़माने को क्या दूँ कि दामन में मेरे /फकत चंद आंसू हैं वो भी किसी के। निगाह-ए-करम की जरूरत नहीं है /ज़रा देख लूँ बे सहारे भी जी के। हैं मसरूर आँखें तुम्हारी जो पुर नम /बताओ ये आँसू हैं गम या खुशी के।” और उन्होंने अपना मशहूर उपन्यास ‘बहुत देर कर दी’ तवायफ की जिंदगी पर लिखा। पाकिस्तान की चिंता उनके यहां कहीं नहीं है। और उनके एकदम ठीक पड़ोसी नज़ीर बनारसी तो जीवन भर बनारस के रंग में रंगे पान घुलाए पड़े रहे। गंगा की लहरों पर उनका मन लगातार तैरता रहा। वे समाजों को भाईचारे के मजबूत धागे में बांधते रहे। उनकी चिंता यह थी कि “बदगुमानी को बढ़ाकर तुमने ये क्या कर दिया / खुद भी तन्हा हो गए मुझको भी तन्हा कर दिया।” और यह भी कि “ये करे और वो करें ऐसा करें वैसा करें /जिंदगी दो दिन की है दो दिन में हम क्या क्या करें?” एक और जगह वे बहुत मार्के की बात करते हैं – “उम्र भर की बात बिगड़ी इक जरा सी बात में /एक लम्हा ज़िंदगी भर की कमाई खा गया।” इस प्रकार वे सामाजिक भाईचारे की वकालत करते रहे, लेकिन पाकिस्तान उनके यहां भी गायब है। भला ऐसा क्यों है?
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मुझे लगता है कि तमाम पिछड़ेपन के बावजूद गाजीपुर एक सामंती जिला रहा है और वहां अशरफ मुसलमानों और हिन्दू सवर्णों के बीच गहरी सांठ-गांठ है। जैसा कि राही साहब के ढेरों पात्र मसलन नज़ीर हसन और दीनदयाल (ओस की बूँद , 2004) आदि इसके पुख्ता सबूत हैं। इसके बरक्स बनारस वास्तव में एक जीवंत शहर है, जिसका बोझ श्रमजीवियों के कंधों पर है। यह एक आधुनिक बाज़ार है और ब्राह्मणवादी पाखंडों के बावजूद पूंजीवादी तौर-तरीकों से संचालित शहर है। यहां के गांव-देहातों और शहरी मोहल्लों में जो मुसलमान बसते हैं, वे वस्तुतः पिछड़ी जातियों के मुसलमान हैं। इसलिए बनारस के मुसलमानों के लिए पाकिस्तान न सच है, न कोई सवाल और न समस्या। उनकी समस्या रोजगार और जीवन की बुनियादी सुविधाओं की है। इसलिए यहां के लेखकों कवियों की रचनाओं में पाकिस्तान नहीं है। लेकिन पाकिस्तान और दूसरे गैरज़रूरी सवालों को उनके ऊपर जबरन थोपा जाता है, जिससे सांप्रदायिकता परवान चढ़ती है। सच यह है कि अंसारी, दर्जी, धुनिया, दफाली, चूड़िहार, हज्जाम जैसी सैकड़ों मुस्लिम पिछड़ी जातियां इसी मिट्टी में पैदा हुई हैं और इस देश को अपना श्रेष्ठ देते हुए इसी मिट्टी में दफ्न हो राही हैं, लेकिन उनके सपनों में और कोई देश नहीं है। अब यहां एक बात समझ में आती है कि इतिहास में अशराफ मुसलमानों के सामने विभाजन एक बड़ा सवाल था जिसका सामना करते हुए वे या तो पाकिस्तान गए या फिर इस हादसे में खुद नहीं गए तो उनका आधा परिवार गया। तो वर्तमान में पिछड़े मुसलमानों के सामने सांप्रदायिकता सबसे बड़ा सवाल बना दिया गया है और दुर्भाग्य से सांप्रदायिकता की जड़ें अशराफ़ मुसलमानों के अतीत से जोड़ी जाती हैं। लेकिन पिछड़े मुसलमान दशकों से जिन सवालों उठा रहे हैं उनसे लगातार आंखें चुराई जा रही हैं। हिन्दुत्व की राजनीति का उभार इसी पैटर्न पर हुआ है कि ‘मज़ा मारें शेख साहब मार खाय दफ़ाली’। विनोद कुमार श्रीवास्तव का एक अलक्षित उपन्यास ‘वजह बेगानगी नहीं मालूम’ इस बिन्दु को बहुत मार्मिकता से उठाता है। हेमंत कुमार की कहानी ‘रज्जब अली’ और भी घातक यथार्थ को प्रस्तुत करती है। यह कॉर्पोरेट समर्थित हिन्दू फासीवाद के उस घिनौने सच की परतें खोलती हैं, जिसके भीतर सबकुछ नंगा हो गया है। अब रज्जब अलियों के सामने पलायन करने या पागल हो जाने का विकल्प बचता है। इस दौर के एक महत्वपूर्ण कथाकार सुभाष चंद्र कुशवाहा इस पैटर्न को अपनी कहानियों में धीमे ज़हर के रूप में फैलते हुए चित्रित करते हैं। उनके यहां भी इसके परिणाम बहुत हृदयविदारक हैं। पूर्वाञ्चल के सीमावर्ती जिलों रहनेवाले पिछड़े मुसलमानों के खिलाफ एक षड्यंत्र किया जा चुका है। सुभाष की कहानियां यह बताती हैं अब सांप्रदायिकता को उकसावे के हथियार के रूप में नहीं, बल्कि चुप्पी और प्रतिक्रियावाद के माध्यम के रूप में