देश में सत्तासीन भारतीय जानता पार्टी (भाजपा) ने इस बार के विधानसभा चुनाव में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को खास जिम्मेदारी सौंपी है। उन्हें बिहार का प्रभारी बनाया गया है। बिहार में उनकी जिम्मेदारी वहां सवर्ण जातियों को गोलबंद करने की है और भाजपा को विजय दिलाने की है। लेकिन उन्हें अपने गृह राज्य महाराष्ट्र में विद्रोह का समान करना पड़ रहा है। लंबे समय से महाराष्ट्र में भाजपा के कद्दावर ओबीसी नेता रहे एकनाथ खडसे ने अब एनसीपी का दामन थाम लिया है। लेकिन इस राजनीतिक दांव को महज पार्टी बदलना नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में ओबीसी मतदाताओं का भाजपा से खिसकना तय माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने खडसे को अपने खेमे में लाकर भाजपा के ओबीसी तबके के विशाल वोट बैंक में सेंध लगा दी है।
बिहार चुनाव की आपाधापी के बीच खडसे का एनसीपी में चला जाना भले बिहार चुनाव का कोई बड़ा मुद्दा न बन पाए लेकिन इतना तो तय है कि महाराष्ट्र में भाजपा को इससे गहरा धक्का लगा है। गौरतलब है कि खडसे के साथ ओबीसी समुदाय का बड़ा वोट बैंक भी भाजपा के साथ माना जा रहा था, लेकिन भाजपा अब इसको अपने साथ मानने का कोई गुमान नहीं कर सकती। महाराष्ट्र में कारपोरेट से लेकर आरएसएस तक में अपनी गहरी पैठ रखने वाले देवेंद्र फडणवीस बिहार चुनाव पर नजरे गड़ाए बैठे रहे और इधर महाराष्ट्र में पार्टी का एक बड़ा नुकसान हो गया है। भाजपा के लिए यह अप्रत्याशित था क्योंकि उसे उम्मीद नहीं थी कि महाराष्ट्र के इस कोरोनामय माहौल के बीच खडसे इतना बड़ा कदम उठा लेंगे। खडसे ने 40 साल भाजपा को दिए, लेकिन आखिरकार उनका मोहभंग हो ही गया।
महाराष्ट्र में भाजपा को कितना नुकसान?
दरअसल लंबे समय से भाजपा में खडसे की उपेक्षा होने की चर्चा दबी जुबान से हो ही रही थी, लेकिन इस तरह से अचानक वे पार्टी को अलविदा कह देंगे ऐसा तो राजनीतिक विश्लेषक भी नहीं सोच पा रहे थे। खडसे ने जब पार्टी छोड़ने की बाकायदा घोषणा कर दी, तो महाराष्ट्र भाजपा ने तुरंत एक इंटरनल रिपोर्ट दिल्ली भेजी, जिसमें खडसे के पार्टी छोड़ने के परिणामों पर चिंतन है। यह प्राथमिक चिंतन ही दर्शाता है कि महाराष्ट्र भाजपा में कितना खालीपन आ गया है। हालांकि भाजपा की महाराष्ट्र इकाई ने जो रिपोर्ट दिल्ली को रवाना किया है, उसमें कहा गया है कि खडसे के पार्टी छोड़ने से कोई नुकसान पार्टी को नहीं होने जा रहा है, लेकिन इस रिपोर्ट में महाराष्ट्र भाजपा ने इतना जरूर जोड़ा है कि खडसे के अलविदा कहने से भाजपा के ओबीसी मतदाताओं पर थोड़ा सा असर हो सकता है। दरअसल इस थोड़े से असर को ही महाराष्ट्र भाजपा की रीढ़ का टूटना माना जा रहा है। महाराष्ट्र की राजनीति में ओबीसी एक निर्णायक और जागरूक मतदाता माने जाते रहे हैं और इसमें इतना दमखम है कि वह पार्टी को हरा सके या फिर जीत दिला दे। ऐसे में भाजपा भले यह सोच कर निश्चिंत हो ले कि फिलहाल कोई चुनाव नहीं है, लेकिन वोट बैंक खिसकने के कारण इसके दूरगामी परिणामों से कैसे मुंह मोड़ा जा सकता है।
ओबीसी मतदाताओं की ताकत
महाराष्ट्र में भले मराठाओं की राजनीतिक ताकत का बोलबाला रहा हो, लेकिन इसके बाद का नंबर ओबीसी राजनीति को ही देना होगा। यह कहा जा सकता है कि ओबीसी मतदाता राज्य की सत्ता की चाबी अपने पास रखते हैं। महाराष्ट्र में 2019 के चुनाव नतीजे को ही देख लें तो तस्वीर साफ हो जाती है। क्योंकि इस दौरान महाराष्ट्र की सेक्युलर पार्टियां एनसीपी और कांग्रेस को यह लगा कि उससे ओबीसी मतदाता कटते चले जा रहे हैं। एनसीपी में छगन भुजबल और जितेंद्र आव्हाड जैसे जुझारू ओबीसी नेता हैं, इसके बावजूद एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार की नजर ओबीसी वोट बैक बढ़ाने पर टिकी रही है। अब खडसे के एनसीपी में आने को शरद पवार की एक दूरदृष्टि वाली राजनीति ही मानी जा रही है।
