‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज’ (सीएसडीएस) के निदेशक प्रो. संजय कुमार ने अपनी किताब ‘बिहार की चुनावी राजनीति: जाति वर्ग का समीकरण (1990-2015)’ में विस्तार से वर्णित किया है कि बिहार में किस प्रकार चुनाव-दर-चुनाव राजनीतिक और सामाजिक बदलाव हुए। फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने उनसे बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव व देश में राजनीतिक हालात पर बातचीत की। इस क्रम में प्रो. संजय कुमार ने बताया कि जातिगत राजनीति को नकारात्मक अर्थों में नहीं लिया जाना चाहिए और यह केवल यूपी और बिहार तक सीमित नहीं है। भविष्य की राजनीति का भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण विश्लेषण किया है। प्रस्तुत है यह विस्तृत साक्षात्कार
आने वाला दशक अति पिछड़ा वर्ग का : संजय कुमार
- नवल किशोर कुमार
आम मतदाता के दृष्टिकोण से देखा जाए तो सेफोलॉजी का क्या मतलब है?
सेफोलॉजी से तात्पर्य चुनाव के नतीजों को लेकर की जाने वाली ऐसी भविष्यवाणी से है, जिसमें मतदान के पूर्व पार्टियों की जीत-हार, पार्टियों को मिलने वाली सीटों के बारे में पूर्वानुमानों से आम मतदाता को अवगत कराया जाता है। आम मतदाता सेफोलाॅजी से यही अर्थ ग्रहण करता है। लेकिन इसमें आम मतदाता को यह नहीं मालूम चल पाता है कि किस पार्टी को कितने वोट मिलने वाले हैं। आम मतदाता यह जानने की कोशिश भी नहीं करता।
अक्सर देखा जाता है कि चुनाव के दरमियान ‘एक्जिट पोल’ में इस तरह के विश्लेषण किए जाते हैं। क्या सेफोलॉजी का विस्तार सीमित है?
मैंने उपरोक्त विचार [प्रथम प्रश्न के उत्तर में] आम मतदाता के नजरिए से दिए हैं। सेफोलाॅजी के हिंदी टर्म की दृष्टि से देखें तो यह एक ऐसा ज्योतिषी है जो चुनाव के बारे में भविष्यवाणी करता है। लेकिन इसका अर्थ यहीं तक सीमित नहीं है। जैसा कि आपने जिक्र किया कि चुनाव परिणाम आने के समय एक्जिट पोल किए जाते हैं। लेकिन कई बार आपने देखा होगा कि मतदान के पहले भी चुनाव में जीत-हार को लेकर सर्वेक्षण किए जाते हैं, वहां पर भी सेफोलाॅजी का महत्त्व है। अगर हम सेफोलाॅजी को आम मतदाता के नजरिए से हटकर देखें तो इसमें चुनाव में एक प्रकार के ट्रेंड और पैटर्न की व्याख्या की जाती है। मान लीजिए कि पिछले महीने बिहार के चुनाव को लेकर सर्वेक्षण किया गया, जिसमें यह पता लाया गया कि लोग किस पार्टी से क्या उम्मीद कर रहे हैं, लोगों का रूझान किस तरफ है, पार्टियां उनके सामने कौन से विचार लेकर जा रही हैं। इस तरह की चीजें भी आपको सेफोलॉजी में दिखाई पड़ेंगी। इसका अभिप्राय उस प्रोजेक्शन से भी है जिसमें चुनाव से लगभग तीन महीने पहले वस्तुगत स्थितियों की पड़ताल कर ली जाती है। मसलन, आने वाले समय में चुनाव किस ओर जा सकता है, कौन से ऐसे फैक्टर हैं जो चुनाव को एक पार्टी की तरफ झुका सकते हैं आदि। इस प्रकार सेफोलाॅजी को चुनावी भविष्यवाणी न कहकर, ट्रेड और पैटर्न बताने वाला विज्ञान कह सकते हैं।
आपकी पुस्तक ‘बिहार की चुनावी राजनीति: जाति वर्ग का समीकरण (1990-2015)’ लिखने के पीछे क्या वजह रही?
