कोरोना काल में जिस तरह के हालात हैं, उनसे सभी वाकिफ हैं। देश के आमजनों पर इसका बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ा है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि अर्थव्यवस्था धराशायी हो गई है। मंहगाई बढ़ी है। बेरोज़गारी में भी गुणोत्तर वृद्धि हुई है। ऐसे में दलितों में भी दलित कहे जाने वाले सफाईकर्मी समुदाय की हालत तो बद से बदतर हो गई है। उन पर दोहरी मार पड़ रही है। वे एक ओर छुआछूत, भेदभाव, अन्याय और अत्याचार से पीड़ित हैं तो दूसरी ओर गरीबी, बेरोज़गारी और भुखमरी के शिकार हैं। हाल ही मे एक सफाई कर्मचारी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सपरिवार आत्महत्या करने की अनुमति मांगी। वजह यह कि वह वर्षों से दिल्ली नगर निगम में काम कर रहा है परंतु उसे स्थायी नहीं किया गया। उसे कई महीनों से तनख्वाह नही मिली है। वह और उसका परिवार भूखों मरने को विवश है।
यह अकेला ऐसा सफाई कर्मी नहीं है, जिसका परिवार आर्थिक तंगी से गुजर रहा हो। सफाईकर्मी समुदायों के ऐसे हजारों परिवार हैं जो इसी स्थिति में हैं। इस समुदाय के कई लोग बेरोजगारी और आर्थिक तंगी की वजह से आत्महत्या कर चुके हैं। परंतु, उनकी आत्महत्या पर मीडिया और सरकार ने चुप्पी साध रखी है। मीडिया के लिए तो सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी महत्वपूर्ण है और कंगना राणावत से जुड़ी मसालेदार खबरें। कहना गैर-वाजिब नहीं कि इनकी मानसिकता यही है कि ये लोग [lसफाईकर्मी समुदाय] तो पैदा ही हमारी गन्दगी साफ़ करने के लिए हुए हैं। ये हमारे स्तर के इंसान थोड़े ही हैं।
प्रशासन की जातिवादी मानसिकता का खामियाजा इन्हें ही भुगतना पड़ता है। इस कोरोना काल में अपनी जान जोखिम में डालकर ये लोग घरों की, सड़कों की और अस्पतालों की गन्दगी, यहां तक कि सीवर की भी, सफाई कर रहे हैं और सीवर की जहरीली गैसों के कारण अपनी जान गवां रहे हैं। परंतु प्रशासन के लोग सोचते हैं कि हम मशीनों से सफाई करवाने के लिए पैसा खर्च क्यों करें। कोरोना से संक्रमित होकर यदि कुछ सफाईकर्मी मर भी जायेंगे तो क्या फर्क पड़ता है। इन्हीं के समुदाय से कुछ और आ जाएंगे। हम इनकी सुरक्षा के लिए पीपीई किट क्यों दें, ये डाक्टर या नर्सिंग कर्मचारी थोड़े हैं। सफाई कर्मचारी ही तो हैं. हम ज्यादा से ज्यादा झूठी हमदर्दी दिखा देंगे। जरूरत पड़ी तो इनके पांव भी धो देंगे। इन पर फूलों की वर्षा भी करा देंगे।
वर्चस्ववादी समाज ने पहले ही इन्हें अछूत का दर्जा दे रखा है और इनसे सामाजिक दूरी बनाए रखी है। हम भौतिक दूरी की जगह सामाजिक दूरी शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं, यह अकारण नहीं है। मनु ने बहुत सोच समझ कर ‘मनुस्मृति’ लिखी थी। इन्हें पढने-लिखने मत दो। इनसे अपनी सेवा का काम लो और छुआछात बरतो। इनसे भेदभाव करो। इनके साथ अन्याय करो, इन पर अत्याचार करो। इन्हें भगवान का भय दिखाओ। धर्म के नाम पर इन्हें डराओ।
उन्हें सफाईकर्मियों के वोटों की जरूरत है इसलिए भेदभाव करते हुए भी उन्हें अपने धर्म में शामिल रखना चाहते हैं। इसके लिए वे वाल्मीकि का महिमामंडन कर रहे हैं। उन्हें अपने देवी-देवताओं की पूजा करने की अनुमति दे रहे हैं ताकि सफाईकर्मी उनकी सेवा करते रहे और कर्मकांडों में उलझे रहें।
हाल ही में इंदौर के देपालपुर में दलित महिला के शव का सवर्णों ने अपने शमशानघाट में अंतिम संस्कार नहीं करने दिया। जातिगत भेदभाव का यह ताज़ा उदाहरण है। समाज का वर्चस्ववादी तबका अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए दलितों से यही कहते हैं – अपनी औकात में रहो। वे उन्हें घोड़ियों पर चढ़ा नहीं देखना चाहते। वे नहीं चाहते कि दलितों की मुंछें लंबी हों, वे अच्छे कपड़े पहनें। किसी भी स्तर की बराबरी के बारे में न सोचें। अपनी औकात में रहें।
परंतु, यह समय की मांग है कि सफाईकर्मी समुदायों के लोग आगे बढ़ें और आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनें। संविधान को पढें और अपने अधिकारों के प्रति सजग हों। छुआछूत और भेदभाव का खिलाफ आवाज उठाएं। अन्याय और अत्याचार का विरोध करें। किसी के कहने पर ‘औकात’ में न रहें।
(संपादन : नवल/अमरीश)
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