हाथरस, उत्तर प्रदेश की बेटी मनीषा के साथ हुई दरिंदगी की घटना से मैं बेहद सदमे में हूं। आखिर क्या कारण है कि लड़कियों के साथ बलात्कार की घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं? आखिर क्या कारण है कि कानून का डर समाप्त हो गया है? और आखिर क्या कारण है कि सत्तर साल में भी भारत का लोकतंत्र दलित जातियों को आत्मनिर्भर नहीं बना सका? क्यों वे आज भी स्वतंत्रता महसूस नहीं करते, क्यों वे आज भी कमजोर वर्ग बने हुए हैं?
मनीषा कांड उतना ही वीभत्स है, जितना निर्भया कांड था। पर निर्भया दलित नहीं थी, सवर्ण थी, इसलिए उसके साथ जनता, डाक्टरों और सरकार का रवैया भी सहयोग का था। परन्तु मनीषा सवर्ण नहीं थी, दलित में भी महादलित मेहतर जाति से थी, जो आज वाल्मीकि कहा जाता है। दलित के साथ-साथ वह गरीब परिवार से भी आती थी। इसलिए उसे और उसके परिवार दोनों को उपेक्षित किया गया।
यह वारदात 14 सितंबर, 2020 की, उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले के चंदपा थाने के बूलगढ़ी गांव की है। करीब बीस साल की मनीषा अपनी मां के साथ जानवरों के लिए चारा लाने के लिए खेतों में गई थी। वहां ठाकुर जाति के चार युवकों ने मां के सामने ही मनीषा को खींच लिया। उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया, और पूरी नृशंसता से उसकी गर्दन तोड़ी और जीभ काटकर उसे मरा समझकर छोड़कर भाग गए। वे इसे दलित के प्रति अपनी नफरत ही नहीं दिखा रहे थे, बल्कि इस क्रूरता को अपना जन्मसिद्ध अधिकार भी समझ रहे थे।
उसी दिन खून से लथपथ मनीषा को गंभीर हालत में जिला अस्पताल ले जाया गया। किन्तु वहां से उसे नाजुक अवस्था में ही मेडिकल कालेज अलीगढ़ भेज दिया गया। वहां वह 14 दिन रही, पर कोई सही उपचार नहीं किया गया। हालत बिगड़ने पर उसे 28 सितम्बर को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल भेज दिया गया, जहां ऑक्सीजन की कमी से, 29 सितम्बर की सुबह उसने दम तोड़ दिया। कहा जाता है कि परिवार वाले उसे एम्स लेकर भी गए थे, पर वहां उसे भर्ती ही नहीं किया गया, कह दिया, सफदरजंग ले जाओ। कहना न होगा कि अगर उसे समय पर और सही इलाज मिल जाता, तो उसे बचाया जा सकता था। किन्तु कैसे मिलता। यह तो वह देश है, जहां सिर्फ मंत्रियों को ही समय पर और सही इलाज मिलता है। मनीषा न तो ‘माननीय’ सांसद थी और न मंत्री। वह तो गरीब परिवार की अत्यंत साधारण लड़की थी, और वह भी दलित।
इस पूरे मामले में पुलिस और प्रशासन की भूमिका बेहद शर्मनाक रही। पहले तो पुलिस ने रिपोर्ट ही दर्ज नहीं की, और परिवार वालों को धमकाती रही। वह बलात्कार की घटना से इनकार करती रही। जब रिपोर्ट लिखी गई, तो जानलेवा हमले की रिपोर्ट लिखी गई, जब मनीषा ने दुष्कर्म का बयान दिया, तो उसमें छेड़छाड़ की धारा 354 जोड़ी गई। पहला आरोपी भी पांच दिन के बाद 19 सितंबर को गिरफ्तार किया गया। उसके भी कई दिन बाद अन्य तीन आरोपी गिरफ्तार किए गए। ये गिरफ्तारियां सामाजिक दबाव की वजह से हुईं। अगर सामाजिक दबाव नहीं होता, तो शायद ही ये गिरफ्तारियां अभी होतीं!