पिछले 25 वर्षों से मेरा सारा अध्ययन चुनाव को लेकर रहा है। पिछले कुछ वर्षों से हमने चुनाव से हटकर कुछ और भी अध्ययन किए एवं लेख लिखे। लेकिन यह अध्ययन चुनाव के ईर्द-गिर्द ही है। मैंने युवाओं पर अध्ययन किया, जिसमें उनके सामाजिक, आर्थिक समस्याओं एवं उनके सोच एवं चिंताओं पर ही ध्यान केंद्रित नहीं किया अपितु उनकी चुनाव में दिलचस्पी, उनकी भागीदारी का भी अध्ययन किया। 2019 के लोकसभा चुनाव के आस-पास हम लोगों ने महिला मतदाताओं पर भी अध्ययन किया कि एक महिला मतदाता क्या सोचती है? क्या वजह है कि महिला मतदाताओं की हिस्सेदारी में इतनी वृद्धि हो रही है। जहां तक ‘बिहार की चुनावी राजनीति: जाति वर्ग का समीकरण (1990-2015)’ किताब लिखने की बात है, मैं अन्य राज्यों में होने वाले चुनावों पर अपनी टीका-टिप्पणी करता रहा हूं एवं लेख लिखे हैं। बिहार पर मैंने किताब लिखने की शुरुआत 1995 से की। तकरीबन बिहार के हर चुनाव का मेरा विश्लेषण रहा है। हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में मैंने चुनाव के पहले एवं चुनाव के बाद के परिणामों पर लेख लिखे। मैं स्वयं बिहार से आता हूं। मैंने सोचा अगर मैं देश भर के चुनावों का विश्लेषण कर रहा हूं तो क्यों न अपने ही राज्य के चुनावों का विश्लेषण पहले करूं। इस तरह 1990 से 2015 तक के चुनाव का विश्लेषण किया। इन सभी विश्लेषणों को इकट्ठा कर मैंने एक किताब की शक्ल दे दी। इसमें आप पाएंगे कि बिहार के चुनाव में दो दशकों में क्या परिवर्तन आया है। बिहार की मेरी पृष्ठभूमि मेरे लिए अतिरिक्त प्रेरणा की वजह रही। मुझे ऐसा लगता है कि मैं बिहार से हूं एवं बिहार की राजनीति को अच्छी तरह से समझता हूं। मैं अपने राज्य के लिए एकैडमिक रूप से क्या दे सकता हूं? मुझे बिहार की चुनावी राजनीति पर किताब लिखनी चाहिए, इसी प्रेरणा से मैंने किताब लिखी।
जब भी बिहार की बात होती है, वहां जातिगत समीकरण या जाति-वर्ग की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाता है। अगर हम बिहार की अन्य राज्यों जैसे- उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों से तुलना करें तो जातिगत समीकरण अलग हैं। इसकी वजह क्या है?
वर्तमान में आम धारणा बन गयी है कि हम जातिगत राजनीति की बात एक नकारात्मक अर्थों में करते हैं। एक आम मतदाता कहता है- हिंदुस्तान में चुनाव जातिगत आधार पर होते हैं, यहां लोग मुद्दों को नहीं देखते। जैसे ही चुनाव और जाति की चर्चा आप करेंगे तो लोग कहते हैं, ये तो बिहार और यूपी जैसे राज्यों में होता है, लेकिन कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल जैसे विकसित राज्यों में (आर्थिक उन्नति की दृष्टि से) में नहीं होता है। लोग समझते हैं कि इन राज्यों में जातिगत राजनीति शायद नहीं होती, और जातिगत राजनीति का एकमात्र संदर्भ बिहार और यूपी जैसे राज्यों से है। इन राज्यों को हम पिछड़ेपन का इंडिकेटर मानते हैं। अगर आप ध्यान दें तो कोई ऐसा राज्य नहीं है, कहीं ऐसे मतदाता नहीं हैं जो जाति को महत्वपूर्ण नहीं मानते हों। सभी राज्यों में जातिगत राजनीति का प्रभाव है। फर्क सिर्फ इतना है कि कहीं ज्यादा है और कहीं थोड़ा कम है। कहीं किसी जाति के ईर्द-गिर्द ऊंची जाति के लोग गोलबंद होते हैं, कहीं निचली जाति के