बहस-तलब
किसी भी सभ्यता का मानवीय उत्कर्ष क्या हो सकता है? ज़ाहिर है जहां जेल न हो। जहां कोई बंदी न हो, वही जगह दुनिया की सर्वोत्तम जगह होगी। वहीं सभ्यता का मानवीय उत्कर्ष होगा। ऐसा कहां होगा? क्या यह कोरी कल्पना भर है? मैं समझता हूँ कि यह कोरी कल्पना नहीं है बल्कि यह आज़ादी के दीवानों की जागती आंखों का सपना है। किसी लेखक की रचनात्मक उड़ान यहां तक हो सकती है कि वह एक जेलहीन और निर्भीक सभ्यता की फंतासी रचे और जनता में यह भरोसा पैदा करे कि उसे इसको ज़मीन पर उतारना है। यह एक उर्वर और विस्मयकारी इलाका है, जहां लाखों बेमिसाल कहानियाँ बिखरी हुई हैं। ऐसी कहानियाँ, जो कभी लिखी ही नहीं गईं। ऐसी कहानियाँ, जिनपर सत्ता ने झूठ का मुलम्मा चढ़ा दिया और प्रचारकों ने इसी झूठ को देश-दुनिया में फैलाया तथा लोगों ने विश्वास कर लिया। उनकी स्मृतियां इतनी रूढ और संवेदनाएं इतनी ठस हो गईं कि उन्होंने झूठों पर सवाल ही नहीं उठाया। ऐसी कहानियां, जो जिनके भीतर मौजूद आवाज का गला बेरहमी से घोंट दिया गया और उनका कोई नैरेटिव अब सुरक्षित नहीं है। वे देसी और देहाती किस्सागो न जाने कहां मर-खप गए जो इन कहानियों को स्वर देते थे। वे गायक न जाने कहां हेरा (गुम हो) गए जो इनको गाते थे। शहरी किस्सागो धीरे-धीरे सत्ताओं में पैठ बनाते रहे और शासकों का मनोरंजन करते रहे। वे झूठी कहानियों के क्रूर और अमानवीय शासकों की बहादुरी के तूमार बांधते और वास्तविकता का मज़ाक बनाते।
बिहार लेनिन जगदेव प्रसाद अपने लोगों से कहते थे कि पहली पीढ़ी मारी जाएगी। दूसरी पीढ़ी जेल जाएगी और तीसरी पीढ़ी राज करेगी। यानी वे मारे जाने और जेल जाने को अनिवार्य मानते थे। बहुजन समाज की आज़ादी और खुशहाली का रास्ता मारे जाने और जेल जाने के बीच से होकर गुजरता है। जगदेव प्रसाद ने पहली पीढ़ी का फर्ज अदा किया। उनका खून यहां की मिट्टी में मिल गया। यहां की मिट्टी से जब भी कोई आवाज निकलेगी तो जगदेव प्रसाद का नाम निकलेगा। जैसे बिरसा मुंडा और भगत सिंह का निकलेगा, वैसे ही जगदेव प्रसाद का नाम निकलेगा। आगे की पीढ़ियों ने फर्जी मुकदमों में जेलें काटी। उनके ऊपर झूठे मामले लादे गए। उनके खिलाफ अखबारों और प्रचारकों ने जमकर प्रचार किया। उन्हें पूरी तरह से खलनायक बना दिया गया। जो गुनाह उन्होंने नहीं किए उनको भी वे ढोते रहे। उन्होने उस परंपरा को आगे बढ़ाया जिसको जगदेव प्रसाद ने अपने जीवन का उत्सर्ग करके एक ऊंचाई दी थी।
लेकिन क्या जेल की यह बात कोई तात्कालिक बात है। क्या वह तात्कालिक बात हो सकती है। क्या यह कोई साधारण बात है। मुझे लगता है कि जेल हमारे जीवन का सबसे अनिवार्य हिस्सा है। निर्भर इस बात पर करता है कि आप इसे कैसे देखते हैं। कितना उन चारदीवारियों के रूप में देखते हैं जो सत्ता के दमन का केंद्र बनी हुई हैं और कितना अपने आसपास देख पाते हैं जहां चारदीवारी तो कोई नहीं है लेकिन पहरे आदमी खुद भी दे रहा है। क्या विडंबना है कि आप ही कैदी हैं और आप ही सिपाही बन पहरा भी दे रहे हैं। यह गुलामी की ऐसी अवस्था है जहां कैदी बेजार है।
