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क्यों गुमनाम हैं बिहार के तीन बार सीएम रहे भोला पासवान शास्त्री?

भोला पासवान शास्त्री बिहार के उन दलित नेताओं में अग्रणी रहे, जिन्होंने द्विजों के बीच यह साबित किया कि यदि दलितों को नेतृत्व का अवसर मिले तो वे सक्षम नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं। वे तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री चुने गए। हालांकि तीनों बार उनका कार्यकाल अल्प अवधि का रहा, लेकिन उन्होंने दलितों को प्रेरणा दी कि कुछ भी असंभव नहीं। बता रहे हैं सत्यनारायण यादव

भोला पासवान शास्त्री (21 सितम्बर, 1914 – 9 सितम्बर, 1984) पर विशेष

बीसवीं सदी का दूसरा दशक। सन् 1914 का विश्वव्यापी उथल-पुथल भरा वर्ष। एक ओर जहां भारत का जनमानस अंग्रेजी हुकुमत की दासता से मुक्ति के लिए कसमसा रहा था, वहीं दूसरी ओर दुनिया को अपनी मुट्ठी में कैद करने के लिए साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच प्रथम विश्व युद्ध का बिगुल बज उठा था। इसी विश्वव्यापी कोलाहल के बीच 21 सितम्बर, 1914 को बिहार के पूर्णिया जिले के कृत्यानंद नगर प्रखंड के अन्तर्गत बैरगाछी में एक अति निर्धन दलित (पासी)[1] परिवार में देवकी देवी के कोख से भूख और प्यास का कसैला स्वाद तथा आजीवन संघर्ष का जज्बा लेकर एक ऐसे बालक का जन्म होता है, जो आगे चलकर गरीबों की पीड़ा हरने को अपने जीवन का लक्ष्य घोषित कर देते हैं। ये थे बिहार के तीन बार मुख्यमंत्री रहे भोला पासवान शास्त्री। इनके पिता धूसर पासवान दरभंगा महाराज के ‘काझा-कोठी’ कचहरी में एक मजदूर सिपाही के रूप में कार्यरत थे। इस समाज के लोग पारंपरिक रूप से ताड़ के पेड़ों से ताड़ी निकालकर जीवनयापन करने के लिए जाने जाते हैं।

पिता करते थे दरभंगा महाराज की कचहरी में दरबानी

उन दिनों पूर्णिया के इलाके में इस समाज के लोग अपने नाम में ‘चौधरी’ शब्द का प्रयोग करते थे। धूसर जी के नाम में पासवान सरनेम क्यों जुड़ा इसके पीछे भी एक दिलचस्प कथा है। दरअसल, जब वे दरभंगा महाराज के काझा कोठी में सिपाही के रूप में कार्य करते थे तब वहां सवर्ण समाज के जमींदार लोगों का बोलबाला था। चौधरी शब्द का उपयोग उच्च वर्गीय सम्मानित व्यक्तियों के लिए किया जाना आम बात थी। काझा कोठी में कार्यरत सामंती समाज के लोगों को यह बात बिलकुल नापसंद थी कि कोई दलित वर्ग का व्यक्ति अपने सरनेम में चौधरी शब्द का इस्तेमाल करे। लोगों ने धूसर को हिदायत दी कि तुम अपने नाम से चौधरी शब्द हटाकर पासवान जोड़ लो। पासवान शब्द फारसी के ‘पासबाँ’ शब्द से बना है जिसका अर्थ चौकीदार होता है। सामंती तत्वों के अनुसार पासवान सरनेम धूसर को काझा कोठी में मिले दायित्व के अनुरूप था। अंतत: धूसर समेत वहां के पासी समाज के लोगों को अपने नाम से चौधरी  टाइटल हटाकर पासवान सरनेम जोड़ने के लिए बाध्य किया गया। कहा जाए तो जहां एक ओर देश विदेशी आक्रांताओं के गिरफ्त में था, वहीं बहुसंख्यक बहुजन रूढ़िवादी और सामंती मानसिकता की चक्की में निरंतर पिसे जा रहा थे।