लोग ऊंची जाति को लेकर गोलबंद होते हैं। बिहार एक ऐसा राज्य है, जहां 90 के दशक के बाद एक नई पहल हुई है। मैंने अपनी किताब में पोस्ट मंडल की विशेष रूप से चर्चा की है। मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होने के बाद बिहार में हर जाति गोलबंद हुई है। पहले ऊंची जाति के लोग गोलबंद होते थे, उनका राजनीति पर अच्छा-खास प्रभाव होता था। मंडल कमीशन की अनुशंसाओं के बाद अनेक जातियां, खासकर ऐसी जातियां जिनकी हिस्सेदारी चुनाव में बहुत कम रही थी (निचली जातियों का जिक्र कर रहा हूं), ये सब गोलबंद हुए थे। इस तरह जातियों का सत्ता हासिल करने का संघर्ष प्रारंभ हुआ। इस संघर्ष में यह बात निकल कर आई कि अगर हम संख्या में भारी हैं तो सत्ता में हमारी हिस्सेदारी भी होनी चाहिए। यही वजह है कि लोग समझते हैं कि जाति की राजनीति सिर्फ बिहार में है, अन्य राज्यों में नहीं, जबकि जाति की राजनीति अन्य राज्यों में भी है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे कुछ राज्य हैं, जहां जाति के आधार पर ऊंची जाति के लोग ज्यादा गोलबंद हैं और मध्य एवं निचली जातियों के लोग पोलिटिकली उतने कांशियस नहीं है। वे उतने गोलबंद नहीं है, जितने कि हमें बिहार एवं यूपी में दिखाई देते हैं।
आपने पोस्ट मंडल काल का जिक्र किया। इस काल में पिछड़ी जातियों के बीच एकता बनती दिखाई देती है। उसने जातिगत चुनावी राजनीति के समीकरणों को बदला। सामाजिक स्तर पर भी एकजुटता सामने आई। आपने अपनी पुस्तक में कहा है कि पिछड़ों में राजनीतिक उभार साठ के दशक में ही दिखने लगा था। लेकिन प्रभावी रूप में उनके सामने आने में तीस साल से ज्यादा समय लगा। आप क्या इसकी कोई खास वजह मानते हैं?
देखिए, 1960 और 1970 के दशक में अन्य पिछड़ी जाति के लोगों की राजनीति में भागीदारी हुई। वहां सोशलिस्ट पार्टी का उदय होता है। कुल-मिला कर पिछड़ी जाति के नाम पर गोलबंद होने वाले ये लोग राजनीति में सेकेंडरी रोल प्ले कर रहे थे। वे मेनस्ट्रीम पोलिटिकल पार्टी के पिछलग्गू के रूप में दिखाई पड़ते थे। उस समय सोशलिस्ट पार्टी का उतना प्रभाव नहीं दिखाई पड़ा। आप देखेंगे, पोस्ट मंडल पालिटिक्स से नई पार्टियां जैसे- आरजेडी और जेडीयू उभरकर आईं। पिछड़ी जाति के लोग इन पार्टियों को अपनी पार्टी मानते थे। उन्होंने इन पार्टियों को बनाने और उभारने में आगे बढ़कर हिस्सेदारी की। इन पार्टियों के जनाधार का कोर सपोर्ट बेस ओबीसी है। साथ ही उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी और मुकेश साहनी की पार्टी का कोर सपोर्ट बेस भी ओबीसी ही है। 1960 और 1970 के दशक में पिछड़ी जातियों के नेताओं ने पिछड़ी जातियों को गोलबंद करना शुरू कर दिया था। लेकिन उनका इतना प्रभाव नहीं बढ़ा था कि वे अपने दम पर पार्टी बना पाएं। उन्होंने मेनस्ट्रीम पार्टियों से मिलकर काम करने का सोचा। 1990 के दशक (पोस्ट मंडल के बाद) में इनकी गोलबंदी इतनी ज्यादा हो गई कि इन्हें अपनी संख्या का अहसास हुआ। इन लोगों की पार्टियों में बड़ी हिस्सेदारी हुई।
डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि ‘पिछड़े पावे सौ में साठ’ और जगदेव प्रसाद या किसी क्रांतिकारी नेता ने कहा था- ‘नब्बे पर दस का शासन नहीं चलेगा’। तो क्या वह शुरूआती दौर था?