प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘दो बैलों की कथा’ में हीरा-मोती जब कांजी हाउस की दीवार तोड़ डालते हैं तो सारे जानवर भाग निकलते हैं, लेकिन गदहे नहीं भागते। हीरा-मोदी दोनों सींग मारकर भगाते हैं फिर भी गदर्भराज टस से मस नहीं होते। चुपचाप खड़े रहते हैं। और वहीं खड़े रह जाते हैं। हीरा-मोती भी निकल गए। हो सकता है सुबह कांजी हाउस के कर्मचारी आए हों तो हाउस खाली देखकर गुस्से में गदहों को पीटा हो, लेकिन वे टस से मस न हुए हों। जेल हमारे जीवन में अनिवार्य बना दी गई है लेकिन हम उसे जेल मान भी रहे हैं या उसी में पड़े-पड़े गुलामी की गौरव-गाथा कह रहे हैं। असली सवाल यह है।
कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा है। अफीम के वशीभूत आदमी को यह समझ में ही नहीं आता कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है। बस वह उस नशे में धुत्त रहता है। जगाए जाने पर भी नहीं जागता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि धर्म एक जेल है, जिसमें बंद कैदी कभी भी आज़ाद नहीं होता। चाहता ही नहीं आज़ाद होना। अक्सर लोग अपने धार्मिक होने का ढिंढोरा पीटते हैं। यह ढिंढोरा क्या है? यह अपने को बहुत बड़ा धार्मिक कैदी बताने की कोशिश है। जितना लंबा टीका उतना ही बड़ा कैदी। विडंबना यह है कि जो इतना बड़ा कैदी नहीं होता वह ऐसी धार्मिकता के दबाव में आ जाता है। उसे लगता है कि वह छोटा है। अगर मनोवैज्ञानिक रूप से देखा जाय तो धर्म आदमी को ऐसी कैद में डाल देता है, जहां वह लगातार अपने ऊपर हीनता के कंबल डालता चलता है और इस विश्वास से डालता है कि इससे उसके जीवन की आर्थिक और दूसरी दिक्कतें खत्म हो जाएंगी और वह सुखी हो जाएगा।
लेकिन होता इसके विपरीत ही है। हीनता का बोझ उसके ऊपर इतना अधिक बढ़ जाता है कि वह उसी बोझ में दब कर मर जाता है, लेकिन इसका उसे कोई पश्चात्ताप नहीं होता। पढ़ने के लिए विद्यालय बने हैं। ज्ञान के लिए किताबें और प्रयोगशालाएं हैं। विचारों के लिए बुद्ध हैं, सुकरात हैं, अरस्तू हैं, कबीर हैं, फुले हैं, मार्क्स हैं, पेरियार हैं और आंबेडकर हैं। दुनिया में एक से एक वैज्ञानिक हैं, चित्रकार हैं, पत्रकार हैं लेकिन एक धार्मिक व्यक्ति के लिए इन सबका कोई मोल नहीं है। उसके बंजर दिमाग को ये लोग कुछ भी नहीं देते। वह इनसे ताउम्र विमुख रहता है। उसे धरती चलती हुई नहीं दिखती। वह बहुत भोला भंडारी होता है। वह सुबह-सुबह ज्ञान और बल प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करता है – जय हनुमान ज्ञान गुण सागर। और लगातार वह लहालोट होता हुआ हनुमान की बड़ाई करता चला जाता है – युग सहस्र योजन पर भानू। लिल्यो ताहि मधुर फल जानू। और भी इत्यादि-इत्यादि।
आदमी का दिमाग इतना पतित हो गया कि वैज्ञानिक कहते हैं लाखों साल पहले आदमी बंदर था और अपनी समझदारी से उसने आदमी होने की योग्यता पाई और दो पांवों पर चलना सीख लिया तथा आगे के पांव को हाथ बना लिया। अपनी पूंछ झाड़ ली। लेकिन धार्मिक व्यक्ति आदमी होने की सारी योग्यता पर मिट्टी डाल कर बंदर को ‘लार्जर दैन लाइव’ मानकर उसके सामने आंसू बहा रहा है। एक ही नहीं दर्जनों तरीके से विगलित हो रहा है।