विकसित किया जा चुका है और इस तरह अपनी बेहतरी के लिए संघर्ष करनेवाले और अपने हक की मांग करनेवाले मुसलमान को बहुत आसानी आतंकवादी घोषित किया जा रहा है। सांप्रदायिकता की भावना को उसके खिलाफ शक-सुबहा और अफवाहों को रचने-फैलाने के काम में लिया जा रहा है। बाकी काम स्टेट पुलिस बड़ी आसानी से अंजाम दे रही है। पता ही नहीं चलता कि ‘अमीन मियां क्यों सनक गए हैं’ और ‘एक बाकुम क्यों मारा गया’। अपने दाखिले के लिए किसी की सिफ़ारिश लेकर आनेवाले विद्यार्थी को ‘हूजी आतंकी’ करार देना इतना आसान हो गया है कि किसी छानबीन की जरूरत ही नहीं पड़ती। लेकिन लेखक इनकी तह तक गया है। उसने उस पैटर्न को खोज निकाला है जो बड़ी चतुराई से भाईचारे की लहराती नदी में ज़हर उड़ेलने के काम में लाया जा रहा है।
कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ अपनी एक मार्मिक कविता ‘नूर मियां का सुरमा’ में एक पूरी कहानी कहते हैं। नूर मियां गांव के अनिवार्य चरित्र हैं और बक़ौल विद्रोही ‘आज तो चाहे कोई /विक्टोरिया छाप काजल लगाए /या चाहे साध्वी ऋतंभरा छाप अंजन/ लेकिन असली घी का सुरमा तो नूर मियां ही बनाते थे/ कम से कम मेरी दादी का मानना तो यही था’। नूर मियां श्रमजीवी समाज के एक अक्षुण्ण हिस्से हैं। वे ज़िंदगी के हर दुख-सुख के भी भागीदार हैं लेकिन एक दिन वे पाकिस्तान चले गए। विद्रोही बड़ी पीड़ा से पूछते हैं – ‘क्यों चले गए पाकिस्तान नूर मियां? / कहते हैं नूर मियां का कोई था नहीं / तब हम क्या कोई नहीं होते थे नूर मियां के / नूर मियां क्यों चले गए पाकिस्तान?’ क्या पाकिस्तान कोई ऐसी निरापद जगह है, जहां डरे हुये मंटो और अकेले रह गए नूर मियां चले जाते हैं कि वहां शरण मिलेगी। तमाम लाग-लगाव और बझाव के बावजूद मोहसीन की भी अंतिम शरण्य पाकिस्तान क्यों है? (काला जल : शानी, 1985) यह प्रश्न लगातार मुंह बाए खड़ा है। लेकिन इसका जवाब ढूंढना जरूरी है। और रज्जब अली इसका एक जवाब है। रज्जब अली जुलाहा जिसकी यहां की हवा-पानी और मिट्टी, खेतों, फसलों, गायों और मनुष्यों के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती, वह लगातार सवालों के घेरे में आता जा रहा है। गांव का कोई घर उससे अंजाना नहीं है, लेकिन भीतर ही भीतर रज्जब अली बेगाना होता जा रहा है। बेखुदी का आलम यह है कि जब उससे अरिमर्दन सिंह पूछते हैं कि बाकी सब लोग कहां चले गए तो वह खिसियाहट में कहता है कि पाकिस्तान चले गए। वह लोगों से जवाब चाहता है और इसके लिए घर-घर घूमता है, लेकिन जवाब कोई नहीं देता। सब उससे सवाल करते हैं। जहां उसने बाल बराबर फांक भी नहीं रखी थी, वहां भी वह अजनबीयत के मीलों लंबे फासले पर आ चुका है। वह इतना बिखर चुका है कि अंततः बर्दाश्त नहीं कर पाता और चेतना उसका साथ छोड़ देती है। दरअसल यही जवाब है कि नूर मियां क्यों पाकिस्तान गए होंगे, अमीन मियां क्यों सनके होंगे, बेगानगी की क्या वजह होगी?
दरअसल, अब मामला दूसरा है। मामला पाकिस्तान या बांग्लादेश का भी नहीं है। मामला यह है एक विशाल देश, जिसे निहित स्वार्थों ने विखंडित कर दिये उसके भीतर सांस ले रहे श्रमजीवी समाजों की फिलहाल क्या गति है? क्या उसके सवाल ठीक तरीके से उठे। क्या वर्तमान राजनीति के पास उनके संकटों का कोई हल है? वह विशाल मानव समुदाय जो भारत के बहुजन समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा है वह अपनी आत्माभिव्यक्ति कैसे कर रहा है?
मुझे चार साल पहले यात्रा के दौरान पूर्णिया जिले के एक गांव के लोगों से मिलने का मौका मिला। संयोग से वह मुसलमानों का गांव था। आनंद प्रकाश के शब्दों में यह शब्द गरीबी और अभाव की जैसी तस्वीर पेश करता है बिलकुल वैसी ही तस्वीर थी। मैंने कई लोगों से अच्छे दिनों के बारे में जानना चाहा। एक साठ-पैंसठ साल के व्यक्ति ने कहा कि हमारे बस इतने ही अच्छे दिन हैं कि बाँस और बाल (भुट्टा) के बीच में जीवन चलता है। चलता चला जाता है ….
क्रमशः
(संपादन : नवल)
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