1960-70 के दशक में हमें ये नारे मिलते हैं। लेकिन ये नारे, केवल नारे के रूप में ही सिमट कर रह गए। संख्या तो पहले भी थी। ऐसा नहीं है कि 1960-70 के दशक में पिछड़ों की संख्या कम थी या नब्बे के दशक तक आते-आते ज्यादा हो गई, या इनको ऊंची जाति पर भारी दिखना चाहिए था! पहले भी संख्या के आधार पर ये ऊंची जातियों से ज्यादा थे। नब्बे के दशक में मंडल कमीशन की रिपोर्ट के लागू होने के बाद लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जैसे नेता पटल पर आए। उन्होंने ओबीसी को लेकर पूरा मूवमेंट चलाया।
बिहार की राजनीति चुनाव-दर-चुनाव कैसे करवट बदलती रही है, इसे आपने अपनी किताब में बड़े सुग्राह्य तरीके से बताया है। क्या मुद्दों में भी उसी अनुक्रम में बदलाव आए हैं?
निश्चित रूप से चुनाव-दर-चुनाव कोर मुद्दे विचरण करते रहते हैं। लेकिन कोर मुद्दे के इर्द-गिर्द अन्य मुद्दे भी होते हैं, जो चुनाव-दर-चुनाव बदलते रहते हैं। एक ही चुनाव में क्षेत्र के हिसाब से भी मुद्दे बदल जाते हैं। एक विधानसभा क्षेत्र में कोई मुद्दा और किसी दूसरे क्षेत्र में कोई और मुद्दा वोटरों के मन में हावी होगा। तीसरे क्षेत्र में कोई और मुद्दा हो सकता है। ‘सामाजिक न्याय’ का मुद्दा नब्बे के दशक के बाद लगातार हमें दिखाई पड़ता है। लेकिन ‘विकास’ की परिभाषा लगातार बदलती रही। किसी विधानसभा क्षेत्र में विकास के मुद्दे का मतलब- बिजली और पानी है तो दूसरी विधानसभा क्षेत्र में विकास का मुद्दा शायद सड़क हो। कोर मुद्दे बरकरार रहें लेकिन अतिरिक्त मुद्दे चुनाव-दर-चुनाव बदलते रहे। विकास के मुद्दे एक ही विधानसभा क्षेत्र के अलग-अलग गांव में भी बदलते रहे हैं।
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पोस्ट मंडल के बाद बिहार के पोलिटिक्स में तेजी से बदलाव हुए हैं। सन 1950 से लेकर 1980 के दशक तक सत्ता के शीर्ष पर जिस ऊंची जाति की बड़ी भूमिका रहती थी, पोस्ट मंडल के बाद वे सत्ता से बहुत दूर हो गए। अब वे सत्ता के शीर्ष तक नहीं पहुंच पा रहे। इसके पीछे क्या सिर्फ जातिगत समीकरण हैं या कुछ और भी कारण हैं?