असल में यह मानसिक रूप से कैद होना ही है। जहां आदमी की अपनी इच्छाशक्ति और आत्मसम्मान खत्म हो जाता है वहीं देवताओं और देवियों का जन्म होता है। इस दृष्टि से देखा जाय तो हिन्दुत्व और ब्राह्मणवाद एक जेल है। एक ऐसी जेल जिसमें वर्णो के दायरे में जाति की मोती दीवारों के बीच मनुष्यों को कैद कर दिया गया है। वहीं से वह अपनी जेल काटने को विवश है। उसे कुछ भी असंतोष नहीं है। जो मिला उसे कानून की तरह स्वीकार लिया। उसी के दायरे में सोचना। अगर किसी ने अतिक्रमण करने की कोशिश की तो उसके खिलाफ हर तरह की कार्रवाई करना। ऑनर किलिंग पर उतर जाना। लेकिन हिन्दुत्व और ब्राह्मणवाद की जेल के इन कैदियों पर जिन्होंने धर्म के नियम थोपे हैं, वे अधिक हिंस्र, बेईमान, क्रूर और षड्यंत्रकारी हैं। उन्होंने इनको हिन्दुत्व की जेल में डाल कर देश की सारी संपदाओं पर अपना अधिकार कर लिया। हर कहीं उन्होंने अपने विशेषाधिकार कायम कर लिए हैं। जो भी लोग उनकी इन बेईमानियों और षडयंत्रों के खिलाफ बोलते हैं उन्हें वे हर संभव ठिकाने लगाते हैं।
दुनिया की हर धार्मिक जेल से अधिक खतरनाक हिन्दुत्व की जेल है, जहां अपने ही धर्म के दायरे में मनुष्यों को उपनिवेश बनाकर उनका अंतहीन शोषण किया गया है। ईसाइयत, इस्लाम और दीगर धर्मों ने अपने विस्तार के लिए बाहर अपने अभियान चलाए लेकिन हिन्दुत्व ने ऐसे किसी अभियान का परिचय नहीं दिया, क्योंकि यहां उसके परजीवियों का पेट भरने के लिए धार्मिक कैदियों की बहुत बड़ी संख्या मौजूद थी। यहां कोई धार्मिक सिद्धान्त भी नहीं था, जिसे लेकर वे कहीं जाते और अन्य जगहों के जनसमुदायों को अपने प्रभाव में लेते। ऐसी कोई जरूरत ही नहीं थी। वे अपनी अय्याशियों में इस कदर डूबे हुये थे कि किसी अभियान के लिए न उनमें साहस था और न ही बल था। इसको हम उस प्रवृत्ति में भी देख सकते हैं जो प्रतिक्रियावाद को जन्म देती है। जिसने मौके पर लड़ाइयां नहीं लड़ी। पीठ दिखा दी लेकिन इतिहास के किसी खास हिस्से को अपने अनुकूल पाकर पुरानी बातों को तोड़-मरोड़ कर एक झूठा नैरेटिव गढ़ता है और निरीह और लाचार लोगों पर बदले की भावना से काम करता है। भारत में वह समय हम आज देख सकते हैं।
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हम देख सकते हैं कि किस तरह उसने धार्मिक कैद को कुछ लचीला और कुछ कठोर बनाते हुये सारे कैदियों को हिंस्र और हत्यारों में तब्दील कर दिया है। इस जेल की हजारों बिखरी कहानियाँ हैं जिनमें बहुजन समाजों की दुर्दशा और हार तो दिखाई देती है, लेकिन ध्यान से देखने पर वे उन कारणों की पड़ताल कर सकते हैं जो उनकी धार्मिक कैद की बुनियाद में हैं। वे उन स्थितियों और षडयंत्रों की बुनावट को जान सकते हैं जो उनके खिलाफ लगातार मजबूत से मजबूततर किए जा रहे हैं। अगर ब्राह्मणवाद मर जाएगा, जाति व्यवस्था समाप्त हो जाएगी तो इसमें से पचास फीसदी कैदी दोषमुक्त हो जाएंगे और पूंजीवाद के बर्बाद हो जाने पर जेलों की जरूरत खत्म हो जाएगी। जिस दिन देश में हराम की खानेवाले न रहेंगे उस दिन जेलों की भी जरूरत नहीं रहेगी। सारी समस्या ही मुट्ठी भर लोगों के विशेषाधिकारों और विशाल जनसंख्या की वंचनाओं से पैदा हुई है।