लेकिन मनीषा की मौत के बाद जो अत्याचार उसके परिवार वालों पर दिल्ली में पुलिस ने किया, वह तो ऐसा अत्याचार है, जिसकी जितनी भी निंदा की जाए, कम है। ऐसा अमानवीय व्यवहार निर्भया के परिवार के साथ भी नहीं हुआ था। पुलिस के अधिकारियों ने मनीषा की लाश को उसके परिवार वालों को न सौंपकर उसे अपने कब्जे में ले लिया और रात के अंधेरे में ही परिवार के लोगों की मर्जी के बिना ही उसको जला दिया। इसे जलाना ही कहा जाएगा, अंतिम संस्कार करना नहीं। मनीषा की मां रोती-गिड़गिड़ाती रही, कि वह अपनी बेटी का अंतिम संस्कार अपने रिवाज के अनुसार करेगी। वह उसे अपने घर ले जाना चाहती थी। पर पुलिस पत्थर बनी रही। यही नहीं, उसने उसके भाई और अन्य परिजनों को भी धक्का देकर नीचे धकेल दिया, जो उस गाड़ी को घेरे हुए थे, जिसमें पुलिस मनीषा की लाश को ले जा रही थी। एक पुलिस अधिकारी तो उन्हें धक्का देने के बाद पूरी निर्लज्जता से हंस रहा था, संभवत: वह अपनी उच्च जाति का दम्भ दिखा रहा था।
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पुलिस कह रही है कि उसने परिवार की मर्जी से ही अंतिम संस्कार किया है, जबकि परिवार वाले साफ मना कर रहे हैं। मां तो रो-रोकर कह रही थी कि अगर पुलिस वालों की अपनी बेटी होती, तो क्या वे उसके साथ भी यही अत्याचार करते? इसका साफ़ मतलब है कि पुलिस सफ़ेद झूठ बोल रही है। वहां का डीएम भी सवर्ण है, जो झूठ बोल रहा है कि परिवार की मर्जी से पुलिस ने संस्कार किया है। जिस संस्कार में परिवार वाले शामिल नहीं, उसे संस्कार कैसे कहा जा सकता है? मनीषा की मां! यह भारत है, जहां ब्राह्मण, ठाकुर और अन्य सवर्णों का एकछत्र राज चलता है, बाकी लोगों को यहां दबकर रहने के लिए मजबूर किया जाता है। यहां आपकी बेटी के लिए सामंती मानसिकता वाला कोई सवर्ण, कोई ब्राह्मण और कोई ठाकुर रोने वाला नहीं है, क्योंकि वे हजारों साल से दलितों के साथ यही जुल्म करते आए हैं। यह अमेरिका नहीं है, जहां काले की हत्या पर गोरे भी सड़कों पर उतर आते हैं।
पुलिस ने तो यहां तक झूठ बोला, और डाक्टरों से भी झूठ बुलवाया कि उसकी जीभ नहीं काटी गई थी? जबकि उसकी मां खुले आम मीडिया के सामने कह रही थी कि पुलिस झूठ बोल रही है। अगर उसकी जीभ नहीं काटी गई थी, तो उसका चेहरा क्यों नहीं दिखाया गया? क्यों रात में ही मीडिया और लोगों से बचाकर ले गए?
खबर है कि उत्तर प्रदेश में ठाकुर आदित्यनाथ योगी की सरकार ने घटना की जांच के लिए तीन सदस्यों की एक समिति बना दी है, जो सात दिन में अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। चूंकि यह समिति सरकारी है, और सरकार के भावना के अनुसार काम करेगी, इसलिए उस पर ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता। क्यों नहीं, इस कांड की जाँच सीबीआई को सौंपी गई? क्या आदित्यनाथ योगी अपने ठाकुर लोगों पर अंकुश लगाने का भी काम करेगी, जो दलितों की अस्मिता का दमन करने में अमानवीयता की सारी हदें पार करते जा रहे हैं? क्या वह बताएंगे कि दलित और कमजोर वर्गों के लिए स्वतंत्र और भयमुक्त वातावरण बनाने की दिशा में अपनी ठाकुर वर्चस्व वाली पुलिस को सुधारेंगे या उसे इसी तरह निरंकुश बने रहने देंगे?
हाथरस की लड़की मनीषा उस समुदाय से आती है, जिसे भारतीय जनता पार्टी की विभाजनकारी राजनीति ने महादलित की श्रेणी में रखा है। निस्संदेह मेहतर जाति, जिसका एक नाम आज वाल्मीकि भी है, दलितों में दलित और अछूतों में भी अछूत है। पर, भाजपा ने उसे महादलित की राजनीतिक श्रेणी में उसका आर्थिक विकास करने के लिए नहीं, बल्कि, जाटव और चमार जाति से उसे अलग-थलग करने के लिए रखा है, ताकि वह उनसे दूर रहे, और उनकी आंबेडकरवादी चेतना के प्रभाव में न आ सके। इसका दुखद परिणाम यह हुआ कि वाल्मीकि समुदाय को हिंदुत्व से जोड़कर यथास्थिति में रखने की सरकार की योजना सफल हो गई। उत्तर प्रदेश का वाल्मीकि समुदाय आज पूरी तरह से भाजपा के साथ खड़ा हुआ है, और उसके भाजपाई नेता जाटव और चमारों के खिलाफ उसी तरह उन्हें नफरत से भर रहे हैं, जैसे आरएसएस और भाजपा मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं में नफरत भर रहे हैं।
आज वक्त की जरूरत है कि वाल्मीकि समाज डाॅ. आंबेडकर की विचारधारा से जुड़े, सफाई के कार्य छोड़कर दूसरे व्यवसायों को अपनाए, और अपने बच्चों को शिक्षित बनाए। वे जहां तक हो सके, उन गांवों में रहना छोड़ दें, जहां उन्हें सवर्णों की दबंगई के बीच दबकर रहना पड़ रहा है। उन्हें शहरों में बस जाना चाहिए, क्योंकि शहरों में गांवों की अपेक्षा ज्यादा स्वतंत्रता और सुरक्षा मौजूद है।
(संपादन : नवल)
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