चुनाव में संख्या बहुत महत्वपूर्ण होती है। निश्चित रूप से आज ऊंची जाति के लोग कम संख्या में दिखाई पड़ते हैं। लेकिन जिस तरह से दलित और ओबीसी तथा ओबीसी की अलग-अलग जातियां गोलबंद हैं, उसी तरह ऊंची जातियों के लोग भी गोलबंद हैं। लेकिन आज महत्वपूर्ण यह है कि पार्टियों ने समझ लिया है कि बिहार और यूपी जैसे राज्य में अगर सत्ता पर काबिज होना है या सत्ता हासिल करनी है तो पार्टी को सामाजिक न्याय के पक्षधर के रूप में दिखाने के लिए एक चेहरा सामने लाना होगा। दलित और ओबीसी बहुलांश आबादी वाले बिहार में पिछले 25-30 सालों में हर पार्टी ने अपना चेहरा एक ओबीसी या दलित नेता के रूप में सामने लाया है। यही कारण है कि पिछले 25-30 सालों में ऊंची जातियों के नेता दूसरी कतार के नेता हैं। मुझे लगता है कि आने वाले समय में भी ऐसा ही होने के आसार हैं। अलग-अलग पार्टियों में ऊंची जातियों के लोग एवं उनके नेता हैं। आगे भी पार्टी में उनकी हिस्सेदारी बनी रहेगी। लेकिन सत्ता में उनकी शीर्ष हिस्सेदारी (जैसे मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री) के लिए बहुत सोच-समझकर काम करना पड़ेगा। मुझे नहीं लगता कि वर्तमान में कोई पार्टी ऊंची जाति के नाम पर चुनाव लड़े या उन्हें अपनी पार्टी में शीर्ष हिस्सेदारी देने के लिए तैयार हो या फिर ऐसा करने पर कोई पार्टी सफल होगी। पार्टियों के मन में आज कल असमंजस चल रहा है। आज कल पार्टियां अपने को सामाजिक न्याय के रूप में प्रेजेंट करना चाहती हैं। लेकिन 1960-80 के दशक तक सत्ता के शीर्ष पर रहने वाले ऊंची जातियों की बिहार की राजनीति में शीर्ष पर आने की कम संभावना दिखाई पड़ती है।
बिहार के राजनीतिक शब्दकोश में ‘अति पिछड़ा वर्ग’ अब अहम स्थान बना चुका है। जब कर्पूरी ठाकुर द्वारा 1979 में मुंगेरीलाल कमीशन की अनुशंसाओं को लागू किया गया, एक अति पिछड़ा वर्ग में एक नई सुगबुगाहट दिखती है। अब उसकी निर्णायक भूमिका बनती जा रही है। 2005 के बाद अति पिछड़ा वर्ग निर्णायक भूमिका में आ रहा है। यह उभार अपर ओबीसी बनाम अतिपिछड़ा के रूप में है। इसे आप किस रूप में देखते हैं?
ऐसा बिहार की राजनीति में ही नहीं है। 1990 के दशक में मंडल कमीशन के लागू होने के बाद आंदोलन जोरों पर था, उस समय सिर्फ ओबीसी की बात चल रही थी। अब पिछले पांच-सात सालों में ओबीसी का स्वरूप वैसा नहीं रहा गया है जैसा कि 1990 के दशक में था। अब ओबीसी में निम्न और उच्च ओबीसी की बात हो रही है। पार्टियां भी इसका महत्व भली-भांति समझती हैं। अगर आप यूपी, बिहार और अन्य राज्यों में बीजेपी की राजनीतिक रणनीतियों का अध्ययन करें तो आप देख सकते हैं कि अपर ओबीसी का किसी खास पार्टी की ओर झुकाव रहा है। पिछले 30 सालों में बिहार में यादव जाति के मतदाताओं का झुकाव आज भी राजद की तरफ है और कुर्मी मतदाताओं का झुकाव जेडीयू की तरफ है। ओबीसी के नाम पर पिछले तीस सालों से की जा रही राजनीति यही रही है। अन्य पिछड़ी जातियों को लगने लगा कि ओबीसी के नाम पर राजनीति हुई है लेकिन हमारी हिस्सेदारी बिल्कुल ही नहीं हुई। यही वजह है कि ओबीसी के बीच हमें एक दरार दिखाई पड़ने लगा। बिहार के पड़ोसी राज्य यूपी में भी ऐसा देखने को मिल रहा है, वहां अपर ओबीसी और निम्न ओबीसी की राजनीति अलग-अलग दिखाई पड़ती है। पिछले 5-7 सालों में बिहार में जो नई पार्टियां उभर कर सामने आ रही हैं, उनमें नेता अपर ओबीसी से नहीं हैं। वे लोअर ओबीसी कास्ट के नेता हैं। बिहार की राजनीति में यह एक नया परिवर्तन है।
आपकी किताब में पसमांदा मुसलमानों की भी चर्चा होती है। उसमें आपने सारणियों के माध्यम से दिखाया है कि 1990 के बाद बिहार की राजनीति में उनकी क्या भूमिका रही है। अगर हम राजनीति में पसमांदा मुसलमानों की स्थिति की बात करें तो आप उनकी पोलिटिकल हैसियत को किस रूप में देखते हैं।
अगर हम आज से दस साल पहले की बात करें तो पसमांदा समाज के पोलिटिकल हैसियत में कोई खास परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता। बिहार में जिस तरह से पार्टियों का गठबंधन रहा है, उसमें मुस्लिम मतदाता, चाहे वह पसमांदा मुसलमान हों या अशराफ हों, उनके पास कोई ज्यादा विकल्प नहीं दिखाई पड़ता। एक तरफ बीजेपी के साथ दो पार्टियां गठबंधन में हैं- जदयू और लोजपा। यह गठबंधन 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में था। आने वाले
विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही कुछ गठबंधन रहेगा। दूसरा गठबंधन राजद के इर्द-गिर्द ही होगा। उनमें छोटी-छोटी पार्टियां भी मिली होंगी। पिछले चुनाव के दौरान मुस्लिम मतदाताओं का जो झुकाव एवं रूझान रहा है उसे देखकर ऐसी संभावना नहीं लगती कि वे बीजेपी या एनडीए को वोट करेंगे। चाहे मुस्लिम मतदाता नाराज रहे हों या चाहे उन्हें हिस्सेदारी न मिली हो, अंततोगत्वा उन्हें यूपीए जैसी पार्टियों को वोट देना पड़ता रहा है। यही वजह है कि पिछले पांच-दस सालों में पसमांदा मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक स्थिति में कोई खास बदलाव दिखलाई नहीं पड़ता।
आपने 1995 के चुनाव के बारे में बताया है कि कैसे अति पिछड़ा वर्ग का वोट लालू प्रसाद के खाते में जाता है और कैसे आगे चलकर उसमें गिरावट आती है। जो वोट लालू प्रसाद को मिलते थे, वह नीतीश कुमार को मिलने लगता है। लेकिन अब एक नई बात सामने आ रही है। खासकर, 2010 के बाद हुए चुनावों में। अति पिछड़ा वर्ग का वोट भाजपा की तरफ शिफ्ट हो रहा है? क्या अति पिछड़ा वर्ग को नीतीश कुमार पर भी यकीन नहीं रहा?
यह बिलकुल सही है कि एक समय भाजपा के पास केवल ऊंची जाति और वैश्य समुदाय के वोट थे। लेकिन अब उसके प्रति अति पिछड़ा का रूझान तेजी से बढ़ा है। आप देखिए कि जब 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा अच्छा नहीं कर रही थी, तो उस समय भी उसके आधार वोटरों यानी ऊंची जातियों के मतदाताओं का समर्थन उसे मिलता रहा। तब भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति में देखा कि ओबीसी में भी एक अपर ओबीसी है जिनका रूझान किसी एक खास पार्टी के साथ लगातार बना हुआ है। उन मतदाताओं को तोड़ पाना आसान नहीं है। बिहार में यादव, कुर्मी, कोइरी मतदाताओं या ऐसी कई जातियों के मतदाताओं का झुकाव अलग-अलग पार्टियों की तरफ है। भाजपा ने अपनी राजनीतिक रणनीति बनाने में इसका खासा ध्यान रखा कि अगर ओबीसी एक बड़ा ग्रुप है, उसमें अगर सेंधमारी करनी है तो एक अच्छी रणनीति यही होगी कि अपर ओबीसी को छोड़कर अति पिछड़ा एवं ऐसी ही दूसरी जातियों के कुछ लोगों में पैठ बनानी चाहिए। उन्होंने इन जातियों में पैठ बनाने की कोशिश की और उन्हें चुनाव में टिकट भी दिया। उन्हें इस बात का आभास था कि पिछले 25-30 सालों में लालू प्रसाद एवं नीतीश कुमार ने जिस तरीके की राजनीति की है, उससे अति पिछड़ा वर्ग के मतदाता कुछ खास संतुष्ट नहीं दिखाई पड़ते। उनमें नाराजगी आनी शुरू हो गई थी क्योंकि उन्हें लगता था कि ओबीसी के नाम पर जो राजनीति की गई, उसमें उनकी हिस्सेदारी नहीं हुई है। इसका फायदा भाजपा के रणनीतिकारों ने उठाया। उन्होंने अति पिछड़ों के बीच पैठ बनाई। यही वजह है कि आंकड़े बहुत साफ दिखते हैं। 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव देखें तो अति पिछड़ा का वोट भाजपा की तरफ बहुत बड़ी संख्या में शिफ्ट हुआ है। ये बिहार के आंकड़े हैं, अगर यूपी के आंकड़े देखें तो भी अति पिछड़ा का वोट बड़ी संख्या में भाजपा की ओर शिफ्ट हुआ है।
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अगर ओबीसी का उपवर्गीकरण होता है तो क्या देश की राजनीति में दूरगामी प्रभाव पड़ेगा?
निश्चित रूप से अगर ऐसा हुआ और अति पिछड़ों को उनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण मिलने लगे तो पहल करने वाली पार्टी को फायदा मिलेगा। अगर आप देश के अलग-अलग राज्यों में देखें तो भाजपा को पहले से बड़ी संख्या में अति पिछड़ा वर्ग के वोट मिलते रहे हैं। अगर यह काम करने में भाजपा की सरकार सफल भी हो गई तो राजनीति में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ेगा क्योंकि भाजपा इन समुदायों का वोट बड़ी संख्या में पाती रही है। मुझे नहीं लगता कि यदि ओबीसी का उपवर्गीकरण कर आरक्षण में बदलाव किया जाय तो इससे कोई बड़ा राजनीतिक परिवर्तन हो पाएगा क्योंकि पहले ही अति पिछड़ा वर्ग का वोट छिटककर भाजपा के पास जा चुका है।
आपने अपनी किताब में भविष्य की राजनीति को लेकर कुछ संकेत दिए हैं। हमारे पाठकों के लिए कृपया आप उस पर रोशनी डालें।
वर्तमान समय में चुनावी राजनीति जितनी तेजी से बदल रही है, भविष्य के बारे में कुछ कह पाना बहुत मुश्किल है। अगर हम बिहार की राजनीति के बारे में बात करें तो भविष्य की राजनीति में कम-से-कम 10-15 या 20 सालों तक ओबीसी महत्वपूर्ण भूमिका में रहेगा। ओबीसी में अपर और लोअर ओबीसी दोनों ही महत्वपूर्ण भूमिका में रहेंगे। पार्टियों का चाहे स्वरूप बदलता रहे, फिर भी ओबीसी की हिस्सेदारी को सुनिश्चित करना पड़ेगा। अगर कोई पार्टी ओबीसी की हिस्सेदारी सुनिश्चित नहीं करता है तो उसका चुनाव में सफल हो पाना आसान नहीं है। दूसरी बात, वे पार्टियां जो ओबीसी के ईर्द-गिर्द पालिटिक्स करना चाहेंगी उन्हें भी लोअर ओबीसी की हिस्सेदारी को सुनिश्चित करेगा पड़ेगा। अगर लोअर ओबीसी की हिस्सेदारी सुनिश्चित नहीं की गई गया तो वे छोटे-छोटे, अलग-अलग पार्टियां बना लेंगी और इलेक्शन बहुध्रुवीय हो जाएगा। बहुत खंडित चुनाव होगा। अगर पार्टियों को बिहार की राजनीति में सफल होना है, तो उन्हें ओबीसी यानी ओबीसी में भी लोअर ओबीसी की हिस्सेदारी सुनिश्चित करनी ही होगी। मुझे लगता है कि भविष्य में बिहार की राजनीति इसी दिशा में आगे बढ़ेगी। आज की पार्टियां भी इस बात को बखूबी समझती हैं, अगर उन्हें सफल होना है तो उन्हें इसी दिशा में राजनीति को ले जाना पड़ेगा। बिहार के अलावा अन्य हिंदी भाषी राज्यों में भी इस तरह की राजनीति दिखाई पड़ेगी। हमने दलित राजनीति और ओबीसी राजनीति पर बहुत फोकस किया है लेकिन अब हमें लोअर ओबीसी की काफी चर्चा करनी होगी। मुझे उम्मीद है, भविष्य में अगले एक दशक तक देश की राजनीति लोअर ओबीसी के नाम पर होगी।
(संपादन : इमानुद्दीन/अमरीश)
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