यहां बात उन जेलों की की जा रही है जो विशाल चारदीवारियों में सिपाहियों के सख्त पहरे में कैदियों की एक भारी आबादी को अपने भीतर समेटे हुये हैं। इस सदी की शुरुआत में प्रसिद्ध कथापत्रिका ‘हंस’ ने दलित विशेषांक निकाला था जिसमें एक डाटा प्रकाशित किया गया था। इसमें फांसी और उम्रकैद पाये लोगों में सर्वाधिक संख्या दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों-मुसलमानों की थी। यानि यहां भी जातिव्यवस्था लागू है। आतंकवाद के नाम पर हजारों मुसलमान वर्षों जेल में रखे गए और जब मुकदमा चला गया तो उनका दोष ही सिद्ध नहीं किया जा सका और उन्हें रिहा करना पड़ा। जो पच्चीस साल की उम्र में जेल भेजा गया वह दस साल बाद बेकसूर रिहा हुआ। उसका सबकुछ लुट चुका था। ज़िंदगी बिखर चुकी थी। परिवार बिखर चुका था। असहाय और लाचार जीवन के साथ जीने को अभिशप्त थे। ये कहानियां अंतहीन हैं। न जाने कितने विचारधीन कैदियों से जेलें भरी हुई हैं और कोई ऐसी तारीख नहीं आती जब वे छूट सकें।
बनारस और आसपास के इलाकों में दलित-वंचित मुसहरों के बीच काम करनेवाले संगठन पीवीसीएचआर ने कई साल पहले मुझे ऐसी दर्जनों टेस्टीमनी का अध्ययन करने और उन्हें संपादित करने का काम दिया जो वर्षों जेल में बिना अपराध के जेल में बंद मुसहरों की दर्दनाक कहानियाँ थीं। अपराध किसी का और उन्हें उठाकर जेल भेज दिया। कई कई संगीन धाराएं लगा दी, कोई सुनवाई नहीं। बाद में मानवाधिकार आयोग के हस्तक्षेप से जब उन्हें अदालत में पेश किया गया तो उनके ऊपर कोई दोष साबित नहीं हो सका। जेल भेजे जाने से पहले हिरासत में यातना देना तो उनके जीवन की आम कहानियाँ थीं। यह अध्ययन किए जाने की बात है कि वास्तव में फिलहाल जेलों में बंद विचारधीन कैदियों की संख्या और दशा क्या है?
अत्यंत संवेदनशील महाकवि मिर्ज़ा गालिब ने जिंदगी को एक कैद के रूप में देखा है। कैद की दीवारें चाहे जितनी भी अदृश्य हों लेकिन कोई भी हस्सास रचनाकार उन्हें देखे बिना कैसे रह सकता है। गालिब की अंतर्दृष्टि अगर जिंदगी को कैद के रूप में देख रही थी तो इसका मतलब यही है कि वे एक सड़ी-गली व्यवस्था में इंसानियत की उस पीड़ा को देख रहे थे जहां आदमी को भी इंसानियत मयस्सर होते नहीं पा रहे थे।
अब नए साहित्य में यह एक अनिवार्य सवाल होना चाहिए कि हमारे दौर में और हमारी पहले की पीढ़ियों को किस तरह कैद में रखा गया। उन्होंने एक जिंदगी बिताते हुए क्या अपराध कर दिये थे? वह कौन सी व्यवस्था है जो उन्हें अपराधी बनाने तक ले जा रही है। किस मजबूरी में वे ऐसे काम करने को विवश कर दिए गए हैं, जिसने उनकी जिंदगी को यहां तक पहुंचा दिया? जो कहानियाँ और तोहमतें उनपर चस्पां हैं वे क्या हैं? अगर पाप से घृणा करना है तो पापी की कहानियों की छानबीन करनी होगी और उसे लिखनी भी पड़ेगी। अगर एमानुएल ओर्तिज ‘एक मिनट के मौन’ बीच एक आततायी व्यवस्था द्वरा मारे गए अंतहीन बेक़सूरों की संख्या को याद कर रहे हैं और रमाशंकर यादव विद्रोही पुलिस और अदालतों को मंसूख करके उन्हें औरतों की अदालत में पेश करने की बात कर रहे हैं तो उनकी बाद के रचनाकारों को भी इस काम को शिद्दत से आगे बढ़ाना चाहिए!
(संपादन : नवल)
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