फडणवीस पर उठते सवाल
नरेंद्र मोदी के 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद से ही फडणवीस भी महाराष्ट्र भाजपा के सर्वेसर्वा दिखाई देने लगे और मुख्यमंत्री भी बने, लेकिन पिछले विधान सभा चुनाव में कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना का राजनीतिक तालमेल उनपर भारी पड़ा और वे सत्ता में वापसी करने से चूक गए। बस यहीं से फडणवीस के खिलाफ पार्टी में आवाजें उठती सुनाई देने लगी। ओबीसी नेता पंकजा मुंडे ने विरोध का बिगुल फूंक दिया। हालांकि खडसे फडणवीस के साथ बने रहे। परंतु विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद सत्ता से बाहर होने के बाद उनकी पार्टी के अंदर उनका विरोध जमीन पर दिखाई देने लगा है।
खुल कर बोल रहे खडसे
खडसे खुलकर भाजपा की तानाशाही नीतियों का भंडाफोड़ कर रहे हैं। एनसीपी में शामिल होने से पहले या बाद में उन्होंने खुलकर फडणवीस पर निशाना साधा है। उन्होंने कहा कि फडणवीस के निर्देश पर पुलिस ने मेरे खिलाफ एक महिला सामाजिक कार्यकर्ता की छेड़खानी वाली शिकायत दर्ज की थी। खडसे ने कहा है कि मैं मुंबई में नहीं था, फिर भी मेरे खिलाफ वहां प्राथमिकी दर्ज की गई और अपने इतने बड़े राजनीतिक कैरियर में मैंने आजतक इतनी गंदी राजनीति नहीं देखी है। उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा अगर मेरे पीछे ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) भेजेगी तो मैं सीडी चला दूंगा। यह माना जा रहा है कि फडणवीस सहित भाजपा के खिलाफ जितना भी खडसे बोलेंगे, ओबीसी वोटर्स उतने ही भाजपा से दूर होते चले जाएंगे।
कहां- कहां लगेगी भाजपा के गढ़ में सेंध
खडसे के पार्टी छोड़ने से महाराष्ट्र में कई जगहों पर भाजपा के ओबीसी वोट बैंक वाले मजबूत इलाके पर उसकी पकड़ ढीली पड़ सकती है। जलगांव को भाजपा का गढ़ कहा जाता था, लेकिन अब वह खडसे के साथ ही एनसीपी के गढ़ में तब्दील हो सकता है। इसके अलावा उत्तर महाराष्ट्र के वोट बैंक भी भाजपा से फिसलकर एनसीपी में जाने की पूरी संभावना है। इसके अलावा नांदुरबार, धुले जिले में भी खडसे के कारण ओबीसी वोटर्स अब एनसीपी को मजबूती प्रदान कर सकते हैं।
भाजपा में लंबी पारी खेलने के अब सेक्युलर राजनीति
महाराष्ट्र भाजपा में चार दशक तक राजनीति करने के बाद खडसे अब सेक्युलर राजनीति की तरफ मुड़ गए हैं। जलगांव के कोठली गांव में दो सितंबर 1952 को जन्में इस दिग्गज ओबीसी नेता वर्ष 1991 से मुक्ताईनगर विधानसभा सीट से पिछले चुनाव तक लगातार जीतते रहे। वर्ष 1995-1999 के बीच शिवसेना-भाजपा सरकार में वह पहले वित्त मंत्री रहे और बाद में सिंचाई मंत्री बने। वहीं वर्ष 2014 में उन्हें राजस्व मंत्री बनाया गया। इसके पहले 2009-2014 के दौरान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे व उस समय सीएम पद के प्रबल दावेदार थे।
वर्ष 2014 में ही जब वे राजस्व मंत्री थे, जमीन के मामले में उन पर लगे आरोप के कारण 2016 में उन्होंने राजस्व मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद 2019 के विधानसभा चुनाव में जब खडसे को भाजपा ने उम्मीदवार नहीं बनाया, तो वे चुप नहीं बैठे। वे फडणवीस की नीतियों के खिलाफ जमकर बोलते रहे हैं।
(संपादन : नवल/अनिल)
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