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बिहार चुनाव : जानें कैसे, बिजली मजदूर संजय सहनी बन गए विधायक उम्मीदवार?

इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव युवामय हो गया है। दलित-बहुजन जातियाें के युवा राजनीतिक हिस्सेदारी के लिए मैदान में हैं। इनमें एक संजय सहनी भी हैं जो मुजफ्फरपुर के कुढ़नी विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार हैं। ये बहुत खास हैं। खास इसलिए कि ज्यां द्रेज, अरूंधति राय और निखिल डे जैसे देश भर के सामाजिक कार्यकर्ता इनके लिए चुनाव प्रचार में लगे हैं। बिजली मजदूर से विधायक उम्मीदवार बनने की कहानी बता रही हैं सीटू तिवारी

साल 2018 की दिसंबर की सर्दियों में मशहुर अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और सूचना अधिकार कार्यकर्ता निखिल डे बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के एक प्रदर्शन में शामिल होने आए थे। ये प्रदर्शन जिले के एक बिजली मजदूर की गिरफ्तारी को लेकर था। वो मजदूर थे संजय सहनी। लगभग डेढ़ साल बाद वहीं अति पिछड़ा वर्ग के संजय सहनी मुजफ्फरपुर की कुढ़नी विधानसभा में निर्दलीय उम्मीदवार हैं।

संजय सहनी, 39 साल के एक मजदूर जिसका जीवन किसी फिल्मी पटकथा जैसा लगता है। कुढ़नी के रतनौली गांव का सातवीं कक्षा में पढ़ने वाला ये लड़का साल 2002 में कमाने के लिए दिल्ली चला गया। साल मे एक या दो बार घर लौटते तो  गांव के गरीबों की बदहाल स्थिति देखते। दिल्ली जाने के लगभग 10 साल बाद जनवरी 2012 मे वो घर वापस आए तो एक बुजुर्ग महिला की बात संजय के मन में अटक गई।

संजय सहनी ने फारवर्ड प्रेस से बात करते हुए कहा, “गांव वाले कहते थे कि मनरेगा में बहुत भ्रष्टाचार है और बूढ़ी दादी कहती थी कि अंगूठा लगाने पर भी पैसा नहीं मिलता है।”

माउस की क्लिक

संजय सहनी अपना छोटा सा खोखा दिल्ली के जनकपुरी में लगाते थे। खोखे पर उनका नंबर लिखा था जिसपर लोग उनसे संपर्क करते और उनका काम बढ़िया चल निकला। खोखे के सामने ही एक सरदार जी का साइबर कैफे था जिसमें रात होने पर संजय अपना बिजली मजदूरी का सामान रखते थे। चूंकि साइबर कैफे में लगातार आना जाना बना रहता था, इसलिए इंटरनेट और गूगल के संसार से भी थोड़ा बहुत वाकिफ हो गए थे।

जनवरी 2012 में जब वो दिल्ली वापस काम पर लौटे तो उन्होने कंप्यूटर पर मनरेगा, गांव का नाम ढूंढना शुरू किया। संजय बताते है, “सातवीं तक पढ़े थे तो अंग्रेजी में कम से कम नाम लिख लेते थे। जब मैं सिस्टम पर बैठकर काम करने लगा तो सरदार जी ने हटने को कहा। लेकिन मैं उसकी बात को अनसुना करके अपना काम करता रहा। गांव का नाम, मनरेगा, अपने जिले का नाम डाला। मैं चकित था कि ये सब डालने पर मुझे गांव के कई लोगों के नाम मिले। हिन्दी में जब वो जानकारी मिली तो मालूम चला कि उनके नाम पर पैसे की निकासी की गई थी। मैंने सरदार जी से मान मुन्नवल करके उन कागजों का प्रिंट आउट निकलवा लिया।” 

जहां बिजली ठीक करने जाते, वहीं पूछते

संजय बताते है कि उसके बाद वो जहां कहीं भी बिजली दुरूस्त करने जाते, प्रिंट आउट साथ लेकर जाते। संजय सभी से पूछते लेकिन किसी के पास कोई ठोस जवाब नहीं था। उन्हें अब तक सिर्फ इतना मालूम चला था कि ये मनरेगा का कागज है। संजय ने फिर से मनरेगा को गूगल पर सर्च किया और अबकी बार उन्हें मोबाइल नंबर मिले।

संजय बताते है, “हमने मोबाइल नंबर पर संपर्क करना शुरू किया तो हमको निखिल डे का नंबर मिला। उनसे दो तीन बार बात हुई तो उन्होने मुझे अपने दिल्ली स्थित घर पर बुला लिया। उनसे मिला तो उन्होने बताया कि ये मस्टर रोल है और हमारे गांव के लोगों को जो रकम अदा की गई, उसकी सूची।”

एक उम्मीदवार ऐसे भी : चुनाव प्रचार करते संजय सहनी

संजय ने गांव फोन किया तो मालूम चला कि कोई पैसा नहीं मिला है। जिसके बाद उन्होने गांव जाने का फैसला लिया। इधर निखिल डे ने पटना में विभाग के उच्च अधिकारियों को फोन करके जांच की मांग की। संजय वापस पटना लौटे और उच्च अधिकारी से मिले तो उन्होने फोन पर ही जांच के आदेश दे दिए।

गांव को बर्बाद कर दिया लड़के ने

इस बीच फरवरी 2012 में संजय गांव पहुंचे तो वहां हंगामा मच गया। जांच के लिए अधिकारियों का गांव में आना-जाना शुरू हो गया था, जिसके बाद गांव भर के लोग आकर घर पर हंगामा करने लगे। वो कहते थे, “इस लड़के ने गांव को बर्बाद कर दिया। ये कुछ गलत काम करके आया है, जिसकी वजह ये सरकारी बाबू रोज आते है।” गांव के तत्कालीन मुखिया राज कुमार सहनी ने गांव के लोगों को भड़काना शुरू किया जिसके बाद दबाव मे आकर संजय सहनी दिल्ली वापस लौट गए।

संजय बताते है, “हम वापस तो लौट आए लेकिन इतना समझ गए थे कि इन कागजों में कुछ बड़ी बात है। फिर से निखिल डे को फोन किया तो मालूम चला कि सोशल ऑडिट की तारीख तय हो गई है। जिसपर हम फिर गांव लौटे। जांच के दौरान हंगामा हो गया, तो निखिल डे ने हमको बताया कि हम मजदूरी चाहने वालों की हस्ताक्षर के साथ आवेदन लिखे और काम मांगें।”

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संजय ने किसी तरह से लोगों को समझाया कि काम मिलेगा जिसके बाद बारह लोगों के हस्ताक्षर के साथ एक आवेदन तैयार किया गया। लेकिन संजय के मुताबिक उसी रात, स्थानीय पुलिस ने आकर उन्हें डराया-धमकाया और आवेदन फाड़ दिया। बाद में पटना के उच्च अधिकारियो के हस्तक्षेप के बाद फिर से आवेदन तैयार करके ब्लॉक ऑफिस भेजा गया।

पहली बार महिलाओं ने देखें तीन हजार रूपए 

आवेदन देने के सात दिन के भीतर पहली बार 12 लोगों को काम मिला। इस तरह एक महीने में 400 मजदूरों ने गांव के ही पास स्थित शमशान घाट में मिट्टी भराई का काम किया। लेकिन इस बीच मुखिया गांव के लोगों को ये कहते रहते थे कि, काम करोगे, लेकिन पैसा नहीं मिलेगा। इस बीच होली का त्यौहार भी निकट था और मजदूरों को अपनी मजदूरी चाहिए थी।

संजय  बताते है, “हम सब ब्लॉक ऑफिस गए तो वहां पर कहा गया कि 20 रूपए रोजाना की मजदूरी मिलेगी। इस पर सब मजदूर आक्रोशित हो गए और एक दिन सुबह से रात तक अपना फावड़ा, कुदाल आदि लेकर ब्लॉक ऑफिस में धरने पर बैठ गए। देर शाम जब ब्लॉक ऑफिस में काम करने वालों को हमने घर नहीं जाने दिया। तब जाकर ब्लॉक ऑफिस वालों ने ये लिखकर दिया कि दो से तीन दिन के अंदर हमें रोजाना के 144 रूपए के हिसाब से मजदूरी मिल जाएगी। उसके बाद तो गांव वालों ने गोदी उठा लिया, महिलाओं ने गाना शुरू कर दिया। उन्होने तीन हजार रूपए एक साथ पहली बार देखे थे।”

‘संगठन’ : आखिर क्या बला है ये?

संजय सहनी इस बीच निखिल डे के साथ लगातार संपर्क में रहे। निखिल डे ने संजय सहनी को दिल्ली में पेंशन परिषद के जंतर मंतर पर होने वाले प्रदर्शन के लिए बुलाया। संजय सहनी प्रदर्शन में जाने के लिए तैयार हो गए। लेकिन जैसे ही गांव वालों को ये भनक लगी कि वो फिर से दिल्ली वापस जा रहे है, तो वो बेचैन हो गए। उन्हें लगता था कि संजय वापस नहीं लौटेंगें।

संजय बताते है, “बेचैनी इतनी ज्यादा थी कि 150 महिला-पुरूष हमारे साथ दिल्ली गए। वहां हमने देखा कि लोग रंग बिरंगे झंडे पकड़े है जिन पर एक जैसा कुछ लिखा है। ज्यां द्रेज से मिले तो मालूम चला कि इन सबका अपना संगठन है और हम लोगों को भी अपना संगठन तैयार करना चाहिए।”

संजय सहनी और उनके मजदूर साथी गांव वापस लौटे तो बैठक हुई। तय हुआ कि 10 मीटर सफेद कपड़ा खरीदा जाएगा और उसके झंडे तैयार होंगें। सफेद कपड़े को काट तो दिया गया, लेकिन उस पर लिखा क्या जाए, यह एक अहम सवाल था। बैठक में प्रस्ताव आया कि ‘बिहार मनरेगा’ लिखा जाए। बाद में इसी संगठन का नाम बदलते बदलते मनरेगा वॉच हुआ। 

राशन के लिए हुआ अगला संघर्ष

इस बीच गांव के जन वितरण प्रणाली दुकानदार राशन कार्ड धारकों को आधा राशन दे रहा था। मनरेगा वॉच संगठन के लोगों ने उन्हें समझाया, लेकिन जब वो नहीं माने तो संगठन ने मुजफ्फरपुर के कलेक्ट्रियट दफ्तर पर धरना दिया। एक दिवसीय इस धरने से बात नहीं बनी तो संगठन के सदस्यों ने 12 दिन तक अनिश्चितकालीन धरना दिया।

बकौल संजय, “सभी लोग अपने घर से खाने पीने का सामान लाए और धरने पर बैठ गए। हम लोग इस बात पर अड़ गए कि पी डी एस डीलर को बर्खास्त करो। सरकार ये बात मान गई लेकिन राशन की दुकान हमारे गांव से बहुत दूर भेज दी। हम लोग फिर धरने पर बैठ गए जिसके बाद राशन दुकान हमारे गांव में आ गई।”

इस बीच अलग अलग समस्याओं पर काम करने के लिए रतनौली गांव और आसपास के लोगों ने समाज परिवर्तन शक्ति संगठन बनाया। इस संगठन ने पूरे लॉकडाउन के दौरान मुसीबत में फंसे 36 हजार से ज्यादा मजदूरों की मदद की।

कुढनी विधानसभा : एक नजर

रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे पर काम करने की इच्छा रखने वाले संजय सहनी का ये पहला चुनाव है। वो बताते है कि मजदूर भाई-बहनों के जब दबाव बनाया तो वो इस शर्त पर चुनाव लड़ने के लिए राजी हो गए कि वो निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे। मशहुर अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज संजय सहनी का चुनाव प्रचार कर रहे है तो मशहुर लेखिका अरूंधति रॉय क्राउड फंडिंग के माध्यम के जरिए उनकी मदद कर रही है।

सामान्य वर्ग से आने वाली इस सीट से भाजपा के केदार प्रसाद गुप्ता मौजूदा विधायक है। उन्होने 2015 के चुनाव में जेडीयू के मनोज कुमार सिंह को हराया था। 2011 की जनगणना के मुताबिक पूर्णतया ग्रामीण आबादी वाले इस विधानसभा क्षेत्र में तीसरे चरण यानी 7 नवंबर को चुनाव होना है। बीजेपी ने इस बार फिर से केदार प्रसाद गुप्ता को ही अपना उम्मीदवार बनाया है तो महागठबंधन से राजद ने अनिल कुमार सहनी को टिकट दिया है। 

आधा दर्जन से ज्यादा एफ आई आर

सिस्टम के खिलाफ लगातार काम करने के चलते संजय के ऊपर आधा दर्जन से ज्यादा एफ आई आर है। संजय बताते है, “मेरे ऊपर और मेरे साथ काम करने वालों पर प्रशासन लगातार एफ आई आर करता रहा, जिसके चलते संगठन में टूट भी कई मौको पर आई। लेकिन किसी भी विपरीत परिस्थिति में सत्तर से 80 महिलाएं हमेशा मेरे पक्ष में खड़ी रही।”

यहीं वजह है कि करोड़पति उम्मीदवारों के बीच जब संजय सहनी अपना प्रचार प्रसार करते है तो उसमें महिलाओं की तादाद अच्छी खासी होती है। ऑटो, बाइक, पैदल प्रचार करने निकले संजय छोटे छोटे समूह को संबोधित करते है, जिसमें पहले महिलाएं गीत गाती है। महिलाएं गीत से मतदाताओं को किसी लालच में नहीं पड़कर काम करने वाले उम्मीदवार संजय सहनी को जिताने की अपील करती हैं।

दो बच्चों के पिता संजय से मैने पूछा कि इस आठ साल की जोखिम भरी यात्रा में आपको डर नहीं लगा? अपनी या अपने परिवार के जीवन का डर?  उन्होने बहुत सरलता से जवाब दिया, “मैं किसी जानवर की तरह अपने बच्चों को बचा रहा हूं। हम लोग कभी इधर-कभी उधर भागते रहते है। क्योंकि एक वर्ग मेरी जिंदगी को खत्म करना चाहता है। लेकिन मैं अपने लोगों के लिए लगातार लड़ना चाहता हूं। अबकी बार भी लड़ाई नेता वर्सेज मजदूर की है।”

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

सीटू तिवारी

लेखिका पटना में वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं तथा विभिन्न न्यूज चैनलों, रेडियो व पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन में सक्रिय हैं।

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