कई बार बाधित हुई पढ़ाई, फिर भी हासिल की शास्त्री की उपाधि

जैसा कि पहले यह सामान्य था कि पिछड़े-दलित वर्ग के ज्यादातर बच्चे स्कूल का मुंह ही नहीं देख पाते थे, या उनकी पढ़ाई देर से शुरू होती थी। भोला पासवान शास्त्री के साथ भी यही हुआ। काझा कोठी में काम करते हुए उनके पिता धूसर पासवान शिक्षा का महत्व तो जान गए थे, परंतु बेटे को कैसे पढ़ाया जाए, उनकी समझ में नहीं आ रहा था। बालक भोला पासवान बड़े हो रहे थे। उनके पिता उन्हें पढ़ने हेतु प्रेरित करने लगे। इनकी प्रारंभिक शिक्षा अपने ही गांव के प्राथमिक विद्यालय में शुरू हुई। भोला पासवान की प्रखर मेधाशक्ति और पढ़ाई के प्रति प्रबल उत्कंठा से प्रभावित होकर वहां के स्थानीय नेता राममोहन चौधरी ने इनका नामांकन ‘मध्य विद्यालय काझा’ में करवा दिया। लेकिन पारिवारिक दयनीय स्थिति के कारण बीच में शिक्षा से इनका नाता टूट गया। उन्हीं दिनों वे स्थानीय स्वतंत्रता सेनानी वैद्यनाथ चौधरी के संपर्क में आए। उन दिनों महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वदेशी आंदोलन परवान चढ़ रहा था। भोला पासवान खुद को रोक नहीं पाए। वे वैद्यनाथ चौधरी जी के साथ हो लिए तथा उनके साथ गांवों में घूम-घूममकर खादी के कपड़े बेचते रहे और खादी के प्रचार-प्रसार के बहाने जनमानस में आजादी की अलख जगाते रहे। इस प्रकार वे छात्र-जीवन से ही अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सक्रिय हो गए थे। वैद्यनाथ चौधरी ने इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर इन्हें आगे की पढाई जारी रखने के लिए मात्र प्रेरित ही नहीं किया, बल्कि इनका नामांकन धर्मपुर गांधी विद्यालय रहटा में करवा दिया।

किशोरावस्था में एकबार फिर पढ़ाई बाधित हुई। भोला पासवान रोजी-रोटी की तलाश में कलकत्ता चले गए। लेकिन वैद्यनाथ बाबू के आग्रह पर वे पुन: पूर्णिया वापस लौट आए। पटना के सदाकत आश्रम स्थित बिहार विद्यापीठ में उनका नामांकन करवाया गया, जहां से वे कुछ ही महीनों के बाद अध्ययन के सिलसिले में ‘काशी विद्यापीठ’, बनारस चले गए।

काशी विद्यापीठ की स्थापना असहयोग आंदोलन के दरम्यान 1921ई. में हुई थी जो अब ‘महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ’ के नाम से जाना जाता है। इस विद्यापीठ से भोला पासवान जी ने 1938 ई. में ‘शास्त्री की उपाधि’ प्राप्त की। अब इनका नया नाम था- भोला पासवान शास्त्री। उस वक्त वंचित वर्ग के किसी बच्चे का शास्त्री जैसा उपाधि प्राप्त करना अत्यंत गौरव की बात थी। इसमें राममोहन चौधरी और वैद्यनाथ चौधरी जैसे उदार लोगों की प्रेरणा एवं मदद की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

पहले गांधी फिर डॉ. आंबेडकर के विचारों से हुए प्रभावित

नए ज्ञान के प्रति तीव्र ग्राह्यता के साथ इनमें कला, संगीत एवं अभिनय के प्रति असीम अनुराग था। लोकमंच पर दर्शक इनके अभिनय को देखकर प्रशंसा करते नहीं थकते थे। अपने लोककला कौशल का उपयोग बड़ी ही चतुराई से वे खादी के प्रचार और आजादी के संघर्ष के लिए करते रहे। शास्त्रीजी ने सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। शांत व गंभीर स्वभाव के होते हुए भी उन्हें अपने उत्कट देशभक्ति के कारण दो बार जेल जाना पड़ा। उन्हें गिरफ्तार कर जुलाई 1945 तक नजरबंद रखा गया था।

भोला पासवान शास्त्री ने ‘राष्ट्रसंदेश’, ‘लोकमान्य’ तथा ‘राष्ट्रवादी’ जैसे दैनिक एवं साप्ताहिक समाचार पत्रों का संपादन भी किया। ‘मेरी वियतनाम यात्रा’ इनके द्वारा लिखा गया आलेख है, जिसमें हो-ची-मिन्ह के अति साधारण जीवन का बखान किया गया है। भोला बाबू इनसे खासा प्रभावित थे। हो-ची-मिन्ह के व्यक्तित्व से इनके व्यक्तित्व का मेल होने के कारण इन्हें ‘बिहार का हो-ची-मिन्ह’ कहा जाता है।

भोला पासवान शास्त्री (21 सितम्बर, 1914 – 9 सितम्बर, 1984)

भोला पासवान शास्त्री जी पर महात्मा गांधी का प्रभाव रहा। लेकिन बाद के दिनों में डाॅ. आंबेडकर के विचारों ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। शास्त्री जी समाज में मौजूद  अस्पृश्यता, जातिवाद एवं अमानवीय व्यवहारों से भली-भांति परिचित थे। इस सब के खिलाफ उन्होंने मुखरता से आवाज उठायी। वे डॉ. आंबेडकर के इस कथन से वे खासे प्रभावित थे कि ‘शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो।’

बिहार में गठित पहले मंत्रिमंडल में रहे सदस्य, तीन बार बने मुख्यमंत्री

जब देश आजाद हुआ तो वे बिहार में डाॅ. श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में गठित पहले मंत्रिमंडल में संसदीय कार्य विभाग के मंत्री बनाए गए। इस पद पर वे 1951 तक बने रहे। इससे पहले वे ब्रिटिश भारत में 1939-41 तक पूर्णिया जिला परिषद सदस्य रह चुके थे। बिहार विधानसभा के लिए सन् 1952 में हुए प्रथम आम चुनाव में वे धमदाहा सह कोढ़ा क्षेत्र से विधायक चुने गए। बिहार सरकार में 1952 से 1963 तक विभिन्न विभागों में मंत्री रहे। सन् 1952 से 1969 तक वे धमदाहा सह कोढ़ा, धमदाहा, बनमनखी और पुन: दो बार कोढा क्षेत्र से लगातार विधानसभा के सदस्य चुने जाते रहे। 1967 में बिहार सहित कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों के बनने का दौर शुरू हुआ। उस दौर में पार्टियों की टूट-फूट और कलह के चलते बिहार में तीन गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री अपनी कुर्सी गंवा चुके थे। कांग्रेस ने बदली परिस्थिति में दलित नेता के तौर पर भोला पासवान शास्त्री को आगे किया। अगले ही वर्ष राजनीतिक अस्थिरता के कारण इन्हें बिहार के मुख्यमंत्री पद का दायित्व संभालने का अवसर मिला। जिस दौर में इन्हें ये दायित्व मिला, उस दौरान तमाम पिछड़ी और वंचित जातियां राजनैतिक हिस्सेदारी के लिए सजग हो रही थीं। इस बीच एक गरीब अनुसूचित जाति परिवार से आने वाले व्यक्ति का मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचना मात्र संयोग की बात नहीं थी, बल्कि इनकी योग्यता एवं कुशल नेतृत्व क्षमता का परिचायक था। छोटे-छोटे कार्यकाल ही सही, मगर तीन बार इन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री पद को सुशोभित किया। बतौर मुख्यमंत्री उनका कार्यकाल 22 मार्च 1968 से 29 जून 1968, 22 जून 1969 से 4 जुलाई 1969 और 2 जून 1971 से 9 जनवरी 1972 तक रहा।

रूपसपुरचंदवा नरसंहार के आरोपी रहे मित्र को दिया गिरफ्तार करने का आदेश

भोला पासवान शास्त्री के व्यक्तित्व में सरलता और विद्वता का अनोखा मिश्रण था। वे निर्णय क्षमता के मामले में दृढ़ प्रतिज्ञ थे। 22 नवंबर, 1971 को बिहार का पहला नरसंहार पूर्णिया जिले के धमदाहा थानान्तर्गत रूपसपुर-चंदवा नामक गांव में हुआ था। इस नरसंहार में  चौदह संथाल आदिवासियों की निर्मम हत्या कर दी गई थी। नरसंहार का आरोप उस समय पदमुक्त हो चुके बिहार विधानसभा के अध्यक्ष डाॅ. लक्ष्मीनारायण सुधांशु और उनके बेटे पर लगा था। डाॅ. सुधांशु से शास्त्री जी की मित्रता थी, फिर भी उन्होंने उनकी (डाॅ. सुधांशु की) गिरफ्तारी का आदेश देने में पल भर का विलंब नहीं किया। इस घटना से उनके व्यक्तित्व की दृढता का पता चलता है।

भोला पासवान शास्त्री चार बार बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी रहे। इंदिरा गांधी की सरकार में (1973-74) उन्होंने केन्द्रीय शहरी विकास मंत्री का पद संभाला। उसी वर्ष वे राज्य सभा सदस्य चुने गए। जनता पार्टी की सरकार ने 1978 में जब पहली बार अनुसूचित जाति और जनजाति कल्याण आयोग का गठन किया तब उन्हें इस आयोग का पहला अध्यक्ष बनाया गया। बिहार के पहले पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे मुंगेरीलाल कमीशन के नाम से जाना जाता है, ने इन्हीं के मुख्यमंत्रित्व काल में अपना कार्य आरंभ किया। इस महती कार्य में शास्त्री जी ने भरपूर सहयोग किया था।

बेमिसाल रहा उनका सादा जीवन

भोला पासवान शास्त्री जी को ‘बिहार की राजनीति का विदेह’ भी कहा जाता है। ऐसा व्यक्तित्व जो सांसारिक जीवन में अपनी देह और व्यक्तिगत आवश्यकताओं से दूर रहकर देश-समाज की चिंता में हमेशा लीन रहे। निजी तौर पर इन्होंने कभी कोई धन इकट्ठा नहीं किया। हमेशा सादा जीवन और उच्च विचार को जीते रहे। सादगी ऐसी कि मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए भी भोला बाबू पेड़ के नीचे जमीन पर कंबल बिछाकर कार्य करने में संकोच नहीं करते थे। राजनीतिक जीवन की व्यस्तता के कारण इनकी पत्नी शांति देवी इनसे अलग रहने लगी थीं, जिसके कारण इनकी कोई संतान नहीं हुई। उनके भतीजे बिरंची पासवान कहते हैं, “जब भोला बाबू को अपने गांव के विकास के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा कि अभी राज्य और देश में दूसरी जगहों पर बहुत कार्य की आवश्यकता है। पद पर रहते हुए अगर मैं केवल यहां के विकास के लिए कार्य करता हूं तो सभी लोग कहेंगे कि अपने गांव के लिए सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया। इसीलिए आप चिंता नहीं करें। वह समय भी आएगा जब अपने गांव का भी विकास होगा। कोई न कोई तो यहां के विकास के लिए काम करेगा ही, चाहे हम रहे या ना रहें।”

भोला पासवान शास्त्री जी के जीवन का उतरार्द्ध अत्यधिक कष्टमय रहा। वे कैंसर से पीड़ित हो गये थे। अंततोगत्वा दिल्ली में इलाज के दौरान 9 सितम्बर, 1984 को उनका निधन हो गया।

बहरहाल, भोला पासवान शास्त्री की समृतियों को सहेजने के लिए इनके गांव से सटे ऐतिहासिक काझा कोठी डाकबंगला में कुछ वर्ष पहले इनकी प्रतिमा स्थापित की गई है। इनकी याद में पूर्णिया शहर के डीआईजी चौक का नाम बदलकर भोला पासवान शास्त्री चौक कर दिया गया है तथा वहां भी उनकी एक प्रतिमा स्थापित की गई है। वहीं  2011 में पूर्णिया में कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना की गई तो उसका नामकरण भोला पासवान शास्त्री के नाम पर किया गया।

[1] https://www.jaborejob.com/bhola-paswan-shastri-freedom-fighter/

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

सत्यनारायण यादव

सत्यनारायण प्रसाद यादव ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, बिहार में शोधार्थी (मैथिली) हैं तथा स्वतंत्र लेखक